मौत के डर को कैसे खत्म करूँ? || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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मौत के डर को कैसे खत्म करूँ? || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्नकर्ता: सर, आपने कहा था कि आखिरकार हर डर मृत्यु का होता है। ये सारे डर मौत के हैं, ये कैसे समझूँ?

आचार्य प्रशांत: यह सारे डर मौत के हैं, ये बाद में समझना, पहले ये समझो कि मृत्यु क्या है। तुम क्या समझती हो कि मृत्यु क्या है? शरीर की मृत्यु तुमने देखी नहीं है। कोई ऐसा नहीं है जिसने अपनी मृत्यु देखी हो। और यह मूलभूत नियम जान लो कि जो तुम बिलकुल जानते नहीं, तुम्हें उसका खौफ़ नहीं हो सकता। ये डर का नियम जान लो।

डर हमेशा होता है उसका जो तुम्हारे पास है परन्तु जिसके छिन जाने की आशंका है। जो तुमने जाना नहीं, देखा नहीं, जिसका तुम्हारा कोई अनुभव नहीं, तुम्हें उसका डर हो नहीं सकता।

इस बात को फिर से समझो। जब तुम कहते हो कि तुम्हें मौत का खौफ़ है, तो तुम्हें वास्तव में मौत का खौफ़ नहीं है, तुम्हें जीवन के छिन जाने का खौफ़ है। मृत्यु तुम जानते नहीं। हाँ, तुम ऐसा जीवन ज़रूर जानते हो जिसमें बहुत कुछ ऐसा है जो लगातार छिनता रहता है। तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हारे पास जो कुछ है वो कभी पूरा नहीं रहा और कभी पक्का नहीं रहा। जो मिला वो आधा-अधूरा मिला और जो मिला वो समय की दया से मिला। समय ने दिया और समय ही उसे छीनकर वापस भी ले गया। इस डर का नाम तुमने मृत्यु दिया है।

कृपा करके अपने मन से यह बात निकाल दो कि तुम्हें शरीर के नष्ट हो जाने का डर है। तुम्हें शरीर के नष्ट हो जाने का डर नहीं है।

मृत्यु के डर के केंद्र में अहम् भाव बैठा होता है कि, "मैं कौन हूँ?" तुमने अपने-आपको जिस रूप में परिभाषित किया है, तुम्हें अपना वो रूप नष्ट हो जाने का डर है। तुमने अपने-आपको जिस रूप में देखा है, तुम्हें अपने उस रूप के नष्ट हो जाने का डर है।

किस रूप में देखा है तुमने अपने-आपको? कि, "मैं जो ऐसा सोचती हूँ, मैं जो ऐसा खाती हूँ, पीती हूँ। मैं जिसकी यह धारणाएँ और सम्बन्ध हैं।" तुम्हें इनके छिन जाने का डर है। यह है मृत्यु तुम्हारे लिए। इसी को तुम कहते हो कि, "अरे, मर जाऊँगी!”

मरने का अर्थ है, "मैं जैसी हूँ", उसका न रहना। तो फिर मृत्यु के डर का उपचार क्या है? कुछ ऐसा पा लेना जिसका तुम्हें पता है कि छिनता नहीं। जिसको उसकी उपलब्धि हो गई अब वो डरेगा नहीं।

मृत्यु के डर का उपचार है कुछ भी ऐसा पा लेना जो छिनता नहीं है।

तुम कैसे ऐसा पाओगे? तुम शुरुआत यहीं से करो कि जानो कि तुम्हारे पास तो जो कुछ है वो छिन ही जाता है। तुम्हारे पास जो कुछ है उसमें सदा विराम लगता है, उसमें सदा अपवाद आते हैं। बस इस नियम का कोई अपवाद नहीं है। किस नियम का? कि तुम्हारे पास जो कुछ है वो छिन जाएगा। इस नियम को ही अगर दिल से लगा लो तो यही जादू होगा। तुम पाओगी कि छिनने का खौफ़ मिट गया।

कहीं-न-कहीं उम्मीद बाँध रखी है कि तुम्हारे पास जो कुछ है वो शायद न छिने। जब पूरी तरह स्वीकार कर लोगी कि यह सब कुछ तो एक-न-एक दिन जाना ही है—और यह ज्ञान तुम्हारी नस-नस में बहे, तुम्हारी साँस-साँस में रहे, तुम्हें कुछ ख़ास लगे ही न।

मौत हमारे लिए बड़ी ख़ास बात हो जाती है न। तुम्हें यह बात कुछ ख़ास लगे ही न। तुम चले-फिरते जैसे हवा की और पत्तों की, और जीवन की, और भोजन की बात करती हो, ठीक उसी लहज़े में अगर तुम मौत की भी बात कर सको। अगर मौत तुम्हारे लिए इतनी सरल और साधारण बात हो जाए, जिसको तुम जान ही जाओ कि, "हाँ, सीधी-सी तो बात है, जो कुछ है वो छिन जाना है।" जब मौत तुम्हारे लिए इतनी सहज, स्पष्ट और प्रकट बात हो जाती है तब तुम्हें कुछ ऐसा मिल गया है जो छिनता नहीं। क्या नहीं छिनता? यही सहजता, स्पष्टता, प्रकटता। यह छिनती नहीं है।

मृत्यु के तथ्य को समग्र रूप से स्वीकार कर लेने में मृत्यु का अतिक्रमण है।

कहीं-न-कहीं हम मौत के विरोध में खड़े होते हैं। तुम देखना, अपनी हर गतिविधि को देखना। चुन लो तुम्हें जो देखना हो, वहाँ देखो, और तुम उसमें पाओगे कि कोने में तुम खड़े हो विरोध में। जीवन का विरोध कर रहे हो, अस्तित्व का विरोध कर रहे हो। वास्तव में तुम मृत्यु का विरोध कर रहे हो क्योंकि जीवन में तो जो भी आता है वो चला ही जाने के लिए आता है न?

जिसको तुम जीवन कहते हो वो काल का अनंत प्रवाह है, और काल का अर्थ ही है कि जो आया है, सो जा रहा है। और जो आया है तुम उसके जाने के विरोध में खड़े हो जाते हो। इसी विरोध के कारण तुम एक संसार को रचते हो और उस संसार के विरोधी ‘मैं’ को रचते हो। इसी का नाम अहंकार होता है। मृत्यु का विरोध और अहंकार बिलकुल जुड़ी हुई बातें हैं।

अहंकार कौन? जो तुम हो, और जो मरना नहीं चाहता। मृत्यु क्या? जो प्रतिपल घट रही है और तुम्हें ख़त्म ही किए दे रही है। जिसने मृत्यु को स्वीकार कर लिया उसने अहंकार को विसर्जित कर लिया।

और इंसान ने मौत को स्वीकार न करने के देखो कितने तरीके निकाले हैं। मरने के बाद भी अपनी छाप छोड़ना चाहता है संतान के रूप में, संपत्ति के रूप में, मकबरों के रूप में, अपने पुण्यों और अपने सत्कर्मों के रूप में, अपने ग्रंथों और अपनी कृतियों के रूप में। और गीत गाता है कि जब हम नहीं भी रहेंगे तो हम किसी को याद आएँगे। यह कुछ नहीं है, मौत का खौफ़ है।

तुम गीत गाओ कि हम ऐसा मिटें कि हम पूरे ही मिट जाएँ। ज़रा-सा चिन्ह अपना छोड़कर न जाएँ, ज़रा भी निशान अपने छोड़कर न जाएँ। ऐसा मिटें कि फिर कभी नज़र न आएँ। यह प्रार्थना रहे तुम्हारी। तब मौत तुम्हारी नस-नस में बहेगी।

मौत अपने विरोध के कारण ही डरावनी है।

मौत डराती उसी को है जो मौत का विरोध करता है।

तुम मौत को गले लगा लो तो वो तुम्हारी दोस्त हो जाएगी। तुम छोड़ो विरोध, तुम उसे साथ लेकर चलो। साथ तो वो वैसे भी है ही। जीवन तुम्हारे कम साथ है, मौत तो लगातार साथ है। और जो लगातार साथ है, उससे यारी कर लो न!

मौत से यारी करोगी तो जीवन अपने आप तुम्हारा यार हो जाएगा। मौत से दुश्मनी करोगी तो जीवन दुश्मन हो जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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