आचार्य प्रशांत: मीडिया इसीलिए नहीं है कि आप तक ख़बरें, असलियत, सच्चाई पहुँचा दे। मीडिया, ठीक इसीलिए है, ताकि आप तक ख़बरें और सच्चाई न पहुँचें। और आप तक ख़बरें और सच्चाई न पहुँचें, इसके लिए आवश्यक है कि आप तक जितना फ़िजूल कचरा है, वो पहुँचता रहे। और आपको उस कचरे के नशे में बाँधकर रखा जाए।
अब याद करिए क्या चलता रहता है लगातार टीवी पर। और उस से आपको पता चलेगा कि वो क्यों आपको दिखाया जा रहा है। वो एक गहरी साज़िश है आपको नशे में रखने की। क्योंकि आपकी अगर आँखें खुल गयीं, तो जो ऊपर चार लोग बैठे हैं, उनके तख़्त डोल जाएँगे। वो ऊपर वाले चार लोग अरबों-अरब पर ऐश करते रहें, इसके लिए ज़रूरी है आपको बेहोश रखा जाए। और मैं सिर्फ़ अमीरों की नहीं बात कर रहा, मैं सत्ता की भी बात कर रहा हूँ।
देश में वास्तव में क्या हो रहा है, अगर आपको पता चल जाए तो सारे सिंहासन पलट जाएँगे। ज़रूरी है कि आपको पता ही न लगने दिया जाए कि असली मुद्दे क्या हैं, असली बातें क्या हैं; आपको मनोरंजन की अफ़ीम लगातार चटाई जाती रहे। कॉमेडी शो देखो एक-के-बाद-एक। आप क्या सोचते हो, कॉमेडी शो आपको सुख देने के लिए है? नहीं! वो आपको नशा देने के लिए है। ये इतने कॉमेडियन कभी हुआ करते थे पहले?
इंसान को इतना मनोरंजन देने की या इतना हँसाने की कभी ज़रूरत हुआ करती थी? आज क्यों है? क्योंकि आज शोषण बहुत ज़्यादा है। और शोषण किसका हो रहा है? ठीक उन्हीं का जिन्हें हँसाया जा रहा है।
जिसे हँसा रहे हो इतना, अगर वो हँसना बन्द करके अपनी स्थिति के प्रति गम्भीर हो जाए, तो क्रान्ति हो जाएगी न। लोग विद्रोह में खड़े हो जाएँगे। जिसका ख़ून चूस रहे हो, वो विद्रोह न करने पाए, वो अपना ख़ून चुसवाता ही जाए, शोषित बना ही रहे इसके लिए ज़रूरी है कि उसे हँसाओ। ख़ूब हँसाओ उसको।
गम्भीरता में शक्ति एक जगह केन्द्रित होती है; एक बिन्दु पर एकीकृत होती है। और फिर सम्भावना बनती है कि वो कुछ कर पाएगी। और मनोरंजन के नशे में शक्ति चूर-चूर होकर के बिखर जाती है। रहती है भीतर, पर चूरे की तरह रहती है, बिखरी हुई। पत्थर में जान होती है; होती है न? पत्थर को तोड़-तोड़-तोड़कर रेत बना दो। रेत में क्या जान होती है? हमारी शक्ति रेत जैसी है। वो दस जगह बिखरी हुई है।
जब आप अपनी स्थिति से वाक़ई परिचित होते हो और अपनी दुखद स्थिति का सामना करते हो, तो आपकी ऊर्जा पत्थर बन जाती है। फिर वो बड़े महलों के शीशे फोड़ सकती है। पर आपकी ऊर्जा को पत्थर बनने नहीं दिया जाता। उसको हँसा-हँसाकर चूर-चूरकर रेत बना दिया गया है। और हँसाना ही तरीक़ा नहीं है। और जितने नशे हैं, सब समझ लो। मीडिया की बात कर रहे हो। सारे नशे!
और ऐसे सारे मुद्दे जो किसी काम के नहीं हैं, लेकिन मनोरंजक लगते हैं; उनको मीडिया ख़ूब उछालेगा। गम्भीर मुद्दों की कौन बात करे? एक-के-बाद-एक मज़ेदार मुद्दों का निर्माण करो और देश के सामने परोसते रहो ताकि असली चीज़ की बात कभी होने न पाएँ। असली मुद्दे अगर पता चलने लग गये; चाहें देश के, चाहें दुनिया के, चाहें अपने निजी जीवन के। तो हमसे जिया नहीं जाएगा क्योंकि हालत बहुत ख़राब है। देश की भी, दुनिया की भी और हमारी ज़िन्दगी की भी।
आप डिजिटल न्यूज़ को देखिए, ये सब जो न्यूज़ वेबसाइट्स होती हैं, उनमें ऊपर की तीन ख़बरें होंगी, ख़बर कहलाने लायक़। ऊपर के जो तीन लिंक्स होंगे, उनको आप कह सकते हैं, समाचार हैं। और उसके नीचे लाइन से ये ही होगा; ‘फ़्लाने अभिनेता की पत्नी क्या कर रही है,’ बॉलीवुड! बॉलीवुड! बॉलीवुड! थोड़ा सा क्रिकेट। थोड़ा सा हॉलीवुड, उसके बाद एक-आध सनसनीख़ेज़ ख़बर। बस ये ही!
मनोरंजन कभी आपको हँसाएगा, कभी आपकी आँखों में आँसू भर देगा; आप भावुक हो जाएँगे, कभी आपमें कामवासना का संचार करेगा। और कभी ये सब कुछ एक साथ होता है। और हम पूरी तरह उस में गुम हो जाते हैं।
आप गुम हो नहीं जा रहे, आपको गुम किया जा रहा है। भोले लोगों!
जिन्होंने आपको उस षड्यन्त्र में लपेटा है, वो मुस्कुरा रहे हैं कि बढ़िया! इसने चार घंटे और नशे में निकाल दिये। अब चार घंटे नशे में निकाल दिये, मनोरंजन कर लिया; अब कल ये फिर अपनी दुकान पर जाएगा या दफ़्तर में जाएगा और वहाँ जाकर के खटेगा। क्योंकि अब ये तरोताज़ा हो गया न?
मनोरंजन का यही तो काम है। ग़ुलामों को रिफ़्रेश कर देना ताकि अगले दिन वो और डटकर ग़ुलामी करें। मनोरंजन और किसलिए होता है?
व्यापारी है तो जीएसटी भरेगा, कर्मचारी है तो इनकम टैक्स भरेगा। उसे इतना हँसा दो, इतना उसको मस्त कर दो मनोरंजन में, या भावुक कर दो, या कामोत्तेजित कर दो कि वो पूछने ही न पाए कि वो जो टैक्स दे रहा है, उसका हो क्या रहा है। और भारत दुनिया के उन देशों में है, जहाँ पर, आप जो टैक्स देते हैं उसका आधा क्या, एक-तिहाई भी किसी सार्थक काम में नहीं लगता।
आपको क्या लग रहा है, ये राजनैतिक पार्टियों को जो, हज़ारों-करोड़ रुपये चन्दा मिलता है, वो क्यों मिलता है? कोई व्यापारी उन्हें इतना चन्दा क्यों दे रहा है? बड़े बड़े उद्योगपति ही देते हैं न, क्यों देगा? वो अपनी जेब से नहीं दे रहा है, वो आपकी जेब से दे रहा है।
पर ये मुद्दे मीडिया क्यों उठाएगी? ये मुद्दे उठ गये तो मीडिया के जो मालिक बैठे हैं, उनके स्वार्थों पर चोट पड़ेगी न?
तो मीडिया आपको ये मुद्दा दिखती है कि घुग्घू कम्हार है, और उसकी काली गाय का बछड़ा कुँए में गिर गया है। वो बछड़ा कुँए में गिरा हुआ है और चार दिन तक उस पर पूरा तमाशा चल रहा है। टीआरपी बटोरी जा रही है और आप भी ऐसे चिपककर देख रहे हैं उसको। कितना बड़ा मुद्दा है ये! बछड़ा कुँए में गिर गया है! लेकिन, अच्छा लगता है न बहुत? प्यारा बछड़ा! और तालियाँ बज जाती हैं बिलकुल जब बछड़े को निकाला जाता है एक साहसिक अभियान के बाद।
और यही मीडिया जो आपको दिखाएगी कि एक बछड़े को निकाला गया, देखो! कैसे हमने गौवंश को बचा लिया। वो कभी ये नहीं बताएगी कि भारत बीफ़ का भी सबसे बड़ा निर्यातक देश है। गौवंश जितना भारत में कटता है, उतना कहीं नहीं कटता। और वही गायें, जिनका आप दूध पीते हो, वही जब दूध देने की हालत में नहीं रहतीं तो किसानों द्वारा कसाईयों को बेच दी जाती हैं।
कसाई से पूछो, ‘तूने क्यों काटी?’ वो कहेगा, 'क्योंकि किसान ने मुझे बेच दी।' किसान से पूछो, 'तूने बेच क्यों दी?' वो बोलेगा, 'तो ये पूछो न कि मैंने पैदा ही क्यों करी थी गाय।'
क्योंकि वो स्वयं तो पैदा होती नहीं हैं। उनको तो ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है, कृत्रिम गर्भादान से। और बड़ी ही वो, बदतमीज़ प्रक्रिया होती है, जिससे गायों को गर्भ करा जाता है। थोड़ा देख लीजिए कभी। मिल जाएगा इंटरनेट पर। ये भी मौजूद है। ‘माँ’ बोलते हैं हम गाय को। बोला कि लोग इतना दूध पीते हैं, तो इसीलिए हम ज़बरदस्ती, फिर गाय-भैंस पैदा करते हैं।
लेकिन पूरी बात आपको मीडिया कभी बताएगा ही नहीं। हाँ! ये ज़रूर बता दिया जाएगा कि वो दो लोग जा रहे थे; उनको पकड़कर के भीड़ ने अच्छे से धुन दिया। क्योंकि वो ट्रक पर मवेशी लादकर लिये जा रहे थे। वो आपको बता दिया जाएगा। इतने में आप कहोगे, ‘बिलकुल, बहुत सही हो रहा है। भारत में रामराज्य आ रहा है।’
जो मनोरंजन करने वाले हैं, फिर वही आदर्श भी बन जाते हैं। और जो मनोरंजन करने वाला है, जब वो आदर्श बन जाएगा, तो आपको मूल मुद्दों से और दूर लेकर चला जाएगा। हालत हम सबकी बहुत ख़राब है। और हमें, अगर दो पल ठहरकर देखने का मौक़ा मिल जाए कि कितनी ख़राब है हमारी हालत, तो हम इतने भी नालायक़ नहीं हैं कि कुछ नहीं करेंगे अपनी हालत बदलने को। हमें शान्ति के, स्थिरता के, सैनिटी के, अगर कुछ पल भी रोज़ नसीब हो जाएँ, तो निश्चित ही हम कुछ करेंगे अपनी हालत को बदलने के लिए। अपनी हालत को, देश की हालत को, दुनिया की हालत को बदलने के लिए हम करेंगे।
लेकिन अगर दुनिया की हालत बदल गयी, तो वो जो ऊपर बैठे हुए हैं, उनकी भी हालत बदल जाएगी। और उनकी हालत अभी बड़े मौज की चल रही है। सत्ता उनकी, ताक़त उनकी, ऐश उनकी। उनकी हालत उतनी मौज की तभी तक चल सकती है, जब तक आपकी हालत, ख़राब रहे। क्योंकि शोषक और शोषित का रिश्ता यही होता है न? एक मौज मारता है और दूसरा ख़ून और पसीना बहाता है।
अगर नीचे वाले ने अपनी हालत बदल ली, तो फिर ऊपर वाले की भी जो मौज की हालत है, वो बदल जाएगी। उसके स्वार्थों पर आँच ही नहीं आ जाएगी, सब जल-जुल खाख हो जाएगा। तो इसीलिए ज़रूरी है कि आप अपनी हालत न बदलने पाएँ। और फिर इसीलिए ज़रूरी हो जाता है कि आपको दो पल भी मौन के, चैन के, शान्ति और स्थिरता के न मिलने पाएँ। इसीलिए ज़रूरी है कि डेढ़-सौ चैनल पर एक-से-एक, ये जो बदतमीज़ ऐंकर हैं, ये गला फाड़कर चिल्लाते रहें। ये सब इसीलिए है ताकि आप कभी भी ठहरकर के अपने यथार्थ से परिचित न होने पाओ।
थोड़ा सा भी रुक गये अगर, तो ख़तरा ये है कि रुक ही जाओगे। वो आपको इसीलिए थोड़ा सा भी रुकने नहीं देते। जो भी कुछ आपको मीडिया दिखा रहा है, अपने आपसे पूछिए, 'ये यही क्यों दिखा रहा है?' कोई निस्वार्थ साधुता का तो भाव होगा नहीं मीडिया का, या होगा? पूछिए, 'मीडिया का क्या स्वार्थ है, ये ही चीज़ मुझे दिखाने में?' ऐसे पूछा करिए।
फिर थोड़ा खोजिए कि आज के असली मुद्दे क्या हैं। और तब आपको बड़ा शॉक लगेगा, एकदम झटका! कहोगे, ‘ये असली मुद्दे हैं और ये तो कोई सामने ही नहीं लेकर आ रहा था। ये तो बड़ी-से-बड़ी साज़िश है इन मुद्दों को छिपाने की।’
अच्छी पत्रकारिता भी होती है। लेकिन, अच्छा जर्नलिज़्म है; वो अच्छा तभी हो सकता है, जब वो किसी शक्तिशाली हुक्मरान से पैसे न ले; तभी हो सकता है न? अगर वो किसी से पैसे ले रहा है तो क्या होगा? वो तो ग़ुलाम हो जाएगा। फिर वहाँ पर स्वतन्त्र पत्रकारिता तो हो नहीं सकती। तो वो लोग बेचारे फिर कहते हैं कि हमें कुछ तो योगदान दे दो। उन्हें एक रुपया नहीं मिलता। कहते हैं, 'हम आपको सही और सच्ची ख़बरें लाकर के देंगे। थोड़ा सा हमें सहयोग कर दिया करो, ताकि हमारा ख़र्चा निकलता रहे। भई! हमारे भी पत्रकार हैं, ऑफ़िस हैं, पचास ख़र्चे हमारे हैं, वो कैसे निकालेंगे?' लोग नहीं देते उनको योगदान।
और, ऐसे मैंने कम-से-कम, चार-पाँच मामले देखे हैं, पिछले दस सालों में; जब इंडिपेंडेंट जर्नलिज़्म को बिकने पर मजबूर होना पड़ा है। क्योंकि लोगों ने उनको पैसे नहीं दिये, डोनेट नहीं किया। वो बिक गये! और बिकने की एक घटना तो अभी हाल में ही घटी है।
टीवी खोलिएगा और थोड़ा होश सम्भाले रखिएगा, बह मत जाइएगा जल्दी से। तुरन्त दिखाई देगा कि ये क्या चल रहा है। सीधी-सीधी साज़िश! और उस साज़िश के शिकार आप हैं।
आपको कोई बेवक़ूफ़ बना रहा है। और जब आपको कोई बेवक़ूफ़ बनाए, तो आपको ग़ुस्सा आना चाहिए। वो इंसान कैसा है जिसे उसके मुँह पर बेवक़ूफ़ बनाया जा रहा है और उसके भीतर से प्रतिरोध नहीं उठता? वो आपके घर में घुसकर के, आपके मुँह पर आपको रोज़ मूर्ख बनाते हैं।