माया नहीं दीवार ही, माया सत्य का द्वार भी || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

5 min
365 reads
माया नहीं दीवार ही, माया सत्य का द्वार भी || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश।

जा ठग ने ठगनी ठगी, ता ठग को आदेश।।

~ कबीर

प्रश्न: सर,माया के ठग लिए जाने का क्या अर्थ है?

वक्ता: इस बात से क्या अर्थ है – *‘*जा ठग ने ठगनी ठगी’? इसका क्या अर्थ है? माया कैसे ठग ली जाती है?

जब माया आपको आकर्षित कर रही होती है, उस वक्त, जब आप घोर नास्तिकता में डूबे हुए होते हो, जो आपका परम बेवफाई का क्षण होता है, ठीक उस वक्त भी, आप आकर्षित उसी (परम) से हो रहे होते हो। ठीक उस वक्त भी, आप वफ़ादारी उसी से निभा रहे होते हो। बस परोक्षरूप से।

माया , यदि यह सोचे कि उसने किसी को परम से विमुख कर दिया है, तो पगली है। कोई यदि माया की तरफ भी आकर्षित हो रहा है, तो अंततः आकर्षित किसकी ओर हो रहा है? परम की ओर। क्योंकि माया खुद किसकी है? माया खुद किसकी है?

सभी श्रोता: परम की।

वक्ता: तो माया अभी इस भ्रम में रह सकती है कि मैंने किसी को परम से विमुख कर दिया, लेकिन जो माया की ओर जा रहा है, वो भी जा परम की ओर ही रहा है। कृष्ण इसीलिए कहते हैं – ‘तेरे सामने दो रास्ते हैं या तो तू सीधा मेरे पास आजा। या फिर तू मेरी माया के पास चला जा’। पर दोनों ही स्तिथियों में, आ तू मेरे ही पास रहा है। एक में सीधे-सीधे आ रहा है। एक में टेढ़े-टेढ़े आ रहा है। एक में सीधा मेरी तरफ़ आ रहा है और दूसरे में तू लम्बा रास्ता ले कर के आ रहा है।

अब यह तेरे विवेक पर है कि तुझे कैसे आना है? या तो सीधा आ, और मुझ पर समर्पित हो जा। या फिर मेरी माया को जा। वहाँ को भी जब तू जा रहा है, तो याद रखना, जा मेरी ओर ही रहा है। या तो सीधे परम की इच्छा कर ले। या फिर छोटी-छोटी, छोटी-छोटी वस्तुओं की कामना करता रह। जब तू छोटे की कामना करेगा तो याद रखना कि तेरी कामनाएं कभी पूरी नहीं होंगी। तू छोटे की कामना करेगा, तो निश्चित सी बात है कि छोटे से बड़े की कामना करनी पड़ेगी, फिर और बड़े की करनी पड़ेगी, फिर और बड़े की करनी पड़ेगी। तू माया की ओर ही जा रहा है।

माया की ओर जाएगा, तो छोटे से बड़े, और बड़े, और बड़े, और बड़े की ओर जाना पड़ेगा क्योंकि माया से किसी का पेट भरता नहीं। थोड़ा मिलता है, तो और बड़े की उम्मीद, और बड़े की इच्छा पैदा हो जाती है। अंततः छोटे से बड़ा, छोटे से बड़ा, और बड़ा, और बड़ा। आखिर में, अंततः, तुझे परम की ही इच्छा करनी पड़ेगी। यानि कि अगर तू माया की ओर भी गया, तो अंततः किधर जाना पड़ा तुझे? परम की ओर। क्योंकि माया का अर्थ है – छोटे की इच्छा।

माया और मोक्ष में इतना ही अंतर है- माया कहती है, छोटे की इच्छा से काम चल जाएगा। और मोक्ष कहता है, परम की इच्छा के बिना चलेगा नहीं।

माया भी अंततः भेजती आपको मोक्ष की ओर ही है। क्योंकि छोटे की ओर जाकर के तुम पाते यह हो कि पेट भरा नहीं।

सौ रूपये चाहिए थे, मिल गए, पेट भरा नहीं। तो अब हज़ार चाहिए। फिर लाख चाहिए। फिर करोड़ चाहिए। अंततः तुम पाते हो कि कोई भी संख्या पूरी नहीं पड़ रही। तो फिर तुम्हें परम संख्या चाहिए। कुछ ऐसा चाहिए, जो संख्यातीत हो। तुम माया की ओर जाकर भी पहुँचोगे वहीं पर। बड़ा लम्बा रास्ता है वो। टेढ़ा-टेढ़ा है। पता नहीं कितना समय लग जाएगा।

तो इसीलिए जो जानकार हैं, जो होशियार हैं, वो उतना लम्बा रास्ता नहीं चुनते। वो कहते हैं- *‘माया की ओर नहीं जायेंगे’*। उन्हें माया से नफ़रत नहीं है। बस यह जानते हैं कि माया घुमाती बहुत है। पहुँचा तो वहीं देगी जहाँ जाना है। पहुँचा तो वहीं देगी जहाँ हमारा स्वभाव है। पहुँचा तो वहीं देगी जहाँ हम हैं और जहाँ वो परम है। लेकिन बड़ा परेशान कर-करके पहुँचाएगी। इतना कौन झेले? हम सीधे ही पहुँच जाते हैं। एक झटके में ही पहुँच जाते हैं। एक समर्पण में ही पहुँच जाते हैं। आ रही है बात समझ में?

यह है माया को ठग लेना, कि माया कोशिश तो करती है तुम्हें विमुख करने की, पर विमुख कर-करके भी आखिर में वहीं पहुँचा देती है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

इस विषय पर और लेख पढ़ें:

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories