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मोहे पिया मिलन की आस || आचार्य प्रशांत, बाबा शेख फ़रीद पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो माँस। दोई नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।

अर्थ: हे काग (कौवा) तन के हर जगह का माँस खाना पर आँखों का नहीं, क्योंकि मरने के बाद भी आँखों में पिया (प्रभु) मिलन की आस रहेगी ही रहेगी।

~ बाबा शेख फ़रीद

आचार्य प्रशांत: शेख फ़रीद ने वृद्धावस्था को लेकर और वियोग को लेकर ख़ूब कहा। तो कह रहे हैं कि वियोगी मन, वियोगी स्त्री राह तकते-तकते वृद्धा हो गयी, अब मौत सामने खड़ी है। और उस मुक़ाम पर वह कहती है कि, ‘अरे कागा, अरे कौवे, इस शरीर की मुझे बहुत परवाह नहीं। अब मर तो मैं जाऊँगी ही; तुझे जहाँ-जहाँ से माँस नोचना होगा, नोच लेना, चुग-चुग खा लेना, पर आँखें छोड़ देना मेरी। नैनों पर चोंच मत मारना।’ क्यों? उनमें पिया मिलन की आस है।

समझ रहे हो? तुम्हारी पूरी हस्ती में सिर्फ़ वो हिस्सा महत्वपूर्ण है जो प्रियतम से जुड़ा हुआ हो, जिसमें प्रियतम बसे हुए हों, बाक़ी सब सिर्फ़ माँस है। बाक़ी सब नष्ट हो जाए कोई बात नहीं। पर तुम्हारी हस्ती में जो कुछ ऐसा हो कि जुड़ गया प्रीतम से वो न नष्ट होना चाहिए, न नष्ट हो जाता है, जिसे अमर की आस है, वो भी अमर हो गया।

बात समझ में आ रही है?

बहुत कुछ हो तुम और बहुत दिशाओं में भागते हो तुम। तुम्हारे सारे उपक्रमों में, तुम्हारी सारी दिशाओं में सिर्फ़ वो काम और वो दिशा क़ीमती है, जो उस पिया की ओर जाती है। चौबीस घंटे का दिन हैं न? बहुत कुछ किया दिन भर? वो सब कचरा था। उसमें से क़ीमती क्या था? बस वो जिसकी दिशा प्रीतम की ओर थी। और फ़रीद साहब कह रहे हैं - 'उसको बख्श देना। उसको गन्दा मत करना।’ बाक़ी सब तो हटाओ। और संत वो जिसका पूरा जिस्म ही समझ लो आँख बन गया। जिसकी धड़कन भी आँख बन गई। जो नख-शिख नैन हो गया। जिसका रोंया-रोंया, जिसकी हर कोशिका सिर्फ़ प्रीतम की ओर देख रही हैं। वो साँस ले रहा है, किसके लिए?

श्रोतागण: प्रीतम के लिए।

आचार्य: उसका हाथ उठ रहा है किसके लिए? दिल धड़क रहा है किसके लिए? वो आहार भी ले रहा है तो किसके लिए? वो गति भी कर रहा है तो किसके लिए? ऐसे जियो तो फिर फ़रीदों को जाना। वरना तो समय काटने के बहाने और तरीक़े हज़ारों हैं। थोड़ी गणित ही लगा लो। देख लिया करो रोज शयन से पहले; आज कितना प्रतिशत समय उसके ख़याल में, उसके ज़िक्र में, उसकी साधना में, उसके अनुसंधान में, उसके तसव्वुर में लगाया। कितना? जितना लगाया, बस समझ लो उतना ही समय तुम जिये। बाक़ी समय तो बेहोशी थी। जब बेहोश पड़े रहते हो तो क्या कहते हो कि अभी जीवन चल रहा है? बेहोश के लिए कैसा जीवन?

आँखें बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब ‘उसको’ तलाशें। कान बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब ‘उसको’ सुनें। कंठ, ज़बान, होंठ बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब ‘उसका’ ज़िक्र करें। पाँव बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब उसकी ओर बढ़ें, हाथ बचाने लायक तब हैं जब उसका नमन करें। सिर बचाने लायक सिर्फ़ तब हैं जब उसके समक्ष झुके। नहीं तो काट दो सिर को, फूट जाएँ आँखें। कल कह रहे थे न जीजस, ‘एक आँख अगर फूट गई है तो उसके लिए और क़ुर्बानियाँ मत दे देना, आँख दिखेगी फूट गई तो निकाल बाहर करो आँख को। गाउज आउट दैट आई ((वह आँख निकाल लो।) संतों का बयान तो बड़ा बेबाक़ होता है। सीधे ये कि फूटी आँख को ढोते मत रहो, उसे नोच के बाहर निकाल दो।

फूटी आँख समझ रहे हो न, कौन सी आँख? जो प्रकाश को नहीं देख सकती। जिसमें पिया नहीं बसे हैं। बचाते मत रह जाना ऐसी आँख को, हटाओ। जीने लायक बस वो दिन है जो उसकी साधना में बीता, होने लायक बस वो जगह है जहाँ उसका नाम लिया जाता हो। और किसी जगह पर तुम पाए ही क्यों जाते हो, बताओ? संगत बस उसकी भली जो उसकी ओर ले जाता हो और किसी के साथ तुम पाए क्यों जाते हो, बताओ? संतों के, फ़रीदों के साथ रहना जीवन का अमृत भी है और सबसे बड़ी मृत्यु भी। ज़िन्दगी भी वही देते हैं, लेकिन मृत्यु तुल्य भय भी वही देते हैं। जो भय के सामने भी अडिग खड़ा रह सके, वही फ़क़ीरों की संगत बर्दाश्त कर पाएगा। नहीं तो फ़क़ीर सामने आए और तुम्हारे घुटने न कंपे, ऐसा हो नहीं सकता। वो महामौत होता है। लेकिन अगर टिके रह गए तो अमृत भी मिलेगा।

प्रश्नकर्ता: अभी उन्होंने जो भजन गाया था, आपने उस भजन का मतलब बताते हुए उसका ज़िक्र किया था, उसमें किसकी बात की जा रही है?

आचार्य: (हँसते हुए) बताओ भाई। जब भी आँखें देखती हैं, सामान्यतया भी, तो कुछ तलाशने के लिए ही देखती हैं न? तलाशने के लिए देखती हैं? लेकिन देखती ही जाती हैं, जो चाहिए वो मिलता नहीं। तुमने ग़ौर किया है कि तुम्हारे सामने कोई अजनबी भी आता है तो भी तुम्हारी आँखें उसके चेहरे पर ठहर जाती हैं ज़रा सी देर को जैसे कुछ खोज रहीं हों। और फिर ठहरने के बाद छिटक जाती हैं। हर नज़र कुछ तलाश रही है। फ़रीद साहब उस नज़र की बात कर रहे हैं जो वहीं जाकर ठहर गयी है जिसकी तलाश थी। अब ये कैसे होगा क्योंकि जिसकी तलाश थी उसके बारे में तो कहा गया है कि वह भौतिक नहीं है, व्यक्ति नहीं है।

तो दो बातें हैं– पहली - ये आँख तो दुनियावी चीज़ों को ही देख सकती हैं। दुनिया में भी ऐसे स्थान हैं, ऐसे व्यक्ति हैं, ऐसे ग्रन्थ हैं, ऐसी वस्तुएँ हैं जो ‘उसका’ सुमिरन कराते हैं। जिनको देखने से उसकी याद आ जाती है। ये आँख उनकी तलाश में रहे। और दूसरी बात– एक आँख होती है ये (अपनी आँखों की ओर संकेत करते हुए) माँस की। और एक आँख होती है भीतर; उसका नाम है 'मन'। वो भी देखती रहती है, वो भी तलाशती रहती है। ये आँख स्थूल है, भीतर की आँख सूक्ष्म है। स्थूल आँख जाकर के बैठ जाए किसी ऐसे स्थूल विषय पर, जो ले जाता हो सूक्ष्म की ओर। और सूक्ष्म आँख को लगातार सूक्ष्मतम का ध्यान रहे, उसे लगातार ये अहसास रहे कि वो भटक किसलिए रही हैं। यही है, ‘आँखों में पिया का बसना।’ भौतिक रूप से ऐसी जगहों पर पाये जाओ जहाँ ये दो आँखें भी सत्संगति का ही दर्शन करें।

कानों को सुनाई दे तो श्लोक और घंटियाँ और झरनों की कल-कल। और आँखों को दिखाई दे तो साधु का शरीर, ग्रन्थों की उपस्थिति, ऐसी कलाएँ जो मन को शान्त कर देती हों। इन्द्रियगत रूप से भी अपनेआप को ऐसा माहौल और ऐसा आहार मत दो, जो तुम्हारे लिए घातक हो। पर आँखें सदा तो किसी ऐसे स्थान पर नहीं रह पाएँगी जहाँ गंगा ही बह रही हो, जहाँ मन्दिर ही खड़े हों। आँखें सदा तो ग्रन्थों को तो नहीं पढ़ती रह जाएँगी। जीवन की अनिवार्यता ये है कि तुम्हें इधर-उधर भी होना पड़ेगा, भटकना भी पड़ेगा। तब ये जो भीतर वाली आँख है, ये लगातार पिया पर बनी रहे। और पिया का क्या मतलब है? ‘शान्ति।’ तब ये भीतर वाली आँख क्या, बाहर वाली आँख को चाहे जो कुछ दिख रहा हो, मुझे तो एक ही चीज़ दिखती है - शान्ति और सौन्दर्य।

ये है आँख का प्रीतम पर टिक जाना। भौतिक रूप से जहाँ तक सम्भव हो अपनेआप को सही जगह पर रखो और सही संगत में रखो। सही दृश्य ही दिखाई दें तुम्हें। सही दृश्य की हमने परिभाषा क्या दी है? वो दृश्य जो तुम्हें दृश्यातीत की ओर ले जाए। वो शब्द जो तुम्हें निःशब्द की ओर ले जाए। जहाँ तक हो सके अपनेआप को भौतिक रूप से, शारीरिक रूप से भी ऐसी संगति दो। देखो न कबीर साहब साधु संगति के बारे में कितना कहते हैं। और जब मजबूरी हो कि सशरीर साधु संगत में नहीं बैठ सकते, तब भले ही इन आँखों को साधु सशरीर न दिखता हो, मन की आँख को साधुता पर ही केंद्रित रखो।

मन की आँख को साधुता पर केंद्रित रखना आसान हो जाता है, अगर तन की आँख के सामने साधु बैठा हुआ है। बहुत दूर हो गए या बहुत लम्बे समय तक दर्शन नहीं किए तो फिर मन की आँख भी बहक जाती है। तो कबीर साहब कहते हैं, ‘जाओ रोज़ मिलो।’ जाओ उससे रोज़ मिलो और रोज़ ज कैसे मिलो? मानसिक रूप से नहीं कि आँख बन्द करके उसका ध्यान कर लिया। न। जाओ जाकर रोज़ सशरीर मिलो। जाओ और बैठो उसके सामने रोज़ और रोज़ नहीं मिल सकते तो हर दूसरे रोज़ मिलो। और फिर कहते हैं कि अगर हर दूसरे रोज़ नहीं मिल सकते, तो हर हफ़्ते मिलो और फिर कहते हैं कि हर हफ़्ते नहीं मिल सकते तो, चलो तुम हर पखवाड़े मिल लो। पखवाड़े में भी नहीं मिल सकते तो, अरे जाकर एक महीने में एक बार तो मिल आओ! और फिर कहते हैं कि अगर महीने में एक बार भी नहीं मिल सकते, तो ( हँसते हुए) तुम्हारी तुम जानो, हमें तुमसे कोई बात नहीं करनी। क्योंकि फिर तुम्हारे लिए कोई उम्मीद नहीं है।

तो आँखों के सामने शारीरिक रूप से भी वो रहे जो उसकी याद दिलाता है, बहुत ज़रूरी है। समझना ध्यान से, ये आँखें निराकार ब्रह्म को नहीं देख सकतीं, पर ये आँखें उस साधु को, गुरु को, फ़क़ीर को तो देख सकती हैं न, जो निराकार ब्रह्म की याद ही दिला देता है? तो इन आँखों को मौका दो कि ये उसको ही देखती रहें। लेकिन सांसारिक जीवन जीने की मजबूरी ये है कि सदा तुम साधु के बगल में नहीं बैठ पाओगे। साधु का जीवन दूसरा है। उसका बहाव, उसकी उड़ान दूसरी है। तुम उसके साथ-साथ नहीं चल पाओगे। तुम उससे यदा-कदा ही मिल पाओगे। तो जब ये स्थिति भी बने कि सशरीर तुम उसके समक्ष नहीं बैठ सकते तब भी मन की आँख उसे ही देखती रहे। एक गीत होता है जिसको तुम होंठों से गाते हो, लेकिन दिनभर तो नहीं गा पाओगे। तो होंठों से गाओ और जब होंठों से न गा पाओ तो तराना भीतर बजता रहे। ऐसा कभी नहीं होना चाहिए कि संगीत विहीन हो गए।

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