माया छोड़नी नहीं, सत्य पाना है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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माया छोड़नी नहीं, सत्य पाना है || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

माया छोड़न सब कहै, माया छोरि न जाय|

छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय|

वक्ता: छोड़ने की बात वैसे ही है, जैसे आधी रात कहे, ‘मुझे अपनी कालिमा छोड़ देनी है’| पाए बिना छोड़ने का ख्याल वैसा ही है कि जैसे रात कहे कि सूरज ना आए, क्योंकि सूरज मुझे घबराता है, सूरज सताता है, सूरज दुश्मन है मेरा, सूरज ना आए पर मेरी कालिख साफ हो जाए| रात कुछ होती ही नहीं| सूरज का अभाव ही रात है| अंधेरा अपने आप में कुछ नहीं है, प्रकाश का अभाव ही अंधेरा है| अँधेरे को आप छोड़ कैसे दोगे, जब वो कुछ है ही नहीं? अहंकार को छोड़ना सबसे बड़ी मुर्खता की बात है, क्योंकि अहंकार अपने आप में भ्रम है| जब वो है ही नहीं तो उसे छोड़ने का प्रश्न कहां पैदा होता है? लेकिन हम लगातार यही बात करते रहते हैं कि अहंकार छोड़ो| क्या छोड़ें? एक ओर तो कहते हो अहंकार भ्रम है, फिर कहते हो कि छोड़ो इसे| अरे! कुछ होगा, तो ना छोड़ेंगे? जब है ही नहीं, तो छोड़ें क्या? तो इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण बात नहीं होती कि अहंकार को छोड़ दो| लेकिन अपने आसपास आपको यही सब बातें सुनाई देंगी| अहंकार को छोड़ो, ये करो|

किसको छोड़ें, जो है ही नहीं? छोड़ा नहीं जाता, पाया जाता है| जो है ही, जो स्वभाव है, जो असली है, वास्तविक है, उसको पा लिया जाता है| जब उसको पा लिया जाता है, फिर छोड़ने जैसी कोई आवश्यकता रह ही नहीं जाती| जो पाने योग्य था, वो मिल गया| अब छोड़ने का कोई ख्याल ही नहीं है सामने| और जो छोड़ने वाला है, वो छोड़ कैसे देगा, बिना पाए? छोड़ने की शक्ति कहां से आएगी? छोड़ने की नीयत भी कैसे बनेगी जब पाया नहीं? कभी सोचा है आपने? क्यों आप पकडे हुए हो बेवकूफियों को? दुनिया आ, आ करके बता रही है, ‘बेवकूफी है, बेवकूफी है, बेवकूफी है’| पर आप उनको, दोहराते जाते हो, दोहराते जाते हो| क्यों? क्योंकि जो असली है, वो पाया नहीं है| तो नकली से चिपटे बैठे हो| नकली को छोड़ना संभव नहीं है बिना असली को पाए| पहले असली को पाया जाता है, फिर नकली छूटता है| हां, ये अलग बात है कि जब नकली छूटता है, तो असली अपने पूरे तेज के साथ प्रकट होता है| लेकिन ये भी भूलियेगा मत कि नकली को भी छोड़ने की शक्ति असली ही देता है| उसकी मदद के बिना, तुम उसकी ओर भी कदम नहीं बढ़ा सकते| तुम कहो कि उसकी ओर भी अपने बढ़ाये कदमों से पहुँच जाओगे, तो गलत बात है|

तो ये ना कहो कि मैं तेरी ओर कदम बढ़ा रहा हूं| कहो कि तू शक्ति दे कि तेरी ओर कदम बढाऊं क्योंकि उसी की दी हुई शक्ति से, उसकी ओर कदम बढ़ सकता है| असली से ही तुम असली की ओर बढ़ सकते हो| इसी को उपनिषद कहते हैं, ‘पूर्णता से ही, पूर्णता निकलती है| और कहीं से पूर्णता आ ही नहीं सकती| मात्र पूर्ण से ही पूर्ण निकल सकता है, मात्र सत्य से ही सत्य निकल सकता है’| कोई ये ना सोचे कि असत्य को हटा दिया तो जो बचा सो सत्य है| ये पागलपन की बात है| सत्य, कोई असत्य का, द्वैत विपरीत थोड़े ही है कि असत्य हटा, तो जो बचा सो सत्य है| सत्य तो आधार है| वो शेष रह जाने वाली चीज नहीं है, वो तो निःशेष है| पर आप इस तरह की बातें सुनोगे कि जो नकली है, उसको हटा दो तो जो बचेगा, वो असली है| नहीं, ऐसा नहीं है| नकली को पहली बात तो, हटा नहीं पाओगे| दूसरी बात जो असली है, वो नकली के हटाने पर नहीं आता, वो नकली का भी आधार है|

श्रोता १: सर, एक बात मैंने अनुभव है कि नकली को, निरंतर हम हटाने का प्रयास करते हैं, उससे लड़ते हैं, तो वो असली बन जाता है|

वक्ता: कोशिश ही मत करिये कि जो, सडा-गला है, उसको हटाएं| आपके हटाए, हटेगा नहीं| आप हटा सकते होते, तो कब का हट गया होता| देखा नहीं है? पर वही है ना कि सौ बार लात खातें हैं, पर फिर खड़े हो जाते हैं कि फिर पड़े| दाद देनी पड़ेगी, सहन शक्ति हमारी गजब है|

श्रोता १: किसी ने कहा कि सौ जूते खा खा के तमाशा देखो; और तमाशा भी ये, कि जूते खा रहें हैं|

वक्ता: सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा हंस-हंस देखें|

श्रोता १: तमाशा भी यही है, कि जूते खा रहें हैं|

वक्ता: तुम मुक्त हो सकते, तो कब के हो नहीं गए होते? या चाहते हो तुम कि बन्धनों में पड़े रहो? चाहते तो सब मुक्ति हैं| मुक्त हो कोई नहीं रहा है| इसका अर्थ क्या है? तुम्हारे करे होगा नहीं| तुम मुक्ति का प्रयास मत करो, नहीं तो बहुत तमाचा खाओगे|

छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय|

तुम पाने की बात करो, वो जो पूर्ण है; और ये भक्ति की भाषा है| कि वो जो पूर्ण है, जो सामने है, किसी तरह उसको पा लूं| किसी तरह उससे एक हो जाऊं|

(मौन)

तुम कहते हो, ये छोडना है, वो छोडना है| जीवन में, इर्ष्या बहुत है| इर्ष्या हटानी है| द्वेष हटाना है| हटेगी ही नहीं| वो हटती है, प्रेम से| तुम उसे हटाने की कोशिश कर रहे हो, बिना प्रेम को लाए| प्रेम को तुम, लाना नहीं चाहते| क्योंकी प्रेम से, अहंकार टूटता है| तो तुम चाहते हो कि अहंकार भी ना टूटे, और इर्ष्या चली जाए| ऐसा हो नहीं सकता| जीवन में, डर बहुत है| तनाव बहुत है| अब तुम डर को और तनाव को, हटाने की कोशिश कर रहे हो| बिना श्रद्धा को लाए| और कैसे हट जाएगा, तनाव और डर, जब श्रद्धा नहीं है, जीवन में| डर का एकमात्र उत्तर, ‘श्रद्धा’ है| पर नहीं, श्रद्धा नहीं चाहिये, डर हट जाए| महाराज कोई नुस्खा दीजियेगा, डर हट जाए| अब महाराज में ही श्रद्धा नहीं है, तो महाराज का नुस्खा, काम आ जाएगा?

छोरन की जो बात करु, बहुत तमाचा खाय|

कोई आए आपके पास, बात करे कि जीवन में ये कमी है, वो कमी है, जीवन में ये फलानी आदतें हैं जो डेरा डाल कर बैठ गई हैं, बहुत बेवकूफ हूं, ऐसा है, वैसा है, सत्तर बातें| ये मत देखिये कि क्या है जो उसने इकट्ठा कर रखा है; गन्दगी ही है| ये देखिये कि क्या है जो दस्तक दे रहा है, पर उसको प्रवेश नहीं देता| क्या है जिसकी कमी है? वो जब आ जाएगा, तो सब हट जाएगा| जब सूरज नहीं होता, तब हजार तरीके की परछाइयां होती हैं| भ्रम देखा है कभी? रात में आप जाईये, वो लैम्पपोस्ट पर ऊपर हल्का-सा, पतला-सा एक बल्ब जल रहा होगा और उससे, जो परछाइयां बन रहीं होंगी, उनमें से कोई भूत जैसी लगेंगी, कोई कुछ जैसा लगेगा, अजीब-अजीब आकार दिखाई देंगे रात में। देखा है? अब आप इन आकारों से कब तक लड़ते रहोगे? रात में तो चारो तरफ भूत-प्रेत ही डोलते नजर आते हैं| कब तक आप इनसे लड़ते रहोगे? किस-किस से अलग-अलग जा कर लड़ोगे, कि अभी मैंने खम्भे की परछाई काट दी, कि अब जाकर पेड़ की परछाई काट रहा हूं? आपको बस इतना करना है कि सूरज को ले आना है| छोड़ने की बात नहीं करिये, लाने की बात करिये, पाने की बात करिये| सूरज आ गया, ये सब इधर-उधर जो फालतू, भ्रामक आकृतियां दिखाई दे रही हैं, ये अपने आप विलुप्त हो जाएंगी|

‘नहीं, सूरज नहीं चाहिये’, वो बात मत कर देना| क्यों? क्योंकि वैम्पायर हैं| वो आ गया तो हम ही नहीं बचेंगे| क्या पढ़ाते हो बच्चों को? जो चढ़ते रहे जिंदगी भर मोम की सीढियों पर..| क्या है वो?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मिलेगा ना सूरज तुम्हें जिंदगी भर, जो चढ़ते रहे मोम की सीढियों पर|

वक्ता: तो जिन्होंने अपने जीवन में अपना पूरा घर ही मोम के आधारों पर खड़ा करा है, वो तो सूरज से डरेंगे ही| सूरज आ गया, तो मेरे घर का क्या होगा? सारी सीढियां, बुनियाद ही पिघल जाएगी| यही दिक्कत है| पर एक बात पक्की समझो, सूरज के आने से जो कुछ भी हटता है, ये पक्का है कि वो…

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नकली था|

वक्ता: तो उसे जाने दो ना| कितना समझाया जाए? सच के आने से गर कुछ हट रहा है, तो वो क्या था?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): भ्रम|

वक्ता: वो झूठ ही तो था? उसे जाने दो| उससे क्यों मोह बांधे बैठे हो?

-‘संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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