मनुष्य और परम की रचना में क्या फर्क? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मनुष्य और परम की रचना में क्या फर्क? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर हम लोग कुछ बनाते हैं, वैसे ही जैसे ईश्वर ने हमको बनाया है तो हमारी और ईश्वर की रचना में क्या अन्तर है?

वक्ता: आप जो बनाते हो और जिसको आप ईश्वर कहते हो उसके बनाने में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। हम बनाते हैं अपने अधूरेपन से, हम बनाते हैं क्योंकि हम अपूर्ण महसूस करते हैं और उसने बनाया है क्योंकि वो पूरा है। आप बनाते हो ताकि आप पूरे हो सको। उसने बनाया है क्योंकि वो सदा से ही पूरा है। आप बनाओगे क्योंकि आप नहीं बनाओगे तो बेचैन रहोगे। वो बनाता है क्योंकि उसे सदा से चैन है। आपका बनाना दो-तीन पल का है, उसका बनाना सतत है। उसने एक बार बनाकर आराम करना नहीं शुरु कर दिया। वो लगातार बना ही रहा है। प्रतिपल जो हो रहा है वो उसी का ही तो सृजन है। वो लगातार बनाए जा रहा है। आपका बनाना रुक जाता है। वो ऐसा नहीं कहता कि एक बार बना दिया और छोड़ दिया। निरंतर सृजनात्मकता है वहाँ पर। आपका सृजन है, उसकी सृजनात्मकता है। आपका एक समय का है, वहाँ समयातीत है, निरंतर है।

श्रोता: मतलब कोई उद्देश्य नहीं है ?

वक्ता: बिल्कुल नहीं है क्योंकि आपका उद्देश्य होना लाज़मी है, आप बना रहे हो कि कुछ मिल जाए, पूरा हो जाए, यही उद्देश्य है। वो पूरा है, वो और क्या पाना चाहेगा? जो पहले ही पूरा है, उसके लिए उद्देश्य क्या होगा? उसके लिए तो बस यही है कि मेरे पूरेपन से कुछ निकल रहा है। ऐसे समझ लो कि जैसे बच्चे का नाचना। बच्चा इस कारण नहीं नाचता क्योंकि उसे कुछ चाहिए। बच्चा नाचता है क्योंकि वो पहले ही खुश है, हम नाचते हैं ताकि कोई खुश हो जाएँ। और इसी कारण हमें नाचते हुए भी बड़ा डर लगता है कि लोग क्या कहेंगे, नाचने के तरीके ठीक है या नहीं। उसका बनाना बच्चे के नाचने की तरह है, अकारण, निरुद्देश्य। उसने आप को इसलिए नहीं बनाया कि आप उसका नाम रोशन करो, रोज़बोलो कि भगवान् तू महान है। आप बोलो कि महान है या आप बोलो कि तू कुछ नहीं है, उसे अन्तर नहीं पड़ता। लेकिन आपका जो बनाया हुआ है वो आपको महिमा मण्डित ना करे तो आपको बड़ा अफ़सोस हो जाएगा। इससे हमें अपने लिए एक सीख मिलती है कि वास्तव में निर्माण, सृजन किसको कह सकते हैं ।

तुमने वास्तव में वही बनाया जो निरुद्देश्य हो कर बनाया। जो कुछ भी तुमने कुछ चाह कर बनाया वो तुमने बनाया ही नहीं। जीवन में मूल्य उसी का है जो तुम्हारी इच्छा से ना निकलता हो, जो तुम्हारे नाचने से निकलता हो। जो कुछ भी तुम्हारी चाह से निकल रहा है, जो कुछ भी सोद्देश्य है, दो कौड़ी का है। क्योंकि जो कुछ भी सोद्देश्य है वो तुम्हारे सीमित मन से निकलेगा और तुम्हारा मन ही बड़ा छोटा है। जब तुम नाचते हो तब मन से बाहर की कोई घटना घटती है। नाच का अर्थ समझ रहे हो ना? नाच का अर्थ है ऐसा जिसमें तुम कुछ चाहते नहीं हो। काम हो रहा है पर बिना चाहे हो रहा है। वही जिसको कृष्ण बोल गए हैं ‘निष्काम कर्म’, कि चाह नहीं रहे, काम हो रहा है। चाहिए नहीं, बस हो रहा है। तब उसमें एक दूसरी ख़ूबसूरती होती है। तब उसका नाम प्रेम होता है। आप कुछ चाह नहीं रहे हो।कुछ पा लेने की इच्छा नहीं है, कोई अपूर्णता नहीं है। आप इतने आनन्दपूर्ण हो कि उस आनन्द से ही दस चीज़ें हो रही हैं। और फ़िर जो होता है वो आपकी कल्पना से बाहर का होता है। वो आपने पहले से तय नहीं कर रखा होता है। उद्देश्य बनाओगे तो अधिक से अधिक क्या पाओगे? जिस का उद्देश्य बनाया है।

जब बिना उद्देश्य के काम करोगे तो वो मिल जाएगा जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, जो कल्पना से बाहर है, एक आश्चर्यचकित कर देने वाली भेंट। और उसमें कुछ ख़ास मज़ा है। बहुत ज़बरदस्त मज़ा है उसमें, उसी का नाम है जीवन कि तुम तो बस होने दो, परिणाम की चिंता मत करो, परिणाम जो आएगा वो अपने आप मज़ेदार आएगा। पर वो नहीं आएगा जो तुमने सोच रखा है। तुम्हारी सोच से बाहर का आएगा। पर ऐसा मस्त आएगा कि झूम उठोगे। हाँ, उस परिणाम की पहले से फ़िक्र की तो कुछ नहीं पाओगे। वो परिणाम मिलेगा ही तभी जब उसकी फ़िक्र छोड़ दो। तुम तो बस करने में डूब जाओ, होनी को होने दो

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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