प्रशन: सर, अभी हमने सत्य की बात करी, जो कभी मरता नहीं, तो मौत को बहुत तरीके से समय से जोड़ते हैं कि हम एक नियुक्त समय के बाद मर जाते हैं। यह समझ नहीं आ रही है बात! मतलब कुछ ऐसा भी है जो समझा भी जा सकता है? वाकई?
वक्ता: यह बात वही है। थोड़ा सा इसके लिए सरका हुआ दिमाग चाहिए। जो खुद दिन-रात, देह-रूप में मरने की ओर बढ़ रहा हो पर फिर भी जिसकी ज़िद हो, कि मरूँगा नहीं, मर सकता नहीं। इसके लिए तो ऐसा दिमाग चाहिए। इतना चाहो तो कहलो श्रद्धावान और चाहे तो कहलो हठी। श्रद्धा भी एक तरह की हठ ही है, कि पता कुछ नहीं है पर कह रहे हैं पता है। कोई पूछे क्या पता है? पर वह नहीं पता, लेकिन पता है। हठ है! तभी तो कहा है इसके लिए बड़ा बली मन चाहिए। जिसे कुछ न पता हो तो भी बोले कि पता है। जो मर रहा हो तब भी बोले कि अमर है।
श्रोता १: सर, कहीं पर यह जो कंडीशनिंग (अनुबंधन) है कि मौत को मना करने की, कि नहीं मौत अभी नहीं आएगी। यह बहुत बड़ा रोड़ा है। अगर मान ही लिया, वह होता नहीं है। मान्यता आती नहीं है।
वक्ता: यह रोड़ा भी हो सकता है, यह रास्ता भी हो सकता है। तुम्हें मौत अच्छी नहीं लगती, यही देखकर ही तो उस हठी मन ने कहा कि मैं मर नहीं सकता। क्योंकि अगर मौत सत्य होती, तो मुझे बुरी क्यों लगती? मैंने कोई गलत जीवन जीया नहीं। तो सत्य मुझे बुरा कैसे लग सकता है? मौत यदि सत्य होती तो मुझे अच्छी लगती। मुझे पसंद नहीं मौत, इसी से सिद्ध होता है कि मौत नकली है।
एक तरीके से सुनोगे तो बड़ा अहंकारी वक्तव्य है यह, कि हम इतने साफ़ हैं, अपनी सफ़ाई पर हमें इतना भरोसा है कि अगर हमें कुछ काला दिख रहा है, तो काला है। अगर हमें कुछ गन्दा दिख रहा है, तो गन्दा है। अपने बोध पर हमें इतना भरोसा है कि अगर हमें कुछ पसंद नहीं है तो निश्चित सी बात है कि उसमें कुछ खोट है। मौत में कुछ खोट होगी ज़रूर।
श्रोता २: यह कन्विक्शन (दोषसिद्धि) मन की है?
वक्ता: बड़े साफ़ मन का है। बड़े सरल मन का है।
श्रोता २: सर, अभी भी घूम रही है बात क्योंकि हम मन की बात कर रहे हैं और वह मूलरूप से अस्थिर है, फिर हम उसे स्थिर कैसे कह रहे हैं?
वक्ता: जो अस्थिर है, उसको मन का मैल कहते हैं। मन का सत्व नहीं।
श्रोता २: मन भी तो … कहीं-न-कहीं …
वक्ता: जिसको तुम मन बोलते हो, वह मैल है। कोई दूसरा व्यक्ति भी होता है जिसने मैल के अतिरिक्त भी मन को जाना होता है। जिसने मैल के अतिरिक्त भी स्वयं को जाना होता है। तुम अपने आप को उतना ही जानते हो न जितना तुम अपनी हैसियत, सामर्थ्य को जानते हो। तुम अपनी अनंतता को थोड़ी जानते हो। तुम तो अपनी क्षुद्रता भर को जानते हो। उसी को तुम बोल देते हो, यह मैं हूँ।
श्रोता २: तो साफ़ मन अनंतता को जान लेता है?
वक्ता: हाँ।
श्रोता २: सर, मन अनंतता को कैसे जान लेगा जब वह खुद ही; मतलब आप कह रहे हैं कि सीमा उसकी मैल है।
वक्ता: और यह ख्याल की वह कैसे जान लेगा।
श्रोता २: यह भी!
वक्ता: तुम्हारी हालत ऐसी है कि तुम्हें गाड़ी दे दी गयी, जिसमें छह गियर (साज़) हैं। तुम पहले में एक्सेलरेटर (त्वरक) दबाए जाते हो और कहते हो कि यह बाकी आगे की जितनी भी संख्याएँ हैं स्पीडोमीटर (गतिमापक) में, वह व्यर्थ हैं। अरे, वहाँ हम कैसे पहुँच सकते हैं, देखो हमने क्या किया हुआ है, पूरा दाब रखा है, तो भी ३० से ऊपर जाती नहीं।
तो इससे सिद्ध क्या हुआ?
यही है।
तुम्हें यह दिखता ही नहीं कि तुम गलत गियर (साज़) में जिये जा रहे हो। बात दाबने की नहीं है कि और दाबे जा रहे हो, और दाबे जा रहे हो। गियर (साज़) बदलो! और जब कोई आता है, सिखाता है – गियर बदलो – तुम्हें बताता है कि एक नहीं छह होते हैं और छटे में जाती है सीधे – १६० – और तुम चल रहे हो २० पर, पहले में ही! तो तुम वही २० की ही गति पर सीधे छटा लगा देते हो। अब गति है २० की, लगा दिया छटा! गाड़ी ने खाए हिचकोले, दो चार-बार दिए धक्के और वहीँ गयी रुक। तुम बोलते हो देखा- मुर्ख! हम एक में चलाते थे और चलती थी!
(श्रोतागण हँसते हैं)
लगवा दिया छटा, और हो गयी खड़ी। और धक्के और लगे।
तुम्हारी नियति है ऊँचे से ऊँची गति पकड़ना। चाहत तुम्हारी वही है। तुम लेकिन ऊँचे से ऊँची गति पकड़ना पहले गियर (साज़) में ही चाहते हो, उससे ऊपर नहीं जाना चाहते हो। तो बस धुंआ मारते हो, और क्या करते हो। गरम होती है गाड़ी।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।