मन को अखाड़ा न बनने दें || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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मन को अखाड़ा न बनने दें || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्न: क्या ध्यान का मतलब है सब कुछ होगा बाहर, लेकिन आपके मन पर उसका असर नहीं होगा?

आचार्य प्रशांत: बढ़िया, सब चलेगा।

तुम्हारे ध्यान में आने से दुनिया का काम-धाम नहीं रुक जाएगा। तुम्हारा अपना काम-धाम भी रुक नहीं जाएगा। तुम खेल रहे हो तो खेलोगे, तुम दौड़ रहे हो तो दौड़ोगे, तुम पढ़ रहे हो तो पढ़ोगे। पर तुम जो भी कुछ कर रहे होगे उसमें पूरी तरह से मौजूद रहोगे, सोए-सोए से नहीं रहोगे, खोए नहीं रहोगे, और कुछ ऐसा होगा जो, जो भी कुछ चल रहा होगा उसमें हिस्सा नहीं ले रहा होगा। उससे थोड़ा-सा अलग होकर देख रहा होगा।

तुमने कभी किसी आदमी को देखा है जो बहुत गुस्से में हो? वो कहता है, “मेरे बावजूद मुझे गुस्सा आ गया। मैं चाहता नहीं था लेकिन गुस्सा कर गया।”

क्यों?

क्योंकि वो पूरा ही गुस्सा हो चुका होता है। उसके भीतर कुछ भी ऐसा नहीं बच गया जो बस साक्षी-भाव बनकर देख सके, जो द्रष्टा रह गया हो उस गुस्से का। उसका मन जो है, वो पूरी तरह से क्रोध में चला गया है।

‘ध्यान’ का अर्थ है – जो चल रहा है उसे चलने देना है, उसमें हस्तक्षेप नहीं करना है, लेकिन कोई ऐसा है जो उस चलते हुए को देख रहा है।

उसी को ‘ध्यान’ कहते हैं।

ध्यान का अर्थ यह नहीं है कि साधु-संत बन गए, और ध्यान की मुद्रा में बैठ गए; बल्कि ध्यान में व्यक्ति ज़्यादा क्रियाशील होता है। असल में वही दुनिया को जीतने वाला होता है। वो अगर इंजीनियर है तो बेहतर इंजीनियर होगा, वो अगर खिलाड़ी है तो बेहतर खिलाड़ी होगा, वो अगर वक्ता है तो बेहतर वक्ता होगा, और अगर वो श्रोता है तो बेहतर श्रोता होगा।

ध्यान में हर चीज़ में एक नयापन और खरापन होता है, फ़िर उसमें कुछ बासी नहीं रह जाता, कुछ ऐसा नहीं रह जाता जो पहले से पता है।

ध्यान में तुम अपने ही दोस्त से मिलोगे तो पाओगे कि नया है। इसका यह मतलब नहीं है कि वो नया चेहरा लेकर आ गया है। फ़िर बासीपन नहीं रहेगा, ऊब नहीं रहेगी, जिंदगी बोझिल-बोझिल नहीं रहेगी। यह जो ‘विचार’ हैं, ये सदैव तुम्हारे मन में आते हैं, ध्यान में बस एक नई चीज़ होती है कि – तुमने इन विचारों पर ध्यान दे दिया। वरना विचार तो हर समय आते रहते हैं।

हमारा मन अखाड़ा बना रहता है — कभी ये विचार, कभी वो विचार। तुम चलते-फिरते सोचते रहते हो। ध्यान में बस एक नई चीज़ होती है कि जो ‘विचार’ आते हैं, तुम उनके प्रति सजग हो जाते हो। और जैसे ही सजग होते हो, कुछ ऐसा देख लेते हो जो शांत कर देता है।

जैसे कोई भूखा हो और पेट भर गया, तो शांत हो जाए। वैसे ही जब आप ध्यान में विचारों को देख लेते हो, तो शांत हो जाते हो। एक विचलित मन को भूख तो होती ही है, शांति की भूख होती है इसमें कोई शक़ नहीं, लेकिन तुम्हें ऐसा माहौल नहीं मिल पाता जिसमें तुम ध्यान में हो सको, शांत हो सको।

आपने खुद को अशांति से घेर रखा है, तो शुरू करने के लिए बहुत ज़रूरी है कि अपने जीवन से वो सारे अशांति फैलाने वाले घटकों को हटा दें। आपको स्पष्ट रूप से देखना होगा उन सभी चीज़ों को, जो आपके जीवन में अशांति लाती हैं। सुबह से शाम तक ऐसा क्या है जो आता है, और आपको विचलित करके चला जाता है? क्या है ऐसा?

तुम बहुत अच्छे से जानते हो क्या है ऐसा, क्योंकि ज़िंदगी तुम्हारी है। और अगर नहीं पता है, तो ध्यान दो तुरंत दिख जाएगा। तुम्हारे ये दोस्त-यार, ये जो तुम टी.वी. पर कार्यक्रम देखते हो, जिन-जिन वेबसाइट्स पर जाते हो, तुम्हारा फेसबुक-ट्विटर, तुम्हारा ये घूमना-फिरना, ये घुमक्कड़ी जिसको तुम कहते हो कि तफरी करने जा रहे हो, यही सब है न जो मन को विचलित करता रहता है? फ़िर तुमको ताज्जुब होता रहता है, कि – ध्यान क्यों नही है?

क्यों इतना द्वंद है? हमारी ऊर्जा एक तरफ क्यों नहीं बहती? सब बिखरा-बिखरा सा क्यों है? अजीब-सा तनाव क्यों रहता है?

तुमको किसी दिन तनाव नहीं मिले तो तुम परेशान हो जाते हो – “यार! आज कुछ मज़ा नहीं आया लाइफ में, चलो कुछ एक्साइटिंग (उत्तेजक) करते हैं, एंटरटेनिंग (मनोरंजक) करते हैं।” तुम्हारा एक दिन भी अगर समतल बीत जाए, कोई तनाव न हो तो तुमको लगता है कि तुम्हारा दिन बर्बाद हो गया।

अपने दुश्मन तो तुम खुद हो। तुम खुद जाते हो अशांति को आमंत्रित करने। तो तुम्हें कौन बचा सकता है? तुम उन्हीं- उन्हीं स्थितियों को बार- बार पैदा करते हो जो तुम्हें अशांत करती हैं। क्यों जाते हो?

पर मन उधर को ही भागता है।

प्रश्नकर्ता: ये जो निगेटिव (नकारात्मक) विचार आते रहते हैं, फ़िर उनको ध्यान से कैसे दूर कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत जी: जब विचार आते हैं तो बिना चेतावनी दिए नहीं आते, छोटी-सी चेतावनी ज़रूर देकर आते हैं। अगर सजग हो तो वहीं पकड़ लोगे।

छोटी -सी चेतावनी ज़रूर देता है विचार कि – “आ रहा हूँ, उठ रहा हूँ,” सजग हो, तो वहीं पकड़ लोगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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