मौत के डर को कैसे समाप्त करें?

Acharya Prashant

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मौत के डर को कैसे समाप्त करें?

प्रश्नकर्ता: मृत्यु से डर लगता है। क्या मृत्यु के साथ सब समाप्त हो जाता है?

आचार्य प्रशांत: ये घर है तुम्हारा (सत्संग के कमरे को बताते हुए)। मौत का मतलब इसमें आग लग जाएगी। ठीक है? अभी जीवन है तो ये घर है। (कमरे में रखी वस्तुओं को बताते हुए) ये शरीर है तुम्हारा, ये संसार है तुम्हारा, रिश्ते-नाते। ठीक है?

अच्छे से देख लो। ये तुम्हारा शरीर है, जीवन है, संसार है। देख लिया? ठीक है।

अब मृत्यु। मृत्यु का मतलब सब मिट गया, राख हो गया। ठीक है? अब दोबारा देखो, अब यहाँ कुछ नहीं है। क्या कुछ बचा?

प्र: नहीं।

आचार्य: गौर से देखो क्या पता कुछ बच गया हो जिसको तुम पहचानते हो। कुछ बचा?

प्र: राख।

आचार्य: राख भी उड़ गई। हवा चली, राख भी उड़ गई। बताओ, कुछ बचा? कुछ बचा जिसको तुम पहचानते हो?

प्र: जी, आचार्य जी।

आचार्य: क्या?

प्र: फ़िज़िकल कुछ नहीं बचा, पर याद तो है।

आचार्य: किस चीज़ की? जिसकी है वो बची?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो मृत्यु हर उस चीज़ को मिटा देगी जिसको तुम जानते हो। क्योंकि तुम जानते ही सिर्फ़ चीज़ों को हो। तुम्हारे लिए मकान का क्या मतलब है? चीज़ें न?

(कमरे में रखी वस्तुओं को बताते हुए) ये मकान है, ये मकान है, वो दरवाज़ा मकान है, ये मकान है, ये सब हैं। इनको तुम जानते हो। हर वो चीज़ जिसको तुम जानते हो मृत्यु उसको मिटा देने की घटना का नाम है।

मृत्यु क्या है? मृत्यु उसको मिटा देती है जिसको तुम जानते हो। फ़िर समझो, दोहराओ इसको। मृत्यु उसको मिटा देती है जिसको तुम जानते हो।

तो तुम यहाँ पर आए, तुमने कहा, “घर कहीं नहीं है।" और तुमने कहा, “हाय! अब कुछ नहीं बचा।" क्या हो गई? मृत्यु हो गई। लेकिन ये जो पूरा आकाश है, ये बचा। ये बचा, लेकिन इसकी तो तुम कीमत ही नहीं करते थे। इसकी तुम कीमत ही नहीं करते थे, इसीलिए जब मौत हुई तो तुम फूट-फूट कर रोए। तुमने कहा, “हाय मेरी सारी चीज़ें जल गईं, लुट गईं, नष्ट हो गईं।" और सही बात है, जितनी चीज़ें थीं वो तो लुट गईं, जल गईं, नष्ट हो गईं।

समय हर चीज़ को बर्बाद कर देता है। कर देता है न? समय किसको नहीं बर्बाद कर पाता?

प्र: ख़ाली स्पेस (आकाश)।

आचार्य: घर में आग भी लग जाए तो भी ये ऐसे ही रहेगा। लेकिन उसकी तो तुम कीमत ही नहीं करते। जब वो पहले था, तब भी तुम उसकी कीमत नहीं करते थे।

तुमसे कोई पूछे, “घर में क्या-क्या है?" तो तुम कहोगे, “खिड़की है, दरवाज़ा है, सोफ़ा है, गुलदस्ता है, पंखा है, फ्रिज है, ए.सी. है, गहने-ज़ेवर हैं, टी.वी. है, गाड़ी है।" इन सब को तुम बोलोगे कि “ये सब मेरा घर हैं"। घर की परिभाषा माने ये सब। और उसमें तुम घर के लोगों को जोड़ दोगे। ये सब हैं।

और ये सब क्या हैं? ये सब वो हैं जिन्हें समय मिटा देगा। तुमसे जब पूछा गया, "घर में क्या-क्या है?" तुमने कभी ये तो कहा ही नहीं कि “लोग हैं, सामान है और आकाश है, स्पेस है।" तुमने ये कभी कहा?

प्र: नहीं।

आचार्य: इसकी तो तुम गिनती ही नहीं करते। नहीं करते न? जबकि इसके बिना कुछ हो नहीं सकता। जितने लोग हैं, सब इसी में हैं। स्पेस न हो तो कुछ भी हो सकता है? नहीं। पर उसकी तुम गिनती नहीं करते।

जिसकी तुम गिनती नहीं करते, वही शेष रह जाता है। ये तो बड़ी अजीब बात हो गई। पर चूँकि तुमने उसकी गिनती नहीं की थी, इसीलिए उसके शेष रह जाने की भी तुमको खबर नहीं लगती। तुमने कभी अगर उसकी गिनती करी होती, तुमने कभी अगर उसको मूल्य दिया होता, तो मृत्यु तुमको इतनी डरावनी नहीं लगती।

प्र: इसको जानते ही नहीं हैं।

आचार्य: इसको जानते ही नहीं, इसीलिए इसके बचे रह जाने से भी तुम्हें कोई सांत्वना नहीं मिलती। इसको तुम जानते नहीं, इसीलिए इस बात का तुम्हारे लिए कोई महत्व ही नहीं है कि जो असली चीज़ है, वो तो बची ही रह जाएगी। जो कुछ नष्ट होगा वो नकली ही नकली है।

और अपने डर की भी वजह समझो, तुम जानते ही सिर्फ़ उन चीज़ों को हो जो नष्टधर्मा हैं। तुम जानते ही सिर्फ़ उन चीज़ों को हो जो ख़त्म हो जानी हैं। तुम चुन-चुन कर सिर्फ़ उन चीज़ों से रिश्ता बनाते हो जो मरणधर्मा हैं। अब ये तो तुमने बड़ा कमाल किया। खुद ही तुमने सिर्फ़ ऐसी चीज़ों से रिश्ता बनाया जो खत्म हो जाएँगी। और फ़िर जब वो ख़त्म हो जाएँ, तो तुम छाती पीटते हो कि “हाय! हाय! ख़त्म हो गईं।" क्यों, जानते नहीं थे क्या पहले, कि ये ख़त्म होनी ही हैं?

जब जानते हो कि ख़त्म होनी हैं तो क्यों उनको इतना मूल्य देते हो? और अगर तुमको कुछ ऐसा चाहिए जो ख़त्म नहीं होता तो जीवन रहते उससे रिश्ता क्यों नहीं बना रहे?

जब तक तुम्हारी साँस है, तुम रिश्ता ही ऐसी चीज़ों से बना रहे हो जो ख़त्म हो रही हैं। जीवन रहते तुम उससे रिश्ता बना ही नहीं रहे जो ख़त्म नहीं होता। तो इसीलिए जब मौत आती है, और वो सारी चीज़ें छीन जाती है जो ख़त्म होती हैं तो तुम्हारे पास हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचता। ख़ाली हाथ रह जाते हो।

और ये बड़ी विचित्र बात है कि तुम ख़ाली हाथ रह जाते हो, क्योंकि जो असली था वो छिना नहीं, लेकिन जो कुछ तुम जानते थे वो सब छिन गया। चेतना की सारी सामग्री छिन गई। चेतना का आकाश नहीं छिन गया है, पर चेतना की सारी सामग्री छिन गई है। घर की सारी सामग्री छिन गई है, घर का आकाश नहीं छिन गया है। मौत चेतना की सारी सामग्री को तुमसे छीन ले जाएगी। तुम्हारी बातें, तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारी यादें, तुम्हारा संसार, तुम्हारे रिश्ते-नाते, घर-परिवार, धन-धान्य ये सब तुमसे छिन ही जाने हैं, बिलकुल उम्मीद मत रखना कि ये बचे रहेंगे और पुनर्जन्म इत्यादि के बाद तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाएँगे। कुछ नहीं, ये सब नष्ट हो जाएगा। जीवन दोबारा नहीं मिलना है।

और ये बात कितनी डरावनी है न कि उन सब चीज़ों को ख़त्म हो जाना है जिनके आधार पर हम जीते हैं? वो सब कुछ जिसे हमने अपनी दुनिया मान रखा है वो लगातार मिटने की ओर बढ़ रही है, बस मिट ही जाएगी। ऐसा भी नहीं कि दो-चार हज़ार साल बाद मिटेगी, बस चंद और सालों की बात है, वो मिट जाएगी।

कितनी ख़तरनाक बात है न? डर तो जाओगे ही। डर तो लगेगा। तो अगर नहीं डरना है तो क्या करना है?

प्र: ऐसी चीज़ से नाता जोड़ना होगा जो मिटती नहीं।

आचार्य: (हामी में सर हिलाते हुए) फ़िर मौत सामने आएगी, तुम कहोगे, “ठेंगा! ले जा, जो ले जाना है। तू जो कुछ ले जा सकती है, उससे तो हमने रिश्ता रखा ही नहीं। हमारा जिससे रिश्ता है, उसे तू ले नहीं जा सकती।"

जो आदमी मौत से जितना डरता हो, समझ लो उसने उतना ज़्यादा ग़लत रिश्ते बना रखे हैं। रिश्ते तुम्हारे जितने ग़लत होंगे, मौत से तुम्हें उतना डर लगेगा। और रिश्ते तुम बनाते ही अपनी पहचान के आधार पर हो। जो तुम खुदको समझते हो, उसी अनुसार तुम रिश्ते बना लेते हो।

तुम खुदको अगर कुत्ता मानोगे तो हड्डी से ही तो रिश्ता बनाओगे, है न? खुदको अगर प्यासा मानोगे तो पानी से रिश्ता बनाओगे। कबीर साहब कहते हैं, “हंस हो अगर तुम, तो मोती से तुम्हारा नाता होगा और कौवे हो अगर तुम, तो मल से तुम्हारा नाता होगा।"

तो मोती है या मल है, वो तो इस पर निर्भर करता है कि तुम अपने-आपको माने क्या बैठे हो। मौत से डरते हो, इसका मतलब रिश्ते ग़लत बनाए हैं। रिश्ते ग़लत बनाए हैं इसका मतलब खुदकी पहचान ग़लत रखी हुई है। जो अपने-आपको ग़लत मानेगा, वो रिश्ते ग़लत बनाएगा। जो रिश्ते ग़लत बनाएगा, वो मौत से थर्राएगा।

मौत बड़ी निर्दय है। कुछ नहीं छोड़ने वाली। अपने-आपको झूठी सांत्वना मत देना कि जीवात्मा बची रह जाएगी। कुछ नहीं बचा रह जानेवाला। सत्य मात्र अनंत है। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है, जो न आता न जाता, न जन्मता न मरता।

मृत्यु का डर तुम्हें है और अभी है। तो निश्चित रूप से इस डर से निजात तुम्हें ही चाहिए और अभी चाहिए। अभी चाहिए न?

सरदर्द अगर अभी हो रहा हो, तो गोली कब चाहिए, पाँच दिन बाद?

प्र: अभी।

आचार्य: डर तुम्हें अभी लग रहा है न?

प्र: हाँ।

आचार्य: तो अभी किसी ऐसे से रिश्ता बनाओ, जो तुम जानते हो कि न समय का है, न संसार का। कहीं और का है, मौत उसे छू नहीं पाएगी। उससे रिश्ता बनाओ। मौत के डर से बच जाओगे।

जो ग़लत रिश्तों में जी रहे हैं, उनकी सजा है मृत्यु का डर। शास्त्रों के पास जाओ तो वो कहते हैं, ‘हमारा उद्देश्य ही एक है: तुम्हें डर से मुक्ति दिलाना।' क्योंकि आदमी का जीवन चलता ही डर के आधार पर है। तुम्हें डर न हो तो तुम जितने काम करते हो, उसमें से एक न करो। हम ऐसे जी रहे हैं जैसी हमारी मूल प्रेरणा ही डर हो।

तो शास्त्र कहते हैं, मुक्ति का मतलब ही सिर्फ़ एक है फिर: भय से मुक्ति। सही रिश्ता बनाओ, उसके बाद मौत आएगी तुम्हारे घर में, तुम मस्त लेटे रहोगे। तुम कहोगे, “ले जा जो कुछ ले जा सकती है। काश मैं तुझे ये आकाश भी दे पाता।"

(आचार्य जी हँसते हुए)

“इसको ले जा सकती है तो ले जा।"

यमराज शर्मा जाएँगे, वो कहेंगे “अरे तू! मुझे चिंदी चोर साबित कर दिया!" और तुम कह ही यही रहे हो कि “तुम क्या चिल्लर चुराने आए हो! जो असली हीरा है, जो असली चीज़ है, वो तो तुम चुरा सकते ही नहीं।"

ये तो तुमने यमराज को शर्मसार कर दिया। वो भैंसे को न मुँह दिखा पाएँ अपने।

(श्रोतागण हँसते हुए)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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