प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब चारों ओर माया का ही विस्तार है तो सत्य का जीवन में क्या महत्व है?
आचार्य प्रशांत: बढ़िया है, इसका मतलब माया सबको सताये हुए है। इसका मतलब परमात्मा सबको चाहिए। जहाँ माया की बात होगी वहाँ परमात्मा की तलब भी होगी-ही-होगी, क्योंकि माया किसी का भला तो करती नहीं। अगर माया की बात करनी पड़ रही है मतलब माया के सताये हुए हो। माया के सताये हुए हो तो दिल-ही-दिल में किसको चाहते हो? तो अच्छी बात है न, अगर हर जगह माया की बात चल रही है! तुम्हारे लिए मौक़ा है। पर उस मौक़े को तभी भुना पाओगे जब तुम माया को जीत लो पहले।
जो जीता हुआ है वही तो दूसरों को जीतने के गुर सिखा सकता है। जो ख़ुद ही नहीं जीता वो सिखाये कि माया से कैसे जीतना है, वो सिखा रहा, उतनी देर में माया आकर उसको एक पटकनी और दे गयी। ऐसों के मत्थे थोड़े ही धर्मयुद्ध लड़े जाएँगे!
मेरे साथ जितने लोग हैं, मैंने सबको साफ़ कह रखा है, 'भगोड़े नहीं हो तुम, योद्धा हो, पीठ मत दिखाना, हर तरीक़े से मज़बूत होना चाहिए तुमको। और बाहर निकलो, घर में घुसकर बैठने की इजाज़त नहीं है। आप आइए, देखिए, कभी आश्रम की ओर। मेरे योद्धा या तो आपको सड़कों पर नज़र आएँगे लड़ते हुए या काम करते हुए नज़र आएँगे। एक-एक आदमी से सड़क पर बात कर-करके, कर-करके अब तक चालीस-पचास हज़ार किताबें उन्होंने लोगों तक पहुँचा दिये।
बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं है चालीस-पचास हज़ार, लेकिन जो हुआ है इधर एक-दो साल में हुआ है। और सब युवा हैं बिना अनुभव के, फिर भी खड़े हैं सड़कों पर और युद्ध जारी है। और फिर जानते हैं क्या होता है, इनको लोग सड़कों पर देखते हैं ऐसे कि छः-छः घंटे खड़े होकर के, धूप हो, बारिश हो, जाड़ा हो, आसान नहीं है। जून का महीना है, इस समय दिल्ली की जो हालत है उस हालत में छः घंटे, आठ घंटे सड़क पर आप एक दिन खड़े हों तो वास्तव में छक्के छूट जाएँगे, पसीने में नहा जाएँगे आप। और कहेंगे अगले दिन से जाना नहीं है, टाँग काँपती है, पचास तरीक़े के शरीर में आप दर्द बता देंगे। यहाँ ये लोग रोज़ खड़े होते हैं। और सब पढ़े-लिखे हैं। सबके पास वैकल्पिक काम-धन्धे थे, उनको छोड़-छाड़कर मेरे पास आये हैं।
तो लोग उनसे फिर पूछते हैं — सब नहीं, पर पाँच आदमी में से एक, दस आदमी में से एक, पूछता है — कि बेटा, तुम पढ़े-लिखे हो, तुम्हारे पास दूसरी नौकरी भी थी, उसको छोड़कर के तुम ये क्यों कर रहे हो? तुम सड़क पर खड़े हो किताबें लेकर हाथ में, ये क्यों? फिर देते होंगे कुछ उत्तर। उन उत्तरों को सुनकर के लोग मेरे पास आते हैं। रविवार में जब भी मैं ग्रेटर नोएडा में उपलब्ध होता हूँ तो खुले सत्र होते हैं, जिनमें कोई भी सम्मिलित हो सकता है। उसमें काफ़ी लोग आते हैं। और उनमें से ज़्यादातर लोग वही होते हैं जो सड़कों पर मिले होते हैं हमारे सूरमाओं को।
सड़क पर मिले, पूछा, 'तू क्या कर रहा है?' उसने बताया, तो बोले, 'हम भी आना चाहते हैं।' तो उसने कहा, 'ठीक है, आप रविवार को आ जाना सुबह दस बजे।' तो फिर दस बजे आ गये। याद रखिए और समझिए, ग़ौर कीजिए कि प्रवचन सुनकर नहीं आये वो, एक योद्धा का युद्ध देखकर आये वो। जो खड़ा था लड़का सड़क पर, उसने उनको ज्ञान नहीं दिया, प्रवचन नहीं दिया, बस अपना जीवन बताया, कि मैं इंजीनियर हूँ, मैं एमबीए हूँ और मिला है कुछ मुझे इतना क़ीमती, इतना महत्वपूर्ण कि उसकी ख़ातिर मैं सबकुछ छोड़-छाड़कर सड़क पर खड़ा हुआ हूँ। और सुनने वाले ने ये सुना और वो सत्र में आ गया। और सत्र में आने के बाद फिर कहानी अपनेआप आगे बढ़ती है।
तो लोग आपका जीवन देखेंगे, आपका जुझारूपन देखेंगे, आपकी शान्ति देखेंगे और फिर ख़ुद पूछेंगे आपसे कि ये कैसे मिला, तो आप कह देना कि आ जाना सुबह दस बजे, रविवार सुबह दस बजे। अपनेआप आएँगे। नये-नये लोग आते हैं हर बार। मैं बैठता हूँ, देखता हूँ एकदम नये चेहरे बैठे हुए हैं। हर रविवार नये लोग जुड़ जाते हैं। आपकी ज़िन्दगी के अलावा, फिर कह रहा हूँ, कोई प्रमाण नहीं है। आपकी ज़िन्दगी ही प्रमाण है कि आपको कुछ मिला, जन्म सार्थक हुआ। जीवन दिखाइए!
परमात्मा के अलावा कोई नहीं है जो आपको दिल्ली की गर्मी में, सड़क पर किताबों के साथ खड़ा कर सके। आप सड़क पर खड़े हैं किताब लेकर के, दिल्ली की लू में, साबित हो गया कि परमात्मा है। परमात्मा न होता तो आप ऐसे खड़े नहीं हो सकते थे। हो गया साबित, प्रमाण दे दिया गया। बारिश हो रही है, आप खड़े हैं। और दो डिग्री, चार डिग्री वाला जाड़ा पड़ रहा है फिर भी रात में आप दस-ग्यारह, बारह बजे तक भी खड़े हैं। यही प्रमाण है कि परमात्मा है। आपने दे दिया प्रमाण।
लोग देखते हैं न, ये खड़ा हुआ है, ये खड़ा ही हुआ है, ये हट ही नहीं रहा है। बारिश हुई, ये खडा रहा, ये हट ही नहीं रहा। बस हो गया सिद्ध। ये एक उदाहरण है। और हर काम में, ऐसे ही जीवन का हर काम है। अब यही सोचिए, बारिश हो जाए या ठंड बढ़ गयी और गुरु का चेला सब किताब-विताब समेटकर के चल दिया और चलते-चलते कह रहा है, "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:", तो लोग कहेंगे, 'भक! पाखंडी!' गुरु का काम कर नहीं रहा। जो काम करना था उस काम को तो पीठ दिखाकर चल दिया और गीत गाता है तू गुरु के!
और उसको तो सिर्फ़ पाखंडी कहेंगे, मुझे महापाखंडी कहेंगे। कहेंगे, 'जिस गुरु का चेला ऐसा, वो गुरु और बड़ा पाखंडी होगा।' चेले के दिल से गुरु का पता चलता है। विवेकानन्द कहा करते थे, 'मुझे मुट्ठीभर जवान लोग दे दो, मैं भारत बदल दूँगा। मुट्ठीभर समर्पित और युवा लोग दे दो।' जाने उन्होंने अस्सी माँगे थे, सौ माँगे थे, कितने माँगे थे। जितने भी माँगे थे, उन्हें मिले नहीं। पर वैसे लोग चाहिए — युवा, कर्मठ, समर्पित। और युवा से मेरा आशय ये नहीं है कि जिसकी उम्र बीस-तीस की हो। उम्र बीस-तीस की हो तो अच्छा। हाँ, दिल से कोई युवा हो, वो भी चलेगा। अगर दिल से जवान हैं आप तो फिर शरीर की उम्र नब्बे साल की भी हो तो भी कोई बात नहीं। आइए, जवानों में स्वागत है! युवा-मंडली में एक युवा और जुड़ा!
कितनी बार हुआ, ये लोग सड़क पर होते हैं, पुलिस की गाड़ियाँ निकल रही हैं। वो लोग भी आ जाते हैं पूछताछ करने कि भाई, ये क्या है, कैसा है। कई बार ये भी कहते हैं कि नहीं, यहाँ नहीं, उधर चलो। और आमतौर पर यही होता है कि पुलिसवाले आये तो थे पुलिसवाले बनकर और इनलोगों ने पुलिसवालों को ही पकड़ लिया। पुलिसवाले आये थे कि इनको ज़रा धरेंगे, इन्होंने पुलिसवालों को धर लिया। बोले, 'आप रुकिए, अब किताब पढ़े बिना नहीं जाना है। ये लीजिए, पढ़िए। फिर फ़ोटो आएगी कि ये देखो, दो पुलिसवाले बैठ गये हैं, अपना वो 'बुक ऑफ मिथ' , 'सम्बन्ध', 'डर' किताबें पढ़ी जा रही हैं। हर बार ऐसा नहीं होता पर बहुत बार हुआ है ऐसा। ऐसा आदमी चाहिए।
प्र: कहाँ चाहिए? आश्रम में?
आचार्य: तुम्हारे लिए चाहिए। बुल्लेशाह गा रहे थे आप लोग, आपको क्या लगता है बुल्लेशाह सिर्फ़ भजन ही गाते थे? बुल्लेशाह के एक हाथ में तलवार होती थी हमेशा। उनका जीवन पता है? पढ़ी है? बुल्लेशाह योद्धा थे। खूब लड़े, खूब खनकी उनकी तलवार। और फिर उन्हें हक़ मिला था कि वो गाये। अब बैठे-बैठे भजन गाने से थोड़े ही होगा, कि करते कुछ नहीं हैं, भजन गाते हैं। ऐसे नहीं। न बुल्लेशाह बैठे-बैठे भजन गा रहे थे, न कबीर गा रहे थे। आज आपने बुल्लेशाह को गाया, कबीर को गाया। भारत तो अवतारों का देश है, कोई अवतार बता दो जो कर्मरत न रहा हो। अधिकांश अवतारों की मूर्तियों के पास तुम शस्त्र पाते हो, कहीं त्रिशूल है, कहीं धनुष है, कहीं खड्ग है। ये क्या है? वो तपस्या ही कर रहे हैं बस कि घर में बैठ गये हैं और भजन गा रहे हैं? वो क्या कर रहे हैं? वो ज़मीन पर उतरे हुए हैं। वो जीवन जी रहे हैं, अधर्म का विरोध कर रहे हैं, धर्म की स्थापना कर रहे है। जो उचित है वो करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। तब उन्हें हक़ मिलता है कि वो पुकार सकें 'परमात्मा, परवरदिगार', तब।
आध्यात्मिक आदमी की बड़ी ग़लत छवि प्रचलित हो गयी है। आम छवि का जो आध्यात्मिक आदमी है, आम छवि में आध्यात्मिक आदमी जैसा है वो कैसा है, सुनो, वो भोन्दू है, वो गोलू है। उसके बस का कुछ नहीं है तो बैठ गया है और राम-राम जप रहा है, वो भगोड़ा है। ऐसा आदमी नहीं चाहिए।
और बिलकुल ऐसे ही दिखायी देता है। जितने कहते हैं कि हम नास्तिक हैं और जितने हैं नास्तिक और जितने हैं अधर्मी-विधर्मी वो सब गतिमान दिखायी देते हैं, वो गतिशील हैं। उन्होंने दुनिया पर कब्ज़ा कर रखा है, वो कर्मठ हैं। और जितने लोग अपनेआप को आध्यात्मिक कहते हैं, वो सब घर में घुसे हुए हैं। वो घर में घुसे बैठे हैं और कह रहे हैं, 'ओम् शान्ति, ओम् शान्ति, शान्ति, शान्ति।' अब राम के सामने खडा है रावण और उनकी भार्या को पकड़े हुए हैं। और बोल रहे, ओम् शान्ति शान्ति शान्ति। प्रिय, इसने तेरी देह को ही तो पकड़ रखा है न? आत्मा से तो तू सदा राम की है। और देह तो नकली है, यही वेदों का सार है कि देह में क्या रखा है। रावण ने अधिक-से-अधिक क्या पकड़ ली, तेरी देह। तो तू वहीं बनी रह। हृदय से तो तू सदा राम की है। राम ऐसा कह रहे हैं क्या? नहीं। फिर सागर पार करने को पुल बनता है। फिर राज्य से निर्वासित एक राजकुमार सेना खड़ी करता है और फिर लंकाधिपति को जीता जाता है। ऐसा आदमी चाहिए।
अर्जुन कह रहा है, 'अहिंसा, अहिंसा, शान्ति, शान्ति। लड़ाई करनी ही नहीं है। वो उतने बूढ़े पितामह सामने खड़े हैं। उनकी गर्दन थोड़े ही काटूँगा, मैं जा रहा हूँ। और ये सब दुर्योधन, दु:शासन मेरे भाई हैं, किसी को बाण नहीं मारूँगा। मैं चला।' कृष्ण कह रहे हैं, 'तू ठहर, भाग कैसे जाएगा, रणक्षेत्र है। ऐसा आदमी चाहिए, जो न ख़ुद भागे, न भागने दे। तब गीता सार्थक है। सोचो, अर्जुन भाग गया है। कृष्ण कह रहे हैं, 'ठीक ही किया भाग गया है।' अब दोनों जंगल जाकर बैठ गये हैं और वहाँ गीता कही जा रही है और दुर्योधन बन गया है राजा। अधर्म का राज्य चल रहा है और वहाँ किसी गुफा में घुसकर के कृष्ण और अर्जुन गीता कह रहे हैं। ऐसी गीता किसी काम की होगी? गीता तभी काम की है जब रणक्षेत्र हो और तीर चल रहे हों, तब। जो आदमी लड़ाई के मैदान में उतरने को ही तैयार नहीं, छाती पर तीर खाने को ही तैयार नहीं, उसके लिए गीता किस काम की? वो व्यर्थ गीता पकड़े हुए हैं।
आज रविवार है न? दुनिया छुट्टी मना रही है। और जितनी देर मैं आपके साथ नहीं था, मैं काम कर रहा था इस पर। और वहाँ पीछे आश्रम में काम लगातार जारी है। वहाँ रविवार जैसा कुछ होता ही नहीं। राधिका ख़बर देती होगी कि यहाँ तो काम कभी रुकता ही नहीं। सुबह पाँच बजे से शुरू होता है। रात बारह बजे तक चलता ही रहता है। और बारह बजे भी कोई ठिकाना नहीं कि सोने को मिल ही जाएगा। कभी दो बज गये, कभी तीन बज गये। कभी कोई आ रहा है, कोई जा रहा है, आवाजाही लगी हुई है। काम बना हुआ है। सो भी गये तो सोते से उठा दिया गया कि चलो। आश्रम में कोई रविवार नहीं मनाया गया।
और ये नहीं कि उनके ऊपर कोई दबाव है बाहर से। औपचारिक रूप से रविवार छुट्टी है वहाँ भी। इधर दुनिया में होती है तो ले लो रविवार तुम भी छुट्टी मनाओ। एक परम्परा है, तुम भी ले लो। कोई छुट्टी लेता ही नहीं। करेंगे क्या छुट्टी लेकर? तो मनोरंजन भी यही है कि रणक्षेत्र में उतर जाओ। उसी में मनोरंजन है। लोग फ़िल्म देखकर मनोरंजन करते हैं। हमारे यहाँ काम ही मनोरंजन है, 'आहा! मज़ा आ गया।' एक भाग रहा था, उसको पकड़ लिया और थमा दी किताब। अब इसी बात पर उत्सव हो गया है। दस-पन्द्रह मिनट सब इसी बात में मगन हैं। क़िस्सा बताया जा रहा है कि था एक, पहले आया और बोला, 'ये सब बेकार की बातें होती हैं। सब गुरु ढोंगी होते हैं। कौनसी किताब दे रहे हो, हमें नहीं लेनी।'
बोल रहे हैं, 'भागा तो हम भी पीछे गये। देखा उसने कि हम पीछे ही पड़ गये हैं।' तो बोला, 'अच्छा, ले लेते हैं। पर हमारे पास पैसे नहीं हैं।' 'कोई बात नहीं। जितने हैं उतने में ले जाओ। पैसे के लिए ये काम हो भी नहीं रहा, ले जाओ।' तो खिसिया गया, फिर बोलता है, 'हमारे पास एक रुपया भी नहीं है।' तो मैंने कहा, 'अच्छा, ठीक है, वो सामने उधर एटीएम है। चलो साथ में, वहाँ से निकालकर दे देना।' तो गये तो एटीएम काम नहीं कर रहा था। तो पूछे, 'अच्छा, कहाँ रहते हो?' बोले, 'उधर दूर, वहाँ उस अपार्टमेंट में रहते हैं।' बोले, 'चलो, तुम्हारे घर चलते हैं। तुम चाय भी पिलाना और कुछ दान भी देना।' तो गये, उसके घर में घुस गये। अब ये मनोरंजन है।
और कोई बड़ी बात नहीं कि जिसके साथ ये सब चल रहा है वो अगले रविवार को सत्र में दिखायी दे। और फिर सत्र में यही बोलेगा, 'मैं तो कभी नहीं आता, ये लड़का खींच लाया मुझे। और भला किया इसने जो खींच लाया। उस वक़्त मैं मन-ही-मन इसे बड़ी गाली दे रहा था कि चिपक ही गया है जोंक की तरह। पर अब मैं धन्यवाद देता हूँ इसको कि ये चिपक गया और मुझे खींच लाया।'
जीवन सत्य को समर्पित होना चाहिए। जीवन का हर हिस्सा उसी के प्रकाश से आलोकित हो। कहीं भी छुए उसी की खुशबू आये। जीवन के हर हिस्से में वही दिखायी दे, तब बात बने! आज एक को सज़ा दी गयी है बोधस्थल में। उसको सज़ा भी क्या दी गयी है? ये पचास भजन गाओगे और रिकॉर्ड करके भेजोगे। सज़ा में भी परमात्मा हो, तब समझिए जीवन में परमात्मा उतरा। कि सज़ा भी ये दी जा रही है कि भजन गाओ और रिकॉर्ड कर-करके भेजो सबको, पचास भजन। वो बैठा यही कर रहा है। रविवार को वो ये सज़ा काट रहा है, क्या? भजन गा रहा है, भेज रहा है। ऐसे ही जीवन में हर जगह परमात्मा है। सुख में तो है ही, दुख में भी है। पुरस्कार में तो है ही, सज़ा में भी है। ऐसा जीवन चाहिए।
जब कोई बहुत बात करने लगता है, 'आचार्य जी, प्यार हो गया आपसे।' तो फिर मैं कहता हूँ, 'बात बहुत हो गयी, अब ज़रा कुछ काम करके दिखाओ।' दस में से आठ तो ऐसे ही होते हैं कि काम का नाम सुनते ही नदारद। ठीक, भला हुआ तुम टरे। एकाध-दो होते हैं जो किसी तरह उत्तीर्ण होते हैं।
काम दिखाओ, काम, क्योंकि जीवन कर्म की धारा है। प्रति क्षण तुम कुछ-न-कुछ कर ही रहे हो।
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