मूर्तियों और मिथकों को मानें कि नहीं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

20 min
242 reads
मूर्तियों और मिथकों को मानें कि नहीं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। बचपन से श्रीरामचरितमानस और भगवद्गीता, ये सब सुनते आ रहे हैं तो बचपन से एक सीख मिली है कि आप भगवान की भक्ति कर सकते हैं और ये एकमात्र तरीक़ा होता है जन्म और मरण के बंधन से मुक्त होने का। तो ये सुना और इसको अमल भी किया और बड़ा आनंद आता है रामभक्ति करने में। भजन में आते हैं, भजन सुनते हैं तो बड़ा सुकून मिलता है। कुछ नहीं चाहिए, बस संतोष महसूस होता है। और श्री राम, श्री कृष्ण, हनुमान जी — इन सबकी पूजा करते हैं तो बड़ा अच्छा महसूस होता है कि ठीक है, हम सही रास्ते पर जा रहे हैं, ऐसा महसूस होता है। तो एक भाग ये है सवाल का।

इसके अलावा, पिछले आठ-नौ महीने से आपको सुन रहा हूँ। बहुत सारी समस्याएँ थीं, मतलब बेहोशी, अंधकार में जी रहे थे वो पता नहीं था, लग रहा था सब ठीक है। आपको सुनने के बाद सब स्पष्ट हुआ धीरे-धीरे। अब बड़ा गर्व महसूस होता है कि अब धीरे-धीरे हम सत्मार्ग पर जा रहे हैं। लेकिन यहाँ आने से दो दिन पहले एक वीडियो सुना था जिसमें कुछ ऐसा था कि देवी-देवता कुछ नहीं होते। यहाँ पर आया तो दो-तीन दिन से सुन रहा हूँ कि कोई-न-कोई सवाल पूछा जाता है तो उसमें ‘ये भ्रम है, कल्पना है,’ ऐसे सवाल भी आ रहे हैं। तो बड़ी उलझन है। मतलब कि ऐसा लग रहा था कि भगवान की पूजा कर रहे हैं, राम-कृष्ण की पूजा कर रहे हैं, तो बहुत संतुष्टि होती थी। और सुनते हैं कितना भी लेकिन मन भी नहीं करता कि उससे दूर जाएँ अब।

तो थोड़ा-सा मार्गदर्शन कीजिए। बड़ा ही उलझ गया हूँ कि क्या करें, कैसे भगवान मिलेंगे, कैसे ये जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होंगे। वो कृपया आप बताइए।

आचार्य प्रशांत: अब दस साल में जितना बताया है वो इस सवाल के जवाब में कैसे बताऊँ? यही चीज़ तो बोलता चला आ रहा हूँ, एक-एक किताब में, एक-एक वीडियो में यही बात तो है, अब मैं अचानक कैसे बता दूँ कि..?

आप जिन मूर्तियों की पूजा करते हो, आपने उनके जो अर्थ निकाले हैं वो मिथ्या हैं। भूलना नहीं है कि हम कौन हैं, हमें क्या चाहिए — हर चीज़ की शुरुआत यहाँ से होनी है। ठीक है?

हम वृत्तियों से ग्रस्त एक पतित चेतना हैं जिसको उठना है।

ठीक? ऐसे ही हैं न हम?

उठने में जो कोई सहायक हो हमारे लिए, वो अच्छा है।

सुबह उठने में क्या सहायक होता है? क्या सहायक होता है?

श्रोतागण: अलार्म।

आचार्य: कोई अलार्म सहायक होता है, कोई मूर्ति, कोई देवी, कोई देवता, कोई कथा अगर आपके जीवन में अलार्म का काम कर सकें, तो अच्छी है आपके लिए। लेकिन आप अलार्म पर गुलाब के फूल लगा दो और उसको रोज़ चंदन-टीका किया करो, तो उठ जाओगे? और अलार्म का चरणामृत पिया करो और एक पुजारी बैठा दो जो अलार्म की आरती उतारे, तो उठ जाओगे?

हमने यही करा है अपने रामों और कृष्णों के साथ। वो इसलिए हैं कि वो हमें हमारी बेहोशी से उठा सकें और हमने उन्हें अपनी बेहोशी का हिस्सा बना लिया है। हमने बड़ी चालाकी से ऐसे उपाय कर लिए हैं कि वो हमें बेहोशी से उठाएँ तो नहीं ही, बल्कि वो मददगार हो जाएँ हमारी बेहोशी में, और बेहोश पड़े रहो।

‘जय अलार्म देवा!’ सबकुछ हो रहा है — ढोल-ताशे हैं, घंटे-घड़ियाल बज रहे हैं, नारियल फोड़े जा रहे हैं — बस ये अलार्म बजता नहीं है, ये अलार्म किसी को उठा नहीं पाता है। बाकी सबकुछ है; दंगे भी हुए थे। आपका लाल रंग का अलार्म है और सामने की गली वालों का नीले रंग का; भयानक दंगे हुए, सबकुछ हुआ, बस अलार्म बजा नहीं। अलार्म के बजने के अलावा अलार्म के नाम पर और अलार्म के इर्द-गिर्द सबकुछ हो रहा है। और हमें सबकुछ स्वीकार है, बस एक चीज़ नहीं — ये अलार्म कभी बजना नहीं चाहिए, हमें नींद से उठना नहीं चाहिए।

एक-से-एक घूम रहे होते हैं, ‘कान्हा-कान्हा! राधे-राधे!’ कह दो, ‘गीता का ढाई श्लोक बता दो!’ नहीं बता पाएँगे। उन्हें कौन-से कृष्ण पसंद हैं? उन्हें अपनी कल्पनाओं के कृष्ण पसंद हैं। बहुत सारे तो ऐसे हैं जो कृष्ण को कभी बड़ा ही नहीं होने देते, विशेषकर महिलाएँ; वो इतने-से (हथेली की सहायता से आकार बताते हुए) कृष्ण लेकर घूम रहे हैं। उनको साथ में सुला रहे हैं, दही चटा रहे हैं, दूध पिला रहे हैं — ये सब चल रहा है। उन्हें बड़ा तो होने दो, नहीं तो गीता कहाँ से आएगी? कह रहे हैं, ‘नहीं, यही ठीक है।‘

कैसे बजेगा अलार्म? तुमने उसकी सेल निकाल ली, तुम उसमें चाबी नहीं डाल रहे, कैसे बजेगा?

राम भक्तों से पूछो, ‘राम किसके प्रतीक हैं?’ उन्हें नहीं पता। उनसे पूछो, ‘योगवाशिष्ठ का कुछ ज्ञान है?’ उन्हें नहीं पता; कुछ नहीं जानते।

ऐसे ही थोड़ी इस देश की दुर्दशा हुई है! यहाँ इतने देवी-देवता, यहाँ इतने मंदिर, यहाँ इतने ग्रंथ, फिर भारत इतना पिछड़ा हुआ क्यों? सवाल नहीं उठता? इसीलिए! माया सब पर भारी पड़ती है, माया मंदिरों पर भारी पड़ी; हमारे अहंकार ने हमारे देवताओं को भी नहीं छोड़ा।

जिन्हें भगवान कहते हो, भगवान हमारे लिए क्या हैं कामनापूर्ति के साधन के अतिरिक्त? बताओ! तुम्हारे पास कामनाएँ न हों, तुम जाओगे मंदिर? तुम डरे हुए न हो, तो मंदिर जाओगे? दो बातें होतीं हैं — कोई इच्छा पूरी करनी है तो मंदिर जाते हो, या फिर कोई डरा देता है कि मंदिर नहीं गए तो फलाना नुक़सान हो जाएगा तो मंदिर जाते हो। ये कैसे भगवान हैं? ये कैसे काम आएँगे? इसीलिए किसी भी तरह की पूजा, या भक्ति, या आरती से पहले ये जानना ज़रूरी है कि मैं हूँ कौन और ये मैं कर क्यों रहा हूँ।

मुझे तो हनुमान जी से बड़ा स्नेह है, और बचपन से ही है; बड़े विशेष लगते थे, आज भी लगते हैं। बचपन में हनुमान चालीसा का मैंने पाठ भी ख़ूब करा है, अब नहीं करता, पर उनकी बात मुझे कुछ अलग लगती थी — सबकुछ अपने आराध्य के लिए, अपने लिए कुछ भी नहीं। और एक मज़ाकिया तेवर; गंभीरता इतनी कि छाती फाड़ दें लेकिन फिर भी हास्य लगातार मौजूद है।

कहें, ‘क्या करना है, कुछ करने को नहीं है। चलो ऐसा करते हैं, अब आग तो लग ही गई है पूँछ में, लंका ही जला देते हैं! ये सब राक्षस बहुत परेशान कर रहे हैं सीताजी को, क्या करना है? जितने फल हैं वो हम ही खा लेते हैं, बाकी सब तोड़-तोड़ के मारते हैं इन्हीं राक्षसों को।‘ ये जो जीवन के प्रति एक हल्केपन का भाव है, वो मुझे बड़ा पसंद आता था कि काम कर रहे हैं बहुत ऊँचा लेकिन फिर भी सहज हास्य को नहीं भूल गए। मुझे कुछ माँगना नहीं था उनसे, मुझे बस पसंद थे।

और बल, पहलवानी, बढ़िया गदा। तीर मारने में ज़रा मामला आर-पार का हो जाता है, कहीं गर्दन पर लग गया तो दोबारा उसको तीर नहीं मार पाएँगे। गदा का बढ़िया है, भो-भो-भो, पाँच बार मारेंगे, और फिर भी गुंजाइश शेष रहेगी कि अभी कई बार और मार सकते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

तो मुझे गदा ज़्यादा पसंद है। तीर मार दो, बच्चू एक बार में निपट जाएगा; हिंसा भी हो जाएगी, हमें भी आगे मज़ा नहीं आएगा। गदा ज़्यादा ठीक है।

पर आप उनको ऐसे सोचो कि भूत-पिशाच निकट नहीं आवै, महावीर जब नाम सुनावै, कहो कि रास्ते में जा रहे हैं, हमें भूतों से बहुत डर लगता है, तो हम बीच-बीच में पाठ करते रहते हैं, तो ये दुरुपयोग कर लिया हनुमान का; ये दुरुपयोग हो गया, आप समझे ही नहीं कि हनुमान किसके प्रतीक हैं। धर्म में सिर्फ़ प्रतीक होते हैं; तथ्य तो वहाँ होते ही नहीं, प्रतीक-मात्र होते हैं। और उन प्रतीकों को पढ़ना पड़ता है, देखना पड़ता है कि इनका इशारा किधर को है। जो इशारा नहीं समझते, उनके लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है।

बहुत लोग हैं पश्चिम में, वो कहते हैं, 'इन्डियन्स आर मोंकी वर्शिपर्स' (भारतीय वानर उपासक हैं)। वो कहते ही ऐसे हैं, 'द मोंकी गॉड' (वानर भगवान)। उनको नहीं समझ में आ रहा; उनको नहीं समझ में आ रहा है कि बात क्या है, क्या दिखाया जा रहा है।

क्योंकि देखिए वानर हम सब हैं, शरीर से हम सब बिलकुल वानर ही हैं। आप एक चिंपैंज़ी के बगल में खड़े हो जाइए, ईमानदारी से बहुत अंतर है नहीं। आपकी (प्रश्नकर्ता) नहीं बात कर रहा, मतलब हम सबकी। कोई अंतर है ख़ास? कोई किसी और ग्रह से आए, उसको एक बंदर दिखा दो और एक आदमी का बच्चा दिखा दो, दोनों का कद एक जैसा हो और पूँछ छुपा दो बंदर की, वो अंतर नहीं बता पाएगा। ठीक वैसे जैसे हमें सारे चाइनीज़ एक जैसे लगते हैं न? वैसे ही कोई और किसी ग्रह से आए, तो उसे बंदर और इंसान का बच्चा बिलकुल एक जैसा लगेगा। पूँछ छुपी हुई है, बातचीत हो नहीं रही, दोनों बैठे हुए हैं, कोई अंतर?

तो वानर हम हैं ही। वानर होते हुए भी कैसे राम की ओर बढ़ा जा सकता है, इसके प्रतीक हैं हनुमान; मोंकी गॉड नहीं हैं। अब ये जाने बिना अगर हनुमान भक्ति कर रहे हो तो क्या कर रहे हो? फिर तो बस वहाँ पर वही जा रहे हो तुम कि परीक्षा में पास करा देना, नौकरी दिला देना, पत्नी दिला देना; कुछ भी और जो कामना हो वो पूरी करने के लिए। उसमें क्या है? जब तक उनके वानर-रूप का अर्थ नहीं जाना और जब तक ये नहीं जाना कि हम सब वानर हैं और वानर होते हुए भी हृदय में राम हो सकते हैं, तब तक हनुमान आपके लिए सार्थक नहीं हुए न?

अब मेरी विचित्र स्थिति है। मेरी पूरी निष्ठा वेदान्त में है लेकिन फिर भी सब प्रतीक मुझे प्यारे हैं क्योंकि सब प्रतीकों में मैं वही दिशा देख रहा हूँ जिस दिशा मुझे वेदान्त ले जाना चाहता है। तो जो पुराने वेदांती होते हैं, वो मुझ पर आक्षेप करते हैं। वो कहते हैं, 'वेदान्त में तो देवी-देवताओं वगैरह के लिए कोई स्थान नहीं हैं, आप फिर भी दुर्गा सप्तशती पर क्यों बोले?’ अभी पिछले महीनों में पूरी सप्तशती पर मैंने बात करी थी, तो उस पर आक्षेप आए। बोले, ‘ये बात तो वेदान्त-सम्मत नहीं है, आप क्यों बोल रहे हो?’

भाई, क्योंकि मुझे वहाँ वेदान्त ही दिख रहा है! उसकी पूरी जो व्याख्या करी है मैंने, वो वेदान्त-सम्मत ही है। और सिर्फ़ वेदान्त के ही आधार पर किसी भी बात की, कथा की, या दर्शन की व्याख्या की जा सकती है। तभी तो कल मैं कह रहा था न, कि वेदान्त कुंजी है, उसी से सारे ताले खुलेंगे। तो वेदान्त ये नहीं कह रहा कि बाकी दरवाज़ों पर मत जाओ, सिर्फ़ एक दरवाज़े से प्रवेश करो; वेदान्त कह रहा है सब दरवाज़ों पर जाओ, लेकिन कुंजी यहाँ (वेदान्त) से मिलेगी। वो कुंजी नहीं ली तो कोई दरवाज़ा नहीं खुलेगा तुम्हारे लिए। वास्तव में तुम्हें योगसूत्र भी समझ में नहीं आ सकते यदि तुम्हारे पास वेदान्त की बुनियाद नहीं है तो।

और वेदान्त अपनेआप में कुछ है नहीं, एक चाबी-भर है, एक कुंजी-भर है। वो कुंजी ले लो, फिर तुम्हें जिस धारा में प्रवेश करना हो कर लो। और मात्र सनातनी धारा ही नहीं, मैं तो कहता हूँ कि वेदान्त की कुंजी के बिना दुनिया के किसी भी धर्म को तुम ठीक-ठीक नहीं समझ सकते।

यहीं ऋषिकेश में मिथ डिमोलिशन टूर हमने करे थे, तो उसमें एक पूरा बाइबल का प्रसंग भी किया था। बाइबल में 'सरमन ऑन द माउंट' लिया था, और उसमें सारी-की-सारी पश्चिमी जनता थी जो आई थी सुनने के लिए। आज से छह साल पहले की बात है। और बाइबल के ही सूत्र, उन पर बात हो रही है। और फिर उन्होंने कहा, ‘बाइबल के सूत्रों की ऐसी व्याख्या हमने पहले कभी भी नहीं सुनी। आप जो बोल रहे हैं, उसमें कुछ बहुत मूल रूप से अलग है, कुछ फंडामेंटली अलग है। आमतौर पर क्राइस्ट की बात की और बाइबल की जो व्याख्या की जाती है, उससे आप जो बोल रहे हैं उसमें कुछ बहुत ही अलग बात है।‘ और उनको बड़ा आनंद आया।

यही बात मूलभूत अलग थी — वेदान्त की कुंजी के साथ बाइबल को खोला था मैंने। वेदान्त की कुंजी से बाइबल को खोला था, सरमन ऑन द माउंट को खोला था; और फिर वो ऐसा खुला कि सुनने वाले हतप्रभ रह गए, कि अच्छा इसका ये अर्थ भी हो सकता है, ऐसा अर्थ तो कभी सोचा नहीं, सुना नहीं।

समझ रहे हो बात को?

तीन हैं भारतीय संस्कृति के बड़े विराट और मजबूत स्तंभ — राम, कृष्ण और शिव; और तीनों को ही हमने खो-सा दिया है, हमने दुर्व्यवहार करा है उनके साथ। और शिव के साथ जो दुर्व्यवहार करा है, वो तो अब आप आजकल सड़कों पर देख ही रहे होंगे, महाशिवरात्रि आ रही है। और तीनों को ही समझने के लिए वेदान्त आवश्यक है — राम को, कृष्ण को, शिव को; और तीनों को ही हमने वेदान्त से अलग न जाने क्या बना दिया, जबकि तीनों के ही सीधे-सीधे वेदान्त-संबंधी सूत्र हमें उपलब्ध हैं। श्रीकृष्ण की श्रीमद्भगवद्गीता, जो वेदान्त की प्रस्थानत्रयी का अंग मानी जाती है, राम से संबंधित योगवाशिष्ठ, और शिव से संबंधित परोक्षरूप से अन्य न जाने कितने ग्रंथ, जैसे अवधूत गीता, जैसे रिभु गीता।

तो आदिकाल से ही ये स्पष्ट था कि अगर आप वाकई राम, कृष्ण और शिव को समझना चाहते हैं तो वो समझ वेदान्त के मार्ग से ही विकसित हो सकती है।

जिसको गीता से प्रेम नहीं, वो न कहे कि उसे कृष्ण से प्रेम है। दही, खीर, माखन चटाने से कृष्ण प्रेमी नहीं हो जाते आप, कृष्ण प्रेमी सिर्फ़ वो है जो गीता में गोता मार दे। सब मंदिर सुंदर हैं, सब मूर्तियाँ अर्थपूर्ण हैं, बशर्ते आपको वो अर्थ पढ़ने आते हों।

वेदान्त नहीं कह रहा है कि मंदिरों का कोई अर्थ नहीं या मूल्य नहीं। पर मंदिरों का जो अर्थ आपने कर रखा है, वह निस्संदेह मिथ्या है — ये अवश्य कहता है वेदान्त। मंदिर बहुमूल्य हैं, पर उस तरह नहीं जिस तरह आपने उनको बना रखा है। मूर्तियाँ भी बहुमूल्य हैं, पर वैसे नहीं जैसे आप उनका उपयोग करते हो।

मूर्तिपूजा के संबंध में मैंने बहुत बार बोला है, आप खोजेंगे तो मिल जाएगा। और ये धारणा बिलकुल भी ठीक नहीं है कि वेदान्त मूर्तिपूजा का विरोधी है। वेदान्त मूर्तिपूजा का न विरोधी है, न समर्थक है, वेदान्त तो बस चेतना की मुक्ति का समर्थक है। चेतना की मुक्ति में यदि मूर्ति एक उपयोगी विधि होती हो, तो मूर्ति का स्वागत है। और मूर्ति बहुधा उपयोगी होती है, तो मूर्ति व्यर्थ नहीं होती। हाँ, कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो मूर्ति का सहारा लिए बिना भी आगे बढ़ जाएँ। वो ठीक है, कोई आपत्ति नहीं है उनसे, लेकिन अधिकांश लोगों को मूर्ति की सहायता चाहिए।

मूर्ति माने कुछ भी ऐसा जो साकार है; आवश्यक नहीं है कि वो पत्थर की या लोहे की हो, काल्पनिक भी हो सकती है। जो कुछ भी साकार है, आपके मन में जिसकी छवि अंकित हो रही है, उसे हम कहते हैं मूर्त। तो मूर्त का सहारा तो लेना ही पड़ता है, निर्गुण तक पहुँचने के लिए भी सगुण का सहारा तो लेना ही पड़ता है।

तो इसमें कोई डरने की बात नहीं है, वेदान्त तुमसे नहीं कह रहा कि तुम्हारी मूर्तियाँ झूठीं हैं या हमारे मंदिर व्यर्थ हैं; बिलकुल भी नहीं। हाँ, वेदान्त इतना ज़रूर कह रहा है कि मंदिरों को पुनरुद्धार चाहिए, कि मंदिर सिर्फ़ गाजे-बाजे, ढोल-तमाशे के केंद्र नहीं होने चाहिए, मंदिरों में आध्यात्मिक शिक्षा होनी चाहिए; रोज़ आध्यात्मिक शिक्षा होनी चाहिए।

अब अगर समझते होगे तो समझ गए होगे कि अभी इस जगह पर (जहाँ सत्र हो रहा है) ये एक मंदिर है, इसको मंदिर कहते हैं, ऐसे होने चाहिए मंदिर। और मैं ख़ुद बहुत उत्सुक हूँ कि मरने से पहले एक ऐसा विश्वविद्यालय बना सकूँ जहाँ दोनों तरह की शिक्षा है — विद्या भी, अविद्या भी। जिसको आप ये भी कह पाओ कि ये दुनिया का श्रेष्ठतम विश्वविद्यालय है और ये भी कह पाओ कि इससे ऊँचा मंदिर दूसरा नहीं; मंदिर भी हो, और विश्वविद्यालय भी हो। और वास्तव में अगर मंदिर असली होगा, तो वो विद्यालय भी होगा। ऐसा मंदिर जिसमें शिक्षा नहीं दी जा रही, वो कोई मंदिर नहीं; वो तो बस फिर एक तरह का दिखावा है, तमाशा है, प्रदर्शन है।

मूर्ति तक आप भेज रहे हो लोगों को, उससे पहले उनको शिक्षित नहीं कर रहे कि मूर्ति माने क्या, तो लोगों को क्यों भेज रहे हो मूर्ति तक? राम तक भेज रहे हो लोगों को, राम की इतनी बड़ी मूर्ति लगा दी, इतना बड़ा राम का मंदिर बना दिया; उसमें कहीं ये भी है कि लोगों को पहले बताएँगे, पढ़ाएँगे कि राम माने क्या? या बड़ा राम मंदिर बनाने से हो जाएगा? क्या हो जाएगा? वो शिक्षा कौन देगा? और शिक्षा ही सबकुछ है।

पत्थर में थोड़े ही कुछ रखा है अगर तुम्हें पता ही नहीं कि पत्थर में प्राण कहाँ पर हैं। यदि मूर्ति का तुम्हें अर्थ नहीं पता, तो मूर्ति पत्थर-मात्र है; या नहीं? और हाँ, पुराने लोगों ने बड़ी मेहनत से बड़े महीन, सूक्ष्म प्रतीक तैयार करे हैं। अगर प्रतिमा के आठ हाथ हैं, तो उस बात का कुछ मतलब है। ऐसे थोड़े ही कि बस आठ हाथ हैं और वहाँ पर कह दिया, ‘देवी को प्रणाम,’ और वापस आ गए।

कोई बात है न? दशानन के दस सिर क्या हैं, क्यों हैं? ये थोड़ी है कि बस जाकर के पुतला जला दिया दशहरे पर! उसको जानना पड़ेगा, जाने बिना क्या कर रहे हो? हाँ, जानने के बाद जब करोगे, तो जीवन बदल जाएगा - धर्म में ये ताक़त है।

धर्म से अच्छा और ऊँचा कुछ नहीं, और धर्म से ज़्यादा ख़तरनाक और पतित भी कुछ नहीं। धर्म दुधारी तलवार है, वो आपको आसमान तक उठा भी सकता है, पाताल तक गिरा भी सकता है; अब कहने की आवश्यकता नहीं कि आजकल जो धर्म है वो किस दिशा ले जा रहा है। इसीलिए कल मैं कह रहा था कि धर्मगुरुओं का महत्व जितना ज़्यादा है, उतना ही ज़रूरी है ये भी कि उनसे सतर्क रहो; क्योंकि वो जितना उठा सकते हैं, उससे कहीं ज़्यादा गिरा सकते हैं। अधिकांशतः काम गिराने का ही होता है। माया है ही ऐसी, अहंकार चाहता ही यही है, कि जो कुछ भी मिले उसे गिरने के लिए ही इस्तेमाल कर लो।

(हनुमान चालीसा की पहली चौपाई उद्धृत करते हुए) पहला ही, 'जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।‘ ज्ञान कहाँ है? ज्ञान बताओ! बस ऐसे (हाथ जोड़कर) खड़े हो गए! वो (हनुमान) तो ज्ञान के सागर हैं, तुम अपना ज्ञान बताओ न! तुम्हें ज्ञान से कोई मतलब नहीं, तुम्हें क्या करना है? नारियल फोड़ना है; तुम्हें नारियल फोड़ना है।

(बाहर से आ रहे शोर की ओर इशारा करते हुए) क्या अंतर है इसमें और नारियल फोड़ने में? हनुमान भी यही चाहते हैं कि पहला शब्द ‘ज्ञान’ हो। ‘जय हनुमान..,’ फिर पहली चीज़ क्या? ‘ज्ञान’। ज्ञान कहाँ है? बाक़ी सब बाद में आता है न? जब ज्ञान होता है तो फिर कहते हो, 'जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।' तीन लोक तो तब उजागर होंगे न, जब पहले ज्ञान होगा! नहीं तो तुम अपने ही लोक में फँसे हुए हो, तुम्हारा अपना लोक ही अँधेरा है, कौन-सा उजियारा, कैसे होंगे तीन लोक उजागर? ज्ञान का ही तो प्रकाश होता है!

तो न मंदिर जाना छोड़ना है, न रामचरितमानस। रामचरितमानस में मूल्य न होता तो मैंने इतना क्यों बोला होता मानस पर? पिछले छह साल में दर्जनों बार मानस पर बोला है, मानस पर पूरा कोर्स है हमारा। रामचरितमानस का बहुत मूल्य है लेकिन उसे समझोगे तब! ऐसे थोड़े ही कि बस ‘चूड़ामणि’, और आँसू बहा रहे हो कि ‘चूड़ामणि..’।

ये चूड़ामणि क्या चीज़ है? ये जो राम रो रहे हैं और पूछ रहे हैं सबसे, 'हे खग-मृग हे मधुकर श्रेणी तुम देखी सीता मृगनयनी।' और लक्ष्मण खड़े हैं, छोटे भाई के सामने बड़ा भाई रो रहा है और पूछ रहा है, ‘कहाँ है? कहाँ है?’ क्या, बात क्या है? या बात सिर्फ़ भावना की है, कि पत्नी खो गयी है तो पति रो रहा है, विह्वल है?

कुछ और हो रहा है न?

सीता किसकी प्रतीक हैं, लक्ष्मण कौन हैं, राम कौन हैं — ये जानो तो! वो सब तुम्हारे भीतर के चरित्र हैं, उनको अपने भीतर यदि नहीं जानोगे तो तुम्हारा भीतरी विकास कैसे होगा? फिर तो वो बाहर के रह जाएँगे; ‘राम! लक्ष्मण! सीता! हो गया!’

राम भी कोई हैं तुम्हारे भीतर के, लक्ष्मण भी कोई हैं, सीता भी कोई हैं। ये कौन हैं? ये राम-सीता का रिश्ता क्या है? 'सियाराम मय सब जग जानी।' सियाराम मय सब जग जानी? पर सीता तो एक महिला हैं, तो सब जग कैसे हो गया; ये जानना पड़ता है। वेदान्त नहीं जानते तो रामचरितमानस के भी अर्थ नहीं खुलेंगे तुम्हारे लिए।

और वेदान्त कठिन नहीं है, कोई ऐसा नहीं है कि उसमें तुम्हें..। कुछ मूल बातें हैं, एक तीव्र जिज्ञासा का नाम है वेदान्त, सिद्धांतों का नाम नहीं है। सिद्धांत होते लंबे-चौड़े, तो बहुत समय तक उन सिद्धांतों को पढ़ना पड़ता, स्मृति में डालना पड़ता। वेदान्त में स्मृति के लिए कुछ नहीं, तीव्र जिज्ञासा है — ‘मुझे जानना है। मुझे जानना है। जानने वाला कौन है?’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories