मौत का डर कैसे दूर करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मौत का डर कैसे दूर करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता कह रहे हैं, 'व्हाई डू वी हैव टू डाई? ' बीकॉज यू आर बॉर्न। पैदा नहीं होते तो मरना भी नहीं पड़ता। जिन्हें मरना न हो, वो कृपा करके पैदा न हों। जानने वाले समझा गए, कहते हैं, जन्म लिया तो मरेगा। तो कहते हैं, तुम जन्म लो ही मत। और वो इस बात को बहुत आगे तक ले जाते हैं, वो कहते हैं, सत्य अजन्मा है इसलिए अमर है। चूँकि उसका कभी जन्म नहीं होता, इसलिए उसकी कभी मृत्यु भी नहीं है। जिसने जन्म लिया वो मृत्यु को ज़रूर प्राप्त होगा।

और हम तो मानते ही हैं अपने को जन्मा हुआ। जन्मा हुआ माने क्या? जन्मा हुआ माने जिसकी कहानी किसी एक दिन से शुरू हुई हो। आप कहते हो न, 'अमुक दिन मैं पैदा हुआ, ये रहा मेरा जन्मदिवस।' जो कोई जन्मदिवस मनाता है वो मौत के खौफ़ में जी रहा है, समझ लो। क्योंकि जो जन्म ले रहा है वह वो है जिसका काउंटडाउन (उल्टी गिनती) शुरू हो चुका है। गर्भ से बाहर आये नहीं कि टिक-टिक-टिक घड़ी शुरू हो जाती है।

जो कोई अपनेआप को शरीर मानेगा — शरीर का ही जन्म होता है न, गर्भ से शरीर ही तो जन्मता है — जो कोई अपनेआप को शरीर मानेगा, वो निरंतर मृत्यु के भय में जिएगा। तो समझाने वालेंसमझा गये कि अपनेआप को देह मानो मत, देहाभिमान में जीना भय को आमंत्रण है।

अध्यात्म यूँ ही नहीं होता कि करने को कुछ नहीं था तो उठा के शास्त्र पढ़ने लग गए। अध्यात्म इसलिए होता है ताकि ज़िन्दगी नर्क न बने। अध्यात्म उन्होंने दिया, शास्त्र उन्होंने रचे, जो जीवन को पूरी तरह जीने के आकांक्षी थे। अध्यात्म किसी परलोक के स्वर्ग की बात नहीं है; अध्यात्म इसी ज़िन्दगी में विजेता होने की बात है। तो इसलिए उन्होंने कहा कि जानो कि आत्मा हो तुम, देह नहीं।

और जो कोई आत्मभाव में नहीं जी रहा, वो मृत्युभाव में जिएगा। जो कोई आत्मभाव में नहीं जी रहा वो अपनेआप को मरणधर्मा जानेगा और संसार को मृत्युलोक। अब बताओ, ये दुनिया तुम्हारे किस काम की अगर ये मृत्युलोक है? तुम अगर शरीर हो तो तुम मरणधर्मा हुए, क्योंकि शरीर जन्मा है तो मरेगा। और अगर तुम मरणधर्मा हो तो संसार मृत्युलोक है। और फिर तुम कहते हो, ‘दुनिया में बहुत कुछ हासिल करना है।' दुनिया में अगर मौत-ही-मौत है, तो फिर हासिल क्या करना है?

क्या कमा रहे हो दुनिया में? तिजोरी में मौत ही भर रहे होगे और ज़्यादा। जिन्हें तिजोरी में मौत नहीं भरनी, उन्हें अपनेआप को आत्मा जानना पड़ेगा। और ये कोई मान्यता की, बिलीफ़ की बात नहीं होती; ये बड़ी गहरी और ईमानदार ख़ोज की बात होती है। ये कोई शगल नहीं है, हॉबी नहीं है, टाइम पास नहीं है; ये इंसान की गहरी-से-गहरी, पहली-से-पहली और अनिवार्य ज़रूरत है।

आपको कोई चुनाव नहीं उपलब्ध है कि 'देखिए साहब, स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) में तो मेरा इंटरेस्ट नहीं है।' तो फिर जीने में भी इंटरेस्ट नहीं होगा! क्योंकि जो आध्यात्मिक नहीं है, उसने मृत्यु का चुनाव कर लिया। जिसे जीवन का चुनाव करना है उसे आध्यात्मिक होना ही पड़ेगा। चुनाव नहीं है यहाँ पर, बाध्यता है, कंपल्सन है।

अगर चाह रहे हो कि अपनेआप को जन्मा तो मानते रहे, पर मृत्यु कभी न हो, तो बड़ी असम्भव माँग कर रहे हो, वो माँग पूरी नहीं होगी। बेहतर ये है कि वो माँग करो जो पूरी हो सकती है। समझ माँगो, मिलेगी। बोध माँगो, मिलेगा। प्रकाश माँगो, मिलेगा; पर अपनेआप को देह मानते-मानते अमरता माँगोगे तो नहीं मिलेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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