मनोविज्ञान की शिक्षिका की जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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मनोविज्ञान की शिक्षिका की जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: मैंने इस साल मई में पहली बार आपके सत्संग शिविर में हिस्सा लिया और इसके बाद मुझे शिविर का महत्व पता चला, क्योंकि अगर मैं ये शिविर नहीं लेती तो शायद मनोचिकित्सालय में होती।

मैं स्वयं साइकॉलोजी (मनोविज्ञान) की छात्रा हूँ, मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से साइकोलॉजी में बीए, एमए किया है। कॉलेज के थर्ड ईयर से लेकर पाँच सालों तक मेरा डिप्रेशन का दौर रहा, जो बाद में हैलूसिनेशन (मतिभ्रम) में बदल गया। लेकिन तीन दिन के शिविर और फिर श्रीमद्भगवद्गीता और हंस गीता के व्याख्यानों के बाद इक्कीस दिनों में ये सब नब्बे प्रतिशत तक सही हो गया है।

मैं जिस परिवार मे पली-बढ़ी हूँ वहाँ पर कैरियर पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। इसलिए मैंने पढ़ाई खत्म करने के बाद शिक्षण और कॉउन्सलिंग के क्षेत्र में कैरियर बनाने का फ़ैसला किया। लेकिन शिक्षण के क्षेत्र में मैं निजी विद्यालयों का दबाव नहीं झेल पायी और इसलिए मैंने वो काम छोड़ दिया। अभी मैं विदेश पढ़ने के लिए जाने वाले छात्रों के कॉउंसलर के रूप मे कार्य कर रही हूँ लेकिन वहाँ भी मुझे काम के दौरान एंज़ाइटी अटैक (व्यग्रता के दौरे) आते हैं।

मुझे पढ़ाना और बच्चों के साथ काम करना पसन्द है। मैं ग्यारहवी-बारहवी के छात्रों को पढ़ाने के लिए पात्र हूँ लेकिन जब मैं ग्यारहवी-बारहवी की साइकोलॉजी की किताबों को पढ़ती हूँ तो उनमें बिलकुल मन नहीं लगता, क्योंकि उनमें साइकोलॉजी के नाम पर व्यर्थ की चीज़ें दे रखी हैं। वहीं चौथी-पाँचवी के छात्रों को पढ़ाने में मेरा ईगो (अहम्) बीच में आता है कि मैं इतने निचले स्तर पर कैसे पढ़ा सकती हूँ।

ऐसी स्थिति में मैं कैरियर को लेकर आपका मार्गदर्शन चाहती हूँ, कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: अद्वैत लाइफ एजुकेशन की क्लासेज़-कोर्सेज़ चलते थे, वो ग्रेजुएट स्टूडेंट्स के लिए होते थे। उस समय पर हम यही देखते थे, सोचते थे कि ये चीज़ अगर छोटे बच्चों के लिए की जा सकती तो और बेहतर होती। पर स्कूलों में इस तरह का माहौल और ऐसी व्यवस्था और ऐसा टाइमटेबल नहीं मिल पाया जहाँ पर, जो हमारा एचआईडीपी प्रोग्राम (हॉलिस्टिक इंडिविजुअल डेवलपमेंट प्रोग्राम) था वो सफलतापूर्वक चल सके।

तो कॉलेजों में चलता रहा, लेकिन छोटे बच्चों के साथ शुरू में ही मन की और जीवन की शिक्षा का बहुत-बहुत महत्व है। ये बात तो आज से दस-पन्द्रह साल पहले एकदम साफ़ दिख गयी थी। और ये भी दिख गया था कि ये जो पन्द्रह से बीस या पन्द्रह से पच्चीस आयु वर्ग के छात्र हैं इनके साथ भी बहुत महत्व है।

आठ-दस साल के बच्चों के साथ ये फ़ायदा है कि उनके दिमाग बिगड़ें उससे पहले ही उनको सुदृढ़ कर दो, फोर्टिफाई (मज़बूत) कर दो और जो अठारह-बीस साल वाले हैं उनके साथ ये फ़ायदा है कि अब इन्हें ज़िन्दगी के बड़े निर्णय लेने हैं, इसी समय पर ये अपना बेड़ा गर्क करते हैं तो इस समय पर इनसे बात करो कि इनको ज़रा ज़िन्दगी समझ आएँ, चुनाव कैसे लेते हैं? मन का जो पूरा चक्र है वो चलता कैसे है? वो बातें समझ में आएँ।

तो महत्वपूर्ण तो ये दोनों ही आयु वर्ग हैं, दोनों ही। और बिलकुल आप ठीक कह रहे हैं कि चौथी-पाँचवी के भी जो बच्चे हैं उनके साथ बहुत अच्छा काम किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। एक लेकिन उसमें और भी चीज़ है, ग्यारहवी-बारहवी को अगर आप पढ़ाएँगी तो क्या उसमें ज़रूरी है कि जैसे अभी तक उनको पढ़ाया जाता रहा है, जैसे उनकी टेक्स्टबुक्स कहती हैं वैसे ही पढ़ाया जाए क्योंकि साइकोलॉजी और स्पिरिचुअलिटी में बस बित्ते-भर का फ़ासला होता है।

साइकोलॉजी में जो एक चीज़ कभी भी सम्बोधित नहीं की जाती वो होती है मन की मुक्त होने की आकांक्षा । ठीक है? तो साइकोलॉजी प्लस अर्ज फॉर लिबरेशन इज़ स्पिरिचुअलिटी (मनोविज्ञान और मुक्त होने की आकांक्षा को जोड़ दो तो अध्यात्म है)।

तो अगर कोई साइकोलॉजी अच्छे से समझता है तो उसको अध्यात्म की ओर लाना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि वो फिर मन के कलपुर्ज़े, अन्दर की मशीन की व्यवस्था समझने लगेगा बशर्ते उसने साइकोलॉजी ठीक से पढ़ी है, या जाना है, वगैरह-वगैरह ।

अगर आप कुछ ऐसा कर सकें कि ग्यारहवी-बारहवी को सही साइकोलॉजी पढ़ा सकें तो बहुत अच्छा होगा और अगर वो सम्भव नहीं हो पा रहा तो चौथी-पाँचवी को पढ़ाना भी कहीं से कमज़ोर काम नहीं है, बहुत महत्वपूर्ण काम है। ठीक है?

इनकी टेक्स्टबुक्स वाकई इतनी खराब हैं? मैंने देखी नहीं हैं बस पूछ रहा हूँ।

प्र: हाँ जी। मैं उठाती हूँ, बहुत बार कोशिश करा था कि मेरा माइंड ऐसे चलता है कि इसके साथ थोड़ा गेम खेलते हैं। स्कूल में इतनी वैकैंसीज़ निकलती हैं हर महीने कि जाऊँ, तो अप्लाई भी करती हूँ कि मेरा दो दिन, एक हफ्ते बाद है इंटरव्यू, रिटन टेस्ट, मैं उठाती हूँ मुझसे दो पेज नहीं पढ़े जाते, मैमरी, ये सब क्या है? इससे बढ़िया मुझे ओशो सुनवा लो, मैं आपको सुन लूँ। कुछ ऐसा सुन लूँ मतलब मेरे से नहीं उठ पाता। मतलब, दो-तीन, दो पेज भी ढंग से नहीं पढ़े जाते।

आचार्य: नहीं, उसमें ये सम्भावना है कि उसी कंटेंट को सही तरीके से पढ़ा करके डीटॉक्सिफाई (विषहरण) किया जा सके?

प्र: हाँ, एनसीईआरटी में हम शिक्षकों के पास ये सामर्थ्य रहता है कि हम ऐसा कर सकते हैं।

आचार्य: और वो कर सकें तो बहुत अच्छा है और अगर वैसा कुछ होता दिखाई न दे, स्कोप, अपॉर्चुनिटी, सम्भावना, शून्य सब, पूरी कोशिश के बाद भी, तो आप मज़े में चौथी-पाँचवी को पढ़ाइए।

प्र: हाँ, बहुत ईज़ी है वो बट।

आचार्य: पहली कोशिश कर लीजिए ग्यारहवी-बारहवीवाले में क्योंकि इनकी हालत बड़ी दुखद रहती है, न ये छोटे होते हैं, न ये बड़े होते हैं, ये अजीब होते हैं। आजकल इनको निब्बा-निब्बी बोलते हैं!

इन्हें कुछ पता नहीं होता। ये एक्टिवा लेकर इधर-उधर भागते रहते हैं बस। तो इनको सुधारा जा सके तो काफ़ी अच्छा होगा। उस, मैं तुलना असल में ये कर रहा हूँ कि उस टेक्स्टबुक में जो कचरा है और जो इनके ऊपर बाकी प्रभाव पड़ते हैं उसमें जो कचरा है। ज़्यादा बड़ा कचरा कौनसा है?

प्र: वो तो साइकोलॉजी नहीं है जो बुक्स में है, बहुत अजीब है, पता नहीं क्या-क्या पढ़ाते हैं। ।

आचार्य: उसमें एक तरह का मान लीजिए कुछ है जो आपको अभी करप्टेड (अनुपयोगी) लग रहा है लेकिन तुलनात्मक तौर से भी तो देखना पड़ेगा न कि अगर उनको कोई ढंग की शिक्षा नहीं दी गयी ज़िन्दगी की, तो ज़िन्दगी की शिक्षा वो ले तो और जगहों से रहे ही हैं न ?

भई ! ये इतने जो पॉपुलर यू-ट्यूबर्स हैं, आप नाम जानते हैं उनके, उनके दो-दो, चार-चार करोड़ सब्सक्राइबर हैं, वो चार-चार सौ करोड़ सब्सक्राइबर्स कौन हैं? ये इसी एज ग्रुप के ही तो हैं सब। जो न्यू यू-ट्यूबर्स कहलाएँगे या ये सब, यही लोग तो हैं।

तो एक ओर तो वो करप्शन है जो उनकी टेक्स्टबुक्स में है और दूसरी ओर वो करप्शन सोचिए न जो उनको सोशल मीडिया से मिल रहा है, उससे तो कम ही होगा न? उससे तो कम ही होगा।

अभी तो ये सब अपनी-अपनी नज़र में उस्ताद बनकर बैठे हैं इनको सबको ज़िन्दगी पता है और इनका ये है किसी कि सुनेंगे नहीं, कुछ करेंगे नहीं, हम ही सबकुछ जानते हैं टू हूट्स टू द वर्ल्ड (दुनिया की परवाह न करना) ये, ये इनके कैनन्स (सिद्धान्त) होते हैं, एक्सिओम्स फॉर लाइफ (ज़िन्दगी के सिद्धान्त)।

ये सब अपनी-अपनी नज़र में फिलॉसोफर होते हैं और इनके पास अपना एक फिलोसॉफिकल पैराडाइम (दार्शनिक प्रतिमान) होता है, ये उसके भीतर चलते हैं। ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है। इनका अपना एक मेंटल यूनिवर्स (मानसिक ब्रह्मांड ) है ये उसके भीतर अपना घूमते रहते हैं, और उसके भीतर विक्षिप्तता है। ये डिरेंज्ड (विक्षिप्त) हो जाएँगे सब, ज़िन्दगी को झेल नहीं पाएँगे, ताकत नहीं है।

तो उस आयुवर्ग पर काम होने की ज़रुरत तो बहुत ज़्यादा है। अगर आप कर सकें तो बहुत अच्छा है और उसको मिशन की तरह करिए बिलकुल फिर। उसको मिशन की तरह करना है तो आपको भी बहुत ताकत दिखानी पड़ेगी। आप अगर हल्की हैं, कमज़ोर हैं, तो बनेगा नहीं।

क्योंकि एक ओर तो आपके अपने पर्सनल स्ट्रगल्स (व्यक्तिगत संघर्ष) होंगे जिनकी अभी आप बात कर रही थीं, दूसरी ओर आप क्लास में खड़ी होंगी तो ये भी सब लिटिल डेविल्स (छोटे शैतान) हैं बिलकुल। उसके लिए आपको बहुत मज़बूत होना पड़ेगा। और टीचर अगर स्टूडेंट के सामने अगर कभी ब्रेकडाउन कर जाये तो फिर तो स्टूडेंट उसकी सुनने से रहा। है न ?

आप बहुत अच्छी जगह पर खड़ी हुई हैं, आप उसका फ़ायदा उठाइए। आपने साइकोलॉजी पढ़ी हुई है, आप उसकी कमियों से भी वाकिफ़ हैं और आपने साइकोलॉजी से आगे का भी कुछ पढ़ा हुआ है। ग्रेट प्लेस टू बी एट, (रहने के लिए बढ़िया जगह) अब यहाँ से सही कदम लेकर के एकदम मस्त कैरियर बनाइए।

घरवाले यही तो चाहते हैं, कैरियर बनाओ। आप मस्त कैरियर बनाइए। कोई दिक्कत वाली मुझे बात दिख नहीं रही है, सब अच्छा है। यहाँ से आपके सामने बेहतरी के ही बहुत सारे रास्ते हैं। सही रास्ता चुनें और बिलकुल बेखौफ़ होकर के आगे बढ़ें। डर की, कमज़ोरी की कोई ज़रुरत नहीं है।

प्र: मैंने भी यही सोचा कि अगर ग्यारहवी-बारहवी नहीं पढ़ा सकती, तो चौथी-पाँचवी पढ़ा लेती हूँ। ताकि मैं आर्थिक रूप से भी मज़बूत बनी रहूँ और स्कूल कॉउंसलर के रूप में काम करूँ।

लेकिन इन सब के बीच में ईगो आ जाता है कि ये निचला स्तर है और साथ ही पापा की बातें कि उसका इतने का पैकेज लग गया, इससे मैं पूरा हिल जाती हूँ। मुझे लगता है कि मेरी अभी अध्यात्म के क्षेत्र में शुरुआत है, तो एक साल का समय और लगेगा जिससे चीज़ें और गहराई से उतर पाएँगी।

आचार्य: नहीं, बैठकर तो समझने की गति और धीमी ही हो जानी है तो आपको अगर, एक्सीलिरेटेड अंडरस्टैंडिंग (त्वरित समझ) भी चाहिए तो उसके लिए तो मैदान में ही उतरना पड़ेगा। करते जाएँगे, समझते जाएँगे। ठीक है?

और आप जो भी जॉब करेंगी उसमें आपको इतना वक्त तो मिलता ही रहेगा साथ में कि आप गीताएँ पढ़ती रहें। तो वो तो आपका साथ-साथ चलता ही रहेगा। साथ में उसके ये जो पढ़ाने का अनुभव है ये लेती रहिए। वो आपकी इच्छा पर है, आप चौथी-पाँचवी को पढ़ाएँ, आप ग्यारहवी-बारहवीको पढ़ाएँ, दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण काम हैं।

प्र: फोर्थ-फिफ्थ का लो लेवल फील होता है, वो कैसे?

आचार्य: तो आप ग्यारहवी-बारहवी को पढ़ा लीजिए।

प्र: वो बुक्स नहीं खुलती।

आचार्य: तो आप बुक्स से मत पढ़ाइए, बुक्स से मत पढ़ाइए न। ये ज़रूरी थोड़ी है कि जो बुक में लिखा है वही बात बोलनी है। बुक एक टॉपिक से डील कर रही है। है न? एक चैप्टर किसी टॉपिक से डील कर रहा है। वो टॉपिक तो गलत नहीं हो सकता न? उस टॉपिक का ट्रीटमेंट गलत हो सकता है, या इन्सफीशिएंट (अपर्याप्त) हो सकता है, यही तो है?

उस टॉपिक को आप एक ज़्यादा गहरा, एक वाइज़र ट्रीटमेंट (समझदारी भरा प्रबन्ध) दीजिए। और ऐसा तो अच्छे सब टीचर्स करते ही हैं। मतलब यूनिवर्सिटीज़ में भी जो अच्छे शिक्षक होते हैं उनकी एक निशानी ये होती है वो किसी एक टेक्स्टबुक से बंधकर थोड़े पढ़ाते हैं, कभी भी नहीं। तभी तो फिर क्लासरूम का महत्व होता है न वरना सब टेक्स्टबुक ही पढ़ लेंगे, क्लासरूम में क्यों जाएँ?

YouTube Link: https://youtu.be/tl-qwC-VyuE?si=QFQXxvOrQ-bpCPo4

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