मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2017)

Acharya Prashant

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मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई || आचार्य प्रशांत, मीराबाई पर (2017)

आचार्य प्रशांत: गिरधर गोपाल एक नहीं हैं।‌ गिरधर गोपाल कोई एक नहीं हैं। गिरधर गोपाल कोई इकाई नहीं हैं। गिरधर गोपाल कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी सीमा बनाई जा सके, जिसकी कल्पना की जा सके, जिसे रूप दिया जा सके या जिसको नाम भी दिया जा सके। और इसका प्रमाण ये है कि जहाँ एक होता है वहाँ दूसरे का होना तय है और मीरा कह रही हैं — 'दूसरो न कोई'।

आप जब भी एक की बात करते हैं तो उसमें दूसरे का भाव निहित होना तय है क्योंकि एक वही होगा जिसकी सीमा होगी। एक अगर कहीं होगा तो कहीं ख़त्म भी होगा, अन्यथा आप उसे एक कह न पाएँ।

ये एक यंत्र है, ये यदि एक यंत्र है तो वो यहाँ पर आकर ख़त्म भी हो जा रहा है। उसकी एक सीमा है उसे ख़त्म होना है। ये एक कुर्सी है। यदि ये एक कुर्सी है तो इसको कहीं पर ख़त्म होना है। जहाँ एक है वहाँ खात्मा है, जहाँ एक है वहाँ अंत है।

गिरधर गोपाल का कोई अंत नहीं हो सकता इसलिए गिरधर गोपाल कुछ नहीं हो सकते। जो कोई भी कुछ होगा उसे कुछ बनाकर आप उसका अपमान कर देते हैं। क्योंकि कुछ बनाया नहीं कि बहुत कुछ से उसको निर्वासित कर दिया।

मंदिर में मूर्ति रखी नहीं कि उसे घर से, दुकान से और बाज़ार से निष्कासित कर दिया। 'दूसरो न कोई', दूसरेपन का अभाव — इस दूसरेपन के अभाव को जिसे मीरा प्रेम की भाषा में गा रही हैं, ज्ञान की भाषा में कहते हैं अद्वैत।

दूसरापन यानी द्वैत। दूसरापन यानी दो दिखते हैं: अच्छा-बुरा, काला-सफेद। आप एक व्यक्ति हैं, आप यदि यहाँ बैठी हुई हैं तो निश्चित रूप से कोई जगह ऐसी होगी जहाँ आप?

श्रोता: नहीं होंगी।

आचार्य: नहीं होंगी। ये द्वैत कहलाता है। जहाँ पर आपका होना ही आपके न होने पर निर्भर करता है। यदि आप सर्वत्र हों तो आप हो नहीं सकते। आप होंगे ही तभी जब आप सीमित हों, जब आपकी काया की, जब आपके रूप और आकार की सीमा दिखती हो तभी तो हम कह पाते हैं न कि आप हैं?

यही द्वैत है। जहाँ पर आपका होना इतना मामूली, इतना शक्तिहीन है, इतना दुर्बल है कि वो आपके न होने पर निर्भर करता है। ऐसे होने से भगवान बचाए! ऐसे होने से न होना बेहतर है।

आकाश सर्वत्र है। आप कभी कह पाते हैं कि आकाश है? बड़ा मुश्किल होगा। जब आप दावा भी करना चाहते हैं — आकाश है, तो आकाश की आप तुलना करते हैं किसी विरोधी वस्तु से और फिर कहते हैं कि आकाश है। आप ऐसे कहते हैं — आकाश है क्योंकि देखो, ये नदी है न? यहाँ मुझे आकाश नहीं दिखाई देता है। ये पृथ्वी है न! तो फिर आप कहते हैं, ये पृथ्वी ये आकाश।

जो लगातार हो, जो निरंतर हो वो कभी इंद्रियों में समा नहीं सकता। जब समा नहीं सकता तो आप कैसे कह दोगे कि है?

ये जो दीवार है आपके सामने यदि इसकी कोई सीमा न आती हो कहीं, यदि ये अनंत हो तो आपको ये दीवार दिखाई नहीं पड़ेगी। यदि इसकी न ऊपर की सीमा हो, न नीचे की, न दाऍं की, न बाऍं की। ये दीवार यदि अनंतता हो तो आपको इस दीवार का कोई प्रतिभास ही नहीं होने का। आप कह ही नहीं पाओगे कि ये दीवार है।

दीवार है, क्योंकि दीवार की?

श्रोतागण: सीमाएँ हैं।

आचार्य: सीमाएँ हैं। गिरधर गोपाल की सीमा बनानी है क्या? नहीं बनानी है। मीरा बख़ूबी जानती हैं इसीलिए मीरा कहती हैं — ‘दूसरो न कोई’।

जहाँ द्वैत है, वहाँ कृष्ण नहीं हो सकते। जहाँ सीमाएँ हैं, वहाँ कृष्ण नहीं हो सकते। सीमाओं के इस अभाव को ही कृष्णत्व कहा जाता है। कृष्ण कोई देवमूर्ति नहीं, कृष्ण कोई इतिहास-पुरुष नहीं, कृष्ण कोई कल्पना नहीं, कृष्ण कोई मिथ नहीं।

एक अनंतता हैं कृष्ण। एक असीमितता हैं कृष्ण। एक ऐसी हस्ती जो नाम और चित्त के परे हैं। एक ऐसी सत्ता जिस पर अहंकार अपना हाथ नहीं डाल सकता। जिसके बारे में अहंकार को ये भी नहीं कहना चाहिए कि वो कृष्ण को समर्पित है। क्योंकि आप तो अगर समर्पण करोगे तो किसी के सामने करोगे। कृष्ण हैं कहाँ कि उनके सामने करो। जब भी कुछ कहीं होता है तो वो मात्र वहीं होता है।‌

आप अभी यहाँ बैठे हुए हैं तो क्या आप दिल्ली में हैं? कहिए। नहीं हैं न! आप कहो कि मैंने कृष्ण के सामने समर्पित किया तो यानि कृष्ण वहाँ हैं जहाँ आप हैं। तो फिर कृष्ण को कहीं से अनुपस्थित भी होना पड़ेगा। आप कहाँ से कृष्ण को अनुपस्थित करा रहे हो? अपने ही जैसा बना दिया न उनको! कि ऋषिकेश में हैं तो दिल्ली में नहीं हैं।

और यदि आप कहते हो कि आप कृष्ण के सामने समर्पित हुए तो इसका अर्थ ये भी है कि कोई अन्य भी था जिसके सामने समर्पित होने का विकल्प था। आप कभी ये कहते हो क्या कि आपने ऑक्सीजन की साँस ली? आप सिर्फ़ इतना ही कह देते हो, कि आपने साँस ली। क्योंकि साँस लेने में कोई विकल्प तो होता नहीं। आप सल्फ़र डाइऑक्साइड की तो साँस नहीं ले सकते न? आप मीथेन की साँस नहीं ले सकते न? तो इतना ही कहना काफ़ी होता है कि साँस ली।

तो जैसे ये कहना काफ़ी है कि साँस ली, ये पुछल्ला जोड़ना ग़ैरज़रूरी है कि मैंने ऑक्सीजन से साँस ली। ठीक इसी तरह से ये कहना काफ़ी है कि समर्पण किया। ये कहना नितांत अनावश्यक है कि कृष्ण के सामने समर्पण किया। क्योंकि और किसके सामने करोगे? और है कौन? और कहाँ?

बार-बार ये कह करके कि ‘ऑक्सीजन की साँस ली’, क्यों शब्दों को बर्बाद करते हो? बार-बार ये कहकर कि ‘मैं तो कृष्ण का भक्त हूँ’, क्यों भक्ति को बर्बाद करते हो?

‘दूसरो न कोई’ सूत्र है। ‘मेरो तो गिरधर गोपाल’ उसके साथ जो जोड़ा है ‘दूसरो न कोई’, ये मीरा की बड़ी महिमा है। अगर वो इतना ही कह देतीं ‘मेरो तो गिरधर गोपाल’ तो हो सकता है कि संशयी बीज छूट जाते।

हम भी भूल वही करते हैं जो मीरा चाहती हैं कि हम न करें। मीरा कह रही हैं पहली ही पंक्ति में ज़ोर देकर ‘दूसरो न कोई’, हम उसको भूल जाते हैं। हम ये तो दावा ख़ूब कर देते हैं कि हम तो बड़े भक्त हैं श्याम के, कृष्ण के, ये देखना भूल ही जाते हैं कि ये दूसरापन हटा कि नहीं हटा। कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बहुत सारे दूसरे अभी जीवन में उपस्थित हों। और अगर दूसरापन अभी है जीवन में, द्वैत है जीवन में, तो कृष्ण कहाँ से आ गये!

'दूसरो न कोई!'

पंक्ति के दो खंड को यदि, 'मेरे तो गिरधर गोपाल' और 'दूसरो न कोई' और पूछा जाए कि दोनों में से ज़्यादा आवश्यक कौन-सा है? तो समझ लीजिएगा कि ज़्यादा आवश्यक है?

श्रोतागण: दूसरो न कोई।

आचार्य: 'दूसरो न कोई।' 'दूसरो न कोई' हट गया तो फिर तो ये कहने की ज़रूरत भी नहीं कि मेरे तो गिरधर गोपाल। क्योंकि गिरधर गोपाल तो स्वभाव हैं, वो तो हृदय में बैठे हुए हैं। वो तो हैं ही। हम दूसरों को ला-लाकर के उन पर आच्छादित कर देते हैं, ढक देते हैं।

प्रश्न है आपसे मेरा — दूसरे किस सीमा तक आपके जीवन में मौजूद हैं? और अगर दूसरे मौजूद हैं तो कृपा करके ये अहंकार मत रखिएगा कि आप कृष्णभक्त हैं। जिसके जीवन में ज़रा भी कुछ ऐसा है जो सीमित है, जो क्षुद्र है, जो समय में आया है और समय उसे ले जाएगा; जो मानसिक है, जो चित्त में वास करता है — जिस किसी ने उसको महत्व दे रखा है उसे अभी ये कहने का हक़ नहीं है कि वो कृष्ण का हुआ। दोनों एक साथ नहीं चल पाएँगे।

एक दफ़े मैंने पूछा था, मैंने कहा था कि विष्ठा को अगर मंदिर में रखोगे तो मूर्ति को कहाँ रखोगे? तुम अगर अपने क्षुद्र मसलों को भी बड़ी गंभीरता से ले रहे हो तो तुमने अपनी क्षुद्रताओं को और कृष्ण को एक ही तल पर तो उतार दिया! ये कृष्ण का महा अपमान है।

तुम कहते हो, ‘कभी-कभी तो सोचता हूँ अपनी दुकान के बारे में, अपने परिवार के बारे में, अपनी पढ़ाई के बारे में, अपने रोज़गार, अपने पैसे के बारे में, अपनी प्रतिष्ठा के बारे में। और कभी-कभी मैं सोच लेता हूँ कृष्ण के बारे में और गीता के बारे में और अर्जुन के बारे में।’ तो तुम देख रहे हो तुम क्या कर रहे हो?

तुमने कुछ ऐसा-सा कर दिया है कि जैसे ये मेज़ हो, इस मेज़ पर बहुत सारे द्रव्य रख दिए गये हों। (मेज़ पर रखी वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) ये दुकान है, कभी तुम्हारा मन किया तुमने दुकान उठा ली। ये परिवार है, कभी तुम्हारा मन किया तुमने परिवार उठा लिया। ये समाज है, कभी तुम्हारा मन किया तुमने समाज उठा लिया। ये तुम्हारा बैंक बैलेंस है, कभी तुम्हारा मन किया तुमने इसकी परवाह कर ली। ये भविष्य की सुरक्षा है, ये परिवार का मोह है, ये अतीत की घटनाएँ हैं, स्मृतियाँ हैं, और ये (कागज़ हाथ में उठाते हुए) कृष्ण और मीरा हैं। कभी-कभार तुम्हारा मन किया तुमने इनको भी उठा लिया। तुम देख रहे हो तुमने क्या करा है? तुम किसी के नहीं हो।

इन सबका मालिक कौन है? मेरा मन किया मैंने दुकान उठाई, मेरा मन किया बाज़ार उठाया, मेरा मन किया परिवार उठाया और मेरा मन किया अगर, तो मैं तीर्थ भी कर आया।

तो सबका मालिक कौन है?

श्रोतागण: मन।

आचार्य: मन। तो एक ही भगवान है फिर तुम्हारा। तुम्हारा अपना अहंकार। दूसरे का न होना बहुत ज़रूरी है। अन्यथा तुम यही पाओगे कि तुम दुनियादारी को और कृष्ण को एक ही तल पर रखे हुए हो।

जब तुम्हें सुविधा होती है तब तुम रसोईघर में घुस जाते हो और जब तुम्हें सुविधा होती है तुम पूजाघर में घुस जाते हो। तुमने अपने ही मकान के हिस्से बना रखे हैं। तुमने समय भी निर्धारित कर दिया है। तुमने स्थान भी निर्धारित कर दिया है।

'दूसरो न कोई' — पूरा घर पूजाघर होना चाहिए। और इसीलिए घरों में पूजाघर होना ही नहीं चाहिए क्योंकि पूजाघर बना करके तुम पूजाघर को सीमित कर देते हो। पूरा घर मंदिर होना चाहिए। शयन कक्ष भी, शौचालय भी, रसोई भी, सब मंदिर होने चाहिए।

जिस घर में मंदिर न हो वो घर तो चलेगा लेकिन जिस घर में मंदिर एक कोने में हो वो घर नहीं चलेगा। एक कोने में मंदिर बनाने से तो यही अच्छा है कि न ही बनाओ। मंदिर का अर्थ है: असीम को तुम्हारी श्रद्धा, असीम को तुम्हारी भेंट। जो तुम असीम को भेंट में दे रहे हो, वो सीमित कैसे हो सकता है?

'दूसरो न कोई' — मन से दूसरों का ख़्याल जाता रहना चाहिए। मन से दूसरेपन का ख़्याल जाता रहना चाहिए। जब तक मन में दूसरे वास करते रहेंगे तब तक मीरा को जान नहीं पाओगे, नाम रहेगी तुम्हारे लिए मीरा।

मीरा को तो हम बस श्रद्धा रूप में ही जानते हैं न कि मीरा बड़ी भक्त थीं। मीरा के केंद्र में जितनी भक्ति बैठी है उतना ही भक्ति रूप में साहस बैठा हुआ है। परिवार ने विष दिया, समाज में बदनामी हुई; घरवाले कहते रहे गये, ‘तू क्या पागलपन करती है! रैदास को गुरु बना लिया!’ और जातिप्रथा प्रबल थी। रैदास चर्मकार थे। बड़ा भारी संत हो तो भी समाज उसे जातिगत दृष्टि से ही देख रहा था उन दिनों।‌

समाज को अजीब लगता था, मीरा रानी, उच्च वर्ग, उच्च कुल, उच्च वर्ण की जाकर के एक साधारण, गरीब, तथाकथित निचली जाति के संत के पास बैठती थी। सम्राज्ञी होकर सड़कों पर यूँ ही नाचती फिरती थी। न प्रतिष्ठा की सुध, न पर्दे की सुध — बड़ा साहस चाहिए। और जब तक दूसरे हैं तुम्हारे जीवन में, साहस नहीं आएगा। क्योंकि जहाँ दूसरा है वहीं डर है।

'द्वितियात् भयं भवति' — दूसरा ही भय है। जहाँ दूसरेपन का भाव आया, वहाँ तुमने अपनेआप को सीमित करा लिया और तुम्हें अपनी सुरक्षा का डर लगने ही लगेगा। तुम्हें दूसरे के अलावा कभी किसी ने डराया है? और जो डराता है वही दूसरा हो जाता है; दूसरा माने पराया।

मीरा नहीं हो पाओगे, मीरा के पास तो बड़ा साहस है। मीरा के पास जितना साहस है हमारे पास उतनी ही सिहरन है, हम डरे-डरे घूमते हैं। हम डरे-डरे इसलिए घूमते हैं क्योंकि हमारे जीवन में दूसरों का बड़ा महत्त्व है। ‘दूसरे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? दूसरे मेरे बारे में क्या बोल रहे हैं?’ — तुम्हें इससे ज़्यादा कोई बात डरा सकती है? और इसके अलावा कभी किसी चीज़ से डरे हो?

मेरे पास छात्र कुछ साल पहले तक ख़ूब आते थे। कॉलेजों में आना-जाना था, उनसे बात करता था। उनका मुँह उतरा देखूँ, उनसे बात करूं, अक्सर एक बात सामने आती थी, बल्कि दो बातें — या तो परीक्षा में अंक ठीक नहीं आ रहे हैं या नौकरी नहीं लग रही है। इसके अलावा उन्हें कोई तकलीफ़ आमतौर पर होती नहीं थी।

तो एक दफ़े वो ऐसे ही मिले, सुबह-सुबह अच्छा मौसम, ऐसे ही बसंत खिला हुआ था। और मिले, और मुँह उतरा हुआ है। मैंने कहा, ‘हुआ क्या? बोलो तो।’ बोलने को राज़ी नहीं। और बैठे हुए हैं पचास-सौ जने। मैं पूछ रहा हूँ, ‘बात क्या है? बताओ।’ तीन-चार साल पहले की बात होगी। कहें, ‘नहीं, कुछ नहीं।’ लगे कि रो देंगे। फिर पता चला कि अभी दो-चार दिन पहले इनका परीक्षा-परिणाम आया है। सब लटके हुए थे!

मैंने बोला, "किस बात पर उदास हो? सही बताना। तुम्हारा ये परीक्षा-फल ऐसा ही रहे लेकिन इसे किसी अलमारी में बंद कर दिया जाए, जीवनभर किसी को पता न चले। माँ-बाप भी न जान पाएँ, कभी किसी इंटरव्यू (साक्षात्कार) में भी न पूछा जाए, कभी कहीं प्रदर्शित करने की ज़रूरत न पड़े, तो क्या तब भी इतने उदास रहोगे?"

बोले, "ऐसा हो नहीं सकता! कोई-न-कोई तो जान ही लेगा, कोई न कोई तो पकड़ ही लेगा।"

मैंने कहा, "मैं करे देता हूँ, ऐसा नहीं होगा। कि ये जो नंबर आए हैं, इतने ही रहेंगे, कभी किसी को पता नहीं चलने वाले, तो?"

बोले, "फिर कोई समस्या नहीं है। या अगर है भी, तो बस पाँच प्रतिशत बची। हल हो गई।"

मैंने कहा, "तुम देख रहे हो! तुम्हें बुरा ये नहीं लग रहा कि नंबर कम आए। तुम्हें बुरा ये लग रहा है कि दूसरे क्या सोचेंगे। दूसरों की नज़र में गिर तो नहीं जाओगे, दूसरों को दिखाओगे तो क्या सफ़ाई दोगे! नौकरी न लगने पर भी यही बात है। अपने खर्चे तो बड़े मामूली हैं।"

पूछूँ कि कितने खर्चे हैं तुम्हारे महीने के। तो कोई छः-आठ हज़ार से ज़्यादा बोले ही न। कोई-कोई तो बोले, ‘दो तीन हज़ार!’

"तुम इसके लिए रो रहे हो! क्या नौकरी न लगने पर रोने की वजह ये है कि इतना भी कमा नहीं पाओगे?"

बोले, "इतना तो कमा लेंगे कुछ भी करके। ये क्या है? मामूली-सी रक़म है, कुछ भी करेंगे आ जाएगी।"

मैंने कहा, "तो फिर क्यों रोते हो नौकरी नहीं लगी तो?"

तो वो समझ जाएँ। जवाब क्या दें वो।

दूसरा ही तुम्हारे दुख का कारण है। हम क्योंकि हैं नहीं, हम दूसरों की नज़र में कुछ होते हैं अन्यथा हम मौलिक रूप से मूल रूप से, मुक्त रूप से कुछ होते ही नहीं। हमारा अस्तित्व कहाँ होता है? दूसरे की दृष्टि में। और जीने के दो ही तरीके हैं — या तो कृष्ण की शरण में जी लो मीरा की तरह, और फिर तुम्हें किसी की फ़िक्र की ज़रूरत नहीं है क्योंकि 'दूसरो न कोई'। या जाओ और दूसरों की नज़रों में जियो। और दूसरे उठा दें तो उठ जाओ, दूसरे गिरा दें तो गिर जाओ। उम्रभर डरते-डरते, काँपते-काँपते जिओगे — ‘किसी को पता तो नहीं लग गया हमारे दुर्गुणों का!’

और अगर कुछ अच्छा हो गया है तो भोंपू बजाओगे, ढिंढोरा पीटोगे, पूरी दुनिया को पता चलना चाहिए। ‘अरे! सोनू की नौकरी लग गई, ढिंढोरा पीटो!’

भक्त हैं मीरा और भक्त में जितनी गहरी बुद्धि होती है उतनी गहरी बुद्धि चालाकी और चतुराई में नहीं होती। आप चालाक होकर ये तो कर लोगे कि दूसरों पर हावी हो जाओगे; आप चतुर होकर ये तो कर लोगे कि दूसरों से जीत जाओगे, पर चालाकी और चतुराई आपको दूसरों से मुक्त नहीं कर देगी। वो आपको दूसरों से जिता सकती है, वो आपको दूसरों पर हावी करा सकती है लेकिन दूसरों से मुक्त नहीं करा सकती। दूसरों से मुक्त तो शरणागति ही कराती है।

तुम किसी से जीत भी गये तो क्या मुक्त हो गये उससे? ध्यान से बताना।

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य: हार का डर लगातार बना रहेगा। जिससे जीते हो वो पलट के वार करेगा। और कोई भी जीत कभी पूर्ण नहीं होती। जीत में हमेशा कुछ-न-कुछ कोर-कसर तो बची रह जाती है। तो मुक्ति तो नहीं मिली न जीत के भी! हावी होकर भी मुक्ति नहीं मिली। मुक्ति बड़ी बात है।

तुम जिस पर चढ़े हुए हो, हावी हो, वो तुमसे मुक्त नहीं है। तुम ये बता दो क्या तुम भी उससे मुक्त हो? दो पहलवान हैं दंगल में, एक दूसरे के ऊपर चढ़ा है, दोनों में से कोई मुक्त है? हाँ, ऐसे देखोगे स्थूल, तो लगेगा कि एक जीता, एक हारा। मेरी दृष्टि में दोनों हारे क्योंकि दोनों बँधे हुए हैं, दोनों गुलाम हैं।

भक्ति का अर्थ है दूसरे से मुक्त ही हो गये, परवाह ही नहीं रही। परवाह रही तो किसकी? कहिए, किसकी? कृष्ण की। और कृष्ण आपके अभिमत की, आपकी कल्पना के, आपकी बुद्धि के, आपकी कलाकृति के गुलाम नहीं हैं। आप मंदिर बना लें, उसमें देव-मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दें, उसे कृष्ण नहीं कहते। आप कहीं चले जाएँ और तीर्थ यात्रा कर आएँ, उसको भगवान नहीं कहते।

दूसरेपन का अभाव है कृष्णत्व, बार-बार कह रहा हूँ। और इसीलिए मीरा ने दोनों बातों को एक ही पंक्ति में, एक साथ, अगल-बगल जोड़ कर कहा है। दूसरेपन का अभाव। जब तक जीवन से ये दूसरे नहीं विदा हुए तब तक कहाँ आप कृष्ण की बात कर रहे हैं, झूठी बात!

दूसरे विदा हुए कि नहीं हुए?

दूसरापन विदा हुआ कि नहीं हुआ?

परायापन विदा हुआ कि नहीं हुआ?

द्वैत गया कि नहीं गया?

समझ रहे हैं?

याद रखिएगा, अगर द्वैत नहीं गया है, तो सबसे बड़ा द्वैत होता है — आना और जाना। जो आया है वो जाएगा। जो जा नहीं सकता वो आ भी नहीं सकता। आना निर्भर है जाने पर। अगर जीवन से द्वैत नहीं गया है तो आप कृष्ण से कोई वफ़ादारी नहीं निभा पाएँगे।

क्यों?

क्योंकि कृष्ण भी फिर आपके लिए आने-जाने वाली चीज़ रहेंगे। कभी आए हैं, कभी चले भी जाएँगे। ये कृष्ण तो वस्तु हैं, व्यक्ति हैं, चित्र हैं, कल्पना हैं। आपकी कृति हैं! ये कृष्ण तो वो हैं जिनका ख़्याल आपको गहरी नींद में नहीं रहता। ये कृष्ण तो वो हैं जिनका ख़्याल आपको तब नहीं रहता जब सब कुछ आपके मन मुताबिक चल रहा होता है।

ये कृष्ण तो वो हैं जिनको आप एक वर्ष की अवस्था में या दो वर्ष की अवस्था में नहीं जानते थे। ये कृष्ण तो वो हैं जिन्होंने कहानियों के माध्यम से और ज्ञान के माध्यम से कभी आपके चित्त में स्मृति-रूप में प्रवेश किया था, कभी आए थे। अगर कभी आए थे, तो जाना भी फिर तय है।

जिन कृष्ण का जाना तय है, आप उनके प्रति समर्पित कैसे हो पाएँगे? जो कृष्ण आपके जीवन में आए ही दूसरों के माध्यम से थे, वो तो दूसरों का ही संबल लेकर के खड़े हुए हैं। कभी आपको किसी ने बता दिया था कृष्ण, तो कृष्ण आपके जीवन में आ गये। कभी परिस्थितियाँ बदलेंगी, दूसरे और हावी हो जाएँगे, वो कुछ और कहेंगे, वो कृष्ण पर हावी हो जाएगा। ये कौन-सी वफ़ादारी हुई! ये कौन-सी भक्ति हुई!

जो किसी का नहीं होता, वो कृष्ण का हो जाता है। और जो कृष्ण का हो गया, समूचा संसार उसका हो जाता है। ये बड़ी अजीब बात है। हम चाहते हैं लोग हमारे रहें। हम चाहते हैं कि हमारे नात-रिश्तेदार, बेटा-बेटी, पति-पत्नी, भाई, दोस्त, हमसे वफ़ा करें। लेकिन जो आपसे ही वफ़ा कर रहा है वो कृष्ण से वफ़ा कैसे कर पाएगा? जिसे कृष्ण से वफ़ा निभानी है उसे तो सारे संसार की दृष्टि में बेवफ़ा होना ही पड़ेगा।

लेकिन कहानी यहॉं रुकती नहीं है। जो कृष्ण का हो गया, दोहरा रहा हूँ, पूरा संसार उसका हो जाता है। भले ही प्रथमतया ये लगा हो कि वो संसार के प्रति बेवफ़ा है। कि जैसे उसकी कोई निष्ठा नहीं है। हम इतना डूबे हुए हैं आकंठ दुनियादारी निभाने में कि हमारे लिए तो दुनिया-ही-दुनिया है और कृष्ण भी दुनिया के हिस्से मात्र हैं!

जब दिख जाए कि दुनिया निस्सार है तब जानना कि कृष्ण की कृपा हुई तुम पर। और जिस दिन दिख गया कि दुनिया निस्सार है उस दिन दुनिया से ऐसा प्यार उठेगा तुम्हें कि छलकता-छलकता फिरेगा। ये बात विरोधाभासी लगेगी, तुम कहोगे ये क्या कह रहे हैं!

आज तो तुम्हें दुनिया सारयुक्त लगती है न! मैं पूछ रहा हूँ — आज प्यार है तुम्हें दुनिया से? तो देख लो क्या हो रहा है। जब तक दुनिया तुम्हें महत्वपूर्ण लगेगी, जब तक वो गंभीर वस्तु लगेगी, तब तक दुनिया सिर्फ़ तुम्हारे लिए भय का, महत्वकांक्षा का और रोने का विषय रहेगी।

दुनिया क्या है तुम्हारे लिए?

दुनिया तुम्हारे लिए एक अधूरा लक्ष्य है, एक अनफ़िनिश्ड एजेंडा (अधूरा एजेंडा) है। कोई है यहाँ पर जिसकी कहानियाँ पूरी हो गई हों? दुनिया सबके लिए एक आधा छूटा हुआ काम है। दुनिया हम सबके लिए एक अपूर्ण प्रोजेक्ट (परियोजना) है। दुनिया हमारे लिए ऐसी है कि जैसे कोई कहानी शुरू की हो और पूरी न हो पा‌ रही हो। दुनिया हम सबके लिए अतृप्ति है।

है कि नहीं?

कोई है ऐसा जिसकी कहानियाँ पूरी हो गई हों? किसी को देखा जिसकी कहानी आखिरी साँस में भी पूरी हुई हो? हम सब अपनी कहानियों के बीच ही मर जाते हैं। हम सबका ऐसा है कि जैसे कोई फिल्म देखने गये हों और मध्यांतर में हमें ज़बरदस्ती उठाकर के हॉल से बाहर फेंक दिया जाए; कैसा लगता है? कहानी के बीच में ही बाहर फेंक दिए गये! ऐसे हमारी मौत होती है।

कहानी अभी चल ही रही थी, गुड्डू का विदेश जाना बाकी था, गुड़िया की शादी अभी बाकी थी और मौत आ गई! और तुम मौत से कह रहे हो — थोड़ी राहत दे, ज़रा-सा रुक जा। वो कहेगी, ‘धत्त! बहुत देखे हैं तुझ जैसे। चल!’

दुनिया जब तक तुम्हारे लिए सारयुक्त है, तब तक दुनिया तुम्हारे लिए भारयुक्त है। दुनिया में सार लगा तो दुनिया फिर भार बनी। जब दुनिया तुम्हारे लिए निस्सार हो जाएगी, तब दुनिया भयानक नहीं लगेगी। तब दुनिया से प्रेम का रिश्ता बैठेगा। जहाँ डर है वहाँ प्रेम तो नहीं हो सकता न! दुनिया गम्भीर लगती है, कीमती और महत्त्वपूर्ण लगती है तो दुनिया से डरते रहोगे। जब कहो कि दुनिया से कोई लेना-देना नहीं, तब दुनिया से एक अलग लेन-देन शुरू होता है। वो मोहब्बत कहलाती है।

ये बात हमें अजीब लगेगी हम कहेंगे, ‘साहब, जिनसे मोहब्बत होती है, उनसे तो रिश्ता नाता होता है न! लेन-देन होता है।’ न! हमारे जिस तरह के लेन-देन होते हैं, उनमें कोई मोहब्बत नहीं होती। ये लेन-देन जब रुक जाऍं, तब मोहब्बत जानना। हमारे तो जैसे लेन-देन होते हैं वो तो व्यापार के होते हैं। ‘तू मेरा है तो मेरे लिए करके ला। और मेरे लिए करके ला रहा है तब तक मेरा है। और जिस दिन तूने मेरी उम्मीदों पर खरा उतरना छोड़ दिया उस दिन तू मेरा नहीं।’

ये हमारा लेन-देन वाला प्यार है। मैं कह रहा हूँ जिस दिन ये लेन-देन वाला प्यार रुकता है, जिस दिन दुनिया तुम्हारे लिए निस्सार हो जाती है, उस दिन दुनिया तुम्हारे लिए उपहार हो जाती है। अब उसके लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ी न! कुछ देना नहीं पड़ा, अब बस लिया है। अब अनुग्रह उठता है भीतर से। द्वैत से अद्वैत की यात्रा, भार से उपहार की यात्रा है। दुनिया को छोड़ दो, दुनिया तुम्हारी हो जाएगी। इसी को कृष्णत्व कहते हैं।

अभी बीते सत्र में मैं सुदामा की कथा कह रहा था। कितनी मीठी है! कृष्ण के पास गये, कुछ माँगा नहीं, सब मिल गया। माँगने जाओगे, फूटी कौड़ी न पाओगे। और उससे भी बुरा ये हो सकता है कि माँगने जाओ और जो माँगो वो मिल भी जाए। अब तो लगा लो नर्क हो गया।

वो तो कृष्ण के पास यूँ ही गये थे आनंद में, अतिरेक में। गये और गदगद! कुछ न माँग पाए। वापस लौटते हैं तो देखते हैं बड़ा महल खड़ा हुआ है। बीवी-बच्चे अनूठे बनकर घूम रहे हैं। बच्चों से पूछ रहे हैं, ‘बेटा यहाँ पर एक सुदामा गरीब की झोपड़ी हुआ करती थी, कहाँ गई?’ बच्चों को ही न पहचान पा‌ रहे हैं। बीवी हँस रही है। बीवी से पूछ रहे हैं, ‘बहन जी, यहाँ पर सुदामा की भार्या घूमा करती थी, गरीबन, चीथड़ों में। कहाँ गई?’ वो भी हँस रही है।

दुनिया को छोड़ा, कृष्ण के पास गये, सब मिल गया। दुनिया से जब तक चिपके हुए थे, गरीबी ही गरीबी, गरीबी ही गरीबी।

फिर कह रहा हूँ, दुनिया को छोड़ा, कृष्ण के पास गये, सब मिल गया। और दुनिया को छोड़ना और कृष्ण के पास जाना दो अलग-अलग बातें हैं। एक बात है ‘दूसरो न कोई’; ‘दूसरो न कोई’। मुग़ालते में मत रहिएगा, भ्रम मत पालिएगा। यूँ ही अपनेआप को कृष्ण भक्त न कहते फिरिएगा। जब तक आपके माथे पर दुनिया का बोझ बैठा हुआ है तब तक कृष्ण नहीं हो सकते। जब तक इस मेज़ पर दस वस्तुएँ रखी हैं तब तक कृष्ण नहीं हो सकते। कृष्ण का अर्थ ये भी नहीं है कि इस मेज़ पर सिर्फ़ ये रखा हो (मेज़ पर रखी कोई वस्तु उठाते हुए), खाली मेज़ को कहते हैं कृष्ण।

मीरा की सेज‌ खाली है, आपकी कम-से-कम मेज़ तो खाली हो। मीरा किसी को भी नहीं सुला लेती अपनी सेज पर, कहती है, ‘एक पति है; जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई’। पाँच-दस पति नहीं हैं उसके। उसने सेज़ खाली करी है, आप मेज़ खाली करिए। ये मेज़ मन है आपका, इसको खाली करिए। इस खालीपन को, इस निरब्ध शून्यता को, इसको कृष्णत्व कहते हैं।

सेज सजानी नहीं है, खाली करनी है। जब तुम्हारी सेज खाली हो जाती है तब उस पर परमात्मा उतरता है। जब तुम्हारा मन खाली हो जाता है तब उस पर कृष्ण उतरते हैं। उतरने की भी ज़रूरत नहीं है, खाली मन माने कृष्ण। और मन खाली हो नहीं सकता बिना कृष्ण की कृपा के।

कृपा सदा है, तुम लेने को तैयार हो या तुमने अपने दुखों से ही नाता जोड़ रखा है? तुमने तय ही कर रखा है कि हमें तो शिकायत में ही जीना है, हमें तो दुविधा में ही जीना है, हमें तो अहंकार में ही जीना है। शिकायत कर-करके जीने में बड़ा अहंकार है, बड़ा सुख है। तुम्हें लगातार ये कहते रहने का मौक़ा मिलता रहता है कि तुम कुछ हो। तुम्हें लगातार ये कहते रहने का मौक़ा मिलता है कि दुनिया बुरी है, तुम्हारे साथ बुरा किया, तुम अधिकारी थे किसी और उच्च व्यवहार के और जो तुम्हें मिला वो अन्याय था।

तुमने यदि तय ही कर रखा हो कि तुम्हें सेज गंदी रखनी है, मेज़ गंदी रखनी है, तो तुम जानो। जीवन बहुत लंबा नहीं है। हममें से कोई ऐसा नहीं है जो पक्का करके कह सके कि अभी बहुत आयु शेष है। जितनी बची है उसमें अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाओ, अपनी हठ और अकड़ से मुक्त हो जाओ, ज़रा झुक जाओ। अपने आदर्शों, अपने मन, अपनी स्मृतियों, अपने अभिमतों, अपनी धारणाओं के खोखलेपन को देखो। इसी को कृष्णत्व कहते हैं।

मीरा वो जिसने वो कर दिखाया जो आपके सामने कोई करे तो आप उसको पागल कहेंगे। आपकी अपनी बिटिया हो, वो मीरा जैसी हो जाए, आप उसे घर से निकाल देंगे। ‘अरे! किसी जीते-जागते पर फ़िदा हो गई होती तो भी माफ़ी थी। एक देव-कल्पना, एक देव-मूर्ति, एक आदमी शायद, जो सैकड़ों साल पहले मर चुका, तू उसको पति माने बैठी है! कभी मिली उससे? तू कहती है तूने ब्याह कर लिया उससे! कौन है वो? ब्याह कैसे कर बैठी?’

और यहाँ किसी की रानी है, किसी की भाभी है। यूँ ही नहीं उसको विष दे दिया था। देवर ने विष दिया था, यूँ ही नहीं दे दिया था। आप होते तो आप भी यही करते। आप देखिए न कि आप अपने पति और पत्नी, और बेटे और बेटी के साथ क्या व्यवहार करते हैं जब वो ज़रा-सा कृष्ण की ओर बढ़ते हैं। आप उससे कहते हैं, ‘जीवन बर्बाद कर लिया न! अरे! द्वैत में जीना चाहिए था, अद्वैत क्यों चले गये? कर ली न ख़राब ज़िंदगी!’

और फिर आप कहते हैं आप कृष्णभक्त हैं। आप कैसे कृष्ण भक्त हैं जो दिन-रात मीरा को ताना मारते रहते हैं! ये बात तो समझ में नहीं आयी। जो कृष्ण को पूजेगा वो तो मीरा के पाँव धोकर पिएगा। और यहाँ मीरा पड़ जाए आपके सामने तो पूछो मत! ‘मेवाड़ की इज्ज़त का सवाल है, राजस्थान की नाक नहीं झुकनी चाहिए!’

‘क्या कर रही है? कौन है तेरा पति?’

वो कह रही है, ‘मेरो पति सोई — *दैट*।’

आप कह रहे हैं, "अरे! ‘सोई’ तो ठीक है, पर कौन सोई? कहाँ सोई?"

वो बस कह रही हैं, ‘सोई।’

अब कह रहे हैं, ‘यही तो हमें पसंद नहीं है। काहे सोई?'

नाम नहीं दिया जा सकता। इसीलिए उपनिषद् कहते हैं: तत् त्वम् असि। मीरा भी कभी साकार रूप में वर्णन कर देती हैं: गिरधर गोपाल, बंसीधर। आगे कहती हैं: शंख, चक्र, गदा, मोर-मुकुट इत्यादि। और कभी बस ‘सोई’; ‘वह’, तत् तत् तत्, *दैट*।

मीरा को देखिए, कृष्ण को जान जाएँगे। मीरा ने कभी चाहा नहीं था कि उसे पूजा जाए। मीरा ने कभी चाहा नहीं था कि उसे भक्त-शिरोमणि की तरह याद किया जाए। आज हम यहाँ बैठे मीरा को श्रद्धांजलि दे रहे हैं। आज दुनिया झुकती है मीरा के सामने। आज कृष्ण के साथ मीरा का नाम सदा के लिए जुड़ गया है।

और कौन मीरा?

मीरा वो जिसने उस सब को कीमत ही नहीं दी जो संसार उसको देने को उतावला था। मीरा सत्य के साथ जुड़ी। जो सत्य के साथ जुड़ेगा, बिना अपेक्षा, निष्काम भाव से, उसको यही मिलना है। दुनियाभर का सम्मान पाएगा, बिना माँगे। माँगा नहीं था।

आप मीरा से पूछते, ‘तू ये सबकुछ इसलिए कर रही है कि एक दिन तेरे भजन गाए जाएँ?’

मीरा कहती, ‘पागल हो क्या! मुझे ख़ुद अपनी सुध नहीं, मुझे ये सुध क्या रहेगी कि कौन मुझे कैसे देख रहा है? मुझे नहीं पता होता मेरे पाँव कहाँ पड़ रहे हैं, मुझे नहीं पता पड़ता मैं कहाँ-कहाँ झूलती हूँ, मैं क्या इस बात का ख़याल रखूँगी कि इतिहास मुझे क्या याद करेगा!’

जो इतिहास की फ़िक्र छोड़ देते हैं वो इतिहास बन जाते हैं। और जो इतिहास की फ़िक्र में डूबे रहते हैं वो वर्तमान से भी हाथ धो बैठते हैं।

समझ रहे हैं?

श्रोतागण: जी।

आचार्य: ये शिविर है, चार दिनों तक इस बात का पूरा-पूरा ख़याल करें कि आपका मन कहाँ जा करके अटक रहा है। जितना ज़्यादा उसे दुनियादारी में लौटता देखें, फँसता देखें, उतना जान लें कि अभी कृष्ण बहुत दूर हैं; उतना जान लें कि अभी तो मन को इधर-उधर का झूठन ही पसंद आ रहा है, राजभोग नहीं। बहुत सुंदर है कबीर का, मैं इसे बोलते थकता नहीं हूँ,

‘पहले तो मन कागा था, करता आतम घात। अब तो मन हंसा हुआ, मोती चुन-चुन खात।।

आपका मन क्या है — कागा कि हंसा?

श्रोतागण: कागा।

आचार्य: देखा है न कौवे को! जहाँ विष्ठा देखता है, जहाँ मैला देखता है वहीं चोंच डाल देता है। आप कहाँ चोंच डालने जाते हो? आपका मन किधर को आकर्षित हो जाता है? पकड़िएगा अपनेआप को।

इन चार दिनों को अपनी सेवा में समर्पित कर दें, कृष्ण की इससे बड़ी भक्ति नहीं हो सकती। देखिए बार-बार अपनेआप को कि मन कहाँ जाकर बैठ जाता है, कौनसी चर्चा में संलग्न हो जाता है; व्यर्थ, यूँ ही, बकवास, गाॅसिप (व्यर्थ चर्चा)।

ख़ुद भी चेतें, दूसरों को भी चेताएँ। इन्हीं दो शब्दों को मरहम की तरह भी और तीर की तरह भी इस्तेमाल करें — कागा और हंसा। बस इतना ही बोल दें। जहाँ देखें कि मन फिसला, धीरे से बोलें, ‘कागा’। आप अपने दल में हैं, वहाँ भी किसी को फिसलता देखें, बस उसे धीरे से कह दें, ‘कागा’। और जब भी ‘कागा’ कहें तो गूंजना चाहिए भीतर ‘करता आतम घात’।

जो मन कागा है वो अपना ही घात कर रहा है, अपने को ही मारे डाल रहा है, अपनी ही यंत्रणा का कारण बन रहा है। और जब कागा उड़ जाए, उस उड़ जाने को कहते हैं हंस।

बड़ा सुंदर है: हंसो। और जब आप हंसो का जाप करते हैं न, तो कहते हैं, ‘सोऽहम् हंसोऽहम् हंसोऽहम् हंसोऽहम् हंसोऽहम् हंसोऽहम् हंसोऽहम्’।

हंस कुछ है नहीं। कौवे के उड़ जाने को ही कहते हैं: हंसत्व, हंसता। उसमें भी वही आ गया: सोहम् — तत्, *दैट एम आई*। वो हूँ मैं। सोऽहम्। नाम नहीं है, प्रतिमा नहीं है, मूर्ति नहीं है। बस ‘सोऽहम्’, वो हूँ मैं। कौवा उड़ा, इसी को हंस का आना मानिएगा, किसी अन्य विशिष्ट हंस की प्रतीक्षा मत करिएगा।

किसी ने पूछा, ‘बुद्धि को क्या होना चाहिए?’

मैंने कहा, ‘उसे कौहोकिनी होना चाहिए।’

कौहोकिनी जानते हो? कौवा उड़ाने वाली। यही बुद्धि का उचित किरदार है — कौआ उड़ाओ। कौआ आए, तुम कौवे को उड़ा दो। कौवे का काम है आना, कांव-कांव करना। मन में हर समय सैकड़ों कौवे, काँव-काँव काँव-काँव काँव-काँव।

तुम्हारा क्या काम है?

कौआ उड़ाना। और उड़ाना नहीं है तो बस इतना कर दो कि कौवों को रोटी न डालो, मैला न डालो। कौवे नहीं आएँगे। जो कमरा साफ़ हो वहाँ मक्खियों को आते देखा है? और मैले कमरे से मक्खियाँ उड़ाते फिरो तो जीतोगे कभी? कहिए। बोलिए। तुम किसी दालान में बिखरा हो ख़ूब मैला, जूठन, और फिर देखो वहाँ कौवों की दावत!

कौवा उड़ाने का क्या अर्थ हुआ?

कौवों के लिए जो कुछ आकर्षक है वो रखो ही मत। तुम रखोगे नहीं, कौवे आएँगे नहीं। कौवे नहीं आए उसी अवस्था को कहते हैं: सोऽहम्, हंस उतर आया।

‘अब तो मन हंसा है, मोती चुन-चुन खात।’

तो कृष्णत्व घूम फिर करके एक छोटी-सी बात पर आ जाता है — जीवन से जूठा हटा दो, जीवन से जूठन हटा दो।

एक बड़ी सुंदर ज़ेन कहानी है। एक आगंतुक आया ज़ेन गुरु के पास। बोलता है ज़ेन सिखाइए। रात्रि का समय था, आश्रम में भोजन हो चुका था। आगंतुक बोल रहा है, ‘मुझे ज़ेन बताइए’।

गुरू ने पूछा, ‘भोजन हो गया?’

बोला, ‘जी'।

बोले, ‘फिर अपनी प्लेट को साफ़ करके रख दें। जूठन मत छोड़ना।’ ये है जीवन में जूठन न रखने का अर्थ। जो हो गया है उसे साफ़ करके रख दो।

खाना खाने के बाद क्या करते हो? बर्तन को साफ़ कर देते हो। खा लिया, अब मैला क्यों छोड़ना! यही है कृष्णत्व। यही है जीवन में जूठन न रखना। जूठन नहीं रखा, कौवे नहीं आएँगे। कौवों का न आना ही हंस का प्रादुर्भाव है। जो हो गया उसे साफ़ करके छोड़ दो। जूठा बनाए मत रखो।

कल खाए थे पकौड़े, कड़ाही में आज भी तेल क्यों है? उत्तर दो। कल बनी थी कढ़ी, मट्ठा आज भी क्यों फैला हुआ है?

श्रोता: साफ़ नहीं किया।

आचार्य: बहुत आलसी हो। या फिर चटोरे हो। बहुत लोगों को आनंद आता है। कड़ाही में जो कोने-कोने में चिपका होता है उसको उंगली से खरोंच-खरोंच के चाटने में। हम वैसे ही हैं।

‘अरे, बड़ी स्वादिष्ट कढ़ी थी कल की! उसे आज भी चाटो तो, भोजन भले नहीं मिलता पर याद तो आ जाती है वापस! पेट नहीं भरेगा उससे, पर चटोरी ज़बान को तृप्ति तो मिलेगी।’ हम वैसे हैं।

पुराना कुछ अच्छा हुआ था, उसको साफ़ नहीं कर देते। जूठन बचाए रखते हैं। पुराना कुछ बुरा हुआ था साफ़ नहीं कर देते, जूठन बचाए रखते हैं।

मैं आपसे पूछ रहा हूँ, सुबह से लेकर अभी तक आपने कितनी जूठन चाटी है? कितनी बातें पुरानी करी हैं? बीते हुए लम्हों में कितना स्वाद उठाया है? उत्तर दीजिए। 'ऐसा था और वैसा था। ये हो गया और वो हो गया।' जूठन! जूठन! चाटते रहो।

कितने चटोरे हो! चाटे जा रहे हो। बर्तन साफ़ क्यों नहीं करती? वैसे तो कहती है, ‘हम बड़ी गृहस्थी जानते हैं’, और रसोई इतनी मैली! कढ़ाई भी जूठी, चम्मच भी जूठे। करछुल तो जूठा है ही। चम्मच नदारद है, करछुल उठा-उठाकर चाट रहे हैं।

श्रोता: आपने किसको देख लिया यहाँ? (श्रोता हँसती हैं)

आचार्य: किसकी दाढ़ी में तिनका?

श्रोता: मैंने ऐसा देखा नहीं न, इसलिए।

आचार्य: जब ये प्रश्न उठे तो जान लीजिएगा कि भीतर से कौन बोल रहा है। नासमझ हममें से कोई नहीं होता, ममता जी! (श्रोता को संबोधित करते हुए) सब जानते-बूझते शरारत करते हैं। जो जूठन चाट रहा होता है न, वो भी अच्छे से जानता है कि ताज़ा पकवान नहीं है। नासमझ कोई नहीं है, जानते-बूझते करते हैं। फिर इसीलिए भीतर से बेचैनी उठती है। फिर इसीलिए प्रश्न उठता है।

फिर कह रहा हूँ जूठन न चाटिए, अतीत गया। और जूठन चाटने का शौक हो तो याद रख लीजिएगा कि भगवान को जूठे का भोग नहीं लगाया जाता। इतना तो जानते होंगे न!

जिनके घरों में जूठा-ही-जूठा हो, वो क्या भगवान को भोग लगाएँगे! भोग लगाना है तो ताज़े में जीना सीखिए, नए में, वर्तमान में। तब तो भोग लगा पाएँगे, नहीं तो क्या भोग लगाएँगे।

अतीत में जिए जा रहे हैं, दुनिया हावी है, स्मृतियाँ हावी हैं। वही-वही, वही-वही, वही-वही! ‘करता आतम घात।’

श्रोता: ठूँस-ठूँस कर भरा हुआ है।

आचार्य: और दोनों बातें हैं। ठूँस-ठूँस के भरा हुआ है जूठन तब भी! और जो आपकी स्थिति है वही सबकी स्थिति है, मेरी भी। हम सब एक हैं। कुछ के पेट भारी हैं, जिनके पेट नहीं भारी हैं, उनके सिर भारी हैं।

श्रोता: आचार्य जी, ऐसे तो ढीठ होना पड़ेगा।

आचार्य: क्या कह रही हैं — ढीठ होना पड़ेगा या ढीठ हैं? (श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता: नहीं, नहीं ढीठ नहीं हैं।

आचार्य: होना पड़ेगा। वो ढिठाई, वो दृढ़ता अपनी नहीं होती। वो कृष्ण दे देते हैं। कृष्ण को देखा है न कितने ढीठ हैं! वो अर्जुन बाण नहीं चला रहा, उसके पीछे लगे हुए हैं और जब तक उसने मार नहीं दिया सबको तब तक माने नहीं, ऐसी ढिठाई है उनकी।‌

और ये भी वो कहता था बीच-बीच में, ‘हो गया, अब तीन मार दिए। अब तो जाने दो!’

‘अरे नहीं! अभी वो बचे हुए हैं, चल!’ जब तक आख़िरी नहीं गिरवा दिया, तब तक मान नहीं रहे हैं। उसको भी धोखे से, ‘नीचे मार दे, नीचे मार दे। जाँघ में मार दे, जाँघ में, जाँघ में, जाँघ में मार।’ अपने चलते तो कभी न मारता जाँघ में।

वो ढिठाई आपकी अपनी नहीं हो पाएगी। उसको स्थिरता कहते हैं, उसको केंद्रीयता कहते हैं, उसे दृढ़ता कहते हैं। वो तो वही देगा। वो दे पाए आप बस इसके लिए ज़मीन तैयार कर दीजिए। वो उतरेगा आपके घर में, आपके मन में आप बस जूठन साफ़ कर दीजिए। क्योंकि जूनठ नहीं साफ़ करोगे तो कौवा और हंस अगल-बगल तो नहीं उतरेंगे।

ज़ाहिर-सी बात है न। कभी देखा है ऐसा कि कौवा और हंस एक साथ अगल-बगल बैठकर के जीम रहे हों? इतनी जूठन फैला रखी है तो कौवे-ही-कौवे आते हैं। साफ़ कर दो। आसान है, बहुत आसान है। और अगर वो आसान नहीं लगता तो ये बता दो कि अभी जो कर रहे हो वो आसान है क्या? अगर ये बहुत मुश्किल लगता है कि कैसे वो सब पुराना हटा दें, तो ये बता दो कि पुराने के साथ जीना आसान लगता है?

श्रोता: इधर कुआँ, उधर खाई।

आचार्य: पर वो जो खाई है, वो कम-से-कम एक बार की है।

श्रोता: इसीलिए तो बेचैनी होती है न।

आचार्य: खाई में एक बार जाएँगे, फिर मुक्ति है। वहाँ तो रोज़-रोज़, रोज़-रोज़, रोज़-रोज़ आपको ही निचोड़ रहा है। आपके ही रक्त से भरा हुआ है वो कुआँ।

आपको कोई व्याधि हो गई हो, कोई बड़ा फोड़ा हो पेट में, वो न मरने देता है न जीने देता है; न खाने देता है न सोने देता है। और आप कृशकाय हुए जा रहे हैं और मानसिक रूप से विक्षिप्त हुए जा रहे हैं। चिकित्सक ने आपसे कहा है कि इलाज करा लो लेकिन उसने ये भी कहा है कि इलाज कराओगे तो महीने भर बड़े कष्ट में रहोगे, ये-ये दवाइयाँ लेनी पड़ेंगी, ऐसा-ऐसा परहेज़ करना पड़ेगा, चलने-फिरने से वंचित रहोगे, वगैरह।

आप कराओगे इलाज या नहीं कराओगे? है इधर कुआँ, उधर खाई। पर क्या चुनोगे — तिल-तिल कर के मरना या एक बार यंत्रणा से गुज़र लेना?

आध्यात्मिकता आपके सामने यही विकल्प रखती है — या तो रोज़ मरे जाओ या एक बार इलाज करवा लो। या तो एक बार कष्ट उठा करके साफ़ कर दो अपना आँगन या फिर रोज़-रोज़ कौवों की चीख-पुकार झेले जाओ।

श्रोता: फिर तो सुसाइड (आत्महत्या) करना अच्छा है!

आचार्य: अर्जुन भी जब कहता था कि भाग जाऊँगा, नहीं लड़ूँगा तो कृष्ण ने ठीक उससे यही कहा, अर्जुन से कहा, ‘अर्जुन, लड़ कौन नहीं रहा! प्रकृति में जो कुछ है वो तीन गुणों के वशीभूत होकर कर्मरत तो हैं ही। तो तू अगर ये सोचता है कि तू भाग जाएगा और कर्म से बच जाएगा तो वो तो हो नहीं रहा। क्योंकि कर्म तो चल ही रहा है। हाँ, बाहर नहीं चल रहा तो भीतर चल रहा है। लड़ाई में तो तू है ही, छुपी-छुपी क्यों लड़ता है? खुली लड़ ले।’

ये ‘रोज़-रोज़ की’ से बाज़ आओ न! झाड़ू उठाओ, पोंछा उठाओ, पानी डालो, कौवा भगाओ। स्वच्छ भारत अभियान!

उसका वास्तविक अर्थ यही है।

वैसे कौवों से हमारी कोई निजी दुश्मनी वगैरह नहीं है। सुंदर पक्षी है जैसे सब पक्षी अपनी-अपनी जगह सुंदर होते हैं। पर यहाँ कौवा सांकेतिक है। कहीं आप कौवों के दुश्मन न बन जाएँ!

(श्रोतागण हँसते हैं)

थोड़ा-सा सतर्क रहें। थोड़ी-सी अपने पर निगाह रखें। जूठन देखते रहें। दुनिया देखते रहें। कौवा देखते रहें। डर देखते रहें। और ऐसों के निकट रहिए जो आपको सचेत करते रहें। जो आपको सचेत करे उसका आभार मानें और जो जूठन फैलाने में आपका सहायक बने उसे अपना घोर शत्रु जानें।

शत्रु की और कोई परिभाषा नहीं होती। आप गंदगी फैला रहे हैं और कोई गंदगी फैलाने में आपका सहायक हो रहा है वही शत्रु है। शत्रु वो नहीं जो आप पर तीर चलाए। उल्टा मत समझ लीजिएगा। जो आपके दोस्त बन जाएँ वही आपके दुश्मन हैं।

क्योंकि आप कर क्या रहे हैं?

यही तो। उसमें जो आपकी सहायता करता चले, बस उसी को दुश्मन मानिएगा। और जो आपको ऊपर-ऊपर से दुश्मन जैसा लगे उसको जानिएगा कि कृष्ण का दूत है। वो मना कर रहा है आपको कि मत करो, मत फैलाओ इतनी विष्ठा। मल किसे सुहाता है! दुर्गंध-ही-दुर्गंध व्याप्त है। निर्मलता स्वभाव है हमारा।

मीरा कागज़ पर नहीं रह जानी चाहिए, खून में बहनी चाहिए। तब नाम लीजिएगा कृष्ण का। नहीं तो पाखंड है। मीरा का सा फिर जीवन होना चाहिए। मीरा का सा समर्पण होना चाहिए, मीरा जैसा साहस होना चाहिए। मीरा जैसी उन्मतता होनी चाहिए। मीरा जैसी बेरुख़ी, मीरा जैसी बेपरवाही।

प्रश्नकर्ता: कैसे अद्वैत रहें? जूठन से दूर रहें? कागा से दूर रहें? संसार में रहते हुए संसार से दूर रहें? सुन रहे हैं, समझ रहे हैं। कैसे इससे दूर रहें?

आचार्य: संसार में राणा भी थे और रैदास भी थे।‌ अब ये तो मीरा पर है न कि किसको चुनती है। आपको अगर मोतियों से और तलवारों से और शक्ति से और सत्ता से प्यार है तो आपको रैदास दिखाई ही नहीं देंगे। और आपको अगर सत्य से और कृष्ण से प्यार है तो आप राणा को छोड़ के रैदास के हो जाएँगे।

रैदास भी संसार में ही थे, बस महलों में नहीं थे। तो ये तो तर्क दीजिएगा ही मत कि अगर जूठन से दूर हुए तो पूरे संसार से दूर होना पड़ेगा। कृष्ण नहीं अवतरित हुए थे संसार में? और राम नहीं अवतरित हुए थे? और कबीर नहीं हुए थे? और नानक नहीं हुए थे?

तो क्या बोल रहे हो कि संसार माने तो दूषण! संसार माने तो उच्छिष्ट!

संसार में सबकुछ है। तुम्हें क्या दिखता है वो तुम पर निर्भर करता है। तुम जैसे हो तुम्हें वैसा दिख जाएगा। कौवे की नज़र कहाँ जाकर पड़ेगी? उड़ रहा होगा कौवा, उसकी नज़र कहाँ जाकर पड़ेगी? जूठन पर ही पड़ेगी। तुम क्या देखते हो, तुम पर निर्भर करता है।

तो बार-बार अगर ये कहोगे कि संसार तो दुर्गंध से और मलिनता से ही भरा हुआ है, जितने अखाद्य पदार्थ हैं वही है संसार में, तो फिर तुम यही साबित कर रहे हो कि कौवा ही बने रहना है।

संसार अपनेआप में कुछ भी नहीं है। तुम्हारी प्रतिध्वनि है संसार। तुम्हारी अनुगूंज है। जो तुम हो, वही पलट के तुम्हें सुनाई दे जाता है। अपनेआप को देख लो, जैसे-जैसे तुम साफ़ होते जाओगे, जैसे-जैसे तुम अपने भार से मुक्त होते जाओगे, संसार खिल के तुम्हारे सामने आता जाएगा।

संसार तुम्हें बोझ लगता हो, संसार तुम्हें दुश्मन लगता हो तो पक्का जान लेना कि तुमने ही अपनी धारणाओं में कुछ ऐसा बैठा रखा है, अन्यथा संसार तो शून्य है, अपना तो कोई अस्तित्व ही नहीं। वो जा रही है गाड़ी, अच्छी है कि बुरी है? बोलो, जल्दी बोलो, वो जा रही है गाड़ी। न अच्छी है न बुरी है लेकिन अगर तुम भागने की सोच रहे हो तो तुम्हारे लिए वो गाड़ी अर्थपूर्ण हो जाती है। तुम्हारी गाड़ी अगर अभी-अभी चोरी हुई है तो तुम्हारे लिए वो गाड़ी अर्थपूर्ण हो जाती है।

तुम्हारे पास भी यदि वैसी कोई गाड़ी है और तुम आसक्त हो उससे, तो तुम्हारे लिए वो गाड़ी अर्थपूर्ण हो जाती है। अन्यथा तो गाड़ी कुछ भी नहीं है। क्या है संसार! खाली है। संसार खाली है। सारे अर्थ तुम्हारे भीतर हैं।

जा रही है एक स्त्री। कौन है, कुछ नहीं। स्त्री है। पर तुम अगर वासना से भरे हुए हो तो तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण हो जाती है। तुम्हारी बहन खो गई है तो भी तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण हो जाती है। तुम्हें कुछ खरीदना है तो भी हो जाती है। तुम्हें किसी से रास्ता पूछना है तो भी हो जाती है।

हर तरीक़े से अलग-अलग रूप में अर्थपूर्ण हो जाती है। अन्यथा तो कोई अर्थ नहीं है उसका। कुछ भी नहीं।

संसार को दोष मत देना, अतीत को दोष मत देना, घटनाओं को दोष मत देना, परिस्थितियों को दोष मत देना। अगर तुम परिस्थितियों का ही निर्माण हो तो फिर तो तुम हर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये न!

तुम कहोगे, ‘मुझे तो मेरे माता-पिता ने शरीर ही ऐसा दिया है। जैविक सामग्री ही ऐसी है, जींस ही ख़राब हैं। मैं क्या करूँ?’

मार्क्स इत्यादि ने बाकी तो बड़ी बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करीं पर इस एक बात से उन्होंने बड़ा नुक़सान भी किया है। वो जो उन्होंने कह दिया न कि 'मनुष्य अपनी परिस्थितियों का उत्पाद होता है', बड़ी गड़बड़ बात है। क्योंकि ये करते ही तुम हर तरह की ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये। तुम्हें अब अपनी मलिनताओं को ढाँकने के लिए बड़ा सुविधापूर्ण आवरण मिल गया।

तुम कह देते हो, ‘मैं क्या करूँ, मैं ऐसे घर में पैदा हुआ! मैं क्या करूँ, हालात ही ऐसे थे!’ तुम कभी ये कहोगे ही नहीं कि मेरे कारण हुआ। और जब तक तुम ये नहीं कहते कि मेरे कारण, तब तक जीवन में कोई क्रांति, कोई बदलाव नहीं आ सकता। हालातों पर दोषारोपण तो बहुत आसान होता है, हालातों का रोना मत रोना।

जीवन किसका है? तुम्हारा है न! हालात पर रोने से जीवन सुधर जाएगा? तो हालातों की बात मत करना। होंगी कोई परिस्थितियाँ, उनका भी कुछ योगदान रहा होगा। कुछ अंश उनका भी होगा। लेकिन अगर तुम भूखे हो तो कारण गिनते बैठोगे या रोटी ढूँढोगे? दिन भर के प्यासे हो, कारणों से प्यास बुझा लोगे? या पानी चाहिए?

अब गंगा के पास आए हो, प्यास बुझाओ। पीछे के कारणों में लिपटे मत रह जाओ।

प्र२: आचार्य जी, जब मीरा कह रही हैं, ‘दूसरो न कोई’, तो रैदास और कृष्ण में फ़र्क देखना ठीक होगा? क्या कोई फ़र्क है दोनों में?

आचार्य: नहीं, कोई फ़र्क नहीं है। बिलकुल कोई फ़र्क नहीं है। जब आप कृष्ण के साथ होते हैं सिर्फ़ तब कृष्ण के आदेशानुसार आपकी आँखें एक रैदास ढूँढ निकालती हैं। अन्यथा तो वो मोची थे। बैठते रहे होंगे किसी सड़क किनारे। इतने लोग आते-जाते रहे होंगे, किसने उनको अपना गुरु बना लिया?

और रैदास की बड़ी महिमा है। रैदास किसी भी तरह से कबीर से कम नहीं हैं। पर कितनों को रैदास की परख थी? मीरा को थी। रैदास को तुम तभी परख पाओगे जब पहले तुम कृष्ण के साथ हो। संसार में तुम्हारे चुनाव तभी सही होंगे जब तुम कृष्ण के साथ हो। अपनी ज़िंदगी को देखिए न! जितने चुनाव करते हैं, सब उल्टे पड़ते हैं। माँगते कुछ हैं, हो कुछ और जाता है। चलते हैं इधर को, पहुँच उधर को जाते हैं। जितनी इच्छाएँ करते हैं सब उल्टी पड़ती हैं, भारी पड़ती हैं। सारे सवाल सारी कामनाएँ अनुत्तरित रह जाती हैं।

होता है कि नहीं होता है?

दुनिया में अगर सबकुछ आप पर उल्टा पड़ रहा है तो जान लीजिए कि आप कृष्ण के साथ नहीं हैं। क्योंकि कृष्ण के साथ होने की एकमात्र कसौटी होती है एक सुंदर ज़िंदगी। मीरा की ज़िंदगी सुंदर है।

प्रमाण क्या है इस बात का कि आप कृष्ण के साथ हैं?

आपका जीवन सुंदर होगा। उसके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता। हमारा जीवन अगर कुरूप है, हमारे जीवन में अगर तमाम तरह की जटिलताएँ हैं और व्याधियाँ हैं तो वो इस बात का सूचक है कि हमने कृष्ण से नाता तोड़ रखा है। सिर्फ़ कृष्ण ही आपको बताएँगे कि संसार में आपके लिए सही क्या है और आपको किधर को बढ़ना चाहिए।

कृष्ण सत्य हैं और रैदास सत्य के पूजक। जब सत्य आपके साथ होगा सिर्फ़ तभी आप उसके साथ होंगे जो सत्य के साथ है। नहीं तो आपको वो सुहाएगा ही नहीं। आप कहेंगे, ‘ह! यूँ ही बोल रहा है। गरीब आदमी है, ऐसे ही बैठे-बैठे कुछ गा रहा है।’ आप ध्यान ही नहीं देंगे।

सत्य का यही काम है। आप उसकी तरफ़ बढ़िए वो आपको ऐसे सुविधाएँ देता जाता है कि आप उसकी तरफ़ और बढ़ सकें। मैं अक्सर दूर की किसी रोशनी का उदाहरण लेता हूँ। सत्य को उसकी तरह मानता हूँ। मैं कहता हूँ, दूर वहाँ रोशनी है। आप जितना उसकी तरफ़ बढ़ते हैं, वो रोशनी आपका रास्ता और प्रकाशित करती जाती है।

ऐसा होता है कि नहीं? रोशनी की तरफ़ जितना बढ़ो, रास्ता उतना ज़्यादा साफ़ दिखाई देता है। क्योंकि अब और ज़्यादा प्रकाश और प्रकाश है तुम रोशनी की ओर बढ़ रहे हो। सत्य ऐसा ही है। उसकी ओर जितना बढ़ोगे, वो तुम्हारे रास्ते को आलोकित करता जाएगा। तुम कृष्ण की ओर जितना बढ़ोगे, तुम्हें रास्ते में उतने रैदास मिलते जाएँगे। और कृष्ण से जितना छिटकोगे, तुम पाओगे रैदास कहीं मिलते ही नहीं।

तुम्हारी ज़िंदगी में अगर कोई गुरु नहीं है, कोई रैदास नहीं है तो जान लेना कि तुम सर्वप्रथम कृष्ण से छिटके हुए हो। तुम बढ़ो कृष्ण की ओर, हो नहीं सकता कि रास्ते में तुम्हें गुरु न मिल जाए।

न रोशनी अनुपलब्ध है, न कृष्ण अनुपलब्ध हैं, न गुरु अनुपलब्ध है। तुम देखो कि तुम कैसे पीठ फेर के बैठे रहते हो, उनकी तो उपलब्धि हमेशा रहती है। तुम आए उनके पास कभी? तुम तो अपनी दुनियादारी में ही व्यस्त थे। तुम्हारे पास तो अपनी धारणाएँ थीं, तुम्हारे पास तो अपने कामों का लेखा-जोखा था।

गुरु सत्य के दर्शन कराता है। वही है न! और तुम्हें सत्य चाहिए नहीं। तो तुम्हें गुरु रास आएगा कभी? बस बात ख़त्म।

कृष्ण सत्य हैं, रैदास सत्य के पूजक। मीरा रैदास के पास जाती ही इसीलिए है क्योंकि रैदास उसे कृष्ण की तरफ़ और ले जाते हैं। मीरा का प्रेम और सघन होता है रैदास की संगति में। यही सत्संग है। जिसके पास बैठकर के सत्य का प्रेम और प्रबल होने लगे, उसको सत्संग जानना।

प्र३: आचार्य जी, मीरा का प्रेम किससे था?

आचार्य: मीरा का प्रेम ‘दूसरो न कोई’ से था। किसी व्यक्ति या वस्तु-विशेष से प्रेम करा तो संसार से ही बंध के रह गये। संसार की निस्सारता को देखना ही कृष्ण-प्रेम है। कुछ और नहीं है।

तो ये प्रश्न कि मीरा का प्रेम किससे था — हमारी प्रेम के प्रति जो धारणा है, जो पूर्वाग्रह है, बस उन्हीं को उजागर करता है। हमें लगता है कि प्रेम किसी व्यक्ति-विशेष के प्रति ही हो सकता है। प्रेम अगर वास्तविक है तो सच्चाई से होगा। बाकी सब तो आकर्षण हैं, लगाव हैं। यूँ ही, चिपक गये। वो सब प्रेम थोड़े ही होता है। वो तो आनी-जानी चीज़ें होती हैं। मीरा की गहन बुद्धिमत्ता है कि देखती है अपने चारों ओर और समझ जाती है कि इस सब में चैन नहीं पाऊँगी।

और चारों ओर से अर्थ है वो सबकुछ जो देखा जा सकता है। सब देख लेती है।

‘राज्य में चैन पाऊँगी?’

न।

‘रिश्तों में चैन पाऊँगी?’

न।

‘संपत्ति में चैन पाऊँगी?’

न।

‘बुद्धि में चैन पाऊँगी?’

न।

‘ज्ञान में चैन पाऊँगी?’

न।

ये जितनी ‘न न न न न न’ हैं न, इन्हें कृष्ण जानना।

अब बताओ किससे है?

उसके बाद चूँकि एक व्यक्तित्व है मीरा और व्यक्तित्वों को तो खेल में ही मज़ा आता है। व्यक्तित्वों को तो खिलौने चाहिए, तो समझ लो कि खिलौने की तरह गिरधर गोपाल की अपना एक मूर्ति बना लेती है। पर ये मत समझना कि उस मूर्ति के पीछे बावरी है। न। ‘दूसरो न कोई’।

प्र३: नहीं, जैसे घर की इज्ज़त, समाज की, पति की इज्ज़त कोई मायने नहीं रखती? कुछ भी करते रहें?

आचार्य: समझ रहे हो?

जब ध्यान से देखते हैं तो समझ में आता है कि इज्ज़त क्या है और बेइज्ज़ती क्या है। इज्ज़त मायने रखती है या नहीं, ये सवाल तो बाद में आता है न। पहले ये तो पता हो कि पूछ क्या रहे हैं? इज्ज़त शब्द का अर्थ क्या है?

प्र३: मान-सम्मान।

आचार्य: उसका क्या अर्थ है? सम्मान माने क्या?

प्र३: सामाजिक दायरे में जो अपेक्षाएँ हैं उनसे प्रतिकूल जाना।

आचार्य: सम्मान माने क्या? जब आप कहते हैं कि आप उनका सम्मान करती हैं, तो इसका क्या अर्थ है? जब ज्ञान न हो तो प्रश्न उचित होना चाहिए। प्रश्न होना चाहिए कि आचार्य जी, सम्मान माने क्या? आपने ये नहीं पूछा कि सम्मान माने क्या? आपने कहा सम्मान की कोई क़ीमत है कि नहीं? ससुराल की इज्ज़त की कोई क़ीमत है कि नहीं?

क़ीमत तो उसकी तब लगाओ न जब पहले पता हो कि चीज़ क्या है। आपमें से कई लोग दुकानों पर बैठे होंगे, किसी व्यवसाय में हों, क़ीमत लगाते हैं न? चीज़ ही न पता हो तो उसकी क़ीमत लगा सकते हैं? कोई आपको कुछ बेचने आए, बोले, ‘इसकी ये कीमत है’, तो आप पहले उससे क्या पूछते हो? कि चीज़ क्या है?

आप मुझसे पूछ रही हैं कि सम्मान की कोई क़ीमत है कि नहीं? मैं पूछ रहा हूँ कि सम्मान चीज़ क्या है, वो बताइए। वो आप बता नहीं रही हैं।

देखिए ऐसे जीते हैं। हम उन चीज़ों को क़ीमत दिए जाते हैं जिनका हमें कुछ पता नहीं है। ऐसे जिए हैं हम! कुछ पता नहीं है और क़ीमत रख दी उन पर! इसे कहते हैं लुटना। कोई आए और आप बहुत सारी क़ीमत निकाल के रख दें किसी ऐसी चीज़ पर जिसका आपको कुछ पता नहीं — उसे क्या कहते हैं?

श्रोता: लुटना।

आचार्य: लुट गये! हमारे लिए सम्मान सिर्फ़ हमारे अहंकार की पूर्ति है। सामने वाला आए और आपकी प्रशंसा में कुछ कह दे या आपके सामने झुक जाए, इसको आप कहते हैं सम्मान। इसीलिए संतों ने बार-बार सम्मान के खोखलेपन को उजागर किया है। सम्मान पर मत चलना।

प्र३: नहीं, हमारी ज़िंदगी में जैसे होता है।

आचार्य: होता होगा। हमें उससे क्या रुचि है? हमने अभी-अभी कहा कि दुनिया क्या करती है इसी चीज़ से मुक्त होना है। और बार-बार उसी का हवाला देकर आप उसको और क़ीमती बना रही हैं। इसी से तो मुक्त होना है न कि दूसरे क्या करते हैं और क्या कहते हैं। इसी से मुक्ति का नाम तो मीरा है।

प्र३: हमने इतना साहस कहाँ है, मीरा जितना?

आचार्य: और साहस तब तक नहीं आएगा जब तक साहस के स्रोत के साथ आप जुड़ नहीं जाते। साहस तो एक ही देता है। (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)

श्रोता: साहस से जुड़ना मतलब कई चीज़ों से हटना।

आचार्य: और जिनसे हटना है उनसे हटने का स्वयं आपका (भी) मन है।

प्र३: लेकिन उनसे अगर मोह है तो?

आचार्य: उनसे अगर मोह ही होता तो आप उनमें सुख पा रहे होते। मोह याद है, मोहन नहीं याद हैं! (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र३: कभी-कभी तो ऐसा होता ही है।

आचार्य: जिसने मोह को ‘न’ बोला, वो मोहन का हुआ। यही परिभाषा है। मोह न, मोहन।

मोह अगर आपको इतना ही पसंद हो तो ये बता दीजिए कि मोह में शांति मिल रही है?

आपको घाव मिला हो और उसपर छिलका जम गया हो और अब बहुत दिनों से आप उसको देखते हों, निहारते हों और आपको मोह हो गया उससे, आपने उस पर चित्रकारी भी कर दी, आपने उसमें रंग करके उसके आँख-कान बना दिये। (श्रोता हँसते हैं) कुछ भी कर सकती हैं, मान लीजिए।

आप उसे उतारने नहीं देंगी, छिलके को? चिकित्सक के पास जाएँगी, वो कहेगा, ‘हटाओ, तुम्हें इसकी आवश्यकता नहीं। जब तक इस छिलके को पकड़े रहोगे तब तक तुम्हें यही लगता रहेगा कि तुम चोटिल हो, उतारो।’ तो क्या कहोगे? कि नहीं, मुझे बड़ा मोह है?

मोह तो है, पर ये बता दो, दुख है कि नहीं है? आनंद है कोई मोह में?

तो एक बार तो हिम्मत करो न। उस हिम्मत को ईमानदारी भी कहते हैं। साफ़-साफ़ स्वीकार कर लो न कि बहुत कुछ जीवन में ऐसा है जो नहीं चाहिए। क्यों लालच को पकड़े बैठे हो? केला खा लिया है, छिलके इकट्ठा कर लिए हैं, लालच क्यों? खाना खा लिया है, जूठन अभी भी पकड़ा हुआ है, क्यों लालच? कैसा लालच? छोड़ो! सोचो न, किसी ने आम खा लिया हो, पूरा रस ले लिया हो और गुठलियाँ जेब में भरे घूमता हो। और फिर बदबू उठे।

ईमानदारी का अर्थ यही है कि एक बार जान जाइए कि क्या दुख दे रहा है तो कम-से-कम प्रयोग तो करिए कि क्या पता इसके बिना जीना संभव ही हो। पूरा नहीं छोड़ सकते तो इतना तो छोड़ के देखिए। ज़रा-सा छोड़ेंगे, एक कदम बढ़ाएँगे रोशनी की ओर, रास्ता और साफ़ होता जाएगा। ज़रा-सा प्रयोग करके देखेंगे तो ख़ुद ही ताकत और बढ़ती जाएगी, मिलती जाएगी। आप प्रयोग ही नहीं करते, आप पहले ही हार मानकर बैठ गये हो। आपने मान ही लिया है कि जीवन तो दुख के लिए ही है।

आप इसलिए नहीं पैदा हुए हो कि दुख भोगो। संताप आपकी नियति नहीं है। बहुत अगर मन दृढ न हो रहा हो, तो ज़रा-सा, थोड़ा-सा। बोलिए।

छोटे शहरों में जब शॉपिंग मॉल वगैरह बनते हैं तो वहाँ ये एस्केलेटर होते हैं। वो कुंदन (एक श्रोता को संबोधित करते हुए) बड़े मज़े लेकर बताते हैं कि पटना में अभी भी ये होता है कि उनके आगे कतार लगी होती है क्योंकि लोगों ने वो नए-नए देखे होते हैं तो उन पर पाँव रखते डरते हैं।

समझ रहे हो न?

महिलाएँ तो ख़ासतौर पर डरती हैं। अब वो देख रही हैं, उसको देख रही हैं, वो ऊपर चला जा रहा है, पाँव रखें, गिर पड़ें, क्या होगा! और गिरने से ज़्यादा उन्हें लगता है कि गिर जाएँगे इतने लोगों के सामने तो… इज्ज़त का क्या होगा? अरे! सम्मान!

और वो गिर गई है, कोहनी टूट गई है, घुटना छिल गया है। अब उसे वो सब नहीं दिख रहा; उसे? ‘देखा तो नहीं किसी ने?’ (श्रोतागण हँसते हैं)

कभी किसी को गिरते देखा है खुले में? वो उठेगा तो सबसे पहले (आचार्य जी संकेत से बताते हैं कि पहले चारों ओर देखेगा)।

(श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं)

फिर कहीं कोने में जाकर झाड़ेगा। और कोई पूछेगा, ‘हाँ, साहब क्या हुआ? चोट लग गयी? क्या हुआ?’

‘नहीं-नहीं, कुछ नहीं। हम तो यूँ ही आसन लगा रहे थे।’ (श्रोतागण ज़ोर-से हँसते हैं)

लेकिन उस एस्केलेटर में आपको कुछ करना नहीं है। आपको एक ज़रा-सा प्रयोग करना है — एक पायदान पर पाँव रख दें। उसके बाद?

श्रोता: उठ गये।

आचार्य: अपनेआप। तुम ज़रा-सा बढ़ो, उसके बाद वो खींचता है। तुम दिखाओ अपनी इच्छा, उसके बाद उसका काम है।

एस्केलेटर पर तुम्हें क्या चढ़कर जाना होता है? एक के बाद अगले पायदान पर पाँव रखते जाना होता है? तुम्हें कितना करना होता है?

श्रोता: एक।

आचार्य: एक कदम। तुम एक कदम बढ़ो, बाकी ख़ुद खींच लेगा। लेकिन वहाँ कतार लगी होती है। वो पहला ही कदम रखना मुश्किल हो रहा होता है। ‘अगर गिर गये तो इज्ज़त का क्या होगा?’

अब कई तो इसी बात से सिहर गये होंगे, ‘अच्छा, एक कदम रखा तो पूरा खींच ले जाएगा, ऊपर तक? यही तो हमें डर था। यही साजिश है, हमें पता था। कि ज़रा-सा हाथ थमाया नहीं कि पूरा पकड़ के खींच ही ले जाएगा सीधा ऊपर, मोक्ष। और संपत्ति और धन सब नीचे छूटा है।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

तभी तो हम एक पाँव नहीं रखते। अच्छा ठीक है, नहीं छोड़ना जिसे, उसको साथ में ही पाँव रखवा लो, सब इकट्ठे चले जाओ। बहुत जगह है। अब प्यार करते हो तो यही फर्ज़ है न, कि अगर ऊपर को बढ़ रहे हो, उर्ध्वगति हो रही है तो हाथ पकड़े रहो, छोड़ो नहीं।

‘अपने साथ तुझे भी ऊपर ही लेकर जाऊँगा।’

‘न हम ऊपर जाएँगे सनम, न तुझे जाने देंगे!’ (श्रोतागण हँसते हैं)

ऐसा तो नहीं। उसकी जगह से (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) देखेंगे तो सब नन्हें-मुन्ने ही तो हैं। आप क्यों ये माने बैठी हैं कि आप प्रौढ़ा हो गई हैं? आप भी अभी बचपन में ही हैं। सब नन्हें-मुन्ने ही हैं।

जो ही अभी कृष्ण तक नहीं पहुँचा, वही अभी नन्हा मुन्ना है। व्यस्कता का तो अर्थ ही होता है कृष्ण की प्राप्ति। आप अभी बच्ची हैं बहुत छोटी-सी। अपनेआप को बिलकुल बड़ा मत समझा करिए।

प्र३: लेकिन मीरा जैसे साहस की कमी है, तो?

आचार्य: मीरा में साहस नहीं है, निर्भयता है। दोनों में अंतर है। मैंने साहस कह दिया था, वो सटीक बात नहीं थी। निर्भयता है।

निर्भयता होती है किसी चीज़ का अभाव। किसका अभाव? संसार का अभाव।

संसार ही भय है। निर्भयता है, साहस नहीं। साहस तो ऐसा लगता है कि कोई विशिष्ट चीज़ है जो अलग से आ गई है उसके भीतर, न। मीरा के पास कुछ ख़ास नहीं है, उसके पास किसी ऐसी चीज़ की कमी है जो आपके पास है। आपके पास ज़्यादा है, मीरा के पास कम है।

आपके पास क्या है? आपके पास संसार है। इसीलिए आपके पास भय है। मीरा के पास कमी है। इसीलिए उसके पास निर्भयता है। मीरा ने वो सब छोड़ रखा है जो आपने पकड़ रखा है। और ये मज़ेदार बात है न, जब आप छोड़ देते हो तो सब मिल जाता है। छोड़ने से डरो मत।

जो छोड़ा, सो पाएगा। जो पकड़ेगा, वो गंवाएगा।

इसी को श्रद्धा कहते हैं। ज़रा-सा छोड़कर तो देखो। छोड़ते जाओगे, छोड़ने की ताक़त पाते जाओगे। जितना छोड़ोगे, आँचल अपना उतना पसारते जाना क्योंकि उतना मिलने की बरसात शुरू हो जाने वाली है। ललचा रहा हूँ। जैसे-जैसे छोड़ते जाना वैसे-वैसे देखना कैसे पाते जाते हो।

मुट्ठी में रेत भरे बैठे हो। हीरे भी सामने कोई देने को प्रस्तुत हो तो कैसे पकड़ोगे? ये बताओ। मुट्ठी तो कसी हुई है। रेत। (बंद मुट्ठी की ओर इशारा करते हुए) छोड़ के तो देखो कितना मिलता है! आमंत्रण दे रहा हूँ। ललकार है।

अरे! जहाँ जैसे हो सके वैसे, क्या पता चोट लग जाए इसी बात से कि ‘अच्छा, ललकारा! तो लो, छोड़ा।’

अच्छा, प्रार्थना कर रहा हूँ। (आचार्य जी मुस्कुराते हैं) तुम जैसे छोड़ दो वैसे कह रहा हूँ। मुझे गुरु मान के छोड़ो तो गुरु मान के छोड़ दो। मुझे प्रार्थी मान के छोड़ो तो प्रार्थी मान के छोड़ दो। ज़रा-सा छोड़ के देखो तो! ज़रा पकड़ ढीली करके देखो तो, मज़ा आता है कि नहीं!

कितने लोग गये हैं वहाँ, (गंगा में) नहाकर कितने लोग आए हैं? बताओ। यहॉं बैठे हुए हैं। इसी को तो कहते हैं पकड़ छोड़ना। ज़रा करा जाए। सब जाऍं-जाऍं, नहाइए। पकड़ छोड़ के नहाइए, खुले होकर नहाइए, उम्र का, इज्ज़त का ख़याल छोड़ के नहाइए। डूब जाइए बिलकुल!

अभिषेक (एक श्रोता को संबोधित करते हुए), डरना नहीं है। स्थितियाँ कितनी भी विकट हों। डूबो और डुबोओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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