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मूल्य से निकटता ही मूल्यहीन का त्याग है || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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मूल्य से निकटता ही मूल्यहीन का त्याग है || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते।

मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्।।

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय १३ श्लोक २)

वक्ता: (श्लोक का अर्थ समझाते हुए) कभी शरीर से दुःख है, कभी वाणी से दुःख है, कभी मन से दुःख है। इन सब का त्याग कर के मैं पुरुषार्थ में स्थित हूँ, सुखपूर्वक।

त्याग कभी पहले नहीं आएगा। त्याग तुम करोगे कैसे? तुमने जो कुछ भी आधा-तिहा पकड़ रखा है, जब वही तुम्हारी सारी संपत्ति है तो तुम उसे त्यागोगे कैसे? सुना है न, अक्सर कहता हूँ, तुमने दो रूपए का सड़ा हुआ नोट भी अगर मुट्ठी में भींच रखा है तो तुम उसे कैसे त्यागोगे अगर तुम्हें यह मान्यता है कि यह दो रूपए का नोट ही मेरी पूरी संपत्ति है। कैसे छोड़ोगे? दो रूपए का सड़ा हुआ नोट है! पर क्या छोड़ सकते हो अगर तुम्हें यह लगे कि तुम्हारे पास इस दो रूपए के अतिरिक्त और कुछ नहीं? छोड़ पाओगे?

अरे! यह मेरी पूरी ज़ायदात है, कैसे छोड़ दूँ? तुम कुछ नही त्याग सकते। त्यागने क लिए ऐश्वर्य का भाव होना चाहिए। त्यागने क लिए छल-छलाता जाम होना चाहिए। इतना है! और कितना मांगें? त्यागने के लिए विभुता होनी चाहिए। कभी त्याग हो नहीं सकता, कोई त्याग से शुरुआत कर नहीं सकता। त्याग का तुम्हें विचार ही नहीं आएगा! जो आदमी अपने संबंधो को, या दौलत को, या किसी और पदार्थ को सीने से लगा कर बैठा हो, उसको यह विचार भी आएगा कि इसको छोड़ दूँ? भूखे आदमी के सामने एक रोटी रखी है, उसको यह विचार भी उठेगा कि इसको छोड़ दूँ? विचार भी उठेगा क्या? असंभव बात है! त्याग की बात करते ही क्यों हो? त्याग की बात मत करो।

तुम कहोगे लेकिन शास्त्रों में और परंपरा में हमेशा से त्याग की ही तो बात की गयी है लगातार – “त्याग, त्याग, त्याग, छोड़ो, रिनन्सियेशन (त्याग)”। वह त्याग की बात नहीं है! वह यह सन्देश है कि तुम्हारे पास इससे कही ज़्यादा कुछ है जिसे तुम पकड़े बैठे हो। जो तुमसे कह रहा है न कि “छोड़ दो”, उसके होने से तुम्हें पता चल रहा है कि छोड़ा जा सकता है, क्योंकि इसने नहीं पकड़ रखा। बात उसके शब्द की नहीं थी, बात उसके होने की थी जब उसने कहा कि छोड़ दो- उसकी वाणीं में, उसकी आँखों में ऐसा कुछ था जिससे तुम्हें भरोसा आया कि “हाँ! क्या फायदा पकड़ने से, देखो न यह भी तो छोड़े बैठा है और कितना प्रसन्नचित्त है।” अब, उसकी हस्ती तो तुम्हें कहीं दिखाई दे नहीं रही जिसने यह सब बोला था, तुम्हारे पास बस कोरा शब्द बचा है, और वह कोरा शब्द कहता है – “त्याग दो!”, कैसे त्याग दोगे?

त्यागने के लिए, जिसे तुम त्याग रहे हो, उससे कहीं बड़ा कोई अवलंबन चाहिए- सहारा! जब तक वह सहारा नहीं मिला, तब तक छोटे सहारे को कैसे त्यागोगे? त्यागने की बात नहीं करो। उस बड़े को पाने की बात करो! छोड़ना नहीं है, पाना है!

अनेक मौकों पर कहा है न कि छोड़ा–छोड़ी की बात न किया करो! तुम्हें छोड़ने की प्रेरणा ही नहीं मिलेगी। छोड़ना कभी यूँ ही नहीं घटित होता! छोड़ा जाता है, निश्चित रूप से छोड़ा जाता है, पर छोड़ना, अपने आप में एकाकी घटना नहीं होती। छोड़ने के पीछे यह भावना होती है कि इतना मिल गया है, इतना विराट उपलब्ध है कि छुद्र को क्या पकड़े रहें? तो वह पकड़ना बेतुका लगता है, पागलपन लगता है! तुम यूँ ही छोड़ देते हो, “गया!”

जो अरबपति हो, वह दस रूपए के नोट के पीछे भागेगा क्या? दस रूपए का नोट अगर मिल भी गया उसे तो वह हर्ष मनाएगा? और दस रूपए का नोट अगर खो भी गया उससे तो शोक मनाएगा? “अरे! हम अरबपति हैं।” और वह यदि दस रूपए का नोट किसी रेस्टेरोंट (भोजनालय) में छोड़ के आता है, वेटर को टिप दे दी, तो तुम कहोगे – “बड़ा त्यागी था!”? त्यागा है? त्यागा है क्या? इतना है कि छोटे को पकड़ने में हमारी कोई रुचि नहीं रही। चला गया। त्यागा नहीं है।

त्यागने का अर्थ है कि अब हमें छोटे में रुचि नहीं रही। क्योंकि जो भी कुछ छोटा है वही आपको दुखी करता है। छोटे को त्यागने का अर्थ है दुःख को छोड़ते चलना। पूर्ण आनंद मिल गया है, हम सुख-दुःख को पकड़ने में उत्सुक नहीं हैं।

उपनिषद् कहता है – यो वै भूमा तत् सुखम् (छांदोग्य उपनिषद् ७.२३.१) – जो बड़ा है, उसी में सुख है। शुद्र्ता ही दुःख है।

त्याग का अर्थ है अपनी क्षुद्रताओं को छोड़ते चलना क्योंकि विराट की उपलब्धि हो गयी है।

याद रखना, विराट की उपलब्धि पहले आती है। छोड़ने वाले गलती क्या करते हैं, विराट का कुछ पता नहीं, छोड़ने पर उतारू हैं! अब जिसको छोड़ते हो, अभी, उसको छोड़ के दो कदम आगे बढ़ते हो फिर मुड़ के उसे फिर उठा लेते हो। कुल दस ही रुपया है तुम्हारे पास, उसको तुमने छोड़ा, और बड़ी हिम्मत कर के दो कदम बढ़ते हो, और फिर लपक के फिर उठा लेते हो। फिर कहते हो “देखिए बड़ी साधना की ज़रूरत है। मन बार-बार फिसल-फिसल जाता है। कई बार छोड़ते हैं पर फिर उठा लेते हैं।” उठाओगे नहीं तो क्या करोगे? तुम और कर क्या सकते हो? कंगला आदमी और करेगा क्या? करेगा क्या?

पाओ! पाओ! सहज पाओ!

फिर छोड़ने के ख्याल के बिना ही छोड़ना हो जायेगा। अपने आप हो जायेगा। तुम्हें याद भी नहीं आएगा कि अरे! छूट गया! कई दिनों बाद कहोगे “अरे! छूट गया!” कोई और आ के याद दिलाएगा, “छोड़ आये?”, तुम कहोगे “हाँ! छोड़ आये।”

वह कहेगा “ज़रा भी ख्याल नहीं किया? बीवी ने दिया था! गाड़ी में छोड़ आये?”

तुम कहोगे, “बीवी ने दिया था? हमें तो यह भी ख्याल नहीं।” (मुस्कुराते हुए)

(सभी श्रोतागण मुस्कुराते हैं)

वक्ता: छोड़ आये।

कैसे पाएं? यही प्रश्न बचा – “कैसे पाएं?”, जब भी कहोगे “कैसे पाएं” तो अपनी क्षमता पर यकीन करोगे! हम कुछ करेंगे तो पा लेंगे। तुम जब भी पूछते हो कि कैसे पाएं? तो तुम कहते हो कोई ऐसा रास्ता बताओ जो हमारे लिए हो। अब तुम्हारे लिए क्या रास्ता होगा? तुम अपने आप को माने बैठे हो कि हम लंगड़े हैं, तुम्हारे पास टाँगे नहीं हैं, और तुम कह रहे हो – हमें अनंत तक जाना है, रास्ता बताइए! अब तुम्हें क्या रास्ता बताया जाए? तुम्हें जो भी रास्ता बताया जाए, वह तुम्हारे अनुकूल भी तो होना चाहिए! तुम्हें रास्ता बताया जायेगा “रेंगो!”, और तुम रेंगते-रेंगते अनंत तक पहुंचोगे? पंख तुम्हारे पास हैं, टाँगे तुम्हारे पास हैं! उड़ तुम अभी सकते हो! मान्यता तुम्हारी क्या है? “हम लंगड़े हैं!”

तुम जब कहते हो “कैसे जायें”? तो तुम अपनी मान्यता के अनुरूप ही तो कोई रास्ता मांगते हो न? बात को समझो! अभी, तुम्हें कोई बीमारी है, तुम पूछो डॉक्टर से मैं कैसे ठीक हो जाऊ? डॉक्टर कहे, “बिलकुल ठीक हो सकते हो, बस सत्तर मीटर ऊंची छलांग मारो!” तुमने पुछा “कैसे ठीक होऊं?”, उसने कहा – सत्तर मीटर ऊंची छलांग मार के। तो तुम क्या कहोगे? यह विधि बेकार है। क्यों? क्योकि यह मेरे अनुरूप नहीं है न, मेरी क्षमता के भीतर नहीं है! अब तुम्हारी क्षमता कितनी है इसका निर्धारण तो तुम पहले से ही करे बैठे हो। तुम्हीं ने तय कर लिया है कि हम पंगु हैं। अब तुम्हें जो भी विधि बताई जाएगी वह तुम्हारी क्षमता के भीतर ही चाहिए तुमको। तुम्हें अपनी क्षमता के भीतर की विधि चाहिए न? तुम्हारी क्षमता के भीतर की विधि तुम्हें कभी परमात्मा तक ले नहीं जा सकती! बात ख़तम हो गयी।

(श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: तो तुमने जब भी पूछा “कैसे पायें” तो बेवकूफी का ही सवाल पूछा न।

श्रोता १: हाँ!

वक्ता: क्योंकि “कैसे” का जो भी उत्तर आएगा, वह तुम्हारे लिए होगा और तुम्हारा इतना नहीं है फैलाव कि तुम उस तक पहुँच सको। तो कैसे पाएं? यह सवाल पूछना बंद करो “कैसे पाएं?”, बड़ा अहंकार जनिक सवाल है, वही पूछता है – “कैसे”? हम बचे रहें और पा भी लें! हम बचे रहें और पा भी लें।

सवाल करो अपने आप से कि मैंने कैसे मानना शुरू किया कि कोई कमी है। बस यह पूछो। जैसे यह माने बैठे हो न कि कोई कमी है, वैसे एक बार को बस यह कल्पना ही कर के देखो कि कोई कमी नहीं है। और उस कल्पना को ही – मात्र कल्पना है – कल्पना में ही तो जीते हो ना? जो कल्पना में जी रहा है उसे तो एक नयी कल्पना ही देनी पड़ेगी। जैसे अभी कल्पना करे बैठे हो कि “नहीं है!”, “पाना है!”। वैसे ही एक बार को यह कल्पना कर के देखो कि “है!”, और इस कल्पना को आधार बना कर यह सवाल पूछो –

मैंने यह कैसे मानना शुरू किया कि कमी है?

किसने मुझे सिखाया कि मानो कि कमी है?

किसने मुझे सिखाया कि पाना है, अर्जित करना है?

याद रखना कि इस मुद्दे पर जो रोशनी पड़ रही है, वह तुम्हारी रोशनी नहीं है। वह ठीक उसी की रोशनी है जिसे तुम पाना चाहते हो। तुम खोज उसे रहे हो, पर जिस टॉर्च को ले कर के उसको खोज रहे हो उसमें बैटरी उसी की है।

तुम जिस रोशनी को खोज रहे हो, उसी रोशनी का उपयोग कर के खोज रहे हो।

तो खोजने की ज़रूरत है? नहीं समझी?

तुम सोलर लैंटर्न ले कर के सूरज को खोजने निकले हो। हाथ में है तुम्हारे! हाथ में है! वह न होता तो यह सोलर लैंटर्न कहाँ से आती?

नहीं समझ रहे हो बात को?

तुम्हारे भीतर सत्य को जानने की प्रेरणा ही कहाँ से उठती यदि सत्य न होता?

वह प्रेरणा और कहाँ से आ रही है?

अभी गुड़गाँव में एक यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) है वहाँ पर गया था। वहाँ पर एक खड़ा हो गया वह कह रहा है, “सर, देयर इज़ नो फ्रीडम!” (सर! कोई स्वतंत्रता नहीं है!) तो मैंने कहा फिर यह सवाल कौन पूछ रहा है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: उसे समझ में ही नहीं आया। वह बड़ी देर तक उलझा रहा, उसे समझ नही आया कि मैं कह क्या रहा हूँ।

“बट, सर, देयर कैन बी नो फ्रीडम” (पर, सर, स्वतंत्रता नहीं हो सकती)

मैंने उससे कहा फिर यह सवाल कौन पूछ रहा है? कहाँ से आ रहा है यह सवाल?

जिस सत्य को खोजने निकलते हो, जिसको कहते हो “पाना है! पाना है! पाना है!”, उसको पाने की प्रेरणा देने वाला कौन है?

वह सत्य स्वयं ही तो है न। इसीलिए तो भारत ने गुरु को परमात्मा बोला।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय।

जिस गोविन्द को पाने निकले हो, वह गोविन्द ही तो यह प्रेरणा देता है कि मुझे पाओ।

परम को पाने की प्रेरणा, परम के अलावा कोई और दे सकता है?

तुम दुकान में जाते हो, दुकान में चीज़ें रखी रहती हैं, वह तुम्हें प्रेरणा देती हैं ना? क्या प्रेरणा देती हैं? हमें पाओ! बीवी भी प्रेरणा देती है, किसे पाओ? मुझे पाओ! पति भी प्रेरणा देता है, क्या प्रेरणा देता है? मुझे पाओ!

तो अगर कोई यह प्रेरणा दे रहा है कि परमात्मा को पाओ, तो वह परमात्मा के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? वह बैठा ही तो हुआ है तुम्हारे भीतर! वह न होता तो कहाँ से प्रेरणा उठती? इसीलिए पाना है ही नहीं। यह प्रश्न बिलकुल न करो, “कैसे पाएं?”

मिला हुआ है। वह न मिला होता तो तुम यहाँ मौजूद कैसे होते? कौन तुम्हें यहाँ ले कर के आया? उसके अलावा कौन है जो तुम्हें यहाँ ला सकता है? तो क्यों पूछते हो कि कैसे पायें? जेब में रख के घूम रहे हो, पूछ रहे हो कि “कैसे पाएं?”! या तो बड़े खिलाड़ी हो या बड़े बेवकूफ़! आ रही है बात समझ में?

तो पहली बात- त्यागने की बात व्यर्थ है, “पाना!”

दूसरी बात – “कैसे पाना?” – यह प्रश्न व्यर्थ है। हद से हद यह सवाल कर सकते हो कि यह मैंने खोने का भाव कब सीखा? और यह प्रश्न भी तुम उसी की प्रेरणा से करोगे जिसे पाने निकले हो! जब उसकी प्रेरणा मौजूद ही है तो पाना किसे है? वह तो है ही उपलब्ध न? उपलब्ध ही है।

बस, मस्त रहो! जियो! खुश रहो! दुखी भी रहो तो भी खुश रहो! उसी को तो आनंद कहते हैं। जो दुःख में भी मस्त रखता है, उसी का नाम आनंद है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/0pJ1YWncjfM

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