मोटिवेशनल स्पीकर्स और गुरुओं का जंजाल

Acharya Prashant

16 min
118 reads
मोटिवेशनल स्पीकर्स और गुरुओं का जंजाल

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। यूट्यूब है, और यूट्यूब पर कितनी ही कोशिश करें, कितने ही वक्ता, प्रवक्ता, कथावाचक, मोटिवेशनल स्पीकर्स सामने पड़ ही जाते हैं। कई सारे लोग हैं जो 'जीवन में काबिल कैसे बनें', 'सफल कैसे बनें' इन सब विषयों पर बहुत बाते करते हैं। उनको सुनकर लगता है कि, हाँ, मन का एक कोण है जो इनको सुनने में भी रस पा रहा है, उसको अभी भी यह विश्वास है कि इनको सुनूँगा तो शायद सफल, सार्थक, काबिल हो ही जाऊँ। पर उनमें राम नहीं दिखते, अध्यात्म की झलक बिलकुल नहीं दिखती। जब आपको सुनता हूँ तो सर्वत्र हर वीडियो में राम ही मौजूद पाता हूँ। क्या मुझे उनको सुनना त्याग देना चाहिए? क्या मन का वो जो कोण है जो सफलता और काबिलियत के पीछे भाग रहा है उसको किनारे कर देना चाहिए, और राम में ही डूब जाना चाहिए? इस विषय पर कृपया मुझे स्पष्टता दें।

आचार्य प्रशांत: स्पष्टता क्या दें। दुनिया में हर तरह के व्यंजन मौजूद हैं। कोई भी खाद्य सामग्री अपने-आपमें सही या गलत तो होती नहीं न। वो तो निर्भर इस पर करता है कि खाने वाला कौन है।

पहले मन कागा था, करता आतम घात। अब मनवा हंसा भया, मोती चुन-चुन खात।। ~गुरु कबीर

तो विष्ठा भी है और मोती भी है। न टट्टी में अपने-आपमें कोई बुराई है, न मोती में अपने-आपमें कोई अच्छाई है। निर्भर इस पर करता है कि तुम कौन हो। तुम कौवे हो तो मोती का करोगे क्या? और हंस हो गए अगर तुम, तो विष्ठा की तरफ तुम्हारी दृष्टि जाएगी ही नहीं।

भाई तुमने बात की तमाम तरह के वक्ताओं की और ये सब। बहुत लोग हैं जो उनको सुन रहे हैं। कुछ उनको मज़ा आता होगा, कुछ लाभ दिखता होगा तभी सुन रहे हैं न? तुम अगर उनमें से एक हो जिन्हें अभी वहाँ पर लाभ दिखता है, तो उनको सुनते रहो। कुछ होता होगा लाभ भाई।

दूसरी कक्षा की भी पाठ्य पुस्तिका होती है, छठी की भी होती है, दसवीं के बोर्ड की भी होती है, फिर स्नातक-स्नातकोत्तर, तमाम तरह की किताबें होती हैं। अब वो तो निर्भर करता है कि तुम आतंरिक रूप से कितने परिपक्व हुए हो। आतंरिक रूप से अगर अभी तुम दूसरी ही कक्षा के छात्र हो, तो तुमको दूसरी कक्षा लायक सामग्री ही पढ़नी चाहिए। और ज़्यादातर लोग शरीर से बढ़ जाते हैं भीतर से बढ़ते नहीं, इसी से फिर समझ लो कि ज़्यादातर लोग किस तरह की सामग्री का भोग करते हैं।

अगर बाज़ार में दूसरी कक्षा की भी किताब उपलब्ध है और पीएचडी की भी, और जानते हो तुम कि समाज में ज़्यादातर लोग भीतर से दूसरी-चौथी की अवस्था से आगे बढ़ ही नहीं पाते, तो तुम खुद ही समझ जाओगे कि ज़्यादा बिक्री किन किताबों की हो रही होगी। किन किताबों की? वो जो दूसरी किताबें हैं वही बिक रही होंगी क्योंकि उन्हीं से लाभ हो रहा है भाई। बहुत दुर्भाग्य की बात है कि उन्हीं से लाभ हो रहा है, लेकिन ये बात भी सही है कि लोग ही ऐसे हैं कि उनको वही समझ में आएगा।

एक तरफ तो मैं यह कह रहा हूँ कि बड़े खेद का विषय कि लोगों को उथली बातें सुननी पड़ती हैं, दूसरी ओर उथली बातें अनिवार्यता भी तो हैं। तुम अभी बिलकुल नन्हे से ही हो, अंदर से, और तुम्हारे सामने अभी कोई वेदांत का ज्ञान खोल करके रख दे, तो तुम्हारे पल्ले क्या पड़ेगा? तो फिर तुम्हारे लिए यही सब ठीक है कि 'सफल कैसे बनें', 'अच्छी नौकरी कैसे पाएँ', 'फलाने को पीछे कैसे छोड़ दें', 'परीक्षा की तैयारी कैसे कर दें'।

और फिर दूसरी से बढ़कर अगर चौथी में पहुँच गए तो फिर ये सब होता है कि 'रात में कितने बजे सोया करें', सुबह कितने बजे उठा करें', 'महीने के किस दिन किस दिशा को टाँग करके नहीं सोना चाहिए', 'कौनसा शंख बजाएँ', 'कहाँ से रुद्राक्ष पाएँ'। ये बातें सब बिलकुल बचकानी हैं, आतंरिक विकास के रुके होने की ओर इशारा करती हैं। लेकिन साथ-ही-साथ ये बातें जानने और पढ़ने के अलावा चारा क्या है उसके पास जिसका दिमाग अभी चौथी कक्षा के स्तर से ऊपर ही नहीं उठा? चौथी में तो ये ही सब बातें चलती हैं न? तो वहाँ यही सब बातें होती हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओगे, वैसे-वैसे उन सब बचकानी बातों से मन अपने-आप उठता जाएगा।

भारत ने अलग-अलग लोगों की अलग-अलग पात्रता और अलग-अलग स्थिति को जाना है, इसीलिए अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह की सामग्री अनुमोदित की गई है, दी गई है। जो उच्चतम स्तर के खोजी होते हैं उनके लिए उपनिषद्, उनके लिए वेदांत। जिनको उतनी नहीं बात समझ में आती, उनके लिए फिर महाकाव्य हैं — रामायण, महाभारत।

जिन्हें उतना भी नहीं समझ में आता, उनके लिए फिर किस्से-कहानियाँ हैं, जो पुराणों में भरे पड़े हैं। “इंद्र ने वरुण से ऐसा कह दिया, फिर फलानि देवी नाराज़ हो गईं। फिर फलाने ऋषि गए, उन्होंने नारद से कहा, मनाना है। फिर ये हुआ फिर वो हुआ।" इस तरह की बातें।

और जिन्हें इन बातों की भी समझ नहीं हैं, उनको फिर दे दिए गए हैं कर्मकांड, कि तुम्हें कुछ समझ में नहीं आ सकता। तुम्हारी खोपड़ी में समझने की न्यूनतम क्षमता भी नहीं है तो तुम्हें तो कहानियाँ भी काम नहीं आएँगी। तुमको हम कुछ नियम-कायदे, कर्मकांड, विधि-विधान बताए देते हैं — “इस तरीके से पूजा कर लो। जब पूजा करो तो हाथ दाईं ओर घुमाना बाईं ओर नहीं। और एकदम तुम ख्याल रखना कि दायाँ हाथ बाएँ हाथ के ऊपर रहे। और जब अग्नि में आहुति दो, तो खबरदार अगर तुमने दूसरी ऊँगली से दे दी। तीसरी और चौथी के बीच में फलाना कोण मिला करके फिर आहुति देनी है। और इस-इस तरीके से समिधा की तैयारी करनी है। उसमें इतना घी होना चाहिए, इतना ये होना चाहिए इतना वो होना चाहिए, और ये सब कुछ जब हो जाए तो पंडित जी को इस-इस तरीके से फिर दक्षिणा देनी है।" तो ये सब बता दिया गया।

और इनसे भी नीचे अब एक नया तल तैयार हो गया है, वो है अंधविश्वास का।

भारत ने प्राचीन समय से ये चार तल रखे थे लोगों की धार्मिक प्रगति के लिए। अभी एक पाँचवा भी तैयार कर दिया गया है, वो है अंधविश्वास का। और अंधविश्वास अगर अनपढ़ लोगों द्वारा प्रचारित किया जाए तो पता चलता है कि अन्धविश्वास है। अन्धविश्वास जब पढ़े-लिखे लोगों द्वारा अंग्रेजी में प्रचारित किया जाए तो ऐसा लगता है कोई बड़ी ही बात होगी।

भारत पर अंग्रेजी की दासता बड़ी ज़बरदस्त तरीके से सवार है। हिंदी में, वो भी अगर आप खड़ी बोली की जगह अवधी में, या भोजपुरी या ब्रजभाषा में अंधविश्वास की बात कर दें तो आपको तत्काल पकड़ लिया जाएगा कि, "क्या ये तुम फालतू बातें कर रहे हो, हवा-हवाई, जादू-टोना?" लेकिन वही बात, ठीक वही बात आप अंग्रेज़ी में कर दें, और वो भी एक्सेंट वाली अंग्रेज़ी में तो वो फिर पढ़े-लिखे लोगों को भी स्वीकार हो जाती है। वो कहते हैं, "अरे, ये कोई ज़रूर राज़ वाली बात होगी, कुछ मिस्टिकल (रहस्यवादी) कोण है ज़रूर इस बात में।"

अगर तुम पाँचवे तल के विद्यार्थी हो, दूसरी कक्षा में भी नहीं हो, अभी अंगूठा ही चूस रहे हो। विद्यालय में प्रवेश भी नहीं हुआ तुम्हारा तो फिर तुम इस पाँचवे तल की सीखों को आज़माओ, लाभ पाओ।

कोई मुझसे आकर पूछे, "आचार्य जी, दूसरी कक्षा ज़्यादा सही होती है या बारहवीं कक्षा?" तो मैं इसका क्या जवाब दूँ, इसका कोई जवाब हो सकता है? भाई, दूसरी कक्षा वाले के लिए दूसरी कक्षा सही है और बारहवीं वाले के लिए बारहवीं सही है।

हाँ, अगर तुम्हारा हिसाब कुछ ऐसा है कि उम्र शारीरिक तौर पर तो खूब बढ़ गई है तुम्हारी लेकिन आतंरिक तौर पर अभी तुम दूसरी कक्षा में ही पढ़ रहे हो, तो ये ज़रूर बड़े अभाग की बात है। और ये खूब होता है। अधिकांश जनसँख्या ऐसी ही है। शरीर देखो चालीस साल का, मन देखो पाँच साल का, आठ साल का।

(प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) तुम्हारा कितने साल का है? तो इसी से नाप सकते हो कि तुम्हें किस कक्षा की किताब समझ में आती है।

भाई, शरीर की आयु तो शरीर देख कर पता चल जाती है। मन की आयु कैसे पता चलेगी? मन दिखाई तो पड़ता नहीं। तो मन की आयु पता चलती है मन की करतूतों से। मन की करतूत अगर पाँचवी के बच्चे जैसी है, तो मन की आयु फिर दस ही वर्ष की होगी।

उपनिषद्, वेदांत आतंरिक प्रौढ़ता में प्रिय लगते हैं। अगर आतंरिक प्रौढ़ता अभी आई ही नहीं है, तो बड़े उबाऊ लगेंगे, एकदम नींद आ जाएगी। अभी आज का सत्र ब्रह्मसूत्र पर रख दें; जगाए रखना मुश्किल हो जाएगा। तो मैं कुछ मिला-जुला पाठ्यक्रम चलाता हूँ। पंचमेल खिचड़ी जैसे होती है न, तो वैसे ही मैं पाँचों तलों की मिश्रित सामग्री दे देता हूँ।

कोशिश करता हूँ कि निचले तलों का मामला कम-से-कम रहे। पर ना सुनाऊँ किस्से-कहानियाँ, ना बीच-बीच में थोड़ा फुहारा छोड़ दूँ, हँसा दूँ, तो बड़ा मुश्किल हो जाना है सुनना। ऐसे एकाग्र, एकनिष्ठ साधक कम ही होते हैं जो शत-प्रतिशत शुद्ध बातचीत को स्वीकार कर सकें, और प्रेम कर सकें। तो कम-से-कम कुछ किस्से-कहानी तो सुनाने ही पड़ते हैं, भले ही और निचले तलों की बात ना करो, जो कि मैं नहीं ही करता।

एक सूत्र दिए देता हूँ; कह रहे हो यूट्यूब पर जाते हो, बहुत वक्ता हैं, ये सब बातें बोली तुमने। कोई भी व्यक्ति जो अपने-आपको सच का खोजी बोलता हो, जो कहता हो कि उसका वास्ता रियलिटी (सत्य) से है, वो अगर उपनिषदों की बात नहीं कर रहा, तो बच कर रहना। बहुत बच कर रहना। और ज़्यादा बच कर रहना जिसने खुद तो उपनिषद् पढ़े ही नहीं हैं और तुम्हें भी सलाह दे रहा है कि, "बेटा, उपनिषद् पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है।"

ये बात मेरी सुनने में थोड़ी कड़ी लगेगी कि ये तो आचार्य जी आपने बहुत कड़ी शर्त रख दी। पर ये कड़ी शर्त आवश्यक है। ये कड़ी शर्त अगर नहीं लगाओगे तो न जाने क्या-क्या सुन आओगे, न जाने क्या-क्या सोख आओगे।

भारत ही नहीं, विश्वभर में अध्यात्म ने जिस उच्चतम शिखर को छुआ है उसका नाम है वेदांत। वेदों के चार हिस्से होते है। पहला हिस्सा मन्त्र, संहिताएँ, जिनमें जो प्राकृतिक शक्तियाँ हैं उनको पूजा गया है, उनको मनाने की कोशिश की गई है, उनको अपने पक्ष में रखने की कोशिश की गई है। उनका आह्वाहन किया गया है कि हमारे शत्रुओं का नाश कर दो, और कुछ ऐसा कर दो कि हमारी गायें ज़्यादा दूध दें इत्यादि इत्यादि। इस तरह की बातें हैं।

उसके बाद जो खंड आता है वो ब्राह्मण कहलाता है। इसमें मंत्रों का, संहिताओं का विस्तृत अर्थ देखने को मिलता है। फिर आते हैं अरण्यक। अरण्यक मतलब वेदों के, श्रुति के वो हिस्से जो जंगल जैसी शान्ति के ध्यान से उद्भूत हैं। आध्यात्मिक तल पर अरण्यकों से वेदों की महत्ता आरम्भ होती है। अरण्यकों से इतर जो वेदों के हिस्से हैं, उनका पारम्परिक और धार्मिक महत्व तो है, आध्यात्मिक महत्व नहीं है।

और फिर आता है वेदों का अद्वितीय, अनुपम शिखर, जिसका नाम है उपनिषद। उपनिषद् हैं जो वेदों को पूर्णता देते हैं, जो वेदों के शिखर हैं। इसीलिए उन्हें वेदों का अंत बोला गया। और जो वैदिक साहित्य है बड़ा लम्बा-चौड़ा है, कई-कई हज़ार मंत्र हैं। लेकिन उपनिषद् एकदम ही संक्षिप्त। दस-दस, बीस-बीस श्लोकों के उपनिषद्। कुछ थोड़े विस्तृत भी हैं लेकिन बहुत लम्बे-चौड़े नहीं हैं उपनिषद्। कुछ तो ऐसे हैं कि (एक कागज़ उठाते हुए) इतने में आ जाएँ, वो भी दो।

और भारत का परम दुर्भाग्य है कि वो सब लोग जो अपने-आपको हिन्दू बोलते हैं, उनमें से एक बहुत-बहुत छोटा प्रतिशत है जिसने उपनिषदों का पाठ किया है, जो उपनिषदों का पाठ लगातार करता है।

पारम्परिक तौर पर कहा जाता है कि एक-सौ-आठ उपनिषद् हैं, वास्तव में दो-सौ से ज़्यादा हैं। चलिए दो-सौ मत पढ़िए, चलिए एक-सौ-आठ भी मत पढ़िए; ग्यारह प्रमुख उपनिषद् माने जाते हैं, कम-से-कम उनको तो पढ़ लीजिए।

आम भारतीय की, आम हिन्दू की हालत ये है कि उससे कह दीजिए कि ग्यारह प्रमुख उपनिषद् में से तुम बस चार-पाँच का नाम बता दो, वो चार-पाँच का भी नाम न बता पाए। हाँ, अपने-आपको आध्यात्मिक बोल देगा। अभी मैं ये आध्यात्मिक लोगों की बात कर रहा हूँ। ये आध्यात्मिक लोग हैं जिनसे आप उपनिषदों का नाम पूछिए वो बता नहीं पाएँगे। क्यों नहीं बता पाएँगे? क्योंकि उनके गुरुओं तक को नहीं पता तो उन्हें क्या पता होगा। उनके गुरूजी ने कभी उपनिषद् का नाम ही नहीं लिया।

जो असली, केंद्रीय, कोर अध्यात्म है, उससे भारतीयों को वंचित रखा जा रहा है। और बातें क्या की जा रही हैं कि — "जब चंद्र ग्रहण लगे तो उस रात किस रंग की चादर पर सोना है", "खाने का चम्मच कितनी धातुओं के मिश्रण से बनाना है।" ये सब बातें करी जा रही हैं। और ये सब बातें पढ़े-लिखे, आध्यात्मिक हल्कों में हो रही हैं। उनके लिए अध्यात्म का मतलब ही यही हो गया है। बे सिर-पैर की अतार्किक बातों को अध्यात्म बोलने लग गए हैं हम। और पूछो "उपनिषद्?" तो नहीं पता। और मैं आपके सामने ये बहुत छोटा सा सच उजागर कर रहा हूँ।

अगर आप अपने-आपको वैदिक धर्म का मानने वाला बोलते हैं, अगर अपने-आपको हिन्दू बोलते हैं, तो ऐसा कैसे है कि आपने उपनिषद् नहीं पढ़े? कैसे? चूँकि तुमने उपनिषद् नहीं पढ़े हैं इसीलिए तुम बरदाश्त कर लेते हो दुनिया भर के ऊल-जलूल मूर्ख वक्ताओं को और मोटिवेशनल स्पीकर्स को।

तथाकथित धार्मिक लोगों के यहाँ जाइए, वो कहेंगे — "हम बड़े धार्मिक हैं। हमारा इतने दिनों से अध्यात्म का कार्यक्रम चल रहा है। फलानि संस्था से हम सम्बंधित हैं, फैलाने हमने कोर्स भी कर रखे हैं। फलानि हम क्रिया भी करते हैं।"

उनसे कहिए, "आपके घर में जो आध्यात्मिक साहित्य है ज़रा दिखाइएगा।" तो आध्यात्मिक साहित्य के नाम पर उनके यहाँ पर क्या रखा होगा? पुराण भी रखे हों तो बड़ी बात है। पुराण भी कम-से-कम सांकेतिक रूप से ही सही, लेकिन किसी ओर इशारा तो करते हैं। एक से बढ़कर एक अजूबी किताबें रखी होंगी। उपनिषद् नहीं रखे होंगे।

और उपनिषदों के ही समान महत्व है ब्रह्म सूत्र का और भगवद गीता का। ब्रह्म सूत्रों पर आम आदमी बहुत ज़ोर नहीं दे सकता; अति संक्षिप्त हैं, इस कारण क्लिष्ट हो जाते हैं। लेकिन भगवद गीता तो पूरी पता होनी चाहिए न। सात-सौ से ऊपर श्लोक नहीं पढ़े होते लोगों ने। उनसे पूछो भगवद गीता क्या, तो वो कुछ भी अपना बता देंगे कि ऐसा ऐसा है। टीवी पर महाभारत देखी थी उसमें एक-आध-दो श्लोक बार-बार दोहरा कर बोल दिए जाते थे तो लोगों को रट गए, तो लोगों को लगता है ये ही तो गीता है, इतनी ही गीता है बस — यदा यदा ही धर्मस्य।

वो भी कहो पूरा कर दो, आगे बढ़ो। कहेंगे "यदा यदा ही धर्मस्य, यदा यदा ही"। उनके लिए इतनी ही गीता है कुल। और पूछो, "और गीता माने क्या?" तो कहेंगे, "कर्म करो फल की चिंता ना करो।" ये उनकी गीता है — कर्म करो फल की चिंता ना करो।

कोई ताज्जुब है इस बात में कि पिछले कई सौ सालों से भारत का पतन होता रहा, और आज भी इस तरह के धार्मिक, आध्यात्मिक माहौल में वो पतन जारी ही है?

आदमी को आदमी बनाती है सच के प्रति उसकी जिज्ञासा, है न? वरना आदमी और जानवर में क्या अंतर है? और जिस देश में, जिस धर्म में, जिन लोगों में सच के प्रति इतनी भी जिज्ञासा नहीं है कि वो अपने ही मूल धर्म ग्रंथों को पढ़ तो लें। उस देश का, उन लोगों का निरंतर पतन हो रहा हो, इसमें आश्चर्य क्या है?

ना उपनिषदों से कोई ताल्लुक, ना ब्रह्म सूत्रों से कोई ताल्लुक, गीता से भी बहुत कम सम्बन्ध, अष्टावक्र का कुछ पता नहीं। और इनका स्थान किसने ले लिया है? दर्जनों के भाव लोग घूम रहे हैं कि, "हम भी तो आध्यात्मिक हैं!"

लोगों की रूचि किन चीज़ों में है? जो चीज़ें चलती हैं — कुंडली, ज्योतिष। और क्या चलता है अध्यात्म के नाम पर? टैरो।

पुराने समय में ये चलता था कि एक तोता आएगा और वो एक पर्ची उठाएगा, और उस पर्ची से आपका भविष्य पता चल जाएगा। तो लोग कहते थे, "देखो, कितनी फ़िज़ूल की बात; अंधविश्वास, छी छी छी!" रेकी! ये सब कुछ किसी तरीके से अध्यात्म के ही व्यापक वृत्त के अंदर आ गई हैं चीज़ें। न्यूमेरोलॉजी , अंकशास्त्र, और हठ योग का तो फिर कहना ही क्या, वो तो पूरा एक उद्योग है। जैसे आज का पूरा-का-पूरा अध्यात्म शरीर केंद्रित हो गया हो। "शरीर अच्छा रहेगा, आध्यात्मिक हो जाओ शरीर बढ़िया रहेगा।"

"तो क्या आप आध्यात्मिक हैं?"

"जी।"

"तो क्या पढ़ते हैं आप?"

"नहीं, हम योगा, योगा।"

न पठन न पाठन, न भजन, न सुमिरन, अध्यात्म के नाम पे चल रहा है योगा। ये योगा करते हैं। न बोध न करुणा, न सत्य न सौंदर्य, चल रहे हैं फूहड़ अन्धविश्वास और नए-नए नामों से बेची जा रही क्रियाएँ वगैरह।

तुम्हारा दोष नहीं है। यही सब उस दुनिया में है, उस काल में है, जिस दुनिया में, जिस काल में तुम पैदा हुए हो, उन सब चीज़ों का असर तुम्हारे मन पर भी पड़ेगा ही। लेकिन फिर भी इतना विवेक, इतनी ताकत तो तुममें होनी चाहिए कि तुम देखो कि तुम पर इन सब चीज़ों का, इस पूरे विकृत धार्मिक माहौल का क्या असर पड़ रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories