प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी। मेरा सवाल यह था कि जैसे आपने कहा कि मंदिर में जाना चाहिए। तो जो भौतिक मंदिर होते हैं, जिनमें हम रोज़ जाते हैं। तो क्या उनका कोई प्रयोजन आज हमारे जीवन में है? क्या मंदिर जाना चाहिए या नहीं?
जैसे रोज़ मंदिर जा रहे हैं, जल चढ़ा रहे हैं, निजी तौर पर जो आजकल करते हैं लोग; क्योंकि अभी तक जितना धर्म हम लोगों को पता था कि मंदिर जाओ, पूजा-पाठ करो या फिर वही जो घरवालों ने सिखाया। तो उसको कितना अब हमें जीवन में मानना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: नहीं, मंदिर की आवश्यकता तो निश्चितरूप से है। मंदिर की आवश्यकता बिलकुल उसी तरह से है मन को, जैसे से तन को अस्पताल की आवश्यकता है। और मंदिर फिर जाते वक़्त बिलकुल वही सतर्कता रखनी चाहिए, जो अस्पताल जाते वक़्त रखनी चाहिए। मंदिर बहुत-बहुत आवश्यक हैं समाज के लिए, ठीक वैसे जैसे अस्पताल आवश्यक हैं। ठीक वैसे जैसे विद्यालय, स्कूल, कॉलेज सब ज़रूरी हैं, वैसे ही मंदिर भी ज़रूरी हैं।
लेकिन क्या आप अपने बच्चों को किसी भी स्कूल में डाल देते हैं? क्या आप किसी भी अस्पताल में जाकर भर्ती हो जाते हैं, बोलिए? वहाँ क्या सतर्कता बरतते हैं? देख भी तो लो कि वहाँ ठीक होओगे या नहीं। अस्पताल जीवन भी दे सकता है और मौत भी। और भूलना नहीं कि सबसे ज़्यादा इंफेक्शन कहाँ लगते हैं लोगों को। अस्पतालों में ही लगते हैं। इसी तरह से ऐसे भी मंदिर हो सकते हैं जो जीवन दे दें और ऐसे भी हो सकते हैं, जो संक्रमण दे दें कि वहाँ गए थे और न जाने कौन-सा मानसिक संक्रमण लेकर के आ गए।
देखना पड़ेगा कि मंदिर का आप पर प्रभाव क्या हो रहा है। और अच्छी बात है अब तो इतने मंदिर हैं, बहुत विकल्प खुले हुए हैं। आप उस मंदिर को चुनिए जो आपके काम आ सके। अब लेकिन एक बड़ी डरावनी संभावना भी खड़ी हो जाती है, अगर ऐसा हो कि जीवनदायी कोई भी मंदिर न मिले अपने आसपास तो? और ऐसा हो सकता है। तो क्या करें? तो मंदिर बनाइए, अपने घर में बनाइए। समझ में आ रही है बात?
मंदिर अति आवश्यक है पर ध्यान देना ज़रूरी है कि वहाँ से क्या पाकर लौट रहे हो। स्पष्ट हो रही है बात? क्या स्पष्ट नहीं हो रहा?
आप मंदिर जाते हो तो किसी उद्देश्य से जाते हो न? या बस खानापूर्ति, रस्मो-रिवाज़ निभाने के लिए? 'जाते तो बस रस्मों के लिए ही हैं।' तो पहले पता तो होना चाहिए न कि मंदिर जा क्यों रहे हो। जब कोई उद्देश्य ही नहीं है, तो फिर यह भी नहीं पता चलेगा कि उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई।
मंदिर जाना क्यों है? मंदिर इसलिए जाना है कि जैसे गए थे, उससे बेहतर हालत में वापस आओ। इसीलिए जाना है न? जिस जगह जाने से मन बेहतर होकर वापस लौटे, उस जगह को मंदिर कहते हैं — यही परिभाषा है। मन जैसा था उससे कही ज़्यादा साफ़ होकर के लौटा। डुबकी मारकर के आये हैं तीर्थ में, मन साफ़ हो गया। तन की नहीं, मन की डुबकी। स्पष्टता आ गई, व्यर्थ की बहुत सारी बातें चक्कर काट रही थीं, हट गईं, शांत अनुभव कर रहे। अगर ऐसे हो जाते हो तो जहाँ गए हो वह जगह मंदिर है, नहीं तो वह जगह मंदिर नहीं है।
पहले लक्ष्य तो बनाओ कि मुझे शांत होना है इसलिए मैं जा रही हूँ मंदिर, यह लक्ष्य बनाकर जाओ। फिर पता चल जाएगा कि वह मंदिर आपके लिए ठीक है या नहीं है। जाने से पहले अपनेआप से कहना, 'इसलिए जाना है, क्योंकि बेहतर होकर आना है।' फिर वापस आते वक़्त पूछना, 'बेहतर होकर आ रही हूँ या बदतर होकर? स्वस्थ होकर आ रही हूँ या संक्रमित होकर?' उत्तर मिल जाएगा। और सावधान कर रहा हूँ, एक मंदिर से निराश हो जाएँ तो आशय यह नहीं है कि मंदिर जाना ही छोड़ दें। पाँच मंदिरों से भी निराश हो जाएँ तो मंदिर जाना ही मत छोड़ दीजिएगा। बहुत निराशा मिल जाए तो अपना मंदिर स्वयं बना लीजिए, अपने ही घर में स्थापित कर लीजिए। पर मंदिर से रिश्ता तोड़ नहीं लेना है। अभी स्पष्ट हो रहा है?
आपसे कह दिया जाए कि हर मंगलवार अस्पताल जाना है और बाहर उसके दवाइयों की दुकान है, वहाँ से कुछ दवाइयाँ हैं वो खरीदनी हैं। और भीतर जाकर के कंपाउंडर को दे देनी है कि वहाँ आगे जाकर चढ़ा देना। और उन दवाइयों में से वह एक छोटी-सी दो-चार गोलियाँ आपको भी वापस दे देगा कि अब यह ले जाओ घर वापस। और आप वापस आ जाएँ। कैसा रहेगा यह? हर मंगलवार को अस्पताल का ऐसा अगर एक नियम बना दिया जाए तो कैसा रहेगा? हर मंगलवार जाओ, कुछ दवाइयाँ खरीदो, भीतर चढ़ावा दो और वापस आ जाओ। कैसा रहेगा? कैसा रहेगा?
तो मंदिर में ऐसा क्यों करते हो? क्योंकि तन का बहुत ख़्याल है। तन को लेकर तुरंत सवाल खड़ा कर देंगे हम — 'लेकिन बीमारी तो हटी नहीं न, बीमारी तो हटी ही नहीं न? तो अस्पताल जाकर क्या हुआ? दवाई खरीदकर क्या हुआ? बीमारी तो नहीं हटी न?' तन दिख जाता है, तो वहाँ तुरंत आप फिर विरोध कर देंगे, 'नहीं, अस्पताल नहीं जाएँगे। हम अस्पताल गए थे, वहाँ पर दवाइयाँ भी खरीदी लेकिन कुछ लाभ तो हुआ नहीं।'
मंदिर में यही सवाल क्यों नहीं पूछते कि 'गए भी, चढ़ावा भी चढ़ाया, लाभ कुछ हुआ कि नहीं हुआ?' यह सवाल वहाँ क्यों नहीं पूछते? विद्यालयों में भी पूछ लेते हो कि 'अब चार महीने हो गए पढ़ते हुए, बता नुन्नू ए फ़ॉर?' अब वह बोल दे ― बफेलो। (श्रोतागण हँसते हैं) तुरंत कहोगे, 'यह तो फीस बर्बाद जा रही है। इसके लिए तो सही में भैंस बराबर है, बफेलो बराबर है इसके लिए काला अक्षर।'
मंदिर में यह सवाल क्यों नहीं पूछते? 'मिला क्या?' तब मंदिर छोड़ दो, तब तो बहुत लंबा-चौड़ा देशाटन कर आते हो। बोल रहे हैं, 'यह इतने ज्योतिर्लिंग हैं, घूमकर आएँगे।' यहाँ जा रहे हैं, वहाँ जा रहे हैं। दूर जाने में थोड़ा ज़्यादा और अच्छा गर्व की अनुभूति होती है, बहुत दूर के, और ऊँचे पहाड़ पर चढ़कर आए हैं बिलकुल।
कैलाश मानसरोवर गए थे, मिला क्या? यह प्रश्न सदा ज्वलंत रहना चाहिए कि 'मैं आया हूँ अपने मन की सफ़ाई के लिए, मन साफ़ हो रहा है क्या?' अगर यह प्रश्न है ही नहीं, तो तुम फिर खोजी नहीं हो, भक्त नहीं हो; पर्यटक हो।
पर्यटन करने के लिए सब जगह ही बढ़िया हैं। बद्रीनाथ जा रहे हैं, केदार जा रहे हैं। वहाँ जाकर के देखो न लोग केदार जाकर के कैसी-कैसी फोटो भेजते हैं। बहुत स्पष्ट है कि वह वहाँ न ज्ञान में गए हैं न श्रद्धा में गए हैं, वह वहाँ पर्यटन करने गए हैं। पहले इरादा तो साफ़ रखो कि मैं वहाँ जा रहा हूँ मन साफ़ करने और फिर पूछते रहो, जाँचते रहो ― मन हुआ साफ़? हम कुछ बेहतर हुए? नहीं हुए बेहतर तो कुछ गड़बड़ है भाई। और एक अच्छी बात यह हो गई कि जब यह प्रश्न जीवित रहेगा कि 'मुझे कुछ मिला?' तो फिर मिलने की संभावना बढ़ भी जाएगी। फिर संभावना बढ़ जाएगी कि आपकी केदार यात्रा सफल हो जाए।
प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। अगर हमारा मन यहाँ आकर साफ़ हो रहा है, तो क्या यह सभागार मंदिर हुआ या वो प्रतीकों वाले मंदिर जाना ज़रूरी है?
आचार्य: यह है मंदिर।
प्र२: तो वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं अगर वहाँ हमारा मन साफ़ नहीं होता हो तो?
आचार्य: यहाँ रोज़ नहीं आ सकते न, वहाँ भी जाया करो। वहाँ जाने में कोई समस्या है?
प्र२: नहीं।
आचार्य: तो वहाँ भी जाया करो। यह भी तो हो सकता है कि यहाँ आने के बाद जो प्रतीकों और मूर्तियों वाला मंदिर है, उसको बेहतर समझ पाओ। फिर वह मंदिर जिस उद्देश्य के लिए बनाया गया था, वह उद्देश्य सार्थक हो पाए। यह भी तो हो सकता है कि वह जो प्रतीकों वाला मंदिर है, वह आपके काम इसीलिए नहीं आ रहा क्योंकि आप उन प्रतीकों को समझते ही नहीं हैं। यहाँ आकर के आप उनको समझने लग गए हैं, अब आप जब वहाँ वापस जाएँगे तो उसी मंदिर को दूसरी और निर्मल दृष्टि से देख पाएँगे। अब वह सब प्रतीक आपसे कुछ कहेंगे, चाहे वह जो घंटा है जो लटक रहा है, चाहे जो प्रवेश द्वार है, चाहे जो गर्भगृह की संरचना है, चाहे जो उसका पूरा शिल्प है जो दीवारों पर जो खुदाई की गई है, चाहे जो भित्ति चित्र हैं, यह सब भी, कुछ भी हो वहाँ। वह जो कुछ भी है वहाँ, वो किसी उद्देश्य से है। वो आपसे क्या कहना चाहता है, समझो तो।
प्र२: धन्यवाद।