प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं उपनिषद् पढ़ रहा था, तो उसमें मन को एकाग्र करने की बात स्पष्ट नहीं हुई। हमें मन को कहाँ एकाग्र करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: मन जब भी एकाग्र होना चाहता है तो वो किसी वस्तु की तलाश करता है, किसी छवि की तलाश करता है। जब आप पा जाते हैं किसी वस्तु को विषय रूप में, सिर्फ़ तभी आप विषयेता बने रह सकते हैं। जब विषय मिल गया, ऑब्जेक्ट मिल गया, सिर्फ़ तभी आप उस विषय को सोचने वाले बने रह सकते हैं। और जो विषय आपको चाहिए, उसका कुछ रूप होना चाहिए, वो मूर्त होना चाहिए, उसका कुछ आकार-प्रकार होना चाहिए, उसके कुछ गुणधर्म होने चाहिए, उसकी कुछ प्रकृति होनी चाहिए, उसके कुछ लक्षण, कुछ चिन्ह होने चाहिए। अन्यथा आप सोच नहीं पाएँगे।
आप सोचकर दिखाइए किसी ऐसे के बारे में जिसका कोई लक्षण, कोई चिन्ह, कोई रूप, कोई रंग, कोई इतिहास, कोई आकार, कोई प्रकार हो ही ना। तो उपनिषद् हमसे कह रहे हैं कि उसपर एकाग्र हो जाओ जिसका ना नाम है, ना घर है, ना पता है, ना ठिकाना है, ना इतिहास है, ना जिसकी सीमा है, ना जिसकी कल्पना है। तो चलो उसपर एकाग्र हो जाओ। एकाग्र होने के लिए आपको चाहिए थे कुछ लक्षण, वो आपको दिए नहीं गए।
जब सामने आपको कोई वस्तु मिलती है, तब आप भी अपना वस्तु-रूप स्थापित रख पाते हैं। आप सोचने वाले तभी तो बन पाएँगे न जब सोचने के लिए कोई सामग्री मिले?
उपनिषद् आपसे कह रहे हैं उसके बारे में सोचो जो सामग्री है ही नहीं। अब आपकी हालत ख़राब। क्योंकि उसके बारे में अगर सोचना है, उसपर एकाग्र होना है, तो आपको मिटना पड़ेगा। ‘कुछ’ को सोचने के लिए आपको ‘कुछ’ होना पड़ेगा, और ‘न-कुछ’ को सोचने के लिए आपको ‘न-कुछ’ होना पड़ेगा।
उपनिषद् कह रहे हैं कि, "बहुत तुमको एकाग्रता की लत लगी हुई है न, सोचने का तुम्हें बहुत चस्का है, तो चलो उसको सोचो जिसके बारे में सोचा नहीं जा सकता।"
प्र: आचार्य जी, क्या सगुण साकार और निर्गुण निराकार कहेंगे?
आचार्य: नहीं! इसको एक विधि मानिए। ये क़रीब-क़रीब एक ज़ेन कोआन जैसा है – “जाओ उसको सोचकर आओ जिसे सोचा नहीं जा सकता।" अब उसको तुम सोच तो नहीं पाओगे, लेकिन उसको सोचने की कोशिश में सोचने वाला ज़रूर मिट जाएगा। क्योंकि सोचने वाले के क़ायम रहने के लिए, मैं दोहरा रहा हूँ, जिसको सोच रहे हो, उसमें कुछ रूप-रंग, द्रव्य होना चाहिए।
तो तुम सोचने निकले हो किसको? जिसके सामने सोच गिर जानी है, जिसके सामने सोच मिट जानी है। और सोच मिटी तो साथ में कौन मिट जाएगा?
प्र: सोचने वाला।
आचार्य: तुम मिट जाओगे, सोचने वाला मिट जाएगा। तो ये समाधि की समझ लो विधि हो गई कि सोचें ‘उसको’। ज़ेन तुमसे इसी तरह से कहता है, “जाओ, अपना वो चेहरा ढूँढ कर लाओ जो जन्म से पहले था।" अब तुम ढूँढ रहे हो उस चेहरे को। वो चेहरा नहीं मिलेगा, तुम ज़रूर खो जाओगे।
ये सब परोक्ष विधियाँ हैं, क्योंकि तुमसे सीधे-सीधे कहा जाए, “तुम खो जाओ”, तुम मानोगे नहीं। तुम्हारी आदत मेहनत करने की लगी है। तो फिर तुमसे किसी ऐसे विषय पर मेहनत कराई जाती है, ऐसी दिशा में मेहनत कराई जाती है, जो दिशा बिलकुल आकाश की ओर जाती हो कि, “जाओ उस दिशा में, फिर कभी लौटकर ही नहीं आओगे। वहीं घुल जाओगे, वहीं मिट जाओगे।”
कर सकते हो आप भी – चलो, अरूप का रूप चित्रित करें। हम सब बैठकर आज अरूप का रूप चित्रित करते हैं। चलो, अज्ञेय के बारे में कहानी लिखें। और लिखनी ज़रूरी है, वैसे ही जैसे एक हाथ से ताली बजानी ज़रूरी है। वापस मत आ जाना बिना बजाए। अज्ञेय के बारे में आओ चलो सब बैठकर कहानी लिखते हैं।
तड़प जाओगे, निचुड़ जाओगे। दिमाग पगला जाएगा, और अंततः जब कुछ नहीं कर पाएगा, तो तड़प-तड़प कर जान दे देगा—शांत, मौन!
प्र: आचार्य जी, क्या इसी को द्वैत कहते हैं कि ‘मैं’ पैदा होता है जब ऑब्जेक्ट (विषय) होता है?
आचार्य: हाँ।
प्र: और उससे, कोई भी ऑब्जेक्ट हो, वो खिंचता है उस तरफ़।
आचार्य: हाँ।
प्र: तो हम अपनेआप को बुरा मानें, या भला मानें, कुछ भी मानें, हमारा पॉइंट ऑफ़ सेण्टर (केंद्र) रहेगा।
आचार्य: हाँ, बढ़िया।
जब भी कभी तुम्हें होने के लिए किसी विषय का अनिवार्य आसरा लेना ही पड़े, इसको ‘द्वैत’ जानना।
“मैं तभी हूँ जब कुछ और है”, इसका अर्थ, “मैं हूँ ही दूसरे से सन्दर्भ में। मैं हूँ ही दूसरे से रिश्ते में। दूसरा हटा तो मैं भी गिर जाऊँगा” – ये द्वैत है। “मेरी अपनी कोई मौलिक, निजी, मुक्त परिभाषा नहीं है। मेरा अपना कोई आज़ाद अस्तित्व नहीं है। कोई दूसरा है तो उससे सम्बन्ध में मैं हूँ।”
तो ‘मैं’ कौन? मैं किसी का पिता।
‘मैं’ कौन? मैं कहीं का नागरिक।
‘मैं’ कौन? मैं किसी शरीर का स्वामी।
‘मैं’ कौन? मैं किसी घर का निवासी।
अब ये सारे विषय थे। इनको हटा दो तो फिर आफ़त हो जाती है। इसीलिए तो इतना रोते हो। तुम हो ही तब तक जब तक ये मकान है। क्योंकि तुमने अपनेआप को क्या कहा है? “मैं उस मकान का मालिक हूँ।" इसीलिए जब तुम्हारा मकान गिरता है, तो तुम्हारे भीतर भी कुछ गिर जाता है। इसीलिए इतना रोते हो।
प्र: आचार्य जी, ऐसा तो होगा ही कि कुछ गिरेगा। तो जब कुछ गिर रहा हो, उस समय जब लगता है कि मालकियत गई, तो उससे बचा जा सकता है या उसको सहन ही करना होगा?
आचार्य: उसको सहन करोगे तो कष्ट पाओगे। और अगर बेशर्म हो, तो जाकर किसी और मकान से जुड़ जाओगे।
अगर सद्बुद्धि है, तो कहोगे, “सारे मकान एक जैसे होते हैं। बार-बार कई मकानों में जाना और कष्ट पाना कहाँ की बुद्धिमानी है? इस मकान से जुड़ा था, ये मकान गिरा, ये मकान टूटा, मुझे ऐसा लगा मैं भी टूट गया। उस व्यक्ति से जुड़ा था, वो मर गया, मुझे लगा मैं भी मर गया। ये तो बड़ी ग़ुलामी की बात है।"
“जब भी अपनेआप को किसी से जोड़कर परिभाषित करता हूँ, बड़ा ग़ुलाम हो जाता हूँ। दो बार, चार बार कष्ट पा लिया, अब और नहीं पाना। अब और किसी मकान से नाता नहीं जोड़ना।”
तभी तो कबीर साहिब कहते हैं, “मैं घर अपना जालिया”, अपना घर क्यों जला रहे हैं? क्योंकि जिस भी घर से नाता जोड़ेंगे, घर की तो नियति है गिर जाना। घर गिरेगा, तुम्हें भी ऐसा लगेगा कि तुम गिर गए। कष्ट यही है।
मुक्त अस्तित्व का न होना ही कष्ट है।
तुम आश्रित हो किसी और पर कि वो आए और तुम्हारी ज़रा तारीफ़ कर दे। क्योंकि तुम कौन हो? वो जो समाज में सम्माननीय है। जिस दिन तुम्हें समाज में सम्मान मिलना बंद हो गया, उस दिन तुम्हें लगेगा कि तुम भी बंद हो गए। तुम्हारी तारीफ़ रुक गई, तुम्हें लगेगा तुम्हारी धड़कन भी रुक गई। अब ये ग़ुलामी है, क्योंकि तारीफ़ किसी और से चाहिए। वो दे, ना दे। तुमने अपनी जान किसी और की मुट्ठी में दे दी, वो जब चाहे तुम्हारी गर्दन मरोड़ दे।
प्र: आचार्य जी, डिज़ायर (इच्छा) का क्या अर्थ होता है?
आचार्य: इच्छा का रूप, इच्छा ही होता है। इच्छा नहीं जानते क्या होती है? कुछ पाना है। क्यों पाना है? क्योंकि नहीं है। यही है—नहीं है, कमी है।
‘कमी है’ के भाव को जितना पोषण दोगे, उतना ज़्यादा मन मलिन होता जाएगा, धूमिल होता जाएगा।
प्र: आचार्य जी, क्या इसीलिए कहा जाता है कि ध्यान प्रतिपल है?
आचार्य: ध्यान प्रतिपल है। पूर्णता भी प्रतिपल है। कल ही पढ़ रहे थे न कबीर साहिब को, “माँगन से मरना भला”।