प्रश्नकर्ता: मोहमाया को क्यों छोड़ा जाए? संसार को भी क्यों छोड़ा जाए? प्रभु सिमरन क्यों? समर्पण क्यों? मोक्ष क्यों? अगर मैं नेक हूँ संसार का भला सोचता हूँ, अपने दायित्व निभा रहा हूँ, तो फिर ये आध्यात्मिकता इत्यादि क्यों? उन्होंने एक रिक्त स्थान छोड़ा है। मैं उसको भरे देता हूँ।
आचार्य प्रशांत: मोहमाया को क्यों छोड़ा जाए? कोई आवश्यकता नहीं है। संसार को क्यों छोड़ा जाए? प्रभु सिमरन क्यों? समर्पण क्यों? मोक्ष क्यों? क्योंकि तुम परेशान हो, क्योंकि तुम दुखी हो। अन्यथा कोई वजह नहीं है।
संपूर्ण आध्यात्मिकता, ये सारा साहित्य, गुरुओं के अथक प्रयत्न सिर्फ़ इसीलिए हैं ताकि तुम झंझटों से मुक्त हो सको। जिसे झंझटों में अभी दुख नहीं है, उसकी ओर से तो छोड़ो। आध्यात्मिकता की ओर से उसका प्रवेश वर्जित है।
आप अगर ये कहोगे कि आप दुनिया में हो और दायित्वों में हो और आपको किसी दुख का अनुभव नहीं हो रहा, तो शास्त्र वर्जित करते हैं कि फिर कोई किताब खोलना मत। तीन बार उपनिषदों के शांति पाठ में कहा जाता है, शांति। त्रय ताप से मुक्ति के लिए। तीन तरह के ताप होते हैं। आदमी तीन तरह की ज्वालाओं में जल रहा है। और उपनिषद आरंभ में ही कहते हैं कि देखो हमारा पाठ इसीलिए है ताकि उन तीन ज्वालाओं से तुम मुक्त हो सको।
तीन तरह की ज्वालाएँ कौन सी हैं? एक मान ली गयी जो ऊपर से उतरी कि भाई किसी ईश्वर ने दंड दिया है। एक मान ली गयी जिसका शरीर में वास है। और एक मान ली गयी जो संसार के इधर- उधर के कष्ट मिल जाते हैं। ले-दे-कर ये कहा गया कि प्राणी कष्ट में जी रहा है। और चूँकि वो कष्ट में जी रहा है इसीलिए उपनिषद् है। तुम्हें अगर अभी कष्ट ही नहीं अनुभव हो रहा तुम छोड़ो उपनिषदों को।
“साधन चतुष्टय” बताया है जानने वालों ने। और उसमें वो क्या कहते हैं कि क्या होना चाहिए तुम्हारे पास— सर्वप्रथम होना चाहिए विवेक कि क्या सच है;क्या झूठ है;क्या चलेगा;क्या नहीं चलेगा;क्या बचेगा; क्या धोखा दे जाएगा।
फिर होना चाहिए वैराग्य कि दुनिया बहुत देख ली यार। और यहाँ तो मामला गड़बड़ है। यहाँ तो जो बुरा है वो तो बुरा है ही, जो है उसका भी कोई भरोसा नहीं।
जिसको अभी वैराग्य ही उदित न हो रहा हो उसके लिए शास्त्र नहीं है।
जिसको अभी बहुत राग है संसार से उसके लिए तो उचित ये है कि वो अपने रागों में आकंठ डूब जाए ताकि उसे चोट लगे। तुम बाहर ही खड़े-खड़े मैख़ाने की ख़ुशबू लेते रहोगे; भीतर नहीं जाओगे तो बेहोश कैसे होगे? और बेहोश नहीं होगे तो चोट कैसे लगेगी?
तो कई गुरुओं ने तो इसको विधि की तरह इस्तेमाल किया है कि जिसको देखते हो कि चेला आश्रम छोड़-छोड़ के भागता है और मधुशाला के सामने खड़ा हो जाता है तो स्वयं ही जाते थे उसको मधुशाला में धक्का दे देते थे— कहते थे, तू जा, तू पूरा ही जा। तू जबतक जाएगा नहीं और जबतक तू लड़खडाएगा नहीं और गिरेगा नहीं और तुझे ख़ून नहीं बहाएगा तब तक तुझे समझ में ही नहीं आएगा। वैराग्य नहीं उदित होगा। दूर से देखने पर और दूर से सूँघने पर सब तुझे बड़ा आकर्षक प्रतीत है।
उसके बाद फिर आते हैं, “षड संपद” जिसमें शम, दम, श्रद्धा, उपरति, समाधान, तितिक्षा। ये सब किनके लिए है भाई। समाधान किसके लिए होगा— जिसे सर्वप्रथम समस्या हो। जिसे समस्या ही नहीं है, उसके लिए समाधान कैसा। शम, दम किसके लिए है— जिसको लगे कि विक्षेप है वो शमन करें, वो दमन करें। जिसे आग ही नहीं दिख रही, वो शमन क्या करेगा। जिसे ज्वर ही नहीं लग रहा वो शमन क्या करेगा। जिसे समस्या ही नहीं दिख रही वो दमन क्या करेगा। जो रति में ही अभी मग्न है उसके लिए कैसी उपरति। और जो अधैर्य को ही अपना सदगुण मानता हो, उसके लिए कैसी तितिक्षा। और अंततः शास्त्र कहते हैं, मुमुक्षा— ये शिरोमणि गुण है। अगर अभी तुम में मुक्ति की तीव्र प्यास नहीं उठ रही तो तुम ग्रंथों को खोलना भी मत। अगर अभी तुम छटपटा नहीं रहे हो कि ये मैं कहाँ फँस गया और ये क्या हो रहा है मेरे साथ, तो तुम किसी गुरु के द्वार जाना भी मत।
ये प्रश्न पूछने के नहीं हैं;ये तो प्रविष्टि की पात्रताएँ हैं। बात समझ में आ रही है? प्रविष्टि के उपरांत ये प्रश्न नहीं पूछे जाते। प्रविष्टि ही उनकी होती है जिनके जीवन में ये प्रश्न घोर तरीक़े से जल रहे होते हैं। अगर अभी ये प्रश्न उठ ही नहीं रहे या अभी इनके प्रति तुम उहापोह में हो तो बेहतर यह है कि पहले आग लगने दो। आग लगने दो। अन्यथा बुझाने के सारे प्रयत्नों के प्रति तुम ज़रा शंकित रहोगे। तुम कहोगे कि कुछ है ही नहीं तो ये बुझाया किसको जा रहा है। ये फ़ालतू समय ख़राब करते है। अब आग लगी तो हुई है पर अभी दृष्टव्य नहीं है। तो इसीलिए तुमको लगता है कि तुम्हारे साथ धोखा हो रहा है। घोर रूप से लगने दो, जल जाने दो सबकुछ। उचित समय बहुत ज़रूरी है।
उदाहरण देता हूँ: हमारे खरगोश हैं इनसे बड़े उदाहरण निकलते हैं, मेरे। अब खरगोशों का ये कि उनको जल्दी-जल्दी अपनी संख्या परिवर्धित करनी है। तो चार-पाँच खरगोश थे वो बेचारे ज़रा ख़राब हालत में थे। हम लोग शिविर में गये थे कैंची धाम। तो उनको वहाँ से छुड़ाया गया। उनको यहाँ लेकर के आये। उनमें से तीन नर थे तो उनकी न्यूटरिंग करनी होती है। बंध्याकरण। नहीं तो जो पाँच लाये वो बहुत जल्दी पंद्रह हो जाएँगे। तो उनको लेकर आये थे। उनको लेकर के गये वैट के पास। पशु चिकित्सक के पास तो उसने कहा, “अभी नहीं।“ समझो बात को। उसने कहा कि अभी नहीं। क्यों? क्योंकि अभी इनकी वासना प्रकट ही नहीं हुई है। अभी इनके जननांग शरीर से बाहर प्रकट ही नहीं हुए हैं। इशारा समझ रहे हो? किसी भी चीज़ का उपचार तो तब होगा न जब वो भीतर से बाहर प्रकट तो हो। अभी वह आयी ही नहीं है बाहर।
तो चिकित्सक ने उसे वापस भेज दिया। चिकित्सक ने वापस भेज दिया। उसने कहा, उसने ये नहीं कहा कि ये नर ही नहीं है। नर तो है पर अभी यह वासना की आग में जल ही नहीं रहा। अभी इसकी वासना बीज रूप में भीतर ही बैठी हुई है। अभी वो वृत्तिभर है। उसका प्राकट्य नहीं है। तो उसने वापस भेज दिया। एक चीज़ तो ये देखने की हैं।
दूसरी चीज़ क्या है? उसने वापस भेज दिया। जिनको दोबारा लेकर जाना था वो भूल गये, सो गये। तो वो आग प्रकट तो हुई और ऐसी ज़बरदस्त प्रकट हुई कि अभी सात, आठ, दस बच्चे हैं। अब उसके बाद इनको होश आया कि अरे! हम तो भूल गये। फिर लेकर भगीं। अब भगते रहो!
तो बिलकुल सही समय पर जाना होता है चिकित्सक के पास। पहले पहुँच गये तो कहेगा, देखो अभी तो तुम्हारी न मुमुक्षा है, न वैराग्य है, न विरक्ति है। कुछ नहीं है तुम कैसे आ गये। और बहुत देर से जाओगे तो कहेगा, “अब चिड़िया चुग गई खेत।“ अब क्या बचा? हमने दोनो चीज़ें देख लीं। बहुत पहले भी पहुँचे और फिर बहुत बाद भी पहुँचे। शास्त्र कहते हैं, तुम बिलकुल सही समय पर पहुँचो। तुम युवावस्था में पहुँचो। पाँच-दस साल के हो पहुँच जाओगे, कुछ नहीं मिलेगा। और जब मौत सामने खड़ी हो तब पहुँचोगे, तब भी कुछ नहीं पाओगे। जैसे, खरगोश को चिकित्सक के पास तब ले जाना है, जब नया-नया जवान हुआ हो। जब नयी-नयी कोपलें फूटी हो। ठीक उसी अवस्था में तुम्हे भी चिकित्सक के पास आना है। जब नयी-नयी जवानी फूटी हो। देर कर दोगे तो फिर तो बच्चे आ जाएँगे। अब क्या करोगे। अब तो आ गय। कुनबे के साथ कौन सत्य की तरफ़ जाता है।
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: युधिष्ठिर की कहानी पता है न:
“पाँच भाई और स्त्री और कुत्ता इतने जने जले चढ़े थे पहाड़ पर। एक-एक करके सब गिरते गये।“ कुनबे के साथ कोई नहीं पहुँचता। चलोगे भी कुनबे के साथ तो सद्भावना है तुम्हारी। अच्छी बात है। तुम चले कुनबे के साथ। पर यही पाओगे कि रास्ते में एक-एक करके सब गिरते जाएँगे। “पत्नी गई, मझला भाई गया, छोटा भाई गया। कहानी कहती है कि आख़िरी क़दम तक बस कुत्ता साथ गया था। और वो भी जब बिलकुल आख़िरी मुक्ति थी। तो विलीन हो गया;वो भी न बचा।“ सही समय पर। हो सकता है तुम्हारा भी समय न आया हो;तो फिर समय आने दो।
प्रश्नकर्ता: वो जो समय है, मुझे क्या पता कि कब आएगा?
आचार्य प्रशांत: तुम क्यों चिंता कर रहे हो, कब आएगा? अगर तुम्हें लग रहा है कि सब ठीक ही चल रहा है, तो तुम अनिष्ट की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो?
प्रश्नकर्ता: जो सत्य है।
आचार्य प्रशांत: उसमें तो तुम जी ही रहे हो। सत्य से तो तुम्हारा जीवन भरपूर ही है।
प्रश्नकर्ता: नहीं, में वो नहीं कह रहा।
आचार्य प्रशांत: नहीं कह रहे तो फिर पूछ क्यों रहे हो कि मैं अध्यात्म में क्यों आऊँ? या तो मान लो की मेरा जीवन सत्य से ओतप्रोत है, लबरेज, भरपूर या फिर ये सवाल मत पूछो।
प्रश्नकर्ता: यह तो लालसा है मुझे सत्य पाना है।
आचार्य प्रशांत: मतलब अभी नहीं है।
प्रश्नकर्ता: मुझे अभी में दिमाग में मेरे जो मेरा नैचुरल इन्स्टिंगक्ट (सहजज्ञान) है उसके बिहैफ (आधार) पर मैं पूछ रहा हूँ आपसे। अब जैसे यह छोटी लड़की है और ये काफ़ी है। अब मुझे नहीं पता इनका समय आया है या इनका समय आ चुका है या मैं कहाँ खड़ा हूँ। मुझे इस स्थिति में कोई ज्ञान नहीं है। बट (परन्तु) जो सत्य है, जो अध्यात्म है। या जैसा उन्होंने कहा कि मैं ऐसी जो भी आपके डिस्कशन (बातचीत) हुई थी बट उस चीज़ को पाकर,
आचार्य प्रशांत: सत्य जीव के लिए सदा व्यक्ति सापेक्ष होता है। तुम्हारे लिए सत्य कोई अनाश्रित, असम्बद्ध, निरपेक्ष सत्ता नहीं है।
जीव तो सत्य की और तभी भागेगा जब उसे दुख होगा।
प्रश्नकर्ता: मैं यह मान लेता हूँ कि में अज्ञान हूँ। मतलब मुझे ज्ञान नहीं है। जो आप बता रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: में ज्ञान की बात नहीं कर रहा। मैं बस दुख की बात कर रहा हूँ।
प्रश्नकर्ता: मुझे ये जानना है,
आचार्य प्रशांत: मैं जो पूछ रहा हूँ पहले उसका जवाब दो। दुख है या नहीं है?
प्रश्नकर्ता: मुझे इसका आभास नहीं है।
आचार्य प्रशांत: अगर आभास नहीं है तो ये सारी बातें छोड़ो। क्या करना है। सामान्य ज्ञान थोड़े ही एकत्रित करना है।
प्रश्नकर्ता: नहीं, में समझ ने की कोशिश कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: क्यों कर रहे हो? जब सुखी हो तो क्यों? जब कोई समस्या ही नहीं है तो क्यों कुछ करना है? जब सब ठीक चल रहा है तो कुछ और करके उस ठीक को बिगाड़ना है क्या? अगर बिलकुल स्वस्थ हो तो चिकित्सक के पास क्या करने गये हो? क्यों फ़ालतू पैसे खर्च करते हो? समय नष्ट करते हो। सब बढ़िया चल रहा है, सब्ज़ी-भाजी ख़रीदो, पाव-भाजी खाओ, रंगा-रंग कार्यक्रम देखो टीवी में। सब ठीक चल रहा है। या फिर ईमानदारी से स्वीकार करो कि परेशान हो, दुख है, और उलझन है। और अगर दुख नहीं, उलझन नहीं तो यहाँ कोई काम नहीं।
प्रश्नकर्ता: मैं थोड़ा सा इसे
आचार्य प्रशांत: वक्तव्यों के लिए जगह नहीं है। (नकार में सिर हिलाते हैं)
प्रश्नकर्ता: नहीं में वो नहीं कर रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: दुख है?
प्रश्नकर्ता: मैं आज यहाँ..,
आचार्य प्रशांत: दुख है?
प्रश्नकर्ता: में स्वीकार नहीं करना चाहता।
आचार्य प्रशांत: स्वीकार नहीं करना चाहते तो अभी समय नहीं आया है।
प्रश्नकर्ता: नहीं, बहुत दुख आया भी है।
आचार्य प्रशांत: अभी दुख है?
प्रश्नकर्ता: मैं यहाँ इसीलिए नहीं आया कि दुख है.,
आचार्य प्रशांत: तो फिर ग़लत आये हो;आना ही नहीं चाहिए। यहाँ पर हम ज्ञान वितरित करने के लिए नहीं बैठे हैं, ये चिकित्सालय है।
प्रश्नकर्ता: क्या पता की मुझे वो चीज़ चाहिए हो।
आचार्य प्रशांत: पता करो।
प्रश्नकर्ता: लेकिन
आचार्य प्रशांत: पता करो
प्रश्नकर्ता: लेकिन मुझे वो ज्ञान अभी नहीं है।
आचार्य प्रशांत: अगर तुम्हें नहीं पता तो तुम्हें इस नहीं पता होने का दुख है? तुम्हें नहीं पता तो तुम्हें इस बात का दुख है कि मुझे नहीं पता? वो भी नहीं मानोगे न;मत मानो।
श्रोतागण: हँसते हैं।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी इसमें एक क्वेस्चन (प्रश्न) आया है कि जैसे आपने कहा कि दुख हो तब आपका समय आता है। लेकिन अगर कोई कुछ पढ़ा, जैसे, स्वामी विवेकानंद को पढ़ लिया या फिर ओशो को सुन लिया, इससे उसके मन में जिज्ञासा जगी कि ये क्या है? और उसे इंट्रस्ट (रुचि) आने लगा इन सब चीजों में। तो क्या उसका भी समय नहीं है?
आचार्य प्रशांत: स्पिरिचूऐलिटी इज़ नॉट अ मैटर ऑफ़ इंट्रस्ट (अध्यात्म रुचि का विषय नहीं है)। नॉट एट ऑल (बिल्कुल नहीं)। ये आग में जलने वाले, ख़ुद को मिटाने वाले काम हैं— ये इंट्रस्ट से थोड़े ही होते हैं। आई एम इन्ट्रस्टड इन सेल्फ-इमलेशन (मुझे आत्मदाह में रुचि है)। यह एक आंतरिक ज्वाला होती है— मैं तप रहा हूँ, मैं मर रहा हूँ, मुझे शीतल होना है;तब जाकर के बढ़ते हो। नहीं तो बस भीड़ इकट्ठा होती है। वो ऐसे ही होती है, कौतूहल वश लोग आ गये हैं। कौतूहलवश तो तुम कुछ भी करते हो।
वो चले आ रहे हैं घुसकर वहाँ मर्सिडीज की विंडो शॉपिंग कर ली, कौतूहलवश। भैया कितने की दी—सवा करोड़ की। अच्छा, ठीक, ठीक ठीक है।
श्रोतागण: हँसते हैं।
आचार्य प्रशांत: कौतूहलवश यहाँ बात नहीं हो रही है। वाक़ई लेन-देन करना हो तो बात करो;नहीं तो भीड़ है बस।
ये स्वीकारना की दुख है, इसके लिए साहस और विनम्रता दोनों चाहिए।
श्रोतागण: जीवमात्र दुखी है।
आचार्य प्रशांत: कोई बुद्ध चाहिए जो कहे कि मेरा पहला आर्य वचन है कि जीवन दुख है। बुद्ध का कलेजा चाहिए। नहीं तो हम बड़े भीरु होते हैं अगर हमने मान लिया कि जीवन दुख है तो हमें मानना पड़ेगा कि हमारे जीवन में जो कुछ हमने भर रखा है वो सब ग़लत है। और उससे हमारी बड़ी आसक्ति है उसे छोड़ना नहीं चाहते। कलेजा काँप जाता है, कैसे मान लूँ कि दुखी हूँ।
मैं अगर दुखी हूँ तो वापस फिर अपनी दुखी दुनिया में लौटूँ क्यों? अगर मान लिया कि तुम दुखी हो तो फिर तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा कि तुम यहाँ से लौटकर उसी दुनिया में नहीं जा सकते। पर तुम्हें तो जाना है;रविवार का दिन है!