प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जब आप बोलते हो कि शुरुआत होगी तथ्य से, तो तथ्यों को देखना हैं, अब हर समय ऐसे तथ्यों को दूर ही से नहीं देखा जाता। जैसे अतीत है तो अतीत में भी उन तथ्यों के पास जाकर क्योंकि वो वहाँ लगातार हो रहे हैं तो उससे पता चल जाता है कि क्या मन में पहले से ही चलता आ रहा है। तो रिस्पॉन्सिबिलिटी लेनी है उस चीज़ की कि घिनौने-से-घिनौने तथ्य हैं मन के, बुरे-से-बुरे तथ्य हैं। तो उनके पास जाने में और उनकी रिस्पॉन्सिबिलिटी लेना मन की खुजली सा है या फिर वो सही है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो अच्छी बात है कि तुम्हें रिस्पॉन्सिबिलिटी लेनी है पर इसका, रिस्पॉन्सिबिलिटी का अर्थ क्या है तुम्हारे लिए? किस तुम कर्तव्य की बात कर रहे हो?
प्र: कि उसको जानकर जैसे मन ने...
आचार्य: उसके बाद कुछ नहीं और होता। उसको जानकर कुछ और नहीं करना है, बस जानना बहुत होता है। ये सूक्ष्म बात है इसको समझ लो। कुछ होगा भीतर घिनौना, बस उसे जानना है। और ये मुश्किल है, मैं बोल दूँ 'जानकर के उसका दमन करना है', वो आसान हो जाएगा तुम्हारे लिए क्योंकि दमन कर के तुम अपनेआप को हरी झंडी दे दोगे कि मैं तो अच्छा आदमी हूंँ, मेरे भीतर कोई घिनौनी चीज़ थी, मैंने तत्काल उसे घिनौना घोषित कर दिया। नहीं, ये तुम बहुत सस्ते में बच निकलना चाहते हो, खुद घोषित कर दिया या आचार्य जी के पास आ गये, 'आचार्य जी, आज न मैंने बहुत बुरी बात सोची’, क्या? ‘मैंने आपका गला काट दिया।’ ये तो तुम बहुत सस्ते में बच निकले, तुम्हें लग रहा है कि तुमने मुझे आकर के बता दिया, तुम्हारा काम हो गया। नहीं, उससे नहीं हो गया। तुम्हें जानकर के रुक जाना है, मैं छुपाने की बात नहीं कर रहा हूंँ।
चीज़ सूक्ष्म है, समझना पड़ेगा तुमको। तुम्हें जानकर के रुक जाना है। जिस चीज़ को जाना उसकी प्रतिक्रिया में अगर तुमने करा तो तुमने उसी चीज़ को बढ़ा दिया। किसी भी चीज़ की प्रतिक्रिया, किसी भी चीज़ के प्रति क्रिया, उस चीज़ के प्रति क्रिया, उस चीज़ को ही बढ़ा देती है। मैं आन्तरिक जगत की बात कर रहा हूंँ, ये जान लेना है।
जान लेने से जो जाना है वो रुक जाता है, प्रतिक्रिया करने से जो जाना है वो बढ़ जाता है।
जो चल रहा है उसको जान लो, जैसे ही जानोगे, जो कुछ भी चल रहा है उसको तुम्हारा समर्थन मिलना बन्द हो जाएगा, वो रुकेगा, अपनेआप रुकेगा क्योंकि उसके पाँव नहीं है, वो तुम्हारे पाँव पर चलता है। शरीर भी अपनी उर्जा पर नहीं चलता, शरीर भी चेतना की ऊर्जा पर चलता है। तुम खूब खाये-पिये हो और चेतना शून्य हो जाओ, शरीर चलेगा क्या? बोलो।
प्र: तो आप बोलते हो कि 'मैं' का ज्ञान कि ‘मैं’ क्या है तो मैं में भी मन उन्हीं चीज़ों को देखता है जो खराब है क्योंकि मुक्ति उसी से पानी है, कष्ट वहीं पर है तो उन चीज़ों की तरफ़ ही फिर आइडेंटिफिकेशन बन जाता है कि उन्हीं से आइडेंटिफाइड है।
आचार्य: इसीलिए तो जिस चीज़ से मुक्त होना है, तुम मुक्ति के प्रयास में उसको इतना ज़्यादा देखते हो कि और उसके आकर्षण में, पाश में बँध जाते हो। यही तो बोल रहा हूंँ, 'बस जान लो, रुक जाओ।’ उसके आगे बहुत कुछ नहीं करना है। अच्छा ऐसे समझो — तुम सड़क पर गाड़ी लेकर जा रहे हो, तुम असावधान हो गये, सामने से ट्रक आ रहा है, अच्छी गति से ट्रक आ रहा है सामने से, तुम असावधान हो गये हो, एक स्थिति ये है कि तुमने जान लिया कि ट्रक आ रहा है, जैसे ही जाना तुमने, बस अपना रास्ता बदल दिया, आगे अपने निकल गये।
दूसरा ये है कि सामने से ट्रक आ रहा है, तुम गलत चल रहे थे, तुमने जैसे ही जाना, तुमने कहा, 'अरे! मैं कितना बुरा आदमी हूंँ, मैं गलत चला रहा था, अभी दुर्घटना हो जाती, मैं मर जाता, ट्रक वाला जेल चला जाता। और यही ट्रक है, मैंने जिसकी ओर सावधानी से नहीं देखा, जिसके कारण दुर्घटना होने वाली थी, इस ट्रक को सावधानी से न देखने के कारण दुर्घटना होने वाली थी, तो अब मैं क्या करूँगा? अब वो ट्रक पीछे निकल गया है, लेकिन मैं पीछे मुड़कर उसको लगातार देखता रहूंँगा, क्योंकि इसको न देखने के कारण ही तो दुर्घटना होने वाली थी, तो प्रतिक्रिया स्वरूप अब मैं इसे लगातार देखता रहूंँगा, ये मेरा रिएक्शन है, पहले मैंने एक गलती करी थी, क्या गलती करी थी? मैंने इसको नहीं देखा। मैंने नहीं देखा, उसकी मुझे सज़ा मिलने वाली थी न।’ क्या सज़ा मिलती? ‘दुर्घटना हो जाती, मैं मर जाता। तो अब मैं अत्यधिक सतर्कता दिखाऊँगा, मैं होशियार आदमी हूंँ, मुझे मुर्ख मत समझ लेना, अब मैं लगातार इस ट्रक को देखूँगा।’ गाड़ी ऐसे चल रही है, तुम ट्रक को देखते जा रहे हो (पीछे मुड़कर देखते हुए)।
प्रतिक्रिया नहीं करनी है, बस जान लेना है। जानते ही जो सही कर्म है वो अपनेआप हो जाएगा, उसके आगे कुछ और करने की कोशिश मत करो, ट्रक को घूरते ही मत रह जाओ, बहुत देर तक घूरने के लिए तो वैसे भी बचोगे नहीं। अगर दस सेकेंड भी घूर लिया उसको तो दस सेकेंड में ट्रकों की कमी है दुनिया में? दूसरा आ रहा है सामने से। तुमको क्या लग रहा है माया तुम पर एक ही रूप में वार कर रही है? उसके रूप हज़ार है, इसीलिए किसी भी एक रूप से आसक्त होकर मत रह जाओ।
आसक्ति ऐसे ही नहीं होती कि बड़ा प्यार हो गया, आसक्ति ऐसी भी होती है कि अरे! बाप रे बाप चीज़ कितनी भयंकर थी। ये भी आसक्ति है, वो इतनी भयानक थी कि तुम उसके मोह में ही पड़ गये जैसे। आप टेनिस खेल रहे हो, स्क्वॉश खेल रहे हो, आप टेबल टेनिस खेल रहे हो, सामने वाले ने एक ज़बरदस्त टॉप स्पिन मारा और जब उसने मारा तो आपके बिलकुल आधे क्षण के लिए गला सूख गया, ‘बाप रे बाप! इतनी ज़बरदस्त, इतनी हैवी स्पिन है इस पर, ये तो उठने से रही। किसी तरीके से रो-पीटकर, कुछ करके आपने उसको नेट के पार पहुँचा दिया, लेकिन आप अभी भी सोच क्या रहे हो? ‘कितनी ज़बरदस्त मेरे ऊपर स्पिन आयी थी! ऐसा भयानक खतरा आया था।’ वो खतरा तुम्हें क्या लग रहा है आखिरी था?
सामने माया खेल रही है, अब वो कुछ और मारेगी और तुम अभी सोच रहे हो कि मैं तो पिछले ही खतरे से निपट रहा हूंँ। तुम अपनी नज़र में बहुत चतुर बन रहे हो, तुम शायद नैतिक भी बन रहे हो कि मैं अच्छा आदमी हूंँ, मैं जो गलतियाँ करी है उनको याद रखता हूंँ, मैं तो अपनी गलतियाँ याद रखता हूंँ, जो पिछली बार वाली गलती थी नहीं दोहराऊँगा। तुम पिछली गलती को याद रखो, अगली गलती अभी आ रही है सामने।
ये भी बड़े झूठे घमंड की निशानी होती है कि आदमी कहे, 'मैंने फ़लानी गलती करी थी और फिर प्रण किया था कि अब मैं वो गलती नहीं दोहराऊँगा'। इस तरह की बातें सुनते हो न? आती है, मोटिवेशन में चलती है कि कोई भी गलती करो लेकिन, एक बार करो, कोई भी गलती बुरी नहीं है अगर एक बार करो। और तुम कहो, 'बिलकुल मैंने अब कमर कस ली है, जो गलती थी पुरानी अब वो दोहराऊँगा नहीं।’
साहब सही बात ये है कि हम जितनी भी गलतियाँ करते हैं, एक बार ही करते हैं', क्योंकि माया के पास आपसे कराने के लिए अनन्त गलतियाँ हैं, वो आपको कभी पिछली गलती दोहराने का मौका नहीं देती है, वो आपसे एक नयी गलती ही करवाती है, और मूल गलती बस एक है। तो या तो ये जान लो कि मूल गलती एक है या ये स्वीकार कर लो कि हर गलती एक नयी गलती ही है, एक तरीके से।
अपनी बड़ी-से-बड़ी गलती भी पता चल जाए, अपनी बड़ी-से-बड़ी खोट पता चल जाए, उसे जान लो और याद रखो कि ये पता चल गयी है, अगली आने को है, मेरे पास इतना समय नहीं की इस पिछली वाली के बारे में सोचता रह जाऊँ, इसलिए मैं पिछली वाली को नहीं भुलाना चाहता, कि पिछली वाली को याद करके मेरे गर्व को कष्ट होता है, मैं पिछली वाली को पीछे इसलिए छोड़ना चाहता हूंँ क्योंकि पिछली वाली को पकड़े रहा तो अगली पर ध्यान कौन देगा। पिछली गलती को पकड़े रहा तो अगली पर ध्यान कौन देगा?
आपने बहुत बेकार शॉट मार दिया है, बहुत बेकार शॉट, लेकिन किसी तरीके से उस तरफ़ पहुँच गया है वो। अब क्या करना है? ये याद रखना है कि अरे! पिछली बार कितना बेकार मारा, कितना बेकार मारा! ये याद रखना है? अब पहुँच गया न उधर? ज़िन्दा हो न अभी? ज़िन्दा होने का मतलब है कि अगली गलती होने ही वाली है।
प्र: आचार्य जी, तथ्य ऑब्जेक्टिवली देखे जाते हैं, मन में फिर उसको सही करने की कोशिश करते हैं तो देखा जाता है कि ये भी बहुत ही सीमित है क्योंकि देखने वाला तो सब्जेक्ट (कर्ता) ही है। लेकिन जितनी भी ज़्यादा-से-ज़्यादा ईमानदार ऑब्जेक्टिव अप्रोच है दुनिया को देखने की, तथ्य देखे जाते हैं कि मैं पढ़ने में ऐसा रहा, कामों में ऐसा हूंँ। और बाकी सब चीज़ें जीवन की दिख जाती हैं और कि पहले भी ऐसे ही थे, अभी भी वही पुरानी कमज़ोरियाँ जारी हैं, बदल नहीं गया है कुछ। मन में रहता है कि बदल गया लेकिन उस अर्थ में, उस दायरे में नहीं बदला कुछ। तो क्या ये तरीका ठीक है तथ्यों को देखने का?
आचार्य: कोई तरीका नहीं चाहिए होता है, इसमें कोई तरीका नहीं चाहिए। आप अगर जान रहे हो कि क्या हो रहा है, तो उस जानने भर से जो सही चीज़ है वो अपनेआप होती है, आपको निर्णय या निश्चय भी नहीं करना पड़ेगा, जानने में ईमानदारी होनी चाहिए कि क्या हो रहा है, तुरन्त होता है, एक क्षण की भी देर नहीं होती। कोई बहुत महत्वपूर्ण काम पड़ा हुआ है और आपके मोम के शरीर के आलस ने आपको बिस्तर पर लिटा दिया है, उसी क्षण अगर स्मृति आ जाए, 'बहुत कोई महत्वपूर्ण चीज़ पड़ी हुई है', सोचते नहीं हो आप, शरीर अपनेआप ऐसे स्प्रिंग की तरह शरीर भी खड़ा हो जाएगा, बिस्तर से एकदम खड़ा हो जाएगा, जानना बहुत होता है।
आप जानने-समझने, ज्ञान और बोध की शक्ति का आकलन ही नहीं कर पा रहे हो। आप बार-बार पूछते हो, 'जानने के बाद की क्या विधि है?' जानने के बाद कोई विधि चाहिए ही नहीं होती, जानने के बाद कोई विधि चाहिए ही नहीं होती।
एक छोटा सा उदाहरण दे देता हूंँ; कोई बहुत सटीक उदाहरण नहीं है लेकिन बात समझना, यहीं बिस्तर पर लेट गये हो और नाक में ये जो एलपीजी होता है, कुकिंग गैस इसकी तीव्र गन्ध पड़ी, कितना समय लगेगा तुम्हें एकदम स्प्रिंग की तरह उठ जाने में? कितना समय लगेगा? जानने से बड़ी शक्ति दूसरी नहीं होती, ज्ञान से ज़्यादा बल किसी में नहीं होता। और ये तो मैं साधारण, अभी भौतिक ज्ञान की बात कर रहा हूंँ, कि नाक में गैस की गन्ध आ गयी, ये तो बहुत साधारण, बहुत निचले तल का ज्ञान है। हो सकता है तुम इतने आलसी हो कि गैस आ रही है तब भी सोते रह जाओ, ये इतना शुद्र ज्ञान है।
आध्यात्मिक ज्ञान तो ऊँचा होता है और बहुत ज़्यादा बलवान होता है, उसके सामने तुम बिलकुल बेबस हो जाओगे, जान गये, अब जीवन बदलेगा-ही-बदलेगा, नया कर्म अब करना ही पड़ेगा। आपमें कमी पैनेपन की है। आपमें कमी मालूम है क्या है? आपमें कमी ये है कि आप अन्त तक नहीं जाते। जैसे कि अगर आपका औज़ार, चाकू या कुछ भी अगर पैना न हो, तो वो जिस भी वस्तु को छेद रहा है, उसमें बहुत गहरे नहीं जा पाएगा न; वैसे ही आपकी जिज्ञासा पैनी नहीं होती, अन्त तक नहीं जाती।
तभी देखते नहीं हो क्या होता है? आप आते हो मुझसे सवाल पूछने के लिए, कितनी ही बार देखा होगा सत्र में, आप सवाल पूछते हो, उसके बाद दस सवाल मुझे आपसे पूछने पढ़ते हैं। सवाल तो आपका है तो मैं आपसे सवाल क्यों पूछ रहा हूंँ? ये तो बात ही बदल गयी बिलकुल। प्रश्नकर्ता तो मेज़ के उस तरफ़ है न? लेकिन अक्सर बातचीत में प्रश्नकर्ता का किरदार मैं निभाता हूंँ। आपने एक सवाल पूछा होता है, दस प्रतिप्रश्न मैं पूछता हूंँ, क्यों? क्योंकि आपकी जिज्ञासा इतनी पैनी नहीं है कि वो आपके भी मन को भेद सकें, अन्दर तक छेद सकें। आपको आपका सवाल ही नहीं पता होता, तो मुझे आपके मन को छेदकर के आपका असली सवाल निकलवाना पड़ता हैं।
तुम कह देते हो, 'मैं जान गया'। तुम जानते थोड़े ही हो, जानने के लिए बड़ी निर्ममता चाहिए, रिगर चाहिए। निर्ममता समझते हो? 'आगे जानने में मेरे लिए खतरा है लेकिन मैं फिर भी जानूँगा, मैं अपने प्रति निर्मम हूंँ। बात आगे बढ़ेगी तो मेरे लिए खतरनाक हो जाएगी लेकिन बात मैं आगे बढ़ाऊँगा फिर भी। मुझे अपनी परवाह नहीं।' तुम्हें अपनी परवाह ज़्यादा रहती है, तुम्हें सच्चाई से कम प्रेम है, अपनेआप से ज़्यादा। तुम ये नहीं कहते कि सच्चाई जानने के लिए अगर मेरा नाश भी होता हो तो हो जाए।
तो तुम्हारे सवाल, तुम्हारी जिज्ञासा, बहुत ज़रा सा आगे बढ़कर रुक जाते हैं, और फिर काम होता नहीं, ज़िन्दगी न बदलती है, न सुधरती। तो तुम कहते हो फिर 'सुधरने के लिए मुझे कोई विधि बताइए'। उस विधि की तुम्हें ज़रूरत ही इसीलिए पड़ रही है क्योंकि जो एक काम तुम्हें करना था वो तुमने करा नहीं, उसे कहते हैं जिज्ञासा। जिज्ञासा का अभाव इतना प्रबल है कि जब मैं यहाँ बैठकर के तुम पर दबाव बना रहा हूंँ कि मुझसे सवाल पूछो, तो तुम मुझसे ही नहीं पूछ पा रहे। तो तुम अपने एकान्त में अपनेआप से क्या जिज्ञासा करते होगे? कुछ भी नहीं।
अभी तो यहाँ मैंने पूरा माहौल निर्मित कर दिया है, माहौल ही नहीं निर्मित किया है, मैं ज़बरदस्ती कर रहा हूँ एक तरीके से, दबाव बना रहा हूंँ कि पूछो-पूछो-पूछो। तुम्हारे मुँह से तब भी बोल नहीं फूट रहे, तो तुम अपनेआप से कितनी ईमानदारी से प्रश्न कर लेते होओगे एकान्त में? यहाँ कोई दबाव नहीं, यहाँ कोई तुम पर नज़र रखने वाला नहीं; कुछ नहीं, कोई सवाल नहीं। तुम्हें अपने मन की हालत कुछ पता ही नहीं होती है, भीतर क्या चल रहा है, तुम्हें कुछ पता नहीं। जिसे ये नहीं पता कि उसके भीतर क्या चल रहा है, वो भीतर-बाहर दोनों का गुलाम हो जाता हैं। वही आपकी हालत रहती हैं, थोड़ा-बहुत आपको कुछ लगता है आपको पता है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं।
जैसे एक रोगी जाता है चिकित्सक के पास, वो चिकित्सक को अपने बारे में कितना बता पाता है? आप जाते हो चिकित्सक के पास, आप अधिक-से-अधिक क्या बता पाओगे? आपको कोविड हो गया, आप चिकित्सक को क्या बता पाओगे? सिरदर्द हो रहा है, बुखार आ रहा है या आप वायरस का आरएनए बता दोगे डॉक्टर को? जबकि वो वायरस कहाँ है? आपके भीतर हैं। आपका अगर सिरदर्द हो रहा है तो उसके मूल में क्या बैठा है? वायरस। लेकिन आपको अपना कुछ पता नहीं तो आप बस ये जानते हो, 'मुझे तो सिरदर्द हो रहा है'। आप अपने बारे में बस इतना ही जानते हो, वो तो सिरदर्द हो रहा है। आगे का फिर चिकित्सक जानता है कि अच्छा अन्दर वायरस है, वायरस का ऐसा-ऐसा केमिकल स्ट्रक्चर (रासायनिक संरचना) है तो वायरस पर में फिर इस तरीके की दवाई लगा देता हूंँ। और ये तो बहुत भौतिक बात है।
सिरदर्द हो कि वायरस हो ये सब तो मटेरियल चीज़ें हैं, हमें उनका भी नहीं पता होता तो सोचो अन्तर जगत के बारे में हम कितने अनजान होते होंगे, कुछ नहीं जानते। फिर उगलवाना पड़ता है, मुझे मुँह में हाथ डालकर उगलवाना पड़ता है। बताओ, बताओ, बताओ यहाँ फँसा हुआ है, निकालना ही नहीं चाहते और मैं हाथ डाले हुए हूँ गर्दन। तुम उसको और ज़्यादा अभी भीतर छुपाने की कोशिश कर रहे हो।
एक ही विज्ञान का आविष्कार है जो अध्यात्म में भी कुछ काम आ सकता है, 'झूठ पकड़ने वाली मशीन'। वो होनी चाहिए किसी भी सत्र में। जब वो सवाल पूछ रहा हो तो उसके एक हाथ में माइक, और दूसरे हाथ में झूठ पकड़ने वाली मशीन हो। मैं कभी किसी सवाल का उत्तर थोड़े ही देता हूंँ, मैं तुम्हें बस ये बताता हूंँ कि तुम्हारा सवाल ही झूठ है। तुमने ईमानदारी से सही सवाल कर लिया होता तो सवाल बचता कहाँ? तुम्हारा सवाल बचा हुआ है, यही प्रमाण है इस बात का कि सवाल ही झूठा है।
प्र: क्या करें फिर?
आचार्य: ये बेहतर है। तुम यहाँ तक तो पहुँचे कि समझ में नहीं आ रहा। कुछ तो कम हुई समझदारी।
प्र २: प्रणाम आचार्य जी, मुक्ति के जो उपाय हम ढूँढ लेते हैं, जिसमें हमारे अन्दर अहम् का ही पोषण होता है। बार-बार मन में अपनेआप उपाय आ जाते है इनको खुद से कैसे बचाएँ बार-बार?
आचार्य: ये बात महीन हैं, मन में जो आ रहा है, उसको ये जानते रहना है कि मन का ही है। मानस से उठा है, मानसिक ही है, बस ये जानते रहो। ये भी नहीं तुम्हें करना है कि मैं इससे बचूँगा, क्योंकि जैसे ही बोला 'इससे बचना है', तुमने निर्णय ही कर रखा है कि इसका तो विरोध ही करना ही, ये गलत है इसका तो विरोध ही करना है। मैं जो बात बोल रहा हूंँ वो बहुत-बहुत सूक्ष्म है। मैं तुमसे विरोध करने के लिए नहीं बोल रहा हूंँ। मैं तुमसे लगातार इस बात के प्रति सतर्क रहने को कह रहा हूंँ, जागरूक! क्या?
जो भी विचार आ रहा है, सुझाव आ रहा है भीतर से वो मन का है। बस ये जान लो, उसके बाद जो होता है हो। कभी-कभार ऐसा भी होगा कि जानने के बाद भी तुम उस सुझाव पर अमल कर लोगे, कभी-कभार, यदा-कदा। वो कोई अपराध नहीं हो गया, कोई अपराध नहीं है न जानने के सिवा। लेकिन प्रबल सम्भावना यही है कि तुम अगर जान रहे हो कि भीतर से जो उठ रहा है, वो मात्र भौतिक, जैविक, रसायनिक है, तो जो भीतर से उठ रहा है उसका आवेग शिथिल हो जाएगा और तुम उस पर जस-का-तस अमल नहीं करोगे। क्योंकि देखो हमारी जो भावनाएँ वगैरह होती हैं न, वो बड़ी पाशविक होती है, उनमें बोध जैसा कुछ नहीं होता, मूर्खता से परिपूर्ण होती हैं, उन पर तुम कैसे अमल कर लोगे? ये कहते हुए मैं ये भी कह रहा हूंँ कि जो भी भीतर से उठ रहा है, हमारा काम उसका विरोध करना नहीं है।
जैसे हमारा काम उस पर तत्क्षण अमल करना नहीं है, वैसे ही हमारा काम उसका अनिवार्य विरोध करना भी नहीं है। न तो अनिवार्यतः अमल कर लेना हैं, न तो अनिवार्यतः विरोध कर लेना है, न हीं अनिवार्यतः कोई तीसरी चीज़ कर लेनी है। कुछ भी अनिवार्य नहीं है, जानने के सिवा, जानना भर अनिवार्य है।
अब फिर आप अधर में लटक जाते हो, आप पूछते हो 'जानकर होगा क्या?’ वो मैं बताऊँगा नहीं, क्योंकि वो मुझे पता नहीं, वो तुम जानो। बस ये है कि जानते हुए जो भी होता है शुभ होता है, वही कल्याण है। जानते हुए तुम दायें भी जा सकते हो, बायें भी जा सकते हो। जानने में जा रहे हो, किधर को भी जा सकते हो। कोई नियम नहीं, कोई बाध्यता नहीं, जिधर भी जाओगे शुभ है।
अब खतरा जो है वो मैं बता देता हूंँ, क्या? जो मैंने बोला उसमें खतरा ये है कि तुम इसका उपयोग करके कहोगे, 'आचार्य जी, मैं जो कर रहा हूंँ जानते-बूझते कर रहा हूंँ'। तो जब तुम कुछ जानते-बूझते करो तो अपने इस जानने-बूझने को भी जानना। जब तुम कहो कि मैं अपनी भावनाओं को जानता हूंँ, तो फिर तुम ये भी जानना कि तुम अपनी भावनाओं को ये जो जानते हो उसकी हकीकत क्या है। क्योंकि हम बहुत खतरनाक और खुफिया और मायावी लोग हैं।
अभी मैंने बोल दिया न कि यदा-कदा इस बात की भी सम्भावना कि तुम्हारे भीतर जो आवेग उठ रहा है तुम जानने के बाद उसी पर अमल करो, तुम फट्ट से इस बात को लपक लोगे और तुम देखना कि तुम्हें ये मेरी बात कितनी प्यारी लगी होगी। तुरन्त तुमने लपक लिया होगा और कई लोगों के तत्काल पेन चलने शुरू हो गये थे कि ये बात तो नोट ही कर लो। ‘अब तो आचार्य जी ने भी अनुमति दे दी है। ये भी तो हो सकता है कि हमारी जो भावना उठ रही है, हम जानने के बाद भी उस भावना को समर्थन दें, तो लिख लो। अभी तो, आप देखिए, आपने ही बोला था। पीछे मत जाइएगा, फँस गये अब आप।’