श्री प्रशांत: अगर मोह को त्यागना है तो त्याग को भी त्यागना होगा। पर चूँकि त्याग क्रम-विकास की ही देन है, तो क्रम-विकास को स्वयं को ही त्यागना होगा।
क्या हम कुछ ऐसा त्याग सकते हैं जो कभी हमारे पास था ही नहीं?
क्या है हमारे करने को और क्या है हमारे पास होने को?
इस ‘हम’ का पता करने से ही शुरू करते हैं। बहुत आगे की यात्रा करने की ज़रुरत नहीं है। सारे प्रश्न मूलतः अपने स्रोत पर आ जाते हैं और मूल प्रश्न है कि ‘मैं कौन हूँ?’ वो जो त्याग करने की कोशिश कर रहा है, वो जो छोड़ने की कोशिश कर रहा है, वो है ही कौन? अच्छा, त्यागना चाहते हो तो त्यागने की कामना को भी त्याग दो।
सबसे पहले तो हमने बात करी कि कुछ त्यागना है। क्या त्यागना है? चलो ठीक है, मोह त्यागना है। मोह बहुत है। मोह त्यागना है, तो त्यागने की कामना को भी त्याग दो, बस मोह ही क्यों त्याग रहे हो? अच्छा ठीक है, वो भी त्याग दिया। तो फिर त्यागने वाले को भी त्याग दो। वो तो बच रहा है न! वो तो शेष रह ही रहा है। जो त्यागने वाला है, उसको कैसे त्यागूँ जब तक उसका पता ही नहीं? तो सबसे पहले उसका ही क्यों न पता करें? क्यों इतनी लम्बी-चौड़ी यात्रा करनी है? अपने घर जाना है तो पूरे शहर का चक्कर लगाकर क्यों आयें? जाना अपने घर है, सामने, यह रहा!
जहाँ हो, वहीं घर है।
वहाँ तक आने के लिए पूरे शहर का चक्कर क्यों लगाना है? और क्यों कहना है कि यह त्यागो और वह त्यागो?
जब सारे मोह के केंद्र में यह ‘*मैं*’ बैठा है तो सबसे पहले क्यों न इसी का पता लगाकर इसी को ध्वस्त कर दिया जाए; इसी को क्यों न त्याग दिया जाए? तर्क की श्रृंखला समझ में आ रही है? ठीक है, मोह त्यागना चाहते हो। मोह को त्यागना एक कामना है। चलो, उस कामना को ही त्याग देते हैं। वो कामना जिसमें उठ रही है, उसका पता क्यों न लगाएँ? सारे सवालों के मूल में क्या बैठा हुआ है?
‘मैं कौन हूँ?’
‘कोहम्?’
और ‘मैं कौन हूँ?’, इसका कोई विधायक उत्तर हो नहीं सकता। आपको नेति-नेति में ही जाना पड़ेगा।
यह जानना कि ‘मैं कौन नहीं हूँ’ ही यह जानना है कि ‘मैं हूँ कौन’।
यही देखना पड़ेगा कि मैं क्या नहीं हूँ। अन्यथा बाकी सारे उत्तर आपको और भ्रम में ही डालेंगे।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।