मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई || (2020)

Acharya Prashant

3 min
293 reads
मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई || (2020)

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना | न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम् || २, ६६ ||

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के अंतःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६६

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी, चरण वंदन। श्रीकृष्ण ने कहा कि अविजित व इन्द्रियगत मन में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस आयुक्त मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं। लेकिन वहीं अर्जुन द्वारा भावनाओं से ग्रस्त होने के कारण ही श्रीकृष्ण उन्हें प्रेरित करने के लिए ‘कायर’ शब्द का प्रयोग भी करते हैं, उन्हें क्षत्रिय धर्म भी याद दिलाते हैं।

भावनाओं के कारण ही अर्जुन संशयग्रस्त हैं और उसके प्रतिद्वंदी बिलकुल संशयग्रस्त नहीं हैं। हर समय और हर काल में भावनाहीन लोगों को ही अधिक सफल होते देखा गया है। इस प्रकार भावनाएँ केवल पराजय का कारण प्रतीत होती हैं, फ़िर भावनाओं पर बात क्यों? जीवन में भावनाओं का सही स्थान क्या है? कृपया कुछ स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांत: भावनाओं की नहीं, भावना की बात हो रही है। बहुवचन से उतरकर एकवचन में आइए। जहाँ बहु हैं, जहाँ बहुत हैं, जहाँ बहुलता है, उसी का नाम संसार है। और जहाँ एक है, उसी का नाम सत्य है। श्रीकृष्ण भावना की बात कर रहे हैं। किस भावना की बात कर रहे हैं? 'कृष्णभावना' की बात कर रहे हैं, सत्य के प्रति भावना रखने की बात कर रहे हैं। भावनाएँ नहीं, कि इसके प्रति भी है, इसके प्रति भी है।

भावुक हम जिन लोगों को कहते हैं, क्या उनमें मात्र एक विषय के प्रति भावना होती है? कोई मिल जाए ऐसा जिसकी भावना एकनिष्ठ हो जाए, तो उसकी भावना ही उसकी मुक्ति का साधन बन जाएगी।

पर जो भावुक होता है, वो दस दिशा में भावुक होता है, वो इस बात को लेकर भी भावुक है कि उसका बेटा फुटबॉल का मैच हार गया, वो इस बात को लेकर भी भावुक है कि दूधवाला पानी मिला गया, वो इसको लेकर भी भावुक है कि पड़ोसी ने नई गाड़ी खरीद ली; वो बात-बात में भावुक है। भावुक लोगों को देखा नहीं है? वो बात-बात में चूने (रोने) लगते हैं। या उनकी भावना एकनिष्ठ होती है, बताना? वो तो ऐसा है कि जैसे तंत्र में ही कुछ समस्या है। बार-बार उसमें बहाव और रिसाव शुरू हो जाता है।

तो भावनाएँ नहीं। बहुत भावनाएँ हैं, बहुतों के प्रति भावनाएँ हैं, बहुत तरह की भावनाएँ हैं, तो फँसे। अभी कृष्ण बात कर रहे हैं एक भावना की। एक भावना - "मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।" एक भावना, एक से दूसरी भी हुई तो खेल ख़त्म। और तीसरी, चौथी हो गई तो फ़िर तो पूछो ही मत। एक से सवाई भी हुई तो खेल ख़त्म।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories