मनुष्य वृत्तियों की भूमि पर परिस्थितियों का फैलाव है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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मनुष्य वृत्तियों की भूमि पर परिस्थितियों का फैलाव है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: सर, मेरा सवाल है- दो लोग एक ही समाज में पले-बड़े हैं, एक ही जैसी स्थिति में, लेकिन बहुत बार ऐसा देखते हैं कि दोनों के शौक बिलकुल अलग-अलग होते हैं, ऐसा क्यों होता है? एक अगर इस दिशा में जा रहा है, तो दूसरा दूसरे दिशा में, बिलकुल उल्टा, एक ही समाज में पले-बड़े हैं ,एक ही स्थिति है दोनों की।

श्रोता: सर इसी से सम्बंधित मेरा भी है, जिसे लोग हुनर या कौशल बोलते हैं, कई बार ऐसा भी बोलते हैं काम के लिए केवल कि लोगों की अलग-अलग स्वभाव होता है या उसके हिसाब से अगर उन्हें काम मिल जाता है, आमतौर पर यह भी कहा जाता है कि हर आदमी के लिए हर चीज़ करना संभव नहीं है तो ऐसा कुछ होता है क्या स्वभाव के हिसाब से या स्वभाव के विपरीत…

वक्ता: स्वभाव नहीं, उसकी जो शारीरिक व्यवस्था है, उस हिसाब से होता है।

श्रोता: ऐसा होता है कि किसी के लिए कुछ करना संभव न हो?

वक्ता: शारीरिक व्यवस्था के हिसाब से अंतर हो सकते है, थोड़े-बहुत अंतर भी हो सकते हैं, ज़्यादा बड़े अंतर भी हो सकते हैं। एक फैमिली होती है, पीरियोडिक टेबल जानते हो न? उसमें हैलोजेन फैमिली है। क्या-क्या आता है, हैलोजेन फॅमिली में?

तुम कह रहे हो एक ही घर में लोग पैदा होते हैं, एक ही समाज में, लेकिन एक दाएँ-एक बाएँ कैसे निकल जाता है, मैं फैमिली की बात कर रहा हूँ, कैमिकल्स की, फैमिली लेलो हैलोजेन्स, क्या-क्या आता है हैलोजेन्स में?

श्रोता: क्लोरीन, ब्रोमीन…

वक्ता : लाइन से बताओ न, सबसे हल्के से सबसे भारी तक…

ठीक है! एक ही फैमिली है, आकार में बस अंतर है, सबकी आखिरी शेल में एक बराबर इलेक्ट्रान हैं। बस आकार में अंतर है, एक बड़ा पापा, एक छोटा, एक बड़ा भाई, एक छोटा, इसलिए फैमिली बोलते हैं उनको, इसलिए बोलते है न फैमिली? सब एक जैसे सब एक जैसा रिएक्ट करते हैं? सब एक जैसा करते हैं क्या? नहीं करते हैं न? लेकिन फिर भी उनमें कुछ बातें एक जैसी हैं, समझ रहे हो?

तुम पैदा ही अलग-अलग होते हो, या ऐसे कह लो जो अलग-अलग है वही पैदा होता है। भेद तो उसी समय शुरू हो जाता है जिस समय तुम पैदा होते हो, इसीलिए कहने वालों ने इस तरह की बातें कही है ‘टू बी बोर्न इज़ ईगो’, कुछ लोगों ने यहाँ तक कह दिया है ‘टू बी बोर्न इज़ सिन, द फर्स्ट सिन इज़ टू बी बोर्न। ’ मैन इज़ बोर्न इन सिन’ इसका और क्या अर्थ है? यही तो अर्थ है! क्योंकि तुम पैदा ही फिज़िकल कंडीशनिंग के साथ होते हो, तुम अपनी समस्त वृत्तियों के साथ पैदा होते हो। अब उनको जैसा सामाजिक माहौल मिलता है, उसके अनुसार, वो फिर रूप-आकार-जलवा दिखाने लग जाती हैं।

श्रोता: सर, लेकिन यह जो सामाजिक व्यवस्था की जो बात हो रही है, यह हर चीज़ जो स्वभाव में है वो निर्धारित तरीके से; मतलब उसकी वजह है होने की, तो जो पैदा होना है उसकी भी तो वजह है होने की, हर चीज़ की…

वक्ता: पैदा होने की वजह यह है कि माँ-बाप मिले थे कभी…

श्रोता: सर, वो एक वजह है लेकिन जो वो एक समाज से वो गुज़रेगा, या जो भी करेगा, या जो भी चीज़ चलेगी, वो बुनियादी तौर पे पहले से ही निर्धारित है…

वक्ता: कुछ नहीं निर्धारित है। सब खेल है जो चल रहा है, देखो क्या होता है, जब एक प्रथम भूल होती है न, तो आगे की सारी बातें फिर गड़बड़ होती चली जाती हैं। जब भी कुछ माना जाता है कि बनाया गया, तो उसके साथ दो बातें और आ जाती हैं, पहला- बनाया गया है तो बनाए जाने की वजह होगी, दूसरा- बनाया गया है तो अंत भी होगा। पहली भूल यह होती है कि जब इंसान यह मान लेता है कि सृष्टि बनाई गयी है, और इसको बनाने वाला कोई ईश्वर है यह पहली भूल करी जाती है। जब एक रचयिता गॉड मान लिया जाता है, फिर आपको हर चीज़ माननी पड़ेगी, फिर आपको ये भी मानना पड़ेगा कि यूनिवर्स का उद्देश्य है; यूनिवर्स का उद्देश्य है तो मनुष्य के जीवन का भी उद्देश्य होना चाहिए।

यह जो सारे सवाल उठते हैं न बार-बार कि मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, इसके मूल में यह ही भ्रान्ति है कि यह विश्व ‘बनाया’ गया है । और वो समस्त धर्मों में है, क्योंकि जो शब्द कहे गए है ग्रंथों में उनसे आभास कुछ ऐसा ही होता है कि जैसे कहा जा रहा बनाया गया है, कि ब्रह्मा ने बैठ के बनाया या गॉड ने, अल्लाह ने बैठ के बनाया। जब भी आपको यह लगेगा कि बनाया गया है तो आपको यह भी लगेगा कि बनाने का कोई उद्देश्य होगा उसी को आप बोलते है, नीयति, भाग्य, किस्मत या जो भी, फिर आप यह भी कहते हो एक दिन ख़त्म हो जाएगा, क्योंकि जो कुछ भी बनता है उसका अंत भी आता है। फिर इसलिए आपको यह सब बातें करनी पड़ती है कि प्रभव है तो प्रलय भी होगा, आदि है तो अंत भी होगा, कि क़यामत का दिन आएगा, यह सारी भ्राँतियाँ इस बात से निकल रही हैं। आप समझ रहे हो? समय ख़ुद अपने आप में मानसिक है, न कोई बनाने वाला है, न कुछ बनाया गया है, यह जो सब है ये मात्र मानसिक है।

जो झूठा है उसको बनाने वाला क्या सच्चा हो सकता है?

सत्य का अर्थ ही यही है कि हम समझें कि जो आसपास है सब भ्रम है । अगर विश्व भ्रम है, तो क्या विश्व का रचियता सत्य हो सकता है? जो सत्य है, क्या उससे झूठ निर्मित होगा? एक ओर तो आप यह कहते हो कि जो कुछ दिख रहा है मात्र इन्द्रियगत है, कहते हो कि नहीं? कि जो दिख रहा है इसका और कोई प्रमाण ही नहीं इन्द्रियों के अतिरिक्त, और दूसरी ओर आप यह भी कहते हो कि कोई बड़ी ताकत है जिसने संसार की रचना की, संसार क्या है? भ्रम है ।

यह तो बड़ी मजेदार बात है! संसार झूठा है तो इसको बनाने वाला ईश्वर भी तो झूठा ही हुआ न? जब आप सत्य में होते हो, तो आप पहली चीज़ यह समझते हो कि समय नहीं है, आगा-पीछा नहीं है, यह सब जो दिख रहा है मात्र मानसिक प्रक्षेपण है। तब आप इस तरह की बातें नहीं करते हो कि इसका कोई उद्देश्य होना चाहिए; ‘आल ऑफ़ दिस इज़ मूविंग टुवर्ड्स समथिंग, निच्शे ने कहा कि ये जो पूरी दुनिया है इसलिए है कि इंसान एक दिन सुपरमैन बन सके, हिन्दुओं में युगों की अवधारणा है कि इस युग के बाद यह होगा अवतार आएगा और वो बचाएगा, क्रिस्चियन में कुछ हिस्से हैं जो इंतज़ार कर रहे हैं, किस चीज़ का?

श्रोता: जीसस, किंगडम ऑफ़ गॉड।

वक्ता: हाँ! कि फिर से आएगा, हिन्दू शायद कल्कि अवतार की प्रतीक्षा में हैं। यह सब बातें तब होंगी न जब आपको समय सत्य लगेगा, अरे! जब आगे कुछ है ही नहीं, तो आगे अवतार कहाँ से आ जाएगा?

जब समय ही नहीं है, भविष्य ही नहीं है, तो भविष्य में अवतार के आने का क्या प्रश्न है? और जब समय ही नहीं है तो अतीत में किसी ने दुनिया की रचना की, यह प्रश्न ही फिज़ूल है। जब समय ही नहीं है तो जीवन का क्या उद्देश्य हो सकता है! क्योंकि सारे उद्देश्य कहाँ हैं? आगे है न? भविष्य में, समय में, कोई उद्देश्य नहीं है। कुछ नहीं है, फिज़ूल की बातें हैं। ध्यान में, मौन में, आपके सारे उद्देश्य तिरोहित हो जाते हैं, कोई उद्देश्य नहीं बचता, कोई वजह नहीं बचती, किस्मत जैसी कोई चीज़ नहीं बचती।

श्रोता: पर सर कैसे मान लें कि समय नहीं है?

वक्ता: मानोगे तो यही मानोगे कि समय है, तुम जो भी मानोगे तो यही मानोगे समय है। समय नहीं है, यह मानने की बात नहीं होती है; जब भी मानोगे यही मानोगे, दायाँ मानो, या बायाँ मानो, दाएँ या बाएँ दोनों में समय मौजूद रहेगा।

श्रोता: सर, लेकिन यह चीज़ जो है वो जीवन और मृत्यु दोनों से दिख रही है। कोई चीज़ पैदा हो रही है तो मर रही है तो यह चीज़ तो दिख रही है, जो आप बता रहे हैं…

वक्ता: दिख रही है? कैसे दिख रही है?

श्रोता: देखते चले आ रहे हैं…

वक्ता: कैसे दिख रहा है सारा खेल यही है न, कि यह कभी प्रश्न ही नहीं उठाया जाता कि कैसे दिख रहा है और किसको दिख रहा है। लोग कह देते है कि जिसका पता न किया जा सके, उसका अस्तित्व ही नहीं है, वो जो दिख नहीं रहा, वो है नहीं, प्रश्न यह है कि कैसे दिखता है, और किसको दिखता है?

कैसे दिखता है? यह कभी बात ही नहीं होती। तुम्हारी आँखों के अलावा कोई प्रमाण है इस दिखने का? तुम्हारे हाथों के आलावा कोई प्रमाण है इसके होने का? जीवन और मृत्यु तुम्हारे मन के अतिरिक्त कहीं और घट रहे हैं? पर ये आप लोग बात नहीं करते क्योंकि जो पूरी हमारी व्यवस्था है वो कभी हमें अंतर्मुखी तो बनाती नहीं, कभी भीतर तो ले ही नहीं जाती। आप कहते हो दिख रहा है, अरे! किसको दिख रहा है? और दिखने की प्रक्रिया क्या है?

दर्शन शास्त्र में एपिस्टोमोलोजी होती है, एपिस्टोमोलोजी समझते हो क्या? प्रमाण, कि तुम किस बात को प्रमाण मान रहे हो, प्रमाण माने कैसे? कोई बात है इसको कैसे मानें? इंसान की विडंबना यह है कि उसके पास इन्द्रिय प्रमाण के अलावा कोई प्रमाण नहीं है। और जब तक आप इन्द्रिय प्रमाण पर जी रहे हो, तब तक आप महा-मेटीरियलिस्ट हो। आपको किसी ईश्वर की जरुरत ही नहीं है। आपके लिए तो मटेरियल ही ईश्वर है, क्योंकि इन्द्रिय किसको देख सकती है?

मात्र मटेरियल को।

दुनिया में दो ही तरीके के लोग हैं, एक, वो जो उसकी बात करते हैं जो दिख रहा है, जो दिख रहा है वो क्या है? जीवन-मृत्यु, क्योंकि यही दिखता है, आया-गया, आया-गया, वो मेटीरियलिस्ट हैं; उनको कोई गॉड की जरुरत ही नहीं है। जो भी लोग इस तरह की बात करते हो कि संसार है, उनके लिए बस संसार ही है, क्योंकि उनके लिए एक ही प्रमाण है, इन्द्रीय प्रमाण, और दूसरे तरीके के लोग होते हैं, जो कहते है कि इसको कैसे प्रमाण मान लें? इसका अर्थ यह नहीं कि कोई और प्रमाण है, इसका अर्थ यह है कि सारे प्रमाण व्यर्थ हैं, वो यह नहीं कहते कि इन्द्रियों के अलावा हमारे पास कोई और प्रमाण है, कि हमारी धारणा प्रमाण है, या हमारे शास्त्र प्रमाण हैं, या हमारी कल्पना प्रमाण है, ऐसा कुछ नहीं । वो कहते हैं कि प्रमाणों की बात ही फिज़ूल है, मौन हो जाओ!

मौन हो जाओ और जो मौन है, आखिरी, वही सत्य है, न उसमें जीवन है न मृत्यु है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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