आचार्य प्रशांत : ओपिनियन्स (राय) के मालिक के साथ रहिए तो ओपिनियन्स फिर आपके होंगे। हमारा ये हो जाता है कि हम ओपिनियन्स के हो जाते हैं।
दोनों का अन्तर समझिये। मेरे होने से मेरी बात निकले, वो एक बात है और दूसरी चीज़ है कि मैं बातों का गुलाम हो गया हूँ। जाना-समझा कुछ नहीं, बातें सुनी, बातों का गुलाम हो गया।
दूसरी बात ये होती है, मैं जो हूँ उससे मेरी बात निकलती है। बात दोनों ही स्थितियों में है, पर बात बात में अन्तर है।
कोई पाँचवीं का बच्चा होता है, वो रट के कबीर का दोहा बोलता है और कभी कबीर ने भी अपना दोहा बोला था। दोनों ही स्थितियों में बोला क्या गया है, दोहा। पर बात बात में अन्तर है, कि नहीं है।
वहाँ कबीर पहले आते थे। कबीर के होने से दोहा उद्भूत होता था। यहाँ कबीर का तो कुछ पता नहीं दोहा दोहा है।
कोई बात नहीं। विचार में कोई बुराई नहीं, ओपिनियन में भी कोई बुराई नहीं। फॉल्स और ट्रू होते हैं, तो सिर्फ़ सेंटर्स , बाक़ी जगह तो आप रॉंन्ग-राइट , रॉंन्ग-राइट चलाते रहते हो।
वो रॉंन्ग-राइट की कोई क़ीमत नहीं है। भेद अगर करना है तो एक करिए, फॉल्स है या ट्रू है। राइट-रॉंन्ग तो व्यर्थ का सवाल है।
और ज़ल्दी से अगर आप ये निष्कर्ष न निकाल पाते हों कि फॉल्स या ट्रू है, फँस जाते हो, तो ये समझ लीजिए जीवन में आप जहाँ खड़े हैं, इससे ज़्यादा स्पष्टता की अनुमति नहीं है।
आप समझ रहे हैं?
आँखें ख़राब हों और वहाँ दूर का दिखाई न देता हो तो बार-बार आँखें मिच-मिचाने से थोड़े ही दिखाई देने लग जाएगा। अगर सत्य का और मिथ्या का भेद करने में दुविधा होती हो, तो समझ लिजिएगा कि जीवन जैसा चल रहा है, इसमें इतनी ज़्यादा स्पष्टता से भेद कर भी नहीं सकते। उसकी आपको अनुमति ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता: गहरा प्रतिरोध उठता है, अन्दर से कि यह क्या है।
आचार्य : जीवन बदलिये। ज़िन्दगी बदलेंगे, अपनेआप स्पष्टता आएगी । जीवन जैसा चल रहा है उसको वैसा ही चलाकर के आप और ज़्यादा क्लैरिटी (स्पष्टता) से कुछ नहीं जान पाएँगे आगे।
जिनको बार-बार दुविधा हो जाती हो, जो लोग बार-बार अटक जाते हों, फँस जाते हों, कि यार, समझ में नहीं आ रहा, प्रेम है कि मोह है। समझ में नहीं आ रहा कि ये करूँ कि वो करूँ, समझ में नहीं आ रहा कि ये दूसरी वरीयता है कि आठवीं वरीयता है।
तो वो ये जान लें कि फिर अभी उनका जीवन ही ऐसा चल रहा है जिसमें इससे ज़्यादा रिज़ोल्यूसन (संकल्प) उनको एलाउड नहीं है।
पैना देखने के लिए क्या होना चाहिए, जो आँख है, हाई रिज़ोल्युसन की होनी चाहिए न। जब आँख ही अभी पिक्सलेटेड है तो जो दृश्य है वो तो धुँधला दिखेगा ही। पहले आँख ठीक करो। आँख जीवन है।
ज़िन्दगी जैसे-जैसे साफ़ होती जाएगी, वैसे-वैसे सारे दृश्य भी साफ़ होते जाएँगे। अब रोज़ चढ़ाता (शराब पीने के संदर्भ में) हो कोई और फिर कहता हो, अरे! साफ़-साफ़ दिख नहीं रहा। तो भाई, जैसी तेरी ज़िन्दगी है, उसमें तुझे साफ़-साफ़ दिखेगा क्या?
तुझे साफ़ देखना है तो चढ़ाना बन्दकर न, ज़िन्दगी बदल। और चढ़ाना तू बन्द कर नहीं सकता, जब तक तेरे दोस्त-यार हैं। और दोस्त-यार तू बदल नहीं सकता, जब तक तेरी जैसी जो दिनचर्या है, जिस दुकान में तू बैठता है। ये सारे दोस्त-यार तुझे उसी दुकान से मिले हैं।
तो बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। जब वो सब बदलेगा, तब फिर दृष्टि पर जो कोहरा छाया हुआ है, वो छटेगा। वो नहीं हो पाएगा कि आई वांट मोर क्लैरिटी रिमैनिंग व्हाट आई एम (मैं जो हूँ उसके बारे में और अधिक स्पष्टता चाहता हूँ)। भाई, आप जैसे हो आपको इतनी ही मिलेगी। तो बार-बार सवाल पूँछने से कुछ नहीं होगा।
वही तुमसे कहा, ‘ऊँचे-ऊँचे सवाल पूछने से क्या होगा? क़ीमत तो अदा करो।‘ और चाहिए क्लैरिटी, और समझनी है बात, और गहराई में पैठना है, और आनन्द चाहिए, और प्रेम चाहिए — क़ीमत लाओ।
जीवन जितना साफ़ होगा, निर्णय उतने ही सहज होंगे। बात उतनी ही आपको बारीकी से और तेज़ी से समझ में आएगी। जीवन साफ़ नहीं है तो बार-बार सवाल पूँछने से कुछ नहीं होगा।
प्र: आचार्य जी, जीवन ठीक करना मतलब कि खाना पीना, किसकी संगति करते हो, क्या देखते हो, क्या सुनते हो यह सब ठीक रखना। ऐसा लगता है कि जीवन ठीक करेंगे तो जीवन के निर्णयों में स्पष्टता आएगी लेकिन इन्हीं द्वंदों से तो जीवन बना है?
आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। जीवन स्थूल है। वहाँ पर निर्णय लेना आसान है।
द्वंद
तुम्हारे होते हैं बहुत सूक्ष्म। द्वंद तुम्हारे होते हैं कि आत्मा और परमात्मा का भेद नहीं पता चल रहा। द्वंद तुम्हारे होते हैं कि इससे आगे की क्लैरिटी नहीं मिल रही। मैं कह रहा हूँ उससे पीछे के जो काम हैं वो तो पूरे करो।
तुम गाड़ी चला रहे हो जिसकी हेड लाइट ख़राब है, बल्ब पूरी रोशनी नहीं दे रहे। तुम सवाल क्या करते हो आकर, ‘वो उतनी दूर का दिखाई नहीं दे रहा?’ मैं कह रहा हूँ, ‘भई, हेड लाइट तेरे सामने है, पहले इसको तो ठीक कर ले, ये तो दिख रही है?‘
तुम्हारे द्वंद वहाँ के होते हैं, उतनी दूर के जहाँ तक हैड लाइट्स की रोशनी जाती है और जो तुम ठीक कर सकते हो, वो तुम्हारे सामने है, उसकी बात क्यों नहीं करते?
तुम अपने फ्रंटियर्स (सरहद) की बात करते हो कि उससे आगे मेरी रोशनी नहीं जा रही, वहाँ पर मैं आकर अटक गया हूँ। उससे पीछे का ठीक कर लिया क्या? इसीलिए कहता हूँ कि जो जानते हो पहले उस पर तो अमल करने का साहस दिखाओ। फिर और जान जाओगे।
एक सीढ़ी चढ़ो। तुम कहते हो, ‘नहीं। पहले आगे का पूरा नक्शा बताओ। सीढियाँ कहाँ तक जा रही हैं?’ आगे भी तब दिखाई देगा, जब एक सीढ़ी तो चढ़ोगे। एक सीढ़ी चढ़नी नहीं है, पूरा नक्शा चाहिए।
अभी जो ठीक है वो करो। फिर भविष्य अपनेआप खुलता जाएगा। अभी वाला करते नहीं। अभी देखो न क्या कर रहे हो। ठीक अभी कौन क्या कर रहा है, देख लो। ठीक अभी। पर सवाल करोगे उतनी ही आगे के, उतनी आगे के।
और ये ठीक कर लो तो जो तुम्हारी दुविधाएँ हैं, वो भी सुलटने लगेंगी। उनमें से अधिकाँश तो तुम्हें दिख जाएगा कि दुविधाएँ तो थीं ही नहीं। कपोल-कल्पनाएँ थीं। और जो बचेंगी उनमें भी समाधान फिर उभरने लगेंगे।
अब खाना बगल में रखा है, भूखे हो तुम और तुम कह रहे हो आज उसको पीटना है, उसको मारना है। क्या-क्या तरीके होंगे मारने-पीटने के। और तुम दुविधा में हो कि बंदूक उठाऊँ, कि हथौड़े से मार दूँ, कि क्या करूँ।
भई, खाना सामने रखा है, खा लो। खाना खा लिया, पेट भर गया, मन ठंडा हो गया। अब ये सवाल ही गया कि बंदूक से मारूँ कि हथौड़े से मारूँ।
सारी दिक़्क़त ये थी कि खाना रखा था खाना खा नहीं रहे थे। बैठे-बैठे उबल रहे थे कि उसको मारना कैसे है। सवाल ही व्यर्थ था। खाना खाया नहीं कि सवाल गया। जो हाथ में है वो करो न।
प्र: बड़ा ज़ोर लगता है, अभी जो सही है वो करने में, एकदम सामने भविष्य में आगे उड़ने में मज़ा आता है।
आचार्य: आगे उड़ने में मज़ा आता है न। उसमें लगता है कि हम कुछ हैं। अब पेट भर गया, डकार मार रहे हो, कौन जाएगा मारने, सिकंदर सो गया।
अब यहाँ बैठेकर के कई लोग अपनी समस्या विचार रहे होंगे। जो हो रहा है उसे सुन लो तो समस्याएँ बचेंगी ही नहीं। पर अभी वो समस्याएँ इतनी महत्वपूर्ण हैं कि सुन ही नहीं रहे। विचार रहे हैं कि परसों सुबह घर पहुँच जाएँगे फिर ये होना है, फिर वो होना है। भाई, सुन लो। फिर वो होगा ही नहीं, जो तुम सोच रहे हो कि होना है।
प्र: जीवन में क्रोध बहुत है, समझ नहीं आता क्या करूँ?
आचार्य: उसकी एग्जिस्टेंस (अस्तित्व) इसलिए नहीं है कि तुम गुस्सा हो। उसकी एग्जिस्टेंस इसलिए है क्योंकि तुम भूखे हो। तुम जिसको अपना क्रोध समझ रहे हो वो तुम्हारी भूख है।
पेट गुड़गुड़ा रहा है इसलिए दिमाग़ गुड़गुड़ा रहा है। गुस्सा है ही नहीं। बहुत सारे क्रान्तिकारी होते हैं, दुनिया में ये ख़राब है, वो ख़राब है, ये बदल देंगे, वो बदल देंगे, यहाँ आग लगाएँगे, वहाँ आग लगाएँगे।
जीवन में प्रेम उतर जाता है, क्रान्ति हट जाती है।
तुम्हें वास्तव में दुनियावी व्यवस्थाओं से कोई विरोध था ही नहीं। तुम ज़ल इसलिए रहे थे क्योंकि जीवन में प्रेम नहीं था। एक लड़की की कमी थी। कहाँ दूर-दूर की बातें कर रहे हो यार, जो तात्कालिक भूख है तुम्हारी, उसको देखो न।
जो इम्मिज़ियेट (तत्काल) की चाह है। जो तुम्हारी इम्मिज़ियेट की भूख होती है, वो तुम्हें बहुत दूर-दूर की फँतासियाँ सुना देती है। ये है, वो है, ऐसा है, ये कर देंगे, वो कर देंगे, यहाँ चले जाएँगे, वहाँ चले जाएँगे। बात छोटी सी होती है।
अब धूप लग रही हो बहुत ज़ोर से चेहरे पर, तो कोई बड़ी बात नहीं है, ये कहना शुरु कर दो सेशन (सत्र) ही ख़राब है। बात और कुछ नहीं है, कपड़ा लो और यूँ कर लो सेशन अच्छा हो जाएगा।
इसीलिए कहता हूँ ध्यान से देखो चाह क्या रहे हो। जो तुम चाह रहे होते हो वही तुम्हारा केंद्र बन जाता है। फिर उसके आगे और बहुत सारे और झूठ-वूठ चलते रहते हैं। नहीं, ये नहीं चाह रहे, वो चाह रहे हैं।
अब तुम यहाँ बैठे हो — मान लो — तुममें से किसी को मुझसे अपेक्षा हो कि मैं शाबाशी दूँगा, अनुमोदन दूँगा। मैं न दूँ। तो तुम कहना शुरु कर सकते हो, नहीं बात में दम नहीं था, कोई शान्ति नहीं मिली।
ये सब बोलो, उससे पहले ये देख लो, तुम चाह क्या रहे थे। तुम बस ये चाह रहे थे कि मैं तारीफ़ की एक निगाह फेंक दूँ।
प्र: जब जान जाओ तो शान्त हो जाओ।
आचार्य: शान्त हो जाओ नहीं, हो जाओगे। अपनेआप हो जाओगे। जानना और शान्ति एक बात है।