प्रश्नकर्ता१: धिकतर समझ है जो है; या तो भविष्य का सोचते हैं; या फ्यूचर प्लानिंग करते है; या फिर जो अतीत हो चुका है; उसके परिणामों की; उससे हम डरते हैं। मतलब जो एक फियर फैक्टर होता है। सर, जबकि हमें पता है कि दोनों में एक इल्यूज़न लाइन कल्पना मात्र है। तो सर, जो हमारे हाथ में है, वह प्रेज़ेंट है, वर्तमान, सर उसका फायदा न उठाते हुए हम इन दोनों की तरफ़ क्यों डायवर्ट होते है इतना?
प्र2: मन स्थिर नहीं हो रहा, तो मन स्थिर कैसे करे?
आचार्य प्रशांत: बेटा, जब आप कहते हो कि हमारे हाथ में सिर्फ़ वर्तमान है, तो वर्तमान से क्या समझते हो?
प्र1: सर, आज, अभी। जिसमें कुछ कर सकते हैं।
आचार्य प्रशांत: आज, अभी। तो आज क्या है? थोड़ा आज के बारे में मुझे कुछ बताओ।
प्र1: जैसे आज का दिन है।
आचार्य प्रशांत: थोड़ी देर में आज की रात हो जाएगी? आज का दिन है तो आज कोई दिनांक भी हो गया। क्या दिनांक है आज? बदल जाएगा कल? फिर ये तुम्हारे हाथ में कहाँ है? जो लगातार बदल रहा है वह तुम्हारे हाथ में कहाँ है? तुमने कहा कि तुम्हारे हाथ में है, आज। मैं पूछ रहा हूँ कि ये आज तो लगातार फिसलता जा रहा है। ये कहाँ तुम्हारे हाथ में है? यहीं पर थोड़ी-सी भूल होती है जिसके कारण मन इधर-उधर भागता है।
देखो, अगर आज का अर्थ ये समझोगे कि आज का दिन या ये क्षण, ये अभी पौने बारह बज रहे हैं, ये समय, तो चूक हो जाएगी क्योंकि पौने बारह बोलते-बोलते भी बदल गया। समय की धारा लगातार बह रही है, ठीक है न? और जहाँ वह बोलते-बोलते बदला नहीं कि तुम डर जाओगे। तुम कहोगे यही तो हो रहा है कि जीवन हाथ से फिसलता जा रहा है।
वर्तमान तो ऐसा है; जो ज़रा भी हाथ में आता नहीं। कहते-कहते भी वह निकल जाता है और मन इस बात को देखता है और एकदम डर जाता है। मन कहता है, ' जब वर्तमान को बन ही जाना है अतीत और भविष्य को ही बनना है वर्तमान; तुम जो अर्थ दे रहे हो उसके अनुसार तो यही हो रहा है न? तुम जो अर्थ दे रहे हो उसके अनुसार तो यही हो रहा है कि जो वर्तमान है वह अतीत बनता जा रहा है और भविष्य वर्तमान बनता जा रहा है तो मन अपना गणित लगा लेता है।
मन कहता है कि जब भविष्य को ही वर्तमान बनना है तो समझदारी इसी में है कि भविष्य की ओर ध्यान दो—ये मन का तर्क है। मन इसी तर्क पर चलता है। मन का तर्क समझ गये? क्या है मन का तर्क? कि जो भविष्य है उसे वर्तमान बनना है तो ध्यान भविष्य पर दो? ये मन का तर्क है और तुमने जिस रूप में वर्तमान को लिया उससे तो मन के तर्क की ही पुष्टि होती है कि मन ठीक ही कह रहा है। अगर वर्तमान का अर्थ है आज का दिन, आज की रात; तो फिर तो उचित ही है कि हर कोई भविष्य पर ही ध्यान दे। वर्तमान आज का दिन या आज की रात नहीं है। थोड़ा ध्यान से समझना। प्रेज़ेंट का अर्थ होता है वह जो वाकई है, दैट विच इज़ रियली प्रेज़ेंट। जो है।
जो है उसकी एक खूबी ये होती है कि वह बदल नहीं सकता, दिन का रात नहीं हो सकता। वह है। सारे बदलाव उसके भीतर रहते हैं पर वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसी तरीके से अब तुम हिन्दी में बोलते हो वर्तमान। तो संस्कृत की धातु है; वह उससे निकाला है वर्तने से। वर्तना, वर्तना माने होना। वह जो है, वह जो है और जो है उसका एक गुण होता है—नित्यता कि वह कभी बदल नहीं सकता। वर्तमान में होने का अर्थ ये नहीं है कि अभी मैं क्या कर रही हूँ, मैं कैसी हूँ, क्या है ये सब।
क्योंकि अभी जो तुम कर रहे हो थोड़ी देर में बदल जाएगा। तुम्हारा मन भी थोड़ी देर में बदल जाएगा। वर्तमान ये सबकुछ नहीं है सब बदलना, बदलना। वर्तमान का अर्थ है—ठीक-ठीक जान पाना कि जो कुछ बदल रहा है उसके नीचे कुछ ऐसा भी बैठा हुआ है जो कभी बदलता नहीं और वह इस सब से जो लगातार बदलता हुआ दिखता है; तुम्हें क्या-क्या बदलता हुआ दिखता है? तुम्हें सम्बन्ध बदलते हुए दिखते है, तुम्हें समय बदलता हुआ दिखता है। है न? दुनिया में कुछ नहीं है जो तुमको बदलता हुआ न दिखता हो। सब बदल ही बदल रहा है न? ये सब जो लगातार बदल रहा है इसके आधार में वह है जो कभी बदल नहीं सकता।
उसको अगर समझना चाहें तो ऐसे समझाता हूँ। सुख होता है वह दुख में बदलता है। दुख फिर सुख में बदलता है। ऐसा ही रहता है न? और तुम्हें सुख का अनुभव नहीं हो सकता है अगर दुख न हो। तो दुख और सुख एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं अपने होने के लिए और लगातार एक दूसरे में तब्दील होते रहते हैं, ठीक है न? जो होशियार मन होता है वह सवाल उठाता है। वह कहता है, 'दिन अपने होने के लिए रात पर निर्भर है।'
ठीक? अगर रात न हो तो तुम दिन को दिन नहीं कह सकते। सोचो यदि सदा दिन बना रहे तो क्या तुम कहोगे कि दिन है? तुम कहोगे, 'कुछ भी नहीं है ऐसा तो होता ही है। इसमें विशेष क्या है? लगातार यही स्थिति है।' दिन अपने होने के लिए रात पर निर्भर है। सुख अपने होने के लिए दुख पर निर्भर है। जन्म अपने होने के लिए मृत्यु पर निर्भर है। एक बात बताओ, यदि मृत्यु न हो तो तुम क्या जीवन को भी जीवन कहोगे? नहीं कह पाओगे न? क्योंकि तुम कहोगे ये तो होता ही है।
तो समझदार मन सवाल उठाता है कि ये सब चीज़ें तो एक-दूसरे पर निर्भर हैं, पर ये दोनों ही किस पर निर्भर है? वह कहता है, 'पहली बात सुख दुख पर निर्भर है। दूसरी बात सुख लगातार बदल रहा है दुख में। जीवन मृत्यु पर निर्भर है और दूसरी बात जीवन लगातार बदल रहा है मृत्यु में, तुम प्रतिपल मृत्यु के पास आ रहे हो।' वह कहता है, 'ये इस पर निर्भर है (हाथों के इशारे से समझाते हुए) और ये इस पर निर्भर है, पर दोनों किस पर निर्भर हैं? ये तो कोई बात नहीं हुई।'
ये वैसे ही हुआ कि तुम कहो कि तुम कहाँ रहते हो? उसके घर के सामने; वह कहाँ रहता है? तुम्हारे घर के सामने और दोनों कहाँ रहते हो? आमने-सामने। तो ये तो कोई बात नहीं हुई। कुछ पता ही नहीं चला तुम्हारे बारे में। ये आमने-सामने कैसा पता है? मन कहता है, 'गड़बड़ है। निश्चित रूप से कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो इस द्वैत के बाहर है। कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो कभी बदल नहीं सकता; पर जिससे सब बदलती हुई चीज़ें निकलती हैं। जो स्वयं कभी बदल नहीं सकता पर जिससे सब बदलता हुआ निकलता है।'
अच्छा, जो कुछ बदल रहा है वह समय में है? दूसरी बात जो कुछ बदल रहा है वह स्पेस में है? दिखता है कि बदला। तो निश्चित रूप से वह जो बिन्दु है, वह वो है, जिससे समय और स्पेस दोनों निकलते हैं। सारे बदलाव उससे निकलते हैं पर वह स्वयं कभी नहीं बदलता।
समझ रहे हो न बात?
हम सोच उन्हीं सब बातों के बारे में सकते हैं जो समय में हैं और जो स्पेस में हैं; तो मन ये भी समझ जाता है मन यदि समझदार है कि ये जो बिन्दु है, ये जो स्रोत है जहाँ से सब बदलाव निकलते हैं इसके बारे में सोचा नहीं जा सकता। इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, ये अचिन्तय है। ये विचार की पकड़ से बाहर है क्योंकि विचार तुम उन्ही चीज़ों के बारे में कर सकते हो जो या तो समय में हों, या सामने हों कहीं स्पेस में।
उनका कोई आकार होना चाहिए तभी विचार कर सकते हो, उसका कोई आकार नहीं उसका विचार क्या करोगे? आकार हमेशा स्पेस में होता है, आकाश में। ये जो बिन्दु है जो स्वयं कभी नहीं बदलता इसका नाम है—वर्तमान। समझ रहे हो? इसका नाम है वर्तमान और वर्तमान में डूबे होने का अर्थ होता है कि मन अपने स्रोत में डूबा हुआ है कि सारे बदलावों के बीच में रहते हुए भी तुम उसमें डूबे हुए हो जो कभी बदलता नहीं।
कबीरदास ने कहा है—
**मन के बहुतक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोए। **
एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय॥
तो क्षण-क्षण सब बदल रहा है। मन के बहुतक रंग हैं; छिन-छिन बदले सोए। सब लगातार बदल रहे हैं। पर मन ख़ुद कहीं ऐसी जगह डूबा हुआ है जिसका रंग बदल नहीं रहा है। एक रंग में जो रहे ऐसा बिरला कोय। वह है वर्तमान में होना, वह है वर्तमान में जीना। कि ऊपर-ऊपर तो सब बदल रहा है, पर हमने अपने उस बिन्दु को, स्रोत को पा लिया है जहाँ कुछ बदलता नहीं। एक रंग है और हम वहाँ पर क़ायम हैं।
तो कैसा होगा ऐसे में जीना, वर्तमान में जीना? वास्तव में कैसा होगा? वह ऐसा होगा कि ऊपर-ऊपर सब बदल रहा है, क्या बदल रहा है? अभी ऐसी स्थिति थी जो बड़ा मज़ा देती थी; थोड़ी ही देर में एक ऐसी ख़बर आ गयी जो पीड़ा देती है। लेकिन हमारे मन का एक बिन्दु, एक कोना ऐसा है जिस पर कोई अन्तर नहीं पड़ रहा है। कोई अन्तर नहीं पड़ रहा है। वह सुख में भी वैसा ही था और दुख में भी वैसा ही है।
अभी तुम यहाँ पर बैठे हुए हो; शरीर बिलकुल स्थिर है, शान्त है। थोड़ी देर में हो सकता है तुम खेल के मैदान पर चले जाओ और दौड़ना शुरू कर दो। शरीर की अवस्था पूरी तरह बदल गयी। अभी कैसी थी? और वहाँ पर क्या कर रहे हो? दौड़ रहे हो। लेकिन मन में कुछ ऐसा है; जो जैसा अब है; वैसा ही तब भी है। शरीर दौड़ रहा है; मन में कुछ है जो बिलकुल शान्त, स्थिर तब भी बैठा हुआ है। ये होता है वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीने का अर्थ है—पूरे तरीके से अपने स्रोत में डूबकर के जीना।
समझ रहे हो?
और जो वर्तमान में जीता है, जो डूबकर के जीता है; वह पाता है कि उसका मन जो कर रहा है उसमे डूब सकता है। तो दो घटनाएँ होती हैं—एक ओर तो तुम डूबे हुए हो अपने स्रोत में जो द्वैत से बाहर है और जहाँ कुछ बदल नहीं रहा। दूसरी ओर मन डूब गया है उन सब कामों में जहाँ सब लगातार बदल रहा है। अब तुम खेल रहे हो तो वहाँ पर लगातार स्थितियाँ बदल रही हैं। मान लो, फुटबॉल खेल रहे हो, तो लगातार जो गेंद की स्थिति है; खेल की स्थिति है वह बदल रही है और मन उसमें अच्छी तरह से डूब गया है। मन फुटबॉल में डूब सके इसके लिए आवश्यक है कि मन पहले अपने स्रोत में डूबा हुआ हो। इसे कहते हैं—वर्तमान में होना।
तुमने एक और किया है कि तुम जो भी कुछ कर रहे होते हो उसमें कहाँ पूरी तरह से उपस्थित हो पाते हो? मन कहाँ डूब पाता है? इधर-उधर की बातें, फ़ालतू के खयाल मन को सताते ही रहते हैं। वह इसीलिए होता है। मन संसार में तभी डूब पाएगा जब पहले वह अपने स्रोत में डूबा हो। जब तक वह स्रोत में निमग्न नहीं है तब तक संसार में भी वह पूरी तरह से उपस्थित नहीं हो पाएगा। हमारी हालत यही है।
हम सब चाहते तो यही हैं कि जो आस-पास है, चल रहा है संसार में, उसमें हम डूब पाए। उसको अपनी पूरी प्रेज़ेंस (मौजूदगी) दे पाएँ पर हम कहाँ कर पाते हैं! तो संसार को भी पानी का रास्ता अपनेआप से गुज़रता है। जो चेंजिंग (बदलाव) है, जो लगातार बदल रहा है; उसको भी अगर पाना है तो पहले उसको पाओ जो बिलकुल बदल नहीं रहा है, जो अपना ही है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो दूसरों को अगर पाना है तो पहले अपनेआप को पाओ।
समझ में आ रही है बात?
जिसे ख़ूब दौड़-भाग करनी है उसे पहले गहराई से शान्त होना सीखना पड़ेगा। ताकि बाहर-बाहर सब बदलता रहे। दौड़ धूप-चल रही हैं; तूफ़ान चल रहे हैं; आँधियाँ चल रही हैं पर केन्द्र में कुछ बदल नहीं रहा है। वह वहाँ पर शान्त बैठा हुआ है और चूँकि वह शान्त बैठा हुआ है इसीलिए बाहर-बाहर सारे तूफ़ानों के साथ वह खेल सकता है; मौज कर सकता है। ये होता है वर्तमान में होना।
समझ रहे हो न?
हम अक्सर बात को अधूरा ही पकड़ लेते हैं। हम सोचते हैं वर्तमान में होने का अर्थ है कि जो काम कर रहे हो उसमें हो जाओ। ये हो ही नहीं पाएगा। हम सोचते हैं वर्तमान में होने का अर्थ है कि इस वक़्त जो हो रहा है उसको अपना पूरा मन दे दो। ये हो ही नहीं पाएगा। ये हो ही नहीं पाएगा जब तक तुम अपनी उस जगह को उपलब्ध नहीं हो जाते जो वास्तव में है, जो वास्तव में प्रेज़ेंट (वर्तमान) है, जिसकी सत्ता सच्ची से सच्ची है, जो बदल नहीं सकती, जिसका कोई आना-जाना नहीं है। जब तुम वहाँ बैठे होते हो तब दुनिया भी तुम्हारी होती है और चूँकि हम वहाँ नहीं बैठे होते इसीलिए हम दुनिया में भी फिसड्डी रह जाते है।
समझ रहे हो?
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