मीडिया सच क्यों नहीं दिखाता?

Acharya Prashant

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मीडिया सच क्यों नहीं दिखाता?
मीडिया कंपनी प्रॉफिट के लिए होती है, सच्चाई दिखाने के लिए नहीं! अख़बार इसलिए नहीं छपता है कि तुम तक सच पहुँचे। अख़बार इसलिए छपता है कि तुम तक विज्ञापन पहुँचे। सच उनको दिखाया जाता है, जो सच सुनने के काबिल होते हैं, जो झूठ के ख़िलाफ़ संघर्ष करने को तैयार बैठे हैं। जब तुम झूठ की खुराक लेने को राज़ी ही हो, तो तुम्हें सच कोई क्यों दिखाए? यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा सवाल कुंभ मेले को लेकर है। हम देख रहे हैं कि देश-विदेश की सभी निगाहें कुंभ मेले पर हैं। लेकिन मीडिया के द्वारा हम देख रहे हैं कि हमारे सबसे सुंदर साधवी को दिखाया जा रहा है। किसी की आँखें सुंदर हैं, जैसे मोनालिसा को दिखाया जा रहा है, आईआईटी बाबा को दिखाया जा रहा है।

हमें सुनने में आता है कि कुंभ मेला एक धार्मिक क्षेत्र है, जहाँ पर देश-विदेश के धर्म के जो ज्ञाता हैं, वे एक जगह इकट्ठा होकर धर्म की चर्चा करते हैं। तो क्या मीडिया के द्वारा जान-बूझकर हमारे वास्तविक धर्म को छुपाया जा रहा है, या फिर यही सच्चाई दिखाई जा रही है, मीडिया के द्वारा?

आचार्य प्रशांत: इसमें बुरा क्या लग रहा है?

प्रश्नकर्ता: इसमें बुरा यह है कि, आचार्य जी, सभी लोग देख रहे हैं कि कुंभ मेला लग रहा है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो?

प्रश्नकर्ता: सभी लोग जानना चाहते हैं हमारे धर्म के बारे में....।

आचार्य प्रशांत: इसमें तुम्हें क्या अद्भुत लग गया? इसमें तुम्हें बेमेल क्या लग रहा है? खटका किस बात का हो रहा है?

प्रश्नकर्ता: खटका, आचार्य जी, यही है कि मतलब हमारे धर्म को किस रूप में दिखाया जा रहा है मीडिया के द्वारा।

आचार्य प्रशांत: जो है दिखा रही है, उसमें क्या दिखाए? उसमें और क्या दिखाए मीडिया? अच्छा चलो, मीडिया की ओर से बात करना चाहता हूँ।

प्रश्नकर्ता: लोग भी इसमें इंटरेस्ट ले रहे हैं। जैसे एक लड़की है मोनालिसा, तो देखा गया कि उसके लिए सिक्योरिटी गार्ड तक रखने की नौबत आ गई थी।

आचार्य प्रशांत: जो भी लड़की होगी, उसे टीवी में दिखा रहे होंगे। टीवी में दिखाने का काम मीडिया कर सकती है। टीआरपी किसने दिया है?

प्रश्नकर्ता: इसमें, आचार्य जी? आपस में साधवी भी?

आचार्य प्रशांत: अरे, तुम्हें मेरी बात सुनाई दे रही है या तुम मुझे अख़बार की तरह खबर सुना रहे हो बस? तुम यह बताओ कि वह टीवी पर आया होगा, सोशल मीडिया पर आया होगा। सोशल मीडिया पर कोई अपलोड कर देता है। व्यूज़ किसने दिए हैं?

प्रश्नकर्ता: हम ही लोगों ने!

आचार्य प्रशांत: हाँ और वो ना दिखाए सोशल मीडिया या टीवी वाला तो और क्या दिखाए? वहाँ और ऐसा क्या है जो दिखाया जाए? क्या चाहते हो? क्या उम्मीद लेकर आए थे और क्या दिखाया जाए? जो है, वही तो दिखाया जाएगा, और क्या दिखाया जाए? मैं मीडिया वालों की ओर से बोल रहा हूँ। तुम बेकार में हम पर इल्ज़ाम लगा रहे हो, यार! क्या दिखाएँ? तुम्हें कैमरा दे देते हैं, तुम चले जाओ, कुछ और हो तो दिखा दो। कुछ और है? अगर हो तो तुम स्वयं कैमरा लेकर चले जाओ और दिखाओ।

फँस गए, बता ही नहीं पा रहे! मीडिया पर इल्ज़ाम लगा रहे थे कि मीडिया यह चीज़ें दिखा रहा है। मीडिया क्या करे? मीडिया क्या दिखाए?

पहली बात तो, कुछ और है नहीं दिखाने को। दूसरी बात, जो मीडिया दिखा रही है, उसके व्यूज़ भी आ रहे हैं, टीआरपी भी आ रहा है। तो क्या दिखाया जाए? और जो व्यूज़ दे रहे हैं, वही तो लोग हैं ना, जो कुंभ में जा भी रहे हैं। तो वही लोग वहाँ भी मौजूद हैं, वही लोग देख भी रहे हैं। तो मीडिया बेचारा क्या करे?

और कुछ और हो तो यह तो समय सबके लिए एक अवसर का है, संभावना का है। आप भी चले जाओ वहाँ पर। कैमरा चाहिए नहीं होता है, मोबाइल काफी होता है। मोबाइल से वहाँ जो कुछ भी और चीज़ें हो, जो आपकी दृष्टि में उच्च कोटि की हों, बिल्कुल हो सकती हैं ऐसी चीज़ें। आप उनको रिकॉर्ड करके दुनिया को दिखा दो। बिल्कुल हो सकता है कि लोग उसको भी रुचि से देखें और हो सकता है उसके भी व्यूज़ आ जाएँ। कर लो प्रयास!

यही सब है। वहाँ जितने बाबा लोग पहुँचे हुए हैं, सबको फुटेज मिल रही है, सब हो रहा है। कोई किसी मंत्री से मिल रहा है जा करके, कोई किसी अभिनेता या अभिनेत्री से मिल रहा है, रोज़-रोज़ यही खबरें छप रही हैं और खबरों का, ट्रेंड्स का और टीआरपी का बाज़ार भी गरम है। उनके कर्व्स ऐसे भाग रहे हैं, बिल्कुल!

मीडिया क्या करे? क्या दिखाए? यही सब चल रहा है, तो यही दिखाएगा ना!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें दिक्कत यह हो जाती है कि फिर जो आम लोग हैं, हम जैसे, वे फिर धर्म इसी को समझ लेते हैं।

आचार्य प्रशांत: यह उन्होंने नहीं करा। ये आम आदमी का जो धर्म है, पहले वह बर्बाद हुआ है। उसके बाद मीडिया वह दिखा रहा है, जो चल रहा है। आम आदमी का धर्म क्या है? उसको हम क्या बोलते हैं? लोक धर्म! तो लोक धर्म है ऐसा, भाई। वही दिखाया जा रहा है, वही है। क्या दिखाएँ और?

बेकार तुम दोषारोपण कर रहे हो। लोक धर्म यही होता है। तुम्हें क्यों लग रहा है कि इससे अलग कुछ होता है? अच्छा, और क्या होता है, बताओ? आम आदमी से पूछो, कोई धार्मिक आदमी मिले, उससे पूछो—धर्म का मतलब बताओ। तो क्या बताएगा? यही सब तो है! और क्या है?

उम्मीद क्या लगाकर बैठे थे? मैं बताता हूँ उम्मीद क्यों लगाकर बैठे थे। क्या उम्मीद थी वह तो ज़ाहिर ही है। क्यों थी, वह बता देता हूँ।

तुम्हारी उम्मीद यह है कि वहाँ जो लोग हैं और जो सब हो रहा है, वह बहुत उत्कृष्ट कोटि का होना चाहिए। मीडिया यह सब क्यों फिजूल चीज़ें दिखा रहा है? तुम वह सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का इसलिए मानना चाहते हो, क्योंकि वे वही लोग हैं जो तुम्हारे आसपास के हैं—घर, परिवार, कुटुंब, मोहल्ले, दोस्त, यार के हैं। क्योंकि तुम इन लोगों को मानते हो उत्कृष्ट कोटि का, तो इसलिए मजबूर होकर तुम्हें यह भी कहना पड़ रहा है कि—वहाँ भी तो सब उत्कृष्ट ही होगा, ना!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, तो मीडिया...?

आचार्य प्रशांत: मीडिया क्या है? मीडिया ने सच्चाई का ठेका उठा रखा है? मीडिया को पैसे कहाँ से मिलते हैं? मीडिया को जिन ताकतों से पैसे मिलते हैं, ताकत अगर यही चाहती हो कि लोक धर्म ही चले, क्योंकि लोक धर्म चलता है, तभी वे ताकतें ताकत में रहेंगी तो मीडिया किस हिम्मत से कुछ और दिखा देगी?

पर क्योंकि तुम्हें यह सब डायनेमिक्स समझ में ही नहीं आती, तुम इन डायनेमिक्स के गुलाम हो। तुम ख़ुद इन डायनेमिक्स के शिकार हो, तो तुम इस तरीके की बिल्कुल बचकानी उम्मीदें रखते हो। "मीडिया सच्चाई क्यों नहीं दिखाती?" पल, पापा! "मीडिया ने अच्छी बात क्यों नहीं दिखाई, पापा?"

तुम्हें पता है मीडिया क्या होती है?

मीडिया कंपनी होती है। कंपनी किस लिए होती है? तुम्हें सच्चाई दिखाने के लिए होती है? नहीं! कंपनी प्रॉफिट के लिए होती है।

प्रॉफिट के लिए रेवेन्यू चाहिए। रेवेन्यू कहाँ से आता है? एडवर्टाइज़मेंट से आता है। एडवर्टाइज़मेंट कहाँ से आते हैं? सबसे बड़ा जो विज्ञापन-दाता है, वह स्वयं भारत सरकार है। पर यह सब तुम्हें कुछ पता ही नहीं क्योंकि तुम्हें दुनियादारी की कुछ अकल नहीं।

कोई चैनल एकदम भी ना चल रहा हो, तो भी वह चलता रहेगा। क्यों चलता रहेगा? अगर उसको कोई आकर के ऐड दिया जा रहा है। अब अगर कोई प्राइवेट एजेंसी होगी, तो वो ऐड नहीं देगी, क्योंकि वो सोचेगी कि ऐड पर आरओआई क्या मिला? पर अगर वो ऐड जो है, वो टैक्स पेयर्स मनी से दिया गया हो, तो कोई सोचेगा कि क्या आरओआई आया? तो तुम्हारे-मेरे पैसे से अगर विज्ञापन दिए जा रहे हैं और उन विज्ञापनों से कुछ चैनल चल रहे हैं, तो उन विज्ञापनों से चलने वाले चैनल को, मुफ़्त में चलने वाले चैनल को, हमारे-आपके टैक्स के पैसे से चलने वाले चैनल को क्या पड़ी है कि सच दिखाएगा यार?

तुम कितने ज़्यादा भोंदू किस्म के सवाल कर रहे हो! माफ करना मेरी भाषा को मतलब। मीडिया सच क्यों नहीं दिखाता? यह क्या है? क्यों दिखाए सच? किसको दिखाए सच? सच उनको दिखाया जाता है, जो सच सुनने के काबिल होते हैं, जो झूठ को फाड़ने के लिए तैयार बैठे होते हैं। तुम झूठ को फाड़ने के लिए तैयार बैठे हो क्या? ज़िन्दगी भर तुम झूठ की खुराक पर पले हो! कभी फाड़ा झूठ को? कभी संघर्ष किया झूठ से? तो जब तुम झूठ की खुराक लेने को राज़ी ही हो, तो तुम्हें सच कोई क्यों दिखाए?

भाई यहाँ किसी का काम नहीं है तुम्हें सच दिखाना। यहाँ सबका काम है अपना-अपना घर चलाना, अपनी-अपनी वासना पूरी करना। अख़बार इसलिए नहीं छपता है कि तुम तक सच पहुँचे। अख़बार इसलिए छपता है कि तुम तक विज्ञापन पहुँचे। तुम जो चार-पाँच-छह रुपए देकर अख़बार खरीद लेते हो, उससे अख़बार नहीं चल रहा है। वो बड़े-बड़े फुल पेज ऐड आते हैं, अख़बार उससे चल रहा है। तुम्हें नहीं समझ में आ रही बात?

तो जो ऐड दे रहा होगा, अख़बार उसी की बात छाप देगा। आप विज्ञापन देते हैं, तो बताइए और क्या छापना है? अख़बार में हम सब छाप देंगे! और अगर विज्ञापन देने वाले के पास दंड देने की भी ताकत आ जाए, तब तो फिर तो अख़बार हो, टीवी हो, सोशल मीडिया हो—सब बिल्कुल लाइन पर चलेंगे। बताओ, बच्चे का दिल टूट गया! मीडिया गंदी-गंदी बातें क्यों दिखा रहा है लड़की को क्यों दिखा रहा है? छी छी! गोलू बन के रहोगे? कहीं भी कुछ भी बस यूँ ही नहीं छप रहा है।

एक भी मिनट का कोई भी टेलीकास्ट, तुम्हें यूँ ही नहीं दिखाया जा रहा, जो कुछ किया जा रहा है, वो तो बेवकूफ बनाने के लिए किया जा रहा है। चाहे जहाँ जो कुछ भी किया जा रहा हो। और मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि मैं बेवकूफ नहीं बन रहा। कई बार तो स्वयं से पूछता हूँ—मैं तो बन नहीं रहा बेवकूफ, तो मुझे पड़ी क्या है कि मैं दूसरों को बेवकूफी से बचाने निकला हुआ हूँ? वो भी तब, जब दूसरे बेवकूफ थे, हैं, और रहना ही चाहते हैं! उस बेवकूफी में उन्होंने अपने स्वार्थ खोज लिए हैं, तो मुझे क्या पड़ी है कि मैं उनको रोशनी दिखाऊँ? जब वह अँधेरे में ही खुश हैं, संतुष्ट हैं, तो मुझे क्या?

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! मैं पंजाब से हूँ। आचार्य जी, हम तो अच्छे काम करने ही जाते हैं, लेकिन हमें जनता से विरोध ही क्यों मिलता है? ऐसा क्यों होता है? पंजाब, पुणे, प्रयाग से आए दिन ख़बरें आती हैं कि संस्था के लोगों को गुंडागर्दी का सामना करना पड़ता है। गाली-गलौज तो क्या, मारपीट भी हो जाती है! हमें तो कई बार ऐसा लगता है कि जैसे ये लोग साजिश करके ही हमसे उलझने आते हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम जानते ही नहीं हो, तुम किसके ख़िलाफ़ खड़े हो! तुम अंतर ही नहीं करते हो। अंतर करना सीखो। तुम अंतर करते भी हो, तो इतना करते हो—यह आचार्य जी का पक्ष है, ऊँचा है, अच्छा है, इसलिए इस पक्ष के लिए हम स्टॉल लगा देंगे, कुछ कर देंगे वॉलंटियरिंग। और ये दूसरा पक्ष है लोकधर्म का, ये लोग जो हैं नीचे के हैं, ठीक है, पर बहुत नीचे के नहीं हैं। इतना ही अंतर है दोनों में?

तुम इतना ही अंतर मानते हो इसलिए जब फिर चोट पड़ती है, डंडे पड़ते हैं, और किताब जलाई जाती है, तो तुमको बड़ा आश्चर्य हो जाता है कि—"अरे! ये तो हमसे थोड़े ही बुरे लोग थे! इन्होंने इतना क्यों कर दिया?" तुम्हें नहीं समझ में आ रहा है कि थोड़े बुरे लोग नहीं हैं ये? इतना अंतर है! इतना अंतर है, (हाथ से ऊँचाई बढ़ाते हुए, दिखाते हैं) पर इतना अंतर तुम मानोगे नहीं! क्यों नहीं मानोगे?

क्योंकि अगर तुम मान लोगे कि इतना अंतर है, तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। ये जो लोग हैं न, नीचे वाले, ये...( हाथ से दिखाते हुए) ये वो हैं, जो हमारे घरों में मौजूद हैं, जो हमारे मोहल्लों में मौजूद हैं, हमारी रिश्तेदारी में मौजूद हैं। अगर जान लोगे कि इतना अंतर है, तो इनको इज़्ज़त देनी रोकनी पड़ जाएगी। उससे घर में असुविधा आ जाएगी। तो इसलिए हम जान-बूझकर अपने आप को बहला रखते हैं कि आचार्य जी और जो बाहर की दुनिया है, उसमें इतना ही अंतर है। इतना ही तो अंतर है! हाँ, ठीक है, घर वाले लोग भी अच्छे हैं, बस वो थोड़े भ्रमित हैं। उनमें थोड़ा ज्ञान कम है। इतना ही अंतर है, इतना ही अंतर है।

बेटा, इतना अंतर नहीं है! और ना बात यहाँ ज्ञान की है! बार-बार बोल रहा हूँ...बात नीयत की है। एक तरह से अच्छा हुआ कि तुम लोग पिटे हो। पंजाब में भी पिटाई होनी चाहिए तुम्हारी। पहन के जाया करो अच्छे से कपड़े-वपड़े, मोटे, किसी भी दिन पिट सकते हो हेलमेट भी लगाया करो। मैं ताली बजाऊँगा जब पिटोगे। तुम्हारी आँख तो खुले कम से कम। तुम किस दिवा स्वप्न में जी रहे हो? इसमें तुम्हारी मान्यता क्या है?

तुम्हारी मान्यता यह है कि जो लोग धार्मिक नारे लगा रहे हैं, उनमें धर्म के प्रति सम्मान है? तुम्हें समझ में नहीं आया कि ये लोग, जो नाम लेते हैं धर्म का, ये ख़ुद धर्म के सबसे बड़े दुश्मन हैं?

तुम्हें समझ में नहीं आया? तुम्हें ताज्जुब हो रहा है, मुझे इस बात पर ताज्जुब है। मुझे ताज्जुब तब होता, जब तुम पीटते नहीं। तुम्हें नहीं समझ में आ रहा है। तुम्हारे लिए सब अच्छे हैं। देखो, कोई बुरा आदमी किसी को पीट दे तो ताज्जुब होता है क्या? कोई बुरा आदमी आके किसी को पीट दे, ताज्जुब होता है? कोई गुंडा आकर किसी को पीट दे, कोई ताज्जुब होता है? नहीं होता। तो देखो कि तुम्हें ताज्जुब क्यों हो रहा है?

तुम्हें इसलिए हो रहा है क्योंकि जिनसे पीटे हो, तुम उन्हें गुंडा मानते ही नहीं हो। मैं तुम्हें तब से समझा रहा हूँ कि वो लोग कौन हैं, तुम्हें नहीं समझ में आता। तुम कहते हो, "नहीं, अच्छे लोग हैं।" वो वही हैं, सब तुम्हारे आस-पड़ोस के मोहल्ले के लोग हैं, वो तुम्हारे घर के लोग हैं। वो तुम्हारे भाई-बिरादर हैं। और यही समस्या है।

उनको बुरा मानने में यही बात आड़े आती है कि वे सब इसी समाज के, इसी लोक संस्कृति के लोग हैं। इसलिए तुम उनको बुरा मानना नहीं चाहते। इसलिए तुम बार-बार उनको बेनिफिट ऑफ डाउट देते रहते हो। "नहीं-नहीं, वो लोग इतने बुरे नहीं हैं, ये इतने मासूम लोग हैं।" नहीं, मासूम नहीं हैं। पर तुम्हारी मजबूरी है कि तुम इनको बार-बार मासूम मानते रहो। क्योंकि ये तुम्हारे पति हैं, तुम्हारी पत्नी हैं, ये तुम्हारी गर्लफ्रेंड हैं, ये बॉयफ्रेंड हैं, ये माँ हैं, ये बाप हैं, ये वही लोग हैं।

और जहाँ तक साजिश (कॉनस्पिरेसी) की बात है, अरे, ये साजिशें भी जो करते हैं, कौन सी ये बड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर की होती हैं? ये वही घर की देवरानी-जेठानी के स्तर वाली साजिशें हैं। तो इस तरह की साजिशें भी तुम घरों में खूब देखते हो। ये तो घर-घर में होता है। अब अगर तुम कहो कि "ये तो बहुत ही निंदनीय बात है," तो तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा कि हमारे घर भी बहुत निंदनीय हैं। पर घरों को निंदनीय मानोगे तो घर में समस्या हो जाएगी। तो इसलिए तुम कहना चाहते हो कि, "नहीं-नहीं-नहीं, ये लोग हैं, गड़बड़ है, पर थोड़े से ही गड़बड़ हैं।"

बेटा, पीटो अभी और पीटो। तो तुम्हें समझ में आए कि ये कितने गड़बड़ लोग हैं। ये इविल हैं, इविल! और ये किसी और ग्रह से नहीं आए हैं। ये हमारे मोहल्लों और हमारे घरों से ही निकले हैं। यही समस्या है सारी। हम मानना नहीं चाहते। और पूछ रहे हो तो ये भी बता देता हूँ। तुम्हारी समस्या यह भी है कि तुम्हारे मन में ग्रैटिट्यूड नहीं है, मेरे प्रति। नहीं तो तुम्हें समझ में आता कि मैं तुम्हें किस इविल से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हूँ।

इविल के लिए हिंदी में, संस्कृत में उतना बढ़िया, उतना धारदार शब्द नहीं है। इविल! तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा, मैं तुम्हें कहाँ से खींच के बचाना चाहता हूँ। फिर तुम्हें ताज्जुब हो जाता है। "अरे, ये तो अच्छे लोग थे, इन्होंने पिटाई क्यों कर दी?" इन्होंने कॉनस्पिरेसी क्यों कर दी? तो अच्छे लोग हैं! जब ये बंदूक चलाएँगे और गोलियाँ चलाएँगे, तो तुम्हें और स्पष्ट हो जाएगा कि ये कितने अच्छे लोग हैं।

वर्षांत सत्र में मैंने आपसे कहा था कि "मुझे कोई मिल गया होता राह दिखाने वाला, तो मैं जान दे देता उसके लिए।" मैंने कहा था कि "तुम्हारी उम्र में, बच्चों, मुझे कोई मिल गया होता मेरे जैसा, जो मुझे राह दिखा सके, तो मैं उसके लिए जान दे देता।" और आज मैं कह रहा हूँ कि "जान देने को मैं आज भी तैयार हूँ, उसके लिए जो मेरी दिखाई राह पर चलने को तैयार हो।" तब उसके लिए जान देता जो मुझे राह दिखाता, आज उसके लिए जान दे सकता हूँ जो मेरी दिखाई राह पर चलने को तैयार हो।

जान दी थी सुकरात ने, जानते हो किसके लिए दी थी? प्लेटो के लिए दी थी। मैं सुकरात का दिल जानता हूँ। सुकरात ने कहा था, "मैं जान नहीं दूँगा ना, तो यह लड़का, प्लेटो, इसका विश्वास हिल जाएगा।" सुकरात ने जान नहीं दी होती, तो प्लेटो खड़े नहीं होते। और यह भी बहुत तय है कि सुकरात को जेल हुई और ज़हर मिला, उसमें बहुत बड़ा योगदान उनके जवान शिष्यों का था।

वो लोग इधर-उधर जाकर बहसबाजी करते थे, तो लोगों में चिढ बहता होगा, बोले कि "ये इतनी जो बहसबाजियाँ करते हैं, जाकर इनके गुरु को ही पकड़ लो!" तो उन शिष्यों के कारण ही गुरु पकड़ा गया, फिर गुरु को जेल हुई, फिर ज़हर भी मिला। पर ज़हर उन्होंने पिया। बोले, "यह पीना ज़रूरी है, ये लड़के आज जवान हैं, ठीक है, आज इन्होंने कुछ गलती कर दी होगी, पर कल को यही चलकर आगे एक नया सुकरात बनेंगे। आज अगर मैं इनको गलती करने से रोकता हूँ, तो मैं कल के नए सुकरात का जन्म भी रोक दूंगा।"

यह हम जिनके ख़िलाफ़ खड़े हैं, यह वो लोग हैं जिनके इरादे बहुत काले हैं। वे मेरे ख़िलाफ़ इसलिए हैं क्योंकि मैं तुमको बचा रहा हूँ।

वो तुम्हारा शिकार करना चाहते हैं, तुम्हें ही पिंजड़े में रखना चाहते हैं। उन्हें आचार्य प्रशांत से कोई मतलब नहीं है जो लोग मेरे ख़िलाफ़ हैं, उन्हें आचार्य प्रशांत से कोई मतलब नहीं है। उन्हें मतलब तुमसे है। वो तुम्हारा मांस खाना चाहते हैं और वो मुझसे नाराज हैं क्योंकि मैं तुम्हें बचा रहा हूँ।

और तुम ऐसे भोंदू हो कि तुम्हें लगता है कि जो तुम्हें बचा रहा है और जो तुम्हारा मांस नोच रहा है, दोनों एक बराबर हैं! ये जो मेरे ख़िलाफ़ हैं लोग, ये एक झटके में आकर मेरे सामने बैठ जाएँगे ज़मीन पर। मुझे इनसे बस यह बोलना है कि "अब मैं जिनको बचा रहा हूँ, उन्हें नहीं बचाऊँगा, मैं बस तुम्हारा सौदा कर लूं।" ये लोग मेरे पीछे-पीछे खड़े हो जाएँगे। मेरे जैसा कोई नहीं है इनके पास। सोचो इनके कैसे बांछें खिल जाए।

और इनके पक्ष में खड़े होने के लिए मुझे बस यह करना है कि मुझे तुमको छोड़ देना है। तुमको मैं छोड़ूं कैसे, वैसे ही मैं इनके साथ खड़ा हो सकता हूँ। पर अभी तो ऐसा है कि मैं शिकारी के हाथ से उसका शिकार छीन रहा हूँ, तो शिकारी को तो गुस्सा आएगा ना?

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। दिल्ली से हूँ। दिल्ली के भी स्टॉल्स पर गई हूँ और आपकी शिक्षाओं से बहुत समय से जुड़ी हूँ। तो ये सब समझ आने लगा है, थोड़ा-थोड़ा, कि किससे बात करनी है और किससे नहीं बात करनी। आपने एक सेशन में बताया था कि "तथ्य और सत्य दो अलग चीज़ें होती हैं और सत्य हर किसी के जानने की पात्रता नहीं होती।" ज़्यादातर लोगों को यह बात समझ आए, ऐसा नहीं लगता।

आचार्य प्रशांत: आप अगर इस चक्कर में आ जाओगे न कि "मैं ऐसी बात बोलूँ जिस पर कोई भी रिएक्ट न करे," तो फिर आपकी बात से किसी को फायदा भी नहीं होगा। और उत्साह और प्रेम कहते हैं कि "मेरी बात से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फायदा हो।" आप जैसे ही चाहोगे कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फायदा हो, वैसे ही ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को फायदा भी होगा, ज़्यादा से ज़्यादा लोग रिएक्ट भी करेंगे। अब यह आपके दिल पर है कि आप कितना रिएक्शन लेना चाहते हो। यह आपके प्रेम की गहराई पर है। नहीं तो सबसे सुविधा और सुरक्षा का सेफ रास्ता यह है कि स्टॉल पर खड़े हो जाओ और बस ऐसे ही बोलो कि "राम भजो, राम भजो, राम भजो भाई।"

इस पर कोई रिएक्शन नहीं आएगा। पर जैसे ही आप उनके सामने यथार्थ रखना शुरू करोगे, तथ्य, फैक्ट—चाहे वह पृथ्वी की स्थिति हो, चाहे वह धर्म की स्थिति हो—जैसे ही रखना शुरू करोगे, रिएक्शन आएगा। और मैं कह रहा हूँ, अभी यह आपके दिल पर, आपके प्यार पर निर्भर करता है कि आप किस हद तक रिएक्शन लेने को तैयार हो। कि "भाई, तेरी भलाई की खातिर, तू मुझे पत्थर भी मारेगा, तो मैं सह लूँगा!" यह आपके दिल पर निर्भर करता है कि आप सहने को तैयार हो कि नहीं।

आप सड़क पर निकलो और आप कहो कि "मैं कुछ ऐसा प्रबंध कर लूँ कि मेरे दामन पर छींटे भी न पड़ें," तो ऐसा नहीं हो सकता। क्यों आप में इतनी हीन भावना है कि कोई आके आपको पीटे, तो आपको लगता है "नहीं-नहीं, मेरी ही गलती होगी!" यह हिंदुस्तानी की बहुत ज़बरदस्त पहचान हो गई है। इसको स्टॉकहोम सिंड्रोम बोलते हैं। कोई आकर आपकी पिटाई कर गया, तो जो पिटाई कर गया, आप उसका पक्ष ले रहे हो!

यह एक बहुत इंडियन खासियत होती है—पत्नी पीटती है, तो "नहीं-नहीं, पति ने पिटा है, तो पत्नी की गलती होगी!" बच्चे पीटते हैं, तो "नहीं-नहीं, बच्चों की गलती होगी!" जनता पीटती है जनता की गलती होगी क्यों? क्योंकि विद्रोह से डर लगता है। अगर मान लिया कि वह सामने वाला आतताई है शोषक है तो उसके ख़िलाफ़ विद्रोह करना पड़ेगा विद्रोह करना नहीं चाहते तो बार-बार बोलो तेरी गलती है, तू घूँघट पहन के क्यों नहीं निकली थी इसीलिए तेरा बलात्कार हुआ तेरी गलती है।

और साहब हमारे बोल गए नाचन निकसी बापुरी, घूँघट कैसा होय। यह खेल ऐसा है ना कि इसमें जो बाहर निकलेगा वह बहुत ज़्यादा अपने आप को रोक नहीं पाता है। यह जो होती है ना, जब लॉ लगती है जब प्रेम उठता है नाचन निकली बापुरी वो नाचने निकल पड़ती है जब तो उसका घूँघट गिर जाता है। वो कितना भी सोच के निकलेगी सावधानी बरतुंगी, घूँघट रखूंगी घूंघट गिर जाता है यह बात संसारी लोग नहीं समझेंगे, ये वही समझेगा जिसके प्रेम धधकने लगा है, घूँघट गिर जाता है। अब कोई दोष ना दे घूँघट गिर गया और कोई कहे घूँघट गिर गया था इसलिए हमने बलात्कार कर दिया तो साहब यह कोई तर्क नहीं है।

घरों में तो आप भजन सुनते हो और बिल्कुल मगन हो जाते हो, “कोई रोके नहीं कोई टोके नहीं।” तब तो मीरा रानी दीवानी हो गई तब तो आप बिल्कुल भक्ति सागर में डूब जाते हो। महलों में पली बन के जोगन चली मीरा रानी दीवानी कहलाने लगी। मीरा रानी दीवानी हो जाए तो बड़ी अच्छी बात है और यहाँ गीता पढ़कर अगर कोई दीवाना हो जाए तो आप उसकी निंदा कर रहे हो।

वहाँ तो बिल्कुल कह रहे हो कोई रोके नहीं कोई टोके नहीं, हाँ बस यह है कि राणा ने विष दिया तो मानो अमृत दिया तो विष वहाँ भी था विष यहाँ भी आएगा, विष की तैयारी होनी चाहिए। गोविंद का मामला वहाँ भी था गोविंद का मामला यहाँ भी है मीरा गोविंद गोपाल गाने लगी तो जहर तो आएगा ही। जब ऐसा कुछ होता है तो पता चलता है कि भूसा किधर है और लोहा किधर है और मुझे भूसा चाहिए नहीं। जो भूसे बाज हो निकले यहाँ से जो मेरे असली योद्धा है मुझे उन पर पूरा भरोसा है।

उनमें से एक-एक जाकर के दस-दस तक गीता का संदेश पहुँचा देगा, वह एक जो है वह दस के बराबर है। लेकिन जो भूसा भरा रहता है वह चला ही जाए, वह बोझ है बस।

मैं क्या यहाँ पर ये इंडिविजुअल को समझाने बैठा हूँ कि कुछ हज़ार लोग आ गए मैं उनको समझा रहा हूँ, दुनिया की आबादी कितनी आठ सौ करोड़। मेरी ज़िन्दगी कितनी है पता नहीं पाँच साल दस साल बीस साल। कम्युनिटी में सदस्य कितने हैं एक लाख भी नहीं है अभी। तो मैं दुनिया भर तक कैसे पहुँचूँगा? तभी तो पहुँचूँगा ना जब ये जो लोग है इनमें से एक-एक आदमी जाकर के बाहर सैकड़ों हजारों तक मेरी बात पहुँचाएगा? ऐसे ही थोड़ी गुरु महाराज कह गए थे कि सवा-लख से एक लड़ावा। ज़रूरत होती है भाई सवा लाख से एक लड़ाने की। दुनिया की आबादी आठ सौ करोड़ और मुझे तो प्रत्येक मनुष्य तक पहुँचना है।

तो मैं कैसे अपने सीमित जीवन काल में उन तक पहुँच जाऊँगा अगर आप लोग बाहर जाकर उन तक नहीं पहुँच रहे तो? मुझे तो वह आदमी चाहिए कि एक आदमी यहाँ आया और उस एक आदमी ने सौ और लोगों तक बात पहुँचा दी। जो आदमी आकर के यहाँ बैठ कर के अकेला बस अपने लिए खा रहा है उसको तो मैं ख़ुद ही बाहर निकाल दूँ यहाँ से।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपके जितने भी स्टेटस पे मेसेजेस होते हैं, डालती हूँ जिस सर्कल में वर्क करती हूँ, वहाँ फ्लोट करती हूँ। इन चीज़ों को डिसलाइक करते हैं, पता तो चलता ही है, फिर भी मैं करती रहती हूँ इस काम में कंटिन्यू। लेकिन मेरा प्रश्न मैं थोड़ा और स्पेसिफाई करके पूछना चाहती हूँ। क्या, जहाँ पे मेजोरिटी में लोग इन चीज़ों के अगेंस्ट ही होंगे, क्या वहाँ पर जाना सेंसिबिलिटी है?

आचार्य प्रशांत: मैंने उत्तर इसका पहले ही आपको दे दिया है, मैंने उत्तर आपको पहले ही दे दिया है। बात दिल की है। मैं जो कर रहा हूँ, उससे ज़्यादा नॉनसेंसिकल काम क्या हो सकता है? सेंसिबल काम तो वो भी नहीं है, जो मैं आपके साथ कर रहा हूँ। अगर आपको यह सेंसिबल नहीं लगता कि आप प्रयाग में जाकर लोगों को जगाएँ, तो मेरे लिए यह सेंसिबल क्यों है कि मैं आपको जगाऊँ?

दिल की बात है, भाई, ख़तरा उठाना पड़ता है। अब मैं बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि जाकर के शेर के पिंजड़े में मुँह दे दो। सेंसिबल, कैलकुलेटेड रिस्कस लेने पड़ते हैं। आप बहुत सेंसिबल बन के रह लो, ख़तरे से आप कहाँ तक बच के चलोगे? ख़तरा तो घर के अंदर भी है।

ले दे कर के थोड़ा सा अपने-आप से पूछिएगा कि इन प्रश्नों में डर कितना था? यह मेरी सलाह है आपको। पूछिएगा कि इन प्रश्नों में विवेक था या डर था। फियर और कॉशन के बीच में ना एक बड़ी झीनी-सी रेखा होती है। कॉशन बढ़िया चीज़ होती है, पर कॉशन है कि फियर है, यह तो आपको अपने आप से पूछना पड़ेगा।

कॉशन तो मैं भी रखता हूँ, कॉशन का मैं समर्थक हूँ। मेरे बगल में कोई बैठा होता है, गाड़ी चला रहा होता है, मैं लगातार बोलता चलता हूँ—"नहीं, यहाँ नहीं, आगे वाले से इतना दूरी बना के रखो, ब्रेक पहले से ही मार दो, पाथ ब्रेकर है।" यह कॉशन है। फियर बिल्कुल दूसरी चीज़ होती है।

कॉशन आती है ध्यान से, इसीलिए उसको बोलते हैं "सावधानी"। "अवधान" माने ध्यान होता है, "स"+"अवधान"= सावधानी। वह ध्यान है, वह आध्यात्मिक बात है। कॉशन, सावधानी एक आध्यात्मिक बात होती है, और फियर बिल्कुल उल्टी बात होती है।

सबसे पहले, यह आप जो जानना चाहते हो, नियम बता देता हूँ। हाँ, डेयरिंग काम करिए किसी काम से इसलिए पीछे मत हटिए कि वह ख़तरनाक है। ख़तरा उठाइए। और जब चुन लीजिए कि ख़तरनाक काम करना है, तो उस ख़तरनाक काम को सावधानी से करिए। अब ठीक है?

तो पहली चीज़ क्या है? ख़तरा तो उठाना है। फिर दूसरी चीज़ है—अब ख़तरा तो उठा ही लिया है, तो अब बताओ, कितनी सावधानी से उठाएँ? लेकिन सावधानी के मारे या डर के मारे यह नहीं करना कि ख़तरा ही नहीं उठाया।

ख़तरा तो उठाना है, ख़तरा तो उठाएँगे। अब बताओ, यह ख़तरा तो मैंने उठाना तय कर लिया है, अब यह बताओ, सावधानियाँ क्या-क्या रख सकते हैं? फिर सावधानियाँ भी रखिए, लेकिन पहले ख़तरा उठाइए। ठीक?

प्रश्नकर्ता: थैंक यू जी, प्रणाम।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न हिंदू धर्म को लेकर है। आजकल हम देख रहे हैं कि कट्टरता कुछ ज़्यादा ही बढ़ चुकी है। पहले, जब कृष्ण ने गीता में कहा है कि जब कृष्ण गीता में कर्मकांडों को डिफाई करते हैं, तो हिंदू धर्म में हम उन्हें भगवान का दर्जा देते हैं। लेकिन आज जब नदी गंदा करने को कोई अपोज करने की कोशिश करता है, तो उसको केवल बैकलैश मिलता है।

तो हम इस पॉइंट तक कैसे पहुँच गए? कहाँ से यहाँ कैसे आ गए?

आचार्य प्रशांत: बाल चलता कुछ और है, पहुँचता कुछ और है। सारी सप्लाई लाइंस का यही हाल होता है। जितनी भी लॉजिस्टिक्स की लाइंस होती हैं ना, उनमें सब में परफोरेशन होते हैं लीकेजेज़ और उनमें सब में जो थोड़ी-थोड़ी इंप्योरिटीज़ हैं, वो घुसती रहती हैं। थोड़ी-थोड़ी इंप्योरिटी, ज़्यादा नहीं, पर थोड़ी-थोड़ी इंप्योरिटी बड़ा धमाल कर देती है वक्त के साथ। थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-थोड़ा करप्शन होता जाता है, होता जाता है। और यही जो बदलने का काम है, जब कई बार हो, तो उसमें कंपाउंडिंग फैक्टर लगता है।

कंपाउंडिंग बहुत ज़बरदस्त चीज़ होती है। फाइव पर्सेंट (५%) डाइल्यूशन को तुम कंपाउंड कर दो टेन टाइम्स, तो बताओ कितना हो जाएगा? फिफ्टी टाइम्स नहीं होगा, सब कुछ ही डाइल्यूट हो जाएगा। आप किसी चीज़ को पाँच प्रतिशत (५%) डाइल्यूट करो दस बार, तो आपको क्या लगता है, उसमें कुछ भी बचेगा? ऐसे होता है, वक्त ये काम करता है कंपाउंडिंग, यह कंपाउंडिंग इफेक्ट।

और क्यों? क्यों हम थोड़ा-थोड़ा बदलते हैं? थोड़ा सा स्वार्थ, थोड़ा स्वार्थ, थोड़ा सा स्वार्थ... हम सोचते हैं, थोड़ा सा तो बदला, थोड़ा सा स्वार्थ, थोड़ा सा बदल दिया। वो बदलते-बदलते, पीढ़ी दर पीढ़ी, पता नहीं क्या चीज़ चली थी और कहाँ पहुँच जाती है।

और क्या तो बोलते, चाइनीज विस्पर्स बोलते हैं ना? वह प्रयोग करते हैं। वे ऐसे खड़े कर देते हैं बीस जनों को, और पीछे वाले के आके कान में विस्पर किया जाता है और कहा जाता है - अगले को बताओ। अगले को बताओ। मैंने बहुत बार किया, मैनेजमेंट गेम्स में आता है।

बीस जने कतार से खड़े हो जाओ और जो सबसे पीछे खड़ा है, उसे कान में आकर फुसफुसा दो। क्या फुसफुसा दो? "ताऊ जी खटिया पर बैठे हैं, ताई खाना बना रही है बेटे के लिए, क्योंकि आज जानवर जो है, पानी पीने गए हैं।"

बोलो अगले को बताना। उसको बोलो अगले को बताना। उसको बोलो अगले को बताना। उसको बोलो अगले को बताना... और फिर तुम जाकर बीच में से पूछो - बता, तुझ तक क्या पहुँचा? तो वो बोलेगा - "जानवर ताई को उठाकर भाग गए हैं क्योंकि चीनी उन्हें सीमा पर अटैक कर दिया है!"

ये पहुँचता है वहाँ! तो ये होता है गीताओं के साथ। क्या चला था और क्या पहुँचता है? और हर पीढ़ी बस उसमें थोड़ा-थोड़ा करप्शन करती जाती है, अपने स्वार्थ की ख़ातिर।

अब तुम देख लो, तुम्हें क्या करना है? ये तो मैंने समझा दिया कि हुआ क्या है। मैंने यह नहीं बताया कि तुम्हें क्या करना है, वो तुम्हारे दिल पर है भाई! दिल विल, प्यार यार... मैं क्या जानू रे! हो गया?

प्रश्नकर्ता: जी! आचार्य जी, इसका समाधान क्या हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: "ये मैं क्या बताऊँ? तुम जानो, ये तो दिल की बात है।"

“इस हिमालय से अब कोई गंगा निकलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, वो कहीं भी आग, पर आग जलनी चाहिए!"

यही समाधान है!

पर आग से हमें बहुत डर लगता है। लेकिन वेदों में तो पहले देवता अग्नि ही हैं। उनका काम क्या है? जो है, उसको जलाना! हमें जलने से बहुत डर लगता है। जानवर हैं ना, जानवरों को भगाना हो, तो उन्हें आग दिखाई जाती है। भग जाते हैं! ऐसे ही हम हैं।

यह खेल उनके लिए है, जो जलने को तैयार हो। जलने का मतलब समझ रहे हो ना? "नेति-नेति" जो है, उसको भस्मीभूत करने को तैयार हो! तो काम हो जाएगा। दिल चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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