मेरे दुखों का क्या इलाज है? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Acharya Prashant

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मेरे दुखों का क्या इलाज है? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

दुख विसारणु सेविआ सदा सदा दातारु ~ शबद हज़ारे (नितनेम)

मैं उसकी सेवा करता हूँ, जो मेरे सारे दुखों को विस्मृत कर देता है और जो सदा-सदा से देने वाला है।

आचार्य प्रशांत: मैं उसकी सेवा करूँगा, करता हूँ, जो मेरे सारे दुखों को विस्मृत कर देता है और जो सदा-सदा से देने वाला है। उसका बिलकुल ठीक बात है कि किसी भी वस्तु के रूप में चित्रण, वर्णन नहीं किया जा सकता। तो क्या है सेवा फिर? किसी बाहरी के प्रति यदि समर्पित होने की बात करोगे — और हम ठीक वही बात करते हैं, जब हम कहते हैं, ‘उसके प्रति समर्पित हो जाना, इसके प्रति ये हो जाना, ऐसा कर देना।’ जब भी ये बात करोगे तो उलझने वाली ही बात करोगे, क्योंकि तुम अब फिर उसको संसार का हिस्सा ही बना रहे हो। गड़बड़ कर रहे हो, दुख पाओगे। भूलना नहीं कि जिसकी ओर मुड़ने की बात करना चाहते हो और अगर वो वही है, जैसा तुम उसे बयान कर रहे हो, तो उसकी इच्छा के बगैर तो उधर मुड़ोगे नहीं। उसी की ताक़त से मुड़ोगे उसकी ओर।

उसकी ताक़त तुम्हें किस रूप में उपलब्ध है?

श्रोता: अटेंशन (ध्यान)

आचार्य: उसकी ताक़त हमें उपलब्ध है, होश के रूप में, ध्यान के रूप में। वही एकमात्र तरीक़ा है जिसके द्वारा वो हमें अपने होने का एहसास कराता है, जिसके द्वारा वो हमारे भीतर स्थापित है, वो होश बनकर बैठा है हमारे भीतर।

“याद रखना — होश में वस्तुओं का सच पता चलता है, होश में व्यक्तियों का सच पता चलता है, पर होश अपनेआप में न वस्तु है, न व्यक्ति है। होश कोई विषय नहीं है जिसे जाना जा सके — होश में सारे विषय जाने जाते हैं, पर होश को नहीं जाना जा सकता।”

वो कोई विषय नहीं है, होश स्वयं होश का विषय नहीं हो सकता। पर जानना, गहराई से समझना इस बात का प्रमाण है कि होश है। अप्रत्यक्ष प्रमाण है।

क्या अर्थ हुआ सेवा का?

श्रोता: हमेशा ही होश में रहना।

आचार्य: उसके अलावा और कोई सेवा हो नहीं सकती। तुम्हारी अपनी जाग्रति ही उसकी सेवा है। और यदि वो उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि आप कह रहे हैं, तो वो सेवा दिन के पन्द्रह मिनट, आधे घंटे की नहीं हो सकती। या यूँ कहो कि जितनी देर की होगी, उतनी देर प्रसाद भी पाओगे। कहा जा रहा है, “दुख विसारणु सेविआ” जितनी देर तक वो सेवा रहेगी, उतनी ही देर तक दुख बिसरा हुआ रहेगा।

सेवा क्या है?

“होश, जानना, समझना।”

जब तक समझ रहे हो, तब तक दुख नहीं है। बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र दे दिया सन्तों ने हमारे हाथ में कि जब भी दुख की अनुभूति हो तो समझ जाना कि होश में नहीं हूँ। दुख उठे नहीं कि तुरन्त पूछना अपनेआप से, ‘क्या छोड़ रहा हूँ, क्या भूल कर रहा हूँ, क्या नहीं देख पा रहा हूँ, कहाँ चूक हो रही है?’

दुख है ही नहीं — दुख का अर्थ बस इतना सा है कि समझने में चूक हो रही है। जैसे कि गणित के किसी सवाल में उत्तर यदि बेहूदा क़िस्म का आये, तो तुरन्त आप क्या कहते हो? ‘सुलझाने में चूक हुई है, ये उत्तर तो हो ही नहीं सकता इसका।’ एक पत्थर उछाला गया है, वो मार्ग में एक दूसरे पत्थर से टकराता है उसके दो टुकड़े हो जाते हैं। दोनों टुकड़े समय के इतने-इतने अन्तराल पर ज़मीन पर गिरते हैं। कुछ और ऑंकड़े आपको उपलब्ध कराये गए हैं और कहा गया है कि बताइए कि किस गति से उछाला गया था पत्थर। और आपका उत्तर आता है, 4×108 मी/से प्रकाश की गति से भी ज़्यादा! द स्पीड ऑफ़ द प्रोजेक्टाइल वाज़ मोर देन द स्पीड ऑफ़ लाइट (उछालने की गति प्रकाश की गति से अधिक थी)।

तो तुरन्त आप क्या कहेंगे? ‘ये हो नहीं सकता, चूक मेरे समझने में है, मेरे करने में है। ये हो नहीं सकता, चूक मेरे करने में है। ये असम्भव है! ठीक वैसे जैसे प्रकाश की गति से ज़्यादा गति से पत्थर का उछाला जाना असम्भव है, उसी तरह मन में दुख असम्भव है। दुख होता ही नहीं।

यदि आप दुख अनुभव कर रहे हैं तो समझने में चूक है। बेहोशी ही दुख है। ठीक से देखा नहीं, ठीक से जाना नहीं। ‘जाना नहीं’, इसी अवस्था का नाम दुख है। जो होश में आएँगे तो “दुख विसारणु”। दुख ऐसे गायब हो जाएगा, जैसे सूरज के निकलने पर कोहरा। कहाँ गया! कहाँ गया! अभी तो था। वो था ही इसीलिए क्योंकि होश का सूरज चमक नहीं रहा था।

देखिए, चोट सबको लगी हुई है, दुख सबने पाया हुआ है, तो देखना भी सबको होगा कि भूल कहाँ करी है, बेहोशी कहाँ है। क्या है वो जिसे देखने से आज तक इनकार किया है, किस सत्य से मुँह छुपा रहे हैं। अन्यथा दुख हो नहीं सकता था।

“दुख का इलाज सुख नहीं है, दुख का इलाज होश है।”

बड़े गहरे भ्रम में हैं आप अगर दुखी होकर सुख को खोजने निकल पड़ते हैं। जो दुखी हो वो होश तलाशे, सुख नहीं। सुख तो मिल ही जाएगा — बहुत दुखी हो जाओ, तुरन्त सुख मिल जाएगा — गहराई से दुख दे लो अपनेआप को, तुरन्त सुखी हो जाओगे। सुख तो बड़ी सस्ती चीज़ है। आज दिन भर खाना मत खाओ, अगले दिन टूटकर खाओगे। इस कमरे में धुआँ भर दिया जाए, गहरा धुआँ, तो इस कमरे से बाहर निकलकर, नोएडा की ये ज़हरीली हवा भी ऐसी लगेगी जैसे पहाड़ों की बयार। आहा!हा!

दुख गहरा कर दिया जाए तो सुख तो तुरन्त उपलब्ध हो जाता है। तीन-चार दिन नहाओ मत, उसके बाद नहाना ही परमसुख लगता है। सुख सस्ती बात है! सुख मत तलाशने लगना। दुखी हो जाओ तो होश ढूँढना, ‘कहाँ गड़बड़ हो रही है? क्या नहीं समझ रहा हूँ?’

"सदा सदा दातारु” उसने दे ही रखी है क्षमता होश की — निरन्तर है "सदा सदा दातारु”। इसके अलावा वो और क्या देता, उसने ख़ुद को ही बैठा दिया है भीतर हमारे — ऐसा उसका दान है। वो बोध मात्र हमारे भीतर बैठ गया है, “बोध-बिन्दु” बनकर। अब और क्या देगा? जो वो है वो ख़ुद ही पूरा-पूरा आ गया है, "सदा सदा दातारु”। और कौनसा दान अब चाह रहे हो?

और याद रखना ये दान उसने हमारे माँगने से नहीं दिया है और न माँगो तो वो इसे वापस भी नहीं ले लेता है उसने दे ही दिया है। सदा-सदा से दे रखा है। वो इन्तज़ार नहीं कर रहा है कि प्रार्थना करोगे तब दूँगा और वो ये भी नहीं कह रहा है कि प्रार्थना नहीं करोगे तो नहीं दूँगा — दे रखा है, निरन्तर दे रखा है — अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम सेवा में उत्सुक हो कि नहीं हो। उसने तो दे दिया है, तुम्हें जगना है कि नहीं, तुम जानो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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