मन लगातार सोचता क्यों रहता है? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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मन लगातार सोचता क्यों रहता है? || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: मन है ही तब तक जब तक वो सोच रहा है| तुम मुझे बताओ कि तुम यदि सोचना बंद कर दो, तो मन कहां है? तुम कह रहे हो, ‘हम सोचने पर मजबूर क्यों होते हैं?’ यहां पर तुम से अर्थ है, ‘मन’| तुम अभी मन हो| तुम सदा मन ही हो| ऐसे समझो, जब तुम सो जाते हो और गहरी नींद में होते हो, तब तुम सोच नहीं रहे होते हो| नहीं रहे होते हो ना? पर जब तुम सो जाते हो, और गहरी नींद में होते हो, तब तुम्हें कोई कष्ट भी नहीं होता| तुम कितने ही बीमार हो, पर अगर तुम सो रहे हो, गहराई से, तो तुम बीमार नहीं हो| बात ठीक है कि नहीं?

सभी श्रोतागण (एक साथ): हां|

वक्ता: विपरीत भी है। तुम बड़े बादशाह हो, पर जिस वक्त तुम सो रहे हो, उस वक्त तुम बादशाह नहीं हो| कोई अहसास नहीं है तुम्हें| तुम्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया है| पर जब तुम सो रहे हो, उस वक्त कोई जेल तुम्हें बंधन में नहीं रख सकती| सोता हुआ आदमी जेल में नहीं होता| है ना?

मन जिन चीजों पर पलता है, वो सब चली जाती हैं, जैसे ही विचार शांत होता है| और मन कहता है कि मैं जिन्दा ही तब तक हूं जब तक मेरा व्यक्तित्व है, पहचान है, कंडीशनिंग है| जैसे ही विचार रुकता है, जैसे ही सोच रुकती है, वैसे ही व्यक्तित्व भी थम जाता है| बादशाह, बादशाह नहीं रहता| दुःख, दुःख नहीं रहते|

तो इसलिये इस डरे हुए मन की पूरी कोशिश रहती है कि वो सोचता ही रहे| जब तक वो सोच रहा है, उसे लगता है, ‘मैं जिन्दा हूं’| जैसे ही उसने सोचना बंद किया, वो खौफ में आता है, ‘मैं मर गया’| मर ही जाता है| सही बात यही है| लेकिन वो शांत भी तभी होता है, जब वो मर जाता है|

प्राचीन समय से ही, मन के मरने को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है, चाहा ही यही गया है| दुनिया भर का जो बोध साहित्य है (विजडम लिटरेचर) , उसमें चाहा ही यही गया है कि बस किसी प्रकार से, इसकी (मस्तिस्क की ओर इंगित करते हुए) शांति हो जाए| मनोनिग्रह, मनोनाश, और फिर जिंदगी जी उठती है, क्योंकि मन हलका है| चुप बैठा है, शांत है| अब तुम भी हल्के हो| तुम्हारे लिये पूरा आसमान खुल गया है| आ रही है बात समझ में?

सोचना, एक डरे हुए मन का उपाय है, अपने आप को ये बताने का कि ‘मैं कुछ हूं’, इसलिये तुम इतनी चिंता करते हो, इसलिये तुम इतनी योजनाएं बनाते हो| तुम ये सब ना बनाओ, तो तुम्हें ये एहसास कहां से होगा कि ‘मैं कुछ हूं’? तुम्हारा अहंकार जिन्दा कैसे रहेगा? अहंकार, विचार के बिना, जिन्दा नहीं रह सकता इसलिये वो लगातार विचार को चाहते हैं, चलते रहने देना, और इसी कारण तुम लगातार सोचते रहते हो। और इसी कारण, तुमने देखा होगा बहुत सारे लोग हैं जो निरंतर चिंता में ही बने रहते हैं| कुछ ना भी हो कारण, तो वो ढूंढ निकालेंगे, पर उन्हें चिंता करनी जरुर है| वो चिंता कर रहे हैं; ये मत समझ लेना कि उन्हें किसी से बहुत प्रेम है इस कारण चिंता कर रहे हैं| वो चिंता इसलिए कर रहे हैं ताकि उनका अहंकार कायम रहे| कई लोग तुमने देखे होंगे, जो कहते हैं, ‘हम पर बड़ी जिम्मेदारियां हैं’| उनके मन में लगातार जिम्मेदारियों का ही ख्याल चलता रहता है| ये मत सोच लेना कि वो बड़े जिम्मेदार लोग हैं| उनके मन में जिम्मेदारियों का ख्याल चलना इसलिये जरुरी है ताकि उनके मन का अस्तित्व बना रहे| वो ख्याल चलना बंद हुआ, उनका अहंकार घुल जाएगा इसलिये, वो लगातार-लगातार सोचते रहेंगे|

अभी यहीं पर ले लो| क्या सब शांत बैठे हो? सुन रहे हो? जो ध्यान से सुन रहें हैं, इस वक्त, उनमें कोई अहंता नहीं है, अहंकार शांत पड़ गया है; और दूसरे हैं, जो सोच रहे होंगे, जिनका मन भी चल रहा है, और शरीर भी चल रहा है, हांथ-पांव भी चल रहे होंगे, मुंह भी चल रहे होंगे| ये वो हैं जो बुरी तरह डरे हुए होंगे| ये वो हैं जिन्हें अपनी रक्षा करनी पड़ रही है| अपने आप को कायम रखना पड़ रहा है| विचार मन का साधन है अहंकार की रक्षा करने का| उसे अच्छे से पता है कि विचार रुकेगा, तो अहंकार के लिये कोई ठिकाना नहीं है फिर| तो इसलिये वो विचार को कभी रुकने नहीं देता| अभी भी जो लोग सोच रहे हैं, वो इसी कारण सोच रहे हैं कि उन्हें सुनना ना पड़े क्यों वो जानते हैं कि सोचना और सुनना एक साथ नहीं हो सकता| तो सोचना तुम्हारा रक्षा यंत्र है; ताकी तुम्हें यहां मौजूद ना होना पड़े| तो बड़ी कुटिलता है विचार में, और बड़ी ना समझी भी है; जैसे कहना चाहो| समझ रहे हो बात को?

श्रोता १: सर, एक प्रश्न पूछना था|

वक्ता: हां, बोलो|

श्रोता १: सर मान लीजिये आप मेट्रो में हों, वहाँ पूरी भीड़ होती है| वहाँ तो आप कुछ पढ़ भी नहीं सकते| और आपको लम्बा रास्ता तय करना है, तब तो आप कुछ ना कुछ तो सोचेंगे ही ना?

वक्ता: देखो, मेट्रो बड़ी अद्भुत जगह होती है| मैं उसी उदहारण को ले लेता हूं| सुनो| तुम अगर मेट्रो में खड़े हो, और तुम सोचना शुरू कर दो, तो तुम किस बारे में सोचोगे?

श्रोता १: सर, भविष्य या भूत|

वक्ता: वो सब कुछ वही होगा जो तुम्हारे दिमाग में पहले से मौजूद है? कभी कुछ नया तो किसी ने सोचा नहीं?

श्रोता २: सर, जरुरी नहीं है कि भविष्य और भूत ही सोचे, आसपास के लोगों के बारे में भी कुछ सोच-विचार या कोई जांच-परख कर सकते हैं|

वक्ता: कैसे?

श्रोता २: जिनको भी हम देख रहें हैं|

वक्ता: मैं समझ गया बात को| कैसे? उसी प्रक्रिया को परखो| आसपास जो है उसको तुम देखो और सोचो, तो क्या सोचोगे? बात तुमने ठीक कही कि जो अगल-बगल में खड़ा है, उसको ले कर के ही कोई विचार आएगा| पर वो विचार क्या आएगा? क्या आ सकता है? तुम उसको अपने अतीत में जानी हुए किसी चीज से जोड़ोगे| तुम उसको परखोगे या कोई नाम दोगे। यही करोगे ना? अच्छा मैं एक सवाल पूछता हूं| फ्रेंच भाषा कितने लोगों को आती है? अच्छा| रशियन कितनों को आती है? चलो ठीक है| ज़रा सोच कर के दिखाओ तुम रशियन बोल रही हो|

(सभी श्रोतागण हंस देते हैं)

नहीं कर सकती ना? तुम सोच बस उतना ही सकते हो जितना तुम्हारे अतीत में मौजूद है| तुमने ठीक कहा कि आसपास जो लोग खड़े हैं, उनको तुम देखोगे, और उनको देख कर के तुम कुछ सोचोगे| पर सोचोगे वही जो तुम्हारे अतीत में पहले से मौजूद है| उससे आगे सोच जा ही नहीं सकती| सोच की सीमा ये है कि वो अनुभव से बाहर नहीं निकल सकती| जो यहां भरा हुआ है, वो उससे बाहर जा ही नहीं सकती| अब तुम्हारे सामने दो विकल्प हैं|

तुम्हें जो लोग दिख रहें हैं या तुम्हारे मन में जो भी इधर-उधर के विचार आ रहें हैं, तुम उन्हें सोचने लग जाओ और ये सोच-सोच कर तुम उसी दायरे में कैद हो जो दायरा तुम्हारा बना हुआ है, अनुभवों का। ठीक? जो मन का सामान है, मन की सामग्री है पहले से बनी हुई| तुम उससे आगे निकल ही नहीं पा रहे हो| पर एक दूसरी संभावना भी है, इस पर गौर करो| एक दूसरा काम भी है, जो उसी मेट्रो में करा जा सकता है| उसी आधे घंटे में, जरा इस पर ध्यान दो| वो ये है कि तुम शांत हो जाओ, मौन हो जाओ और बस देखो कि ‘ये हो क्या रहा है?’, बिना सोचे|

बिना सोचे, कभी ये भी कर के देखना कि मैं देख रहा हूं किसी को तो तुलना नहीं कर रहा| मैं देख रहा हूं किसी को तो उसे किसी से जोड़ नहीं रहा| मैं देख रहा हूं किसी को तो कुछ हो कर के नहीं देख रहा कि मैं अपने संबंधों में देख रहा हूं। मैं ही केंद्र में हूं और उस तरीके से मैं मात्र देख रहा हूं| कैसे देख रहा हूं? जैसे एक वैज्ञानिक देखता है प्रयोगशाला में| तुम जब प्रयोग करने जाते हो अपने प्रयोगशालाओं में, तो एक छोटा सा प्रयोग ले लो। तुम्हें एक पेंडुलम का टाइम पीरियड निकालना है| क्या तुम वहां पर सोच-सोच कर टाइम पीरियड निकालते हो? तुम बस ध्यान देते हो कि वास्तव में हो क्या रहा है। तुम्हारे पास वहां कोई उम्मीद नहीं रहती है, और तुम अतीत से सम्बद्ध भी नहीं होते कि कल जो इसका टाइम पीरियड था, इतना निकला था; तो आज भी इतना ही निकले, और नहीं निकला तो मेरे दिल टूट जाएगा| तुम मात्र देखते हो, और जो लोग ये कर पाते हैं, सच उनके सामने खुल जाता है|

दूसरे तरह के भी कुछ लोग होते हैं, जो लैब में जाते हैं प्रयोग करने| वो पहले से ही सोच कर जाते हैं कि आज तो ये परिणाम निकालना ही निकालना है| तुममें से बहुत लोग ऐसे भी होंगे| तुम्हें पहले ही पता है कि गुरुत्वाकर्षण का मान इतना आना चाहिये| तो इस लिहाज से, पेंडुलम की जब ये लम्बाई है, तो इतना इसका टाइम पीरियड होना चाहिए। यह सब तुम्हें पहले से ही पता है| ये नकली वैज्ञानिक है| इसका सारा प्रयोग नकली है|

असली वो है जो मात्र देखे, और फिर उसको सच पता चलता है| उसकी जिंदगी सच्ची रहती है, उसको ठोकरें नहीं लगतीं। और वो जो नकली वाला है, वो ठोकर पर ठोकर खाता ही रह जाएगा| उसके सामने कभी असलियत आएगी ही नहीं| बात समझ रहे हो? थोड़ा ये भी कर के देखना| ध्यान से बस देखना शुरू करो, बिना किसी स्वार्थ के, बिना कोई धारणा लिये कि ‘मैं कौन हूं यहां पर?’ ठीक है?

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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