प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। सबसे पहले आपका बहुत-बहुत धन्यवाद काफ़ी कुछ बदलाव आया है। मैं पाठ कर रहा था, तो उसमें भगवान दत्तात्रेय का जिक्र था। तो उनसे कुछ ऋषि पूछने आएँ, उनमें से कुछ ऋषि गृहस्थ हैं। अपना पूरा वृतांत बताया। कहते हैं, "ऐसा है, वैसा है।" दत्तात्रेय सब सुनने के बाद बोलते हैं, "कहाँ कुछ तो है ही नहीं। परेशानी कहाँ है, मुझे तो कुछ दिखाई नहीं दे रही है।"
ये एक कहावत है कि 'जाके पाँव न फटी बिवाई, वो का जाने पीर पराई।' कोई निरादर का भाव नहीं है। पीछे एक प्रश्न था कि वो पहले एच. आर (मानवीय संसाधन) में थे फिर विजिलेंस (जागरूकता) में आए और उसके बाद अब अध्यात्म की तरफ आए हैं।
आचार्य प्रशांत: कह रहें, "एक और तो ज्ञान मार्ग है, इसमें श्री दत्तात्रेय से संबंधित किसी कथा का उल्लेख कर रहे हैं कि कोई व्यक्ति आता है और अपनी तमाम समस्या बताता है। समस्याएँ सब सुन लेते हैं, फिर कहते हैं, "कहाँ है कोई समस्या? है ही नहीं कोई समस्या। और दूसरी और ये जनश्रुति है कि 'जाके पाँव न फटी बिवाई, वो का जाने पीर पराई।' तो इन दोनों में तालमेल कैसे बैठाएँ।"
यही तो मुश्किल होता है और यही करना होता है। एक ओर तो आपको ये पता होना चाहिए कि सब समस्याएँ हैं तो झूठ ही। सच तो एक ही होता है। और सच कोई समस्या होता नहीं। तो समस्याएँ सब झूठी हैं। कोई समस्या सच्ची नहीं है। लेकिन साथ ही साथ करुणा का तक़ाज़ा ये होता है कि आप जानो की सारी समस्याएँ तब झूठी हैं, जब आप सत्य हो जाओ। आत्मा के लिए कोई समस्या नहीं होती।
लेकिन आप तो अहंकार बने बैठे हो ना? तो आपके लिए समस्याएँ सच्ची ही हैं। आप जहाँ से देख रहे हो, आपको बहुत सारी समस्याएँ प्रतीत ही होंगी। अब ऐसे में समस्या सुलझाने वाले का काम बड़ा विचित्र और दुष्कर हो जाता है। क्यों? क्योंकि वो जहाँ पर बैठा है, वहाँ से उसे स्पष्ट दिख रहा है कि ये सब समस्याएँ झूठी हैं। लेकिन फिर भी उसे करुणा के नाते उन समस्याओं को सुलझाना है, जो समस्याएँ हैं ही नहीं। एक तो होता है कि कोई समस्या है, कोई चुनौती है, उससे निपटो।
और एक ये कि समस्या नहीं हैं, हम जानते हैं, लेकिन फिर भी तुम्हारे लिए तो तुम्हारे आँसू सच्चे ही हैं। हमको पता है कि इन आँसुओं में कोई बात नहीं है। ये आँसू एक झूठी जगह से आ रहे हैं। पर तुम्हारे लिए तो तुम्हारे आँसू सच्चे ही हैं। तुम्हारे लिए तो तुम्हारा दुःख का अनुभव सच्चा ही है, तो फिर कुछ करते हैं। तो फिर कुछ करा जाता है। तो ये दोनों बातें लेकर चलनी होती हैं और इन दोनों ही बातों को याद रखना ज़रूरी है। अगर सिर्फ़ ये कह दिया कि सब समस्याएँ झूठी हैं, तो आप ज्ञानी तो हो जाओगे पर आपका ज्ञान किसी के काम का नहीं होगा।
क्योंकि बात आपने गलत नहीं बोली है। सब समस्याएँ झूठी हैं। बिल्कुल ठीक! किसी भी समस्या के मूल में जाओगे, तो वहाँ कुछ झूठ ही मिलेगा। और अगर आपने सिर्फ़ ये कह दिया कि मैं तेरी समस्याएँ सुलझाने आ रहा हूँ। तेरी समस्या सच्ची है और मैं उसको सुलझाऊँगा। तो भी आपने गड़बड़ कर दी। क्योंकि अगर आपने समस्या को सत्य मान लिया, तो कभी सुलझेगी नहीं। अगर आपने समस्या को झूठ मान लिया, तो आप उसे सुलझाओगे नहीं? और अगर समस्या को सत्य मान लिया, तो वो कभी सुलझने की नहीं।
तो सुलझाने वाले को बिल्कुल रस्सी पर चलना पड़ता है। उसे पता है कि समस्या में कोई दम नहीं लेकिन फिर भी उसे पूरा दम लगाकर समस्या को सुलझना पड़ता है। जैसे किसी छोटे बच्चे की। वो आपके पास आ रहा है। क्या? कि मेरी गुड़िया नाराज़ है। गुड़िया नाराज़ है! दुनिया की सबसे विकट समस्या है। वो गुड़िया लेकर आ गया, वो नाराज़ है। आपको पता है, समस्या में कोई दम नहीं लेकिन फिर भी आप कहोगे, "अच्छा ठीक है, गुड़िया तुमसे नहीं मान रही, तुमसे नाराज है। मैं मध्यस्थता करता हूँ, गुड़िया को लाओ ज़रा मैं समझाता हूँ।"
गुड़िया मान जा! (गुड़िया को समझाने का अभिनय करते हुए) तो देखो मान गई। मान गई? हाँ मान गई। कैसे मान गई? देखो अभी दिखाते हैं। गुड़िया को आपने ऐसे कर दिया। (हाथों से इशारा करते हुए), गुड़िया के कंधे ऐसे उचक गए, देखो मान गई। बच्चा हँसने लग गया। ठीक है! गुड़िया मान गई!
ये आप क्यों करोगे? ये आप इसलिए करोगे क्योंकि आपको याद आएगा कि एक दिन आप भी उसी बच्चे जैसे थे। और अगर आपने उस बच्चे को छोड़ दिया, तो वो बच्चा वो कभी नहीं बन पाएगा, जो आज आप हो। इसलिए कहा जाता है, "जाके पाँव न फटी बिवाई।" दूसरे का दर्द स्वयं अनुभव करना जरूरी है। हो सकता है आज तुम लगभग उस दर्द से पार निकल गए हो लेकिन तुम स्वयं उस दर्द में बहुत डूबे उतर आए हो।
शायद आज भी उस दर्द का तुम अनुभव करते हो? तो तुम क्यों बोल रहे हो कि वह दर्द झूठा है। और वो जो दर्द था, वो तुम्हारे काम आया। उसी दर्द का उपयोग करके आज तुम थोड़ा आगे निकल आए। तो उसकी भी मदद कर दो ना। सिर्फ़ कह दोगे कि दर्द झूठा है, तो वो कभी आगे ही नहीं निकल पाएगा। यही मैं आप लोगों से भी कहा करता हूँ, सीधे-सीधे किसी से भी मत बोल दीजिएगा कि तुम्हारी तो बात ही बेकार है। यही बात मैं डेरिया से भी कह रहा था। एंगेज।
ये पता होते हुए भी सामने वाले से बातचीत ज़ारी रखो। संवाद टूटना नहीं चाहिए कि वो जो बात कह रहा है, वो व्यर्थ बात है। और जब कहो कि वो बात व्यर्थ है, तो वेदान्त सिखाता है पूछना– किसके लिए? फ़ॉर व्होम? किसके लिए व्यर्थ है। आज तुम्हारे लिए व्यर्थ है क्योंकि तुम बहुत आगे निकल आए हो। कल तुम भी वैसे ही थे। कल उन्हीं बातों में तुम भी फँसे हुए थे। और तुम्हारी अगर कोई मदद नहीं करता, तो तुम आगे कैसे निकले होते।
और जिन्होंने तुम्हारी मदद करी थी तब, उन्हें भी पता था कि ये बातें व्यर्थ है, उन्होंने फिर भी तुम्हारी मदद करी। तो आज तुम उनकी मदद कर दो। ये जानते हुए भी कि वो झूठ में फँसे हुए हैं, वो धोखा दे रहे हैं, यहाँ तक कि वो तुम पर वार कर सकते हैं। ये जानते हुए भी तुम उनकी मदद कर दो। अगर तुम उनकी मदद नहीं कर रहे, तो वो वैसे ही बने रहेंगे जैसे वो अभी भी हैं। क्या तुम चाहते नहीं कि वो भी वहाँ पहुँचे, जहाँ तुम पहुँच गए हो। वो वहाँ पहुँचे, जहाँ पहुँचना उनकी भी संभावना हो सकती है।
तो ज्ञान और करुणा को एक साथ लेकर चलना पड़ता है। बल्कि, यदि ज्ञान सच्चा हो, तो उससे करुणा स्वयं ही आविर्भूत होती है। ज्ञान जिससे करुणा नहीं आ रही, किताबी है, बिल्कुल खोखला! यही मैं आपको बोल रहा था। (पिछले प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए)। हम सब कभी वैसे ही थे ना? कौन साल दो साल, चार साल की उम्र में माहज्ञानी होता है। तो आज अगर कोई मूर्खता दिखा रहा है, तो उसको इतना तिरस्कृत करने की क्या वजह।
कोई ऐसा नहीं जो कभी पशु ना रहा हो। और कोई ऐसा नहीं जो कभी भी देवता हो नहीं सकता। सब बीच में हैं। शुरुआत, तो सबकी जानवर से ही होती है। जैसे छोटा बच्चा पैदा हुआ है, पूरा जानवर। और संभावना सब में ये है कि एकदम शिखर पर पहुँचे। सब रास्ते में ही है। जब, सब रास्ते में ही हैं, तो अपने सह-यात्री की थोड़ी मदद कर ही दो। वो अलग नहीं है, हमसे। बस, हमसे पीछे है। आप, मान लिया कि बहुत आगे निकल आए। आपको परिस्थितियों ने सहारा दे दिया।
आपके साथ कुछ सुखद संयोग हो गए। कुछ आपने चुनाव अच्छे किए। कुछ आपने पात्रता खूब दर्शाई। मानी, ये सारी बात! लेकिन आप जहाँ हैं, पीछे वाला भी वहाँ पहुँच सकता है। भूलिए नहीं! और भूलिए नहीं कि आपने जो आज ऊँचाई हासिल करी है, उसमें आपकी पात्रता का, आपके चुनाव का, आपके श्रम का योगदान है, साथ ही साथ सहयोग और अनुकंपा का, अनुग्रह का भी बहुत बड़ा योगदान है। अपने दम पर इतना आगे आप नहीं निकल पाते।
अगर सिर्फ़ अपने दम की बात होती, तो इतना आगे नहीं निकल सकते थे। किसी का सहारा मिला था आपको! जब किसी का सहारा आपको मिला था, तो दूसरे को भी दिया जा सकता है। फिर वो एकदम ही ना ले, दुत्कार दे आपको, तो दूसरी बात। लेकिन सहारा ना देना, तो कहीं से जायज़ नहीं।
ज्ञान के साथ एक कठोरता आने का खतरा रहता है। वो कठोरता नहीं आनी चाहिए। ज्ञान के साथ व्यक्ति को और नम हो जाना चाहिए। ज्ञान अगर वास्तविक है, तो आपको प्रेमी बना देगा।