मीडिया मन को कैसी खुराक दे रहा है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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मीडिया मन को कैसी खुराक दे रहा है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: आपका नाम क्या है?

श्रोता १: सर, अभिषेक।

वक्ता: अभिषेक का सवाल है, कि हमसे कहा गया है कि अखबार मत पढ़ो, टी.वी. मत देखो। हम जो बी.टेक के स्टूडेंट्स हैं, हमारे लिए ये सब कहाँ तक अनुकरणीय है? व्यवहारिक है या नहीं है? कर सकते हैं या नहीं? यही पूछ रहे हो ना सीधे-सीधे? यही पूछा है?

श्रोता १: जी सर।

वक्ता: ठीक है। अखबार और टी.वी. क्या है ये समझ लेना काफी है। कोई नियम बनाने की विशेष ज़रूरत नहीं है। देखो, आसपास के अपने समाज को देखो। जो ये सड़क पर लोग चल रहे हैं, इनको देखो। जो ये सड़क किनारे होर्डिंग लगे हुए हैं, इनको देखो। अखबार किसके लिए छपता है? इन्हीं लिए छपता है ना? जो तुम्हारा आम आदमी है, वो लम्पट है। वो लोभी है, लालची है, वो डरा हुआ है, वो शक्की है। ऐसे व्यक्ति के लिए जो अखबार छपेगा उसमें क्या भरा हुआ होगा?

क्या उसमें ऐसा कुछ भरा होगा जो मन को शांत करता हो? जो तुम्हें प्रेम की ओर ले जाता हो? या उसमें वही सब खबरे होंगी जो एक शक्की और लालची मन को पसंद आएंगी? एक डरा हुआ मन लगातार संदेह करना चाहता है। अब टी.वी. चैनल के लिए और अखबार के लिए बहुत आवश्यक है कि वो तुम्हारे संदेह को हवा देते रहे। उठा लो आज का अखबार, कल का अखबार, पिछले एक महीने के सारे अखबार उठा लो और उनको देख लो कि वो तुम्हारे मन को क्या दिशा देना चाहते हैं?

अखबार में, टी.वी. में होते है विज्ञापन। जो विज्ञापन दाता है उसकी एक ही इच्छा है कि कुछ भी करके वो अपना माल बेच ले। और जो अपना माल ही बेचना चाहता है वो तुम्हारे भीतर कुछ भी करके लोभ उठाना चाहेगा। वो तुम्हारी वृत्तियों को हवा देगा, वो तुम्हारी पशुता को जागृत करेगा, कि किसी तरह तुम उसकी तरफ आकर्षित हो जाओ। हम जहाँ पर खड़े है, हमारी जैसी स्थिति है, हम तो पहले ही संदेहों से घिरे हुए हैं, हम तो यूं ही लगातार दुविधाओं से घिरे हुए हैं। मन में लगातार अनिश्चय ही डोलता रहता है, मन लगातार वस्तुओं के पीछे भागता रहता हैं, व्यर्थ चर्चा में उलझा रहता हैं। तुम ये पाते हो या नहीं पाते हो कि मन में फिज़ूल के दस ख़याल घूमते रहते हैं, जिनका कोई तुक नहीं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं? और जो तुम्हारा लोकप्रिय मीडिया है, वो उन्हीं का शोषण करता हैं, वैसे ही विचारों का। उठाओ अखबार, पर फिर तुम में ये विवेक होना चाहिए कि अखबार में क्या पढ़ने योग्य है और क्या नहीं है।

जाओ इन्टरनेट के पास, पर तुम में ये काबिलियत होनी चाहिए कि जान पाओ कि किस वेबसाइट पर जाना है, और कहाँ पर तुम अपने आप को ही नर्क में डाल रहे हो। जाओ फेसबुक पर, पर तुम्हें पता होना चाहिए कि किस पेज पर जाना है। दिक्कत ये है कि आज जो अखबार छप रहे हैं, अगर वो बीस पन्ने, पच्चीस पन्ने के होते हैं, तो उसमें आधा पन्ना मुश्किल से कहीं कुछ होता है, जो तुम्हें सत्य के पास ले जाएगा। बाकी साढ़े चौबीस पन्ने ऐसे होते है जो तुम्हे तुमसे दूर कर देगा और तुम्हारे मन में दस तरह के भूचाल पैदा कर देगा। इसलिए कहा जा रहा है कि इनसे बचो।

तुम्हें पढ़ना ही है तो बहुत सुन्दर साहित्य उपलब्ध है। तुम्हारे ही कॉलेज में एक लाइब्रेरी अद्वैत ने स्थापित की है, जाते क्यों नहीं, पढ़ते क्यों नहीं? उठाओ किताबें। किस नेता ने कितनी घूस खायी है ये जानकर तुम्हारे जीवन में क्या फूल खिल जाएंगे? किस अभिनेत्री का किसके साथ रोमांस चल रहा है, इससे तुम्हारे आँगन में क्या बहार आ जाएगी? कौन सा क्रिकेटर मैच फिक्सिंग करता है और कौन सा नहीं करता, इससे तुम कौन सी उड़ान भर लोगे? और इनके अलावा अखबार में क्या छाया हुआ है मुझे ये बता दो। प्रधानमंत्री पद के एक उमीदवार ने दूसरे को गाली दे दी। तुम क्यों नाचे जा रहे हो? क्यों?और खोलोगे तुम न्यूज़ वेबसाइट। और उसमें शुरू में दो होंगी राजनैतिक खबरें, और उसके बाद दो खबरें होंगी खेल की दुनिया से, एक दो खबरें होंगी हिंसा से, कि इतने लोग यहाँ मार दिए गए, उतने लोग वहाँ मार दिए गए। और उसके बाद गरमा-गरम रंगीन मसाला होगा, कि कहीं तुम भाग ना जाओ, शिकार छूट ना जाए। तो तुम्हें पकड़ कर रखेगा। और एक पन्ने के बाद दूसरा पन्ना, एक लिंक के बाद दूसरा लिंक। क्लिक करते जाओ और देखते जाओ, एक से एक उद्घाटन हो रहे हैं। और तुम समाधिस्त हो गए हो, स्क्रीन से चिपक ही गए हो अब। और समय का भी पता नहीं है, दो घंटे, चार घंटे बीत गए।अख़बार व्यवसाय है। उसे अखबार बेचना है और विज्ञापन दाता जुटाने हैं। जानते हो अखबार कैसे चलता है? तुम्हें क्या लगता है कि जो तुम चार-पाँच रूपये देते हो उससे अखबार चलता है? नहीं अखबार उससे नहीं चलता। अखबार चलता है करोड़ो के विज्ञापनों से। वो खबर तुमको अखबार सिर्फ इसलिए देता है ताकि तुम विज्ञापन देख सको। अखबार तुम तक पहुँचाया ही इसलिए जा रहा है ताकि तुम्हारी जेब से विज्ञापन दाता पैसा निकलवा सके, ताकि तुम उसका माल ख़रीद सको। भूल जाओ कि तुम्हारे डेढ़ रूपये, दो रूपये, या तीन-चार रूपये से अखबार की आमदनी हो रही है, ना। अखबार की नब्बे प्रतिशत आमदनी होती है विज्ञापनों से। इस कारण वो भरा हुआ रहेगा विज्ञापन से, वो आ ही तुम तक इसलिए रहा है ताकि तुम्हारी जेब खली करा सके, ताकि तुम्हारे मन पर कब्ज़ा कर सके, ताकि तुम्हारे मन में लालच उठा सके।

अखबार तुम्हारे घर में घुसी हुई बाज़ार है। बात आ रही है समझ में? क्या लगता है ये टी.वी. चैनल्स कहाँ से चलते है? कहाँ से इनकी आमदनी आती है? अरे समझा करो बात को। तुम तो पैसा देते नहीं। या तुम देते हो? या तुम ये जो अपने डिश टी.वी. का थोड़ा बहुत दे देते हो, तो ये मत समझना कि इससे ये सौ, डेढ़ सौ, दो सौ चैनलस पल रहे हैं। महीने का तुम अगर दो सौ, पाँच सौ देते हो, तो वो दिन का दस रुपया हुआ। उतने से इनका क्या होगा? उतने से इनको क्या मिल जाना है? ये पलते है विज्ञापनों से, और तुम हो, उन विज्ञापनों का निशाना। तुम्हें फ़साने की कोशिश की जा रही है दिन रात। तुम क्या सोचते हो तुम्हें टी.वी. सीरियल दिखाया जा रहा है? तुम गलत सोच रहे हो, टी.वी. सीरियल के माध्यम से विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं। ये बाज़ार है। तुम क्या सोचते हो तुम्हें क्रिकेट मैच दिखाया जा रहा है? गलत सोच रहे हो। तुम्हें मैच के माध्यम से विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं। इसी कारण बहुत आवश्यक है कि खिलाड़ी के कपड़ो पर भी विज्ञापन हो, उसके बल्ले पर भी विज्ञापन हो, मैदान पर भी विज्ञापन हो।

तुम्हें मात्र उपभोगता बनाने की गहरी कोशिश की जा रही है, और उपभोक्ता बनने का अर्थ है कि मुझमें कुछ कमी है, मुझे कुछ चाहिए। तुम्हारी ख़ुशी इसमें है कि तुममें ये भाव उठे कि ‘मैं पूर्ण हूँ’ और बाज़ार चाहता है कि वो तुमको लगातार ये बताये कि तुम, अपूर्ण हो। वो तुमसे कहता है कि जब तक तुम ये हमारी वाली पैंट नहीं खरीद लोगे, तुम्हारी मर्दानगी में कोई कमी है। वो एक सूटिंग-शर्टिंग का विज्ञापन आता ही है ‘कम्पलीट मैन’। अब ये बड़ी मज़ेदार बात है। मैं तुमसे तबसे कह रहा हूँ कि तुम अपने आप में पूर्ण हो, और वो तुमको कह रहे हैं कि जब तक तुम हमारा वाला कपड़ा नहीं पहनोगे, तब तक तुम अपूर्ण हो।और उनका धंधा कैसे चलेगा अगर उन्होंने तुमसे कह दिया? और बात वही तक नहीं जाती है। तुम्हारी सुबह पूरी नहीं हुई अगर तुमने हमारा टूथपेस्ट नहीं किया। ‘तुम हमारी बेडशीट पर नहीं सोते, अरे तुम्हारा सोना व्यर्थ है। तुम्हारा रंग ज़रा गाढ़ा है, तुम्हारा जीना व्यर्थ है, लो ये क्रीम लगाओ। क्या, तुम ये पुरानी बाइक पर चल रहे हो? तुम्हारी जवानी व्यर्थ है। लो ये हम तुम्हारे लिए नई बाइक ले कर आये हैं, इसको खरीदो’ और तुम चले जाओगे कि ‘मेरी मर्ज़ी है खरीदने की’। तुम समझ भी नहीं रहे हो कि तुम्हारा शिकार हो गया है।

जब भी कभी ऐसी इच्छाऐं उठा करें तो देखा करो कि जैसे एक मरा हुआ हिरन पड़ा हुआ होता है ना जिसका शिकार हो जाता है, ऐसे ही तुम पड़े हुए हो। और कोई ज़ोर से हँस रहा है तुम्हारी लाश पर, कि एक और शिकार कर लिया, ये आ गया बाज़ार में खरीदने के लिए। और जब तक तुम्हें ये सब मिला नहीं, तब तक तुम कोई आदमी हो? तुमको बनाने वाले ने पूरा थोड़ी बनाया है, तुमको ये बाज़ार पूरा बनाएगी। तुम्हारे नाखूनो में कुछ कमी है, बनाने वाले ने तुम्हें अच्छे नाख़ून थोड़ी दिये हैं, अच्छे नाखून तो फैक्ट्री देगी। लो ये वाली पॉलिश लगाओ।

और तुम पहुँच जाते हो कि हाँ, परमात्मा ने जो दिया है उसमें कहाँ आनद है, उसमें कहाँ आनंद है, बाज़ार से कुछ मिलना चाहिए। ये खेल चल रहा है और इस खेल में तुम सिर्फ शिकार हो। समझो इस बात को। बहुत जल्दी कूदने मत लग जाया करो। दुनिया बड़ी कुटिल हालत में पहुँच गयी है, बड़ी बीमार है। इतनी डरी हुई है कि वो सिर्फ हिंसा करना जानती है। जो सीधा-सीधा दिखता है वो सीधा होता नहीं, इसलिए थोडा विवेक का इस्तेमाल किया करो। समझ रहे हो बात को?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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