मेहनत करो, खुद कमाओ || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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मेहनत करो, खुद कमाओ || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: जो ग़ुलामी की रोटी खा रहा हो, उसे परममुक्ति की बातें शोभा ही नहीं देतीं। परमात्मा भी मुस्कराकर पूछेगा कि रोटी तक तो तू ग़ुलामी की खाता है और बातें करता है मुक्ति की।

समझ रहीं हैं?

और मैं नहीं कह रहा हूँ कि पूँजीवादी हो जाओ, धन्नासेठ हो जाओ, लाखों–करोड़ों कमाओ। पर इतना तो कमाओ कि रोटी मात्र के लिए तुम्हें सिर न झुकाना पड़े, इतना तो कमाओ कम-से-कम। लालचवश मत कमाओ, धर्मवश कमाओ। दोनों में अन्तर है। तुम रोटी नहीं कमा रहे तो कहीं से तो लाओगे रोटी।

प्र: माँग कर लाओगे फिर।

आचार्य: कोई मुफ़्त में देगा, कितने दिन मुफ़्त में देगा?

प्र: भारतीय परम्परा भी कुछ मदद कर देती है, कई बार।

आचार्य: भारतीय परम्परा ये भी कहती है कि जो बोलो सोच–समझकर बोलो (हँसते हुए)। ऐसे नहीं होता कि तुम्हें जीवनभर हट्टा–कट्टा, जवान आदमी देखकर भी, कोई रोटी ही दिये जाए।

ये बड़ा रूमानी सपना रहता है कि हम सन्यासी हो जाएँगे और जैसे बुद्ध के चेले थे, बोलेंगे, ‘भिक्षाम् देहि।‘ और द्वार से सुन्दरी प्रकट होगी, पात्र लेकर के दाल–चावल और हमारी अंजुली में डाल देगी। और हम बिलकुल नैन नीचे करे, मुक्त पुरुष की तरह खड़े रहेंगे।

बेटा वो घर तो अब होते ही नहीं। अब तो सोसायटी है, वहाँ गार्ड है बाहर (श्रोता हँसते हैं); वहाँ बोलोगे, ‘भिक्षाम् देहि।‘ बहुत मारेगा।

तो कमाना सीखो।

पहले की बात दूसरी थी। खेत थे, उपवन थे, बाग थे। किसी को कुछ नहीं मिला तो फल-फूल पर ही निर्वाह कर सकता था। तुम बताना यहाँ कहाँ तुम्हें आम और लीची के भरे हुए वृक्ष मिल रहे हैं कि भिक्षा नहीं मिली, तो कोई बात नहीं, आज एक आम ही सही।

एक बढ़िया आम कितने रुपए का आता है। अब तो आम बाजार में ही मिलेगा और बाग में मिलेगा तो उसके आसपास कुत्ते घूम रहे होते हैं। क्यों? गिरा हुआ आम भी वो किसी दूसरे जानवर को न खाने दें, पेड़ वाला आम तो छोड़ दो।

किसान अपने फलों पर रसायन मलकर रखते हैं कि चिड़िया भी उसको न खाये। नहीं तो तोते वग़ैरह आकर के चोंच मारते हैं। तो किसान उस पर मल देते हैं चीज़ें। और भी अगर बड़ा और मूल्यवान फल होता है, तो उसको बाँध देते हैं।

अब वो ज़माना थोड़े ही है कि सन्यासी होकर निकले, तो गंगा का किनारा और फलदार वृक्ष और चाहिए ही क्या। जाओ ऋषिकेश, गंगा किनारे लेटो, पुलिसवाला दो डंडा लगाएगा। जाओ लेटकर दिखाओ। तो कमाओ। भारत के सपूतों (मुस्कुराते हुए), मुक्ति की बात बाद में करना, पहले कमाओ।

कुछ नहीं करते और फिर भी महीने के अन्त में बैंक में पैसा आ जाता है। मर जाना, पर ऐसे मत हो जाना। भूखे मर जाना, पर मुफ़्त की रोटी मत खाना।

ये बात अच्छे से समझ लो।

मेहनत ज़्यादा करो, मिले कम फल, चलेगा। कि बहुत मेहनत करते हैं, पैसा थोड़ा मिलता है, चलेगा। पर मेहनत इतनी सी कर रहे हो (हाथ से कम का संकेत करते हुए) और पा इतना रहे हो (दोनों हाथ फैलाकर ज़्यादा का संकेत करते हुए), ये बिलकुल ठीक नहीं है। ये तुम्हें बर्बाद कर देगा।

जहाँ कहीं भी अनअर्न्ड मनी (अनर्जित धन) है या इल-गोटेन मनी (बेईमानी से अर्जित धन) है या तो ऐसी तनख़्वाह आ रही है, जिसके लिए तुमने मेहनत नहीं करी या ऊपरी कमाई, घूस–रिश्वत, कालाधन इत्यादि आ रहा है, उस घर में बड़ा नर्क उतरता है। मैंने कहा, ‘सबसे पहले तो ऐसे घरों के बच्चें बर्बाद होते हैं। घर में हर तरह का कलह–क्लेश फैलता है।‘

सन्तों ने समझाया, जिस रोटी पर तुम्हारा हक़ है, उसको भले छोड़ दो। छोड़ दो। कभी ऐसी नौबत आ जाए कि किसी को देनी पड़े, दे दो। कभी ऐसी नौबत आ जाए कि कोई तुम्हें ठग गया, सहर्ष ठगे जाओ, छोड़ दो। लेकिन ये कभी मत करना कि जिस रोटी पर तुम्हारा हक़ नहीं, उसको तुमने खा लिया।

कहानी सुनी है न। एक फ़कीर के सामने रोटी लायी गई थी, एक धनाढ्य सेठ के द्वारा। कहे, ‘नहीं खाऊँगा। कि क्या बात है, क्या बात है? तो कहानी कहती है कि उसने रोटी ली, यूँ (हाथ से निचोड़ने का संकेत करते हुए) निचोड़ दिया। उसमें से खून गिरा। उस रोटी में खून है।

जब तुम किसी से रोटी छीनते हो, तो दिखता है न कि ये देखो, मैंने इस आदमी की रोटी छीन ली। तो साफ़ हो जाता है कि वो आदमी था, मैंने उसका पैसा छीना, तो मैंने पाप किया।

आज तुम बिना कुछ करे तनख़्वाह उठाते हो, तुम्हें उस टेक्स पेयर (करदाता) का, उस करदाता का चेहरा पता थोड़े ही है, जिसके दिए हुए टैक्स (कर) से तुम्हारी तनख़्वाह आयी थी, पर उस करदाता का खून है तुम्हारी रोटी में, अगर तुमनें बिना मेहनत करे तनख़्वाह उठायी है।

आज पाप इसीलिए आसान हो गया है क्योंकि कुछ दिखायी नहीं देता। पहले तुम्हें किसी को मारना होता था तो बंदूक थी, तलवार थी, गर्दन कटती थी, दिखायी देता था, खून बहा।

आज तो हत्या बटन दबाकर होती है न। अमेरिका में बैठकर बटन दबाओ, दस हज़ार किलोमीटर दूर बैठा कोई उड़ जाएगा। पता ही नहीं चलता कि हमनें मार दिया है। अहसास ही नहीं होता कि हमने पाप करा है।

पहले पशु का वध करते थे तो अपने सामने करते थे। दिखता था कि वो देखो उसकी आँखों से अब प्राण जा रहे हैं, तड़प रहा है, मर रहा है। अब तो डिब्बाबन्द मीट (माँस) आता है ऑनलाइन। ऑर्डर करो, कम्प्यूटर पर ऑर्डर करवाओ, डिब्बे में मीट घर आ जाएगा। तो पता ही नहीं चलेगा कि पाप हुआ।

इसी तरीके से जब तुम तनख़्वाह ले लेते हो और तुमने मेहनत नहीं करी होती है, तो तुम्हें पता नहीं चलता कि ये तुमने पाप करा है, ये तुमने किसी का हक़ मारा है। तुम्हारी रोटी में खून है।

भई, वो जो तुम्हारे घर में तनख़्वाह आयी है, वो पैसा कहीं से तो आया होगा न। सरकार ख़ुद तो पैसे बनाती नहीं। सरकार तो इतना ही करती है कि इधर (हाथ से बाईं ओर इशारा करते हुए) का पैसा, इधर (हाथ से दाईं ओर इशारा करते हुए)। किसी से टैक्स (कर) लिया और उस टैक्स से किसी को तनख़्वाह दे दी। सरकार तो यही करती है।

तो तुम्हारे पास जो पैसा आया है तुम्हारे घर में, वो किसी की गाढ़े खून-पसीनें की कमायी से आया है, जो तुम मुफ़्त घर ले गये। पाप तो लगेगा न। अंजाम तो भोगना पड़ेगा और अंजाम भोगते ही हैं।

ये जो प्रख्यात भ्रष्ट अधिकारी होते हैं, ख्यातिमान। जिनका पता ही है सार्वजनिक तौर पर, कि इनके हाथ में ज़बरदस्त खुजली है। इनके घर जाकर देखो, नब्बे-पिच्चानबे प्रतिशत यही पाओगे कि घर तबाह है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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