मनुष्य मशीन भर नहीं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मनुष्य मशीन भर नहीं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: यह जो हमारा मस्तिष्क है, यह करीब-करीब एक यंत्र है। सच तो यह है कि हम निन्यानवे प्रतिशत यंत्र ही हैं और जैसे एक यंत्र की पूरी-पूरी प्रोग्रामिंग रहती कि वो क्या करेगा और क्या नहीं करेगा, ठीक उसी तरीके से हमारी भी पूरी-पूरी प्रोग्रामिंग रहती है, जिसे हम कंडिशनिंग कहते हैं। (सामने रखे कैमरे की ओर इंगित करते हुए) तो हममें और इस कैमरे में कोई अंतर है नहीं।

इस कैमरे का डिज़ाइन बाहर से आया है, इसने खुद तो नहीं बनाया था। तुम्हारा डिज़ाइन भी बाहर से आया है। तुमने खुद तो नहीं बनाया ना? क्या तुमने फैसला किया था कि तुम्हारी पांच उँगलियाँ हों? क्या तुमने फैसला किया था कि बाल काले रंग के होने चाहिए? क्या तुमने अपना रंग चुना था? क्या तुमने चुना था कि तुम्हें लड़का या लड़की पैदा होना है? तुम्हारा पूरा डिज़ाइन जो है वो पूरा का पूरा बाहर से आया है। उसमें तुम्हारा कोई योगदान नहीं था। यह तो छोड़ दो कि किस लिंग का पैदा होना है, क्या तुमने चुना था कि पैदा होना भी है? हमारी उत्पत्ति में भी हमारा कोई हाथ नहीं था, ठीक वैसे ही जैसे इस कैमरे के पैदा होने में इसका डिज़ाइन कैसा रहेगा इसमें इसका कोई योगदान नहीं था।

क्या तुम निर्णय करते हो कि तुम्हारा दिल धड़के? क्या तुम निर्णय करते हो कि तुम सांस लो? क्या तुम निर्णय करते हो कि अभी तुमने कुछ खाया तो वो किस प्रकार पचेगा? क्या तुमको पता भी है वो कैसे पच रहा है? तुम्हारे शरीर में जो भी रासायनिक क्रियाएँ होती हैं उनका तुम्हें कुछ भी पता है?

तो हमारा जो पूरा डिज़ाइन है उसमें हमारा कोई योगदान नहीं है, वो कहीं और से ही आया है। अपने आप घटनाएँ घट रहीं हैं। ठीक है ना? तुम्हारा शरीर बड़ा होता जा रहा है, तुम्हारी यह जो कोशिकाएं हैं ये बंटती जा रही हैं, और इस सबमें तुम्हारा कोई योगदान है ही नहीं। शरीर पूरी तरह से बाहर से आया है ना? पहली दो कोशिकाएं माँ-बाप से आईं। उसके बाद भोजन है, पानी है, हवा है, धूप है, वो सब तुम्हें पोषण दे रहा है।

दर्ज करने की जो क्षमता इस कैमरे में है, उतनी ही तुम में है। जो बातें मैं तुमसे बोल रहा हूँ, जो प्रकाश तरंगें तुम्हारी आँखों पर पड़ रही हैं उनको तुम्हारा मन रिकॉर्ड कर रहा है। उसी तरह यह कैमरा भी उन्हें रिकॉर्ड कर रहा है बल्कि तुमसे बेहतर तरीके से रिकॉर्ड कर रहा है। तुम भी रिकॉर्ड कर रहे हो, कैमरा भी रिकॉर्ड कर रहा है, कैमरा तुमसे बेहतर तरीके से रिकॉर्ड कर रहा है।

तो तुममें और इस कैमरे में बहुत हद तक बड़ी समानताएं हैं। तुम इससे एक कदम और विकसित यंत्र भी बना सकते हो जो चल फिर भी सकता हो। ठीक है ना? इसे करीब-करीब तुम्हारे जैसा ही बनाया जा सकता है। तुम विश्लेषण कर पाते हो, उस यंत्र को भी विश्लेषण करने की क्षमता दी जा सकती है।

पर एक चीज़ है जो इसको नहीं दी जा सकती। वो यह है कि मैंने तुमसे जो कुछ कहा उसे तुम ‘समझ’ गए, पर यह यंत्र कभी ‘समझ’ नहीं पाएगा। मैंने तुमसे जो कुछ कहा उसके कारण तुम्हारे जीवन में कुछ बदलाव आ सकते हैं, इसमें कभी नहीं आएँगे। यह लगातार सुनता रहता है, इसमें कभी कोई बदलाव नहीं आता। मैं हैरान हूँ कि यह दिन-रात मुझे सुनता रहता है कभी तो बदल जाए पर यह नहीं बदलता।

बस उतना ही अंतर है एक आदमी में और एक यंत्र में, कि आदमी समझ सकता है। वरना आदमी और यंत्र एक जैसे ही हैं, पूरी तरह एक जैसे हैं।

यह जो अभी तुमने देखा यह आदमी के यांत्रिक स्वभाव का सबूत था। जैसे पंखे का बटन दबा दो और पंखा चलने लगता है। क्या पंखे को पता है वो क्यों घूमने लगा? क्या पंखे को फैराडे का लॉ पता है, इलेकट्रोमैग्नेटिस्म का कुछ भी पता है? पर पंखा बिना यह सब जाने भी घूमने लगेगा। तुम सोडियम पर पानी डालो सोडियम जल उठेगा, क्या सोडियम को पता है कि वो क्यों जल उठा? (एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) तुमको इसने थप्पड़ मारा तुम गुस्सा हो गए, क्या तुमको पता है क्यों गुस्सा हो गए? यह सब नहीं पता है। क्या तुम ठीक-ठीक जानते हो?

देखो बटन दबे तो पंखे के पास कोई विकल्प नहीं है ना चलने का। बटन दबा तो पंखे को चलना ही पड़ेगा। ठीक इसी तरह अगर थप्पड़ लगा और तुम्हें गुस्सा होना ही पड़ा तो तुम भी एक यंत्र ही हो। तुम यंत्र तब नहीं हो अगर तुम्हारे पास यह विकल्प मौजूद है कि थप्पड़ पड़ेगा तो मैं तब भी गुस्सा नहीं हो सकता। मेरे पास विकल्प है गुस्सा होने या न होने का। अगर ऐसा है तब तो समझ लो कि तुम यंत्र नहीं हो, पर अगर बटन दबा और तुम गुस्सा हुए तो फिर तुम यंत्र ही हो।

जब सोडियम पर पानी पड़ता है तो क्या सोडियम किसी दिन ये फैसला कर सकता है कि आज नहीं जलूँगा? रसायन है ना? पूरे तरीके से एक पदार्थ है जिसके पास कोई विकल्प ही नहीं है। हमारा जीवन भी करीब-करीब निन्यानवे प्रतिशत यांत्रिक भाव में ही बीतता है।

आपसे अगर कुछ कहा गया है तो अब आपके पास दो रास्ते हैं। या तो प्रतिक्रिया(रिएक्शन) दो जो कि एक यंत्र का काम है या उचित उत्तर(रेस्पोंस) दो जो कि समझ का काम है। तुम्हारे साथ अगर कुछ भी हो रहा है, तो दो तरीकों से घटना घट सकती है। एक यह कि प्रतिक्रिया(रिएक्शन) हुई। यह किसका काम है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): यंत्र का।

वक्ता: यंत्र का कि जैसे बटन दबाया, यह चल पड़ा। दूसरा है उचित उत्तर(रेस्पोंस) देना, वो समझ का काम है। रेस्पोंस पूर्व निर्धारित नहीं होता। वह तुम्हें किसी ने सिखाया नहीं होता। वह तुम्हारी अपनी समझ से निकलता है। अब अगर तुम्हारी बहुत गहरी कंडीशनिंग कर दी गयी है तो तुम एक यंत्र बन गए हो। तुम्हारे कानों में एक प्रकार का शब्द पड़ता है और क्या होता है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): प्रतिक्रिया।

वक्ता: प्रतिक्रिया। तुम समझते नहीं, तुम प्रतिक्रिया देते हो। तुमने बात को समझना ही नहीं चाहते क्योंकि बीस साल की एक आदत बना दी गयी है घर, परिवार, समाज के द्वारा। तो तुम्हारे कान में कुछ शब्द पड़ते नहीं कि एक प्रतिक्रिया होती है, एक यंत्र की तरह।

कई मशीनें होती हैं जो आवाज़ के प्रति संवेदनशील(वॉईस सेंसिटिव) होती हैं। ऐसे फ़ोन आते हैं जिनमें प्रोग्रामिंग कर दी जाती है कि एक शब्द पड़ेगा तो ही वो कुछ प्रतिक्रिया करेगा। वैसे ही यहाँ भी प्रोग्रामिंग हो चुकी है पूरे तरीके से।

(कुछ श्रोताओं की ओर इंगित करते हुए) एक यंत्र है उसकी प्रोग्रामिंग हो चुकी है। वो यंत्र कुछ समझ नहीं रहा है बस प्रतिक्रिया दे रहा है। उसमें समझने की काबिलियत पूरी तरह से मौजूद है। थोड़ी-सी कोशिश की जाए, थोड़ा-सा स्थितियों को बदला जाए, थोड़ा-सा ध्यान और दिया जाए तो वो भी समझेगा। इंसान है न, समझेगा, वो भी समझेगा। यंत्र हो जाना उसकी नियति थोड़ी ही है।

ठीक है, अभी इस माहौल में नहीं समझा तो कोई और माहौल चाहिए होगा। इन शब्दों से नहीं समझा तो कुछ और शब्द चाहिए होंगे, कुछ और उदहारण चाहिए होंगे। शायद और निजी रूप से ध्यान देना पड़े। पर जब तक तुम ज़िंदा हो तब तक तुममें समझने की काबिलियत मौजूद है। तुम्हारा ज़िंदा होना इस बात का प्रमाण है कि तुम अभी पूरी तरह से यांत्रिक नहीं हो गए हो।

तुम यंत्र नहीं हो, तुम समझ सकते हो। यंत्र कुछ नहीं समझ सकता। दुनिया में सबसे उन्नत सुपर कंप्यूटर भी कभी नहीं समझ पाएगा कि मैं क्या कह रहा हूँ। वो रिकॉर्ड कर लेगा, वो विश्लेषण कर लेगा पर ‘समझ’ कभी नहीं पाएगा। आज ही नहीं आज से हज़ार साल बाद भी। तुम कितना ही बढ़िया यंत्र बना लो, पर वो यंत्र कभी ‘समझ’ नहीं सकता कि क्या कहा जा रहा है। समझे बात को ?

-संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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