किसी की कदर तुम कर रहे हो किसी स्वार्थ की ख़ातिर, ठीक? इसको कहते हैं भाव देना। तुम उसे भाव दिए जा रहे हो, भाव दिए जा रहे हो और वो और ऐंठता जा रहा है, ऐंठता जा रहा है। एक बिंदु तो आता है जब तुम कहते हो, “धत्त तेरे की! जितना सिर पर चढ़ा रहे हैं उतना चढ़े जा रहे हो। जाओ नहीं चाहिए जो तुम देने वाले थे!”
मान लो कोई चार गाली सुनाए, उससे तुम्हारा स्वार्थ बहुत है। पर वो चार गाली सुनाए तो तुम कहते हो, “नहीं अब हमारा ज़मीर जाग गया है, कुछ नहीं चाहिए तुझसे। चला जा यहाँ से!” क्योंकि उसने चार गालियाँ सुनाई हैं। तो साधना ये है कि अगली बार जब तीन सुनाए तभी कह देना, “तू जा!” उसके अगली बार दो में ही कह देना कि, “नहीं, जा!” उसके अगली बार एक में और उसके अगली बार उस व्यक्ति और उस जैसे व्यक्तियों के आसपास नज़र ही मत आओ।
ले दे कर बात इतनी सी है कि झेलना बंद करो, बहुत झेलते हो, कम धैर्य रखो। बेवकूफ़ी को, उद्दंडता को, शोषण को ‘ना’ बोलना सीखो। और जल्दी ‘ना’ बोलना सीखो, बहुत इंतज़ार, बहुत बर्दाश्त मत किया करो।