मन को समभाव में कैसे स्थित करें? || (2020)

Acharya Prashant

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मन को समभाव में कैसे स्थित करें? || (2020)

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।

जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा उस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ५, श्लोक १९

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है कि “जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा उस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं।“ इसे अपने जीवन में कैसे उतारें?

आचार्य प्रशांत: समभाव का अर्थ है – कोई ऐसा भाव जिसके विपरीत ना जाना पड़े, कोई ऐसा भाव जो इतना आकर्षक हो और इतना विराट हो कि तुम्हें पूरा ही सोख ले अपने में, तुम्हें उससे हट करके किसी और भाव की ज़रूरत ना पड़े।

चलो समझो। संसार में जो कुछ भी करते हो, उसे चलाए रखने के लिए तुम्हें उसके विपरीत की शरण में जाना होता है। जो पढ़ाई करते हैं, वे बोलते हैं कि पढ़ाई बहुत हो गई, अब ज़रा बाज़ार घूमकर आते हैं, थोड़ा खेलकर आते हैं—पढ़ाई करनी है तो बाज़ार जाना पड़ेगा। तुमने किसी दिन दस-बारह घण्टे पढ़ाई कर ली या तीन-चार दिन ऐसे हो गए कि दस-बारह घण्टे काम कर लिया, तो फ़िर दूसरे दिन, चौथे दिन, दसवें दिन तुम यह कहते हो कि, “आज आराम, या कि आज थोड़ा कहीं पर मन बदलकर आते हैं, टहलकर आते हैं।“

दुनिया में जो कुछ भी है, वह आवश्यक कर देता है कि तुम उसके विपरीत के पास जाओ; क्योंकि दुनिया में कुछ भी ऐसा है ही नहीं जो तुम्हें पूरा-का-पूरा सोख ले, तुम्हें समा ले अपने भीतर। दुनिया में जो कुछ भी है, सब छोटा-छोटा है। जो छोटा है, वह उबाऊ है। जहाँ कुछ छुटपन है, वहाँ घर्षण भी है। सच्चिदानंद परमात्मा में समभाव का अर्थ हुआ कि उसकी सेवा में लग जाओ, उस काम को उठा लो, उस केंद्र से काम करो जहाँ तुम्हें किसी विपरीत की तलाश ही ना रहे, जहाँ तुम्हें किसी विपरीत की आवश्यकता ही ना रहे। काम वह करो जिसके बाद तुम्हें मनोरंजन की ज़रूरत ही ना पड़े। यह ना कहो कि, “काम ज़्यादा हो रहा है, अब थोड़ा मनोरंजन भी तो चाहिए!” काम ही मनोरंजन हो जाए। काम में ही ऐसा आनंद है कि अब मनोरंजन किसको चाहिए।

और उसके लिए वो काम, पहली बात, आकर्षक होना चाहिए; दूसरी बात, अनंत होना चाहिए। अनंत नहीं हुआ तो कभी ख़त्म होने लग जाएगा, और ख़त्म होने लग गया तो उस काम से इतर तुम्हें कुछ और करना पड़ेगा, कह लो कि काम का विपरीत करना पड़ेगा। और आकर्षक होना चाहिए, आकर्षक नहीं होगा तो थोड़ी देर में कहोगे कि, “ऊब गए, ऊब गए!”

समभाव का अर्थ यही नहीं होता कि सुख-दुःख में एक समान, सर्दी-गर्मी एक समान, धूप-छाँव एक समान; समभाव का अर्थ होता है कि मन पर कुछ ऐसा छाया हुआ है जिसकी पनाह में आने के बाद कहीं और जाने की ज़रूरत ही नहीं लगती। समता मिल गई है, अब ना विषमता बची है, ना ममता बची है, ना अहंता बची है।

ये जीवन जीने के तरीके हैं, ये जीवन की कलाएँ हैं। और साथ-ही-साथ जीवन कैसा बीत रहा है, यह उसकी कसौटी है। तुम्हारा काम ऐसा है कि तुम्हें हर हफ्ते, दो हफ्ते, हर महीने, दो महीने छुट्टी ले करके कहीं भागना पड़ता है। तुम्हारा काम ऐसा है कि तुम्हें हफ्ते के अंत में शराब की पार्टी करनी पड़ती है। तुम्हारा काम ऐसा है कि घर लौटकर आते हो तो निढाल हो जाते हो और कहते हो कि, “आज काम बहुत हो गया, चलो अब टीवी लगाओ।“ और काम से मेरा अर्थ है लक्ष्य, जीवन का केंद्र। वही तो काम बनता है न? जो केंद्र पर है, वही कर्म बनेगा। केंद्र ही तो कर्म का निर्धारण कर देता है न?

कृष्ण जो बात कह रहे हों, उसको तुम बस धार्मिक और पवित्र वक्तव्य की तरह देखोगे तो उसका बहुत छोटा एक प्रतिशत, आंशिक लाभ मिलेगा। और अगर उनकी बात को ज़िन्दगी की तरह देखोगे तो ज़िन्दगी ऐसी खिल जाएगी कि विश्वास ना हो तुमको।

समभाव का मतलब जानते हो क्या होता है? समय ठहर गया। समभाव जहाँ नहीं है, वहाँ तो घड़ी की टिकटिक है, “काम कब ख़त्म होगा?” समभाव का अर्थ है तुम समय से ही बाहर आ गए। जब ज़िन्दगी में एक ही चीज़ चल रही है तो समय के बीतने का पता किसको चले! इतना डूबकर कर रहे हैं, क्योंकि काम इतना आकर्षक और आवश्यक है, कि समय का पता ही नहीं चलता। कब दिन होता है, कब रात होती है, कौन जाने! कब मौत आ जाए, कौन जाने! यूँ ही मस्ती में, खुमारी में मर भी जाएँगे। कैसे मरेंगे? काम करते-करते। कौन सा काम? वह काम जिसे कर्मयोग कहा जाता है।

अब तुमको मृत्यु का डर नहीं। जिसको मृत्यु का डर नहीं, वह मौत के पार निकल गया न। उसके ख़यालों में ही मौत नहीं है; उसके ख्यालों में अब काम है। सातत्य, कुछ ऐसा जो कभी ना टूटता हो, कुछ ऐसा जिसके प्रति निष्ठा कभी ख़त्म हो ही ना सकती हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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