मज़ा गहराई में ही है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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मज़ा गहराई में ही है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: सर, जैसे अगर आप कहते हैं कि मैं पूरा हूँ। मतलब मेरे अन्दर ऐसा कुछ है कि मैं पूरा समझता हूँ कि मैं उसके लिए कुछ भी कर सकता हूँ, पर मेरे ‘अन्दर’ नहीं है। तभी सर आप मुझे सिखा रहे हो। ऐसे ही सर कोई भी बात हो जहाँ मुझे ऐसा लग रहा है कि ये बंदा अभी सही नहीं जा रहा है। वह मेरा रिश्तेदार भी हो सकता है या मेरे पापा ही क्यों नहीं हों या मेरी बेहन या माँ ही क्यों नहीं हैं। सर वो गलत कर रहे हैं और मुझे पता है कि वो गलत कर रहे हैं, तो क्या बताऊंगा नहीं मैं उन्हें?

वक्ता: बिल्कुल। बिल्कुल। बिल्कुल ठीक बोला। पर दूसरों को ये बता पाने के लिए कि उनके लिए क्या सही गलत है, पहले मुझे ये तो पता हो कि मेरे लिए क्या सही गलत है। तुम्हें ये पता है तुम्हारे लिए क्या सही गलत है?

श्रोता १: सर, कई बार ऐसा होता है कि हमें पता भी होता है फ़िर भी हम वो नहीं करते।

वक्ता: और हमने क्या कहा है कि जब भी कभी आग लगेगी और तुम कहोगे कि मैं कुछ नहीं कर रहा, इसका मतलब कि तुम्हें पता ही नहीं है। तो हमें खुद ही नहीं पता है कि हमारे लिए क्या सही गलत है तो हम औरों को क्या बतायेंगे कि उनके लिए क्या सही गलत है।

जिस आदमी को ये न पता हो कि उसके लिए क्या ठीक है, वो औरों के लिए क्या ठीक है ये जान सकता है क्या? गड़बड़ हो गयी न।

श्रोता २: सर, आपने कहा कि किसी से अपेक्षा नहीं रखनी। अगर कोई अपेक्षा नहीं रखता, तो वो इंसान कैसा है?

वक्ता: नहीं, उम्मीद रखता है, अपने लिए नहीं रखता, नहीं समझे? अभी समझाता हूँ। तुम यहाँ चार जने बैठे हो न? ये कतई ना समझना कि मेरी तुमसे कोई उम्मीद नहीं है। मेरी तुमसे बिल्कुल उम्मीद है। और अगर तुम उस उम्मीद के खिलाफ़ जाओगे तो मैं तुम्हें टोकूंगा भी। अभी मान लो वो सोने लगे तो मैं क्या उसे टोकूंगा नहीं?

श्रोता २: जी सर।

वक्ता: पर वो उम्मीद, मेरे लिए नहीं है वो उम्मीद, नहीं समझे? वो उम्मीद उसके लिए है। वो अगर सोने लग जाए तो मुझे ये नहीं लगेगा कि “अरे! मेरा सेशन ख़राब है इसलिए वो सो रहा है।” और मैं अन्दर से छोटा होने लग जाऊं, अनुभव करने लग जाऊं कि “यार! मुझमें कोई खोट है।”

अगर वो सोने लग जाएगा तो मैं उसे टोकूंगा क्योंकि अगर वो सोयेगा तो उसका नुकसान हो जायेगा। तो उम्मीद है, पर अपने लिए नहीं है। तो जब कहा जाता है न कि “उम्मीदें ना रखो”, उसका अर्थ यही होता है कि “अपने लिए ना रखो”।

श्रोता २: कि उसका भला हो जाये।

वक्ता: पर मैं अगर इसी चक्कर में पड़ा हूँ कि “मेरा भला हो जाये! मेरा भला हो जाये!”, तो मुझे दूसरों का भला समझ में आएगा? जो आदमी अपनी ही जान बचाने में लगा है वो दूसरों की बचाएगा क्या?

श्रोता २: नहीं।

वक्ता: सारा खेल ही यही है न। हम अन्दर इतने डरे हुए हैं कि हम अपनी ही जान बचाने के खेल में हैं तो दूसरों की क्या बचायेंगे।

श्रोता २: सर, तो जिसको अपेक्षाएं नहीं है खुद से, तो वो आदमी खुद में वैसे पूर्ण है?

वक्ता: वो खुद से कह रहा है कि, “भाई, चिल्ल!”

श्रोता २: पर सर, उस अवस्था तक जाने कि लिए भी पहले उसे अपना भला भी तो करना पड़ेगा?

वक्ता: उस अवस्था तक ‘जाना’ होगा या उस अवस्था तक ‘वापस लौटना’ होगा?

श्रोता २: सर, दोनों एक ही बात हैं।

वक्ता: एक ही बात नहीं है, अलग-अलग हैं।

श्रोता १: सर, जाना होगा तो अलग है न सर, वो चाह रहा है कि, “मैं वहाँ तक पहुचूँ!”।

वक्ता: बहुत बढ़िया! जाना होगा तो कोई अंत नहीं है जाने का। फिर तो वो कहाँ जा के कहेगा कि अब मेरा भला हुआ।

श्रोता १: सर कोई कितने ही पैसे कमा ले, किसी का पेट तो भरता ही नहीं।

वक्ता: बहुत बढ़िया।

श्रोता २: पर सर मैं पैसे वाले भले की बात नहीं कर रहा या मैं इस भले की बात नहीं कर रहा कि मुझे ये चीज़ मिल जाए या वो। पर सर अपेक्षाएं न रख पाना या फ़िर कि ‘कुछ होता रहे, मैं तो कूल रहूँगा, शांत रहूँगा’। उस अवस्था तक जाने के लिए भी तो मेहनत करनी पड़ती है न सर?

वक्ता: वापस लौटने के लिए। हाँ! करनी पड़ती है मेहनत। मैं मना नहीं कर रहा। मेहनत करनी पड़ती है। पर वो मेहनत, याद रखना, कुछ पाने की नहीं है, वो मेहनत गंवाने की है। दो अलग-अलग तरह की मेहनत होती है। एक मेहनत वो होती है कि “और इकट्ठा कर लूँ!”, एक मेहनत ये होती है कि “जो इकट्ठा कर लिया है उसको छोड़ो!”। क्योंकि जो इकट्ठा कर लिया है वही तो बिमारी है। तो उसको छोड़ो। तो वो वापस लौटने की मेहनत है।

श्रोता ३: सर, वो इकट्ठा करना भी गलती थोड़ी ही है?

वक्ता: गलती नहीं थी, बेटा। अब तुम करोगे क्या? छोटू से थे!

श्रोता ३: अपनी जगह तो हम सही हैं।

वक्ता: सही-गलत नहीं है। वो होना ही था। वो अनिवार्य था। अब तुमने अपना नाम इकट्ठा कर लिया है। ये सही है कि गलत है?

श्रोता ३: ठीक है!

वक्ता: अरे! ना सही है ना गलत है। वो अनिवार्यता थी। तुम छोटे से थे, किसी ने तुम्हारा नाम रख दिया। तुम क्या कर सकते हो? तुम क्या करोगे? अब ये होना ही था। तो इसको ना सही कह सकते हैं ना गलत कह सकते हैं। लेकिन जो कुछ तुमने इधर-उधर से इकट्ठा किया, वही तुमको बार-बार ये एहसास दिलाता है कि, “कुछ गड़बड़ चल रही है! कुछ ठीक नहीं है।”, उसी से मुक्ति चाहिए। उसी से मुक्त नहीं होगे तो ये सब भूल जाओ कि “दूसरों के लिए कुछ करूंगा, या ये करूंगा”, या कि किसी से प्रेम हो सकता है। ये सब असंभव है।

अब देखो – ये जो भी हम बातें कर रहे हैं, अगर तुम गौर करो, पिछले पंद्रह मिनट में हमने एक भी कोई चुटकुला नहीं बोला है। हमने कोई एक भी बात बोली भी नहीं है जिसमें कि तुम्हें बहुत हँसी आए। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि तुम बोर नहीं हुए थे। इसी का नाम मज़ा है बेटा, यही गहराई है। इसी का नाम मज़ा है। जिन चीज़ों को तुम बोलते हो…

तुम पानी में गहरे कूदे हो। अन्दर जा कर तुम चुटकुले सुना के हँसते हो? तुम ऊंचे-से-ऊंचा जहाज़ उड़ा रहे हो – फोर मार्क की रफ़्तार से – तुम्हें हँसी आ रही होगी? पर मज़ा आ रहा है, नहीं आ रहा है?

गहराई में मज़ा है।

मज़ा क्या है? गहराई में मज़ा है। हँसी तो उथली होती है। तुम ये कल्पना भी कर सकते हो – वो वहाँ पर उड़ रहा है, पचास हज़ार फीट! और वो हँस रहा है – हेहे, हेहे, हँसेगा?

हँस तो नहीं रहा।

श्रोता २: सर, वो आनंद लेगा उसका।

वक्ता: वो बहुत गहरा आनंद है न। वो, वो वाला नहीं है, मनोरंजन नहीं है। क्या मनोरंजन और आनंद में अंतर देख पा रहे हो? मनोरंजन कौन कर रहा होगा?

जो भी उथला आदमी है वो मनोरंजन करेगा; जो गहरा आदमी है वो आनंद में रहेगा।

और हम क्या बोलते हैं? “चलो रे! आज पार्टी है, मनोरंजन करेंगे।”

पार्टी में आनंद हो सकता है या मनोरंजन होगा? आनंद कहाँ है? आनंद तब है न जब पहाड़ पर ट्रैकिंग कर रहे हो और लटके हुए हो और ये भी दिख रहा है कि मर भी सकते हो, तब जो उठता है, वो आनंद है। लग गया सब कुछ दाँव पर, शरीर नष्ट हो सकता है कभी भी। फ़िर भी कुछ है भीतर जो पीछे नहीं हटा रहा, कि “डंटे रहो!” – ये आनंद है।

आनंद हमेशा गहराई से निकलता है। और मनोरंजन किससे निकलता है? हाँ! ऐसे-वैसे! किसी की कॉकटेल में दारू डाल दी – यही सब। हमारी आदत क्या लग गयी है? मनोरंजन की या आनंद की?

श्रोतागण: मनोरंजन।

वक्ता: तो तुम एस.वी.सी. की क्लास में भी क्या खोजते थे?

श्रोतागण: मनोरंजन।

वक्ता: आनंद तो पूरा मिलता पर तुमने खोजी ही दूसरी चीज़। जैसे कि कोई तुम्हें करोड़ों की चीज़ देने आया हो और तुम दस रूपए खोज रहे हों। और दस रूपए मिल नहीं रहे, और फिर तुम कहो, “यार! मिला नहीं, कुछ था नहीं। दस रूपए नहीं मिले!” वो करोड़ देने आया था, तुम दस रूपए की चीज़ के लिए रोते रह गए। अब क्या करना है?

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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