मन पर लगी चोट से कैसे उबरें?

Acharya Prashant

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मन पर लगी चोट से कैसे उबरें?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन पर लगी चोट से कैसे उबरें?

आचार्य प्रशांत: दूसरे काम करो। तुम्हें हर्ट (दर्द) पसंद है इसीलिए उसको पकड़ के बैठे हो। वो बंदर याद है न? एक मर्तबान था जिसका मुँह बड़ा सँकरा था, बंदरिया भी हो सकती है (श्रोतागण हँसते हैं।), चलो बंदर, चलो दोनों। तो हाथ डाल दिया मर्तबान में। और अंदर क्या थे? कुछ मेवे थे, कुछ मूंगफली थी, कुछ रही होंगी चीज़ें। मज़ा आएगा, ज़बान का स्वाद, शरीर की बात। और अंदर हाथ डाल कर के मुट्ठी भर ली, अब बाहर जितना निकालना चाहता है, हाथ उतना टकराता है मर्तबान के गले से। हाथ में भी चोट लग रही है, फँस भी गए हैं। ये भी दिख रहा है कि अब फँसे हैं तो आ करके कोई हमें पकड़ भी लेगा। और बंदर हैं, वो ऊपर से देख रहे हैं आसपास के पेड़ों से। कुछ मज़ाक उड़ा रहे हैं, कुछ सीख दे रहे हैं, बड़ी बेइज्जती है और ये कह रहा है "अब करें क्या? चोट तो बहुत लग रही है, बुरा भी बहुत लग रहा है, गुलामी भी पता चल रही है, पर अब हाथ फँस गया है, बाहर नहीं आ रहा है।"

हाथ फँस क्या गया है? छोड़ दे भाई, जो पकड़ लिया है। चोट पकड़ना चाहो तो चोट भी पकड़ ही सकते हो न? अपना चुनाव है। क्यों ऐसी चीज़ें पकड़ रहे हो जो चोट दे रही हैं और आगे भी देंगी? और अतीत में जो चोट लग गई, उसको भी क्यों पकड़ कर बैठे हो? स्मृति मात्र है।

अभी और कुछ नहीं है बेहतर क्या करने के लिए? बार-बार कहता हूँ योद्धा हो, संसार रणभूमि है, बड़ी लड़ाइयाँ लड़ो न बेटा, छोटी बातों में क्यों उलझ रहे हो?

सोचो महाभारत का युद्ध चल रहा है और पांडवों के दो सैनिक आपस में भिड़ गए क्योंकि एक को शक था कि तंबू में उसका एक लड्डू रखा था, वो इसी ने खाया है। कह रहा है, “तैने खाया।”, बोल रहा है, “मैंने खाया?” वहाँ विशाल सामने कौरवों की सेना, और यहाँ ये पीछे दोनों एकदम अलग। कल्पना कर लो न पूरा जो युद्ध चल रहा है वो एक अलग चल रहा है और दो अलग उधर कोने में दिखाई दे रहे हैं। उनका मुद्दा है 'तंबू का लड्डू', “तैने खाया कि नहीं खाया?”

वहाँ कृष्ण अर्जुन को गीता ज्ञान दे रहे हैं, उधर कर्ण अर्जुन को ललकार रहा है, वहाँ भीष्म बाणों की शैया पर लेटे हुए हैं, वहाँ द्रोण कह रहे हैं कि "बता अश्वत्थामा बचा कि नहीं?", और यहाँ वो कह रहा है, “तैने खाया कि नहीं खाया?” (श्रोतागण हँसते हैं।) भीम गरज रहे हैं, “अरे! पापी दुर्योधन सामने आ।” वो बोल रहा है, “लड्डू बता”। उन्हें कोई मतलब नहीं है कि ये कौन सी भूमि है और यहाँ कौन सा युद्ध हो रहा है, उन्हें क्या मतलब? “तू सच-सच बता नहीं तो आज जान ले लूंगा।”

और अब आगे की सुनो। बहुत लाशें गिरीं कुरुक्षेत्र में, उन सबका पता नहीं कि उनका क्या हुआ, पर दो तो पक्का थे कि नर्क ही गए, ये जो लड्डू के पीछे लड़ मरे।

फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम कौरवों की ओर हो कि पांडवों की ओर हो। जिधर भी हो, धर्म नहीं तो कम से कम कर्तव्य का पालन कर रहे हो। पर ये दोनों जो साफ़ देख रहे हैं कि कुरुक्षेत्र है, धर्म युद्ध है और तब भी लड्डू को लेकर दीवाने हैं, ये तो दोनों नर्क मरेंगे।

तुम्हें पता नहीं है कि पूरी तस्वीर क्या है? तुम किस चीज़ में उलझ रहे हो? उसकी क्या उपयोगिता है, क्या महत्व है? लड्डू कितनी देर मज़े देता है मुझे बताओ। लड्डू के मज़े कितनी देर तक आते हैं? बोलो।

प्रश्नकर्ता: दो-पाँच मिनट।

आचार्य प्रशांत: दो-पाँच मिनट, और पछतावा कितनी देर का?

प्रश्नकर्ता: आजीवन।

आचार्य प्रशांत: खा लिया लड्डू? अब पछताओ। तुम तो पछताओगे भी क्या बेटा?

उधर बेचारा अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँसा हुआ है, उसे मदद चाहिए, यहाँ ये दोनों कुश्ती में। अभिमन्यु पुकार रहा है, “कोई है?” ये कह रहे हैं, “थमो, अभी लड्डू का तो फैसला होने दो।” नैतिक-अनैतिक की बात नहीं है बच्चे, अच्छा-बुरा, सही-ग़लत, एथिक्स (आचार विचार) की बात नहीं है ये। बात इसकी है कि कितनी मूर्खता की चीज़ में पड़ रहे हो। अनएथिकल (अनैतिक) हो ना हो, स्टुपिड (बेवकूफ) है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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