मन प्रशिक्षण के अनुरूप ही विषय चुनेगा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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मन प्रशिक्षण के अनुरूप ही विषय चुनेगा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: मेरी कमज़ोरी यह है कि मैं एकाग्र नहीं हो पाती हूँ। तो एकाग्रता को मैं अपनी ताकत कैसे बनाऊँ?

आचार्य प्रशांत: तो सीधे-सीधे सवाल ये है कि एकाग्रता बढ़ाएँ कैसे? कितने लोग एकाग्र नहीं हो पाते हो?

(लगभग सभी श्रोता हाथ उठाते हैं)

(मुस्कुराते हुए प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए) यह तुम्हारी कमज़ोरी कहाँ है, यह तो सार्वजनिक कमज़ोरी है। यह तो मुझे लग रहा है कि कोई विश्वव्यापी समस्या है। कोई है जो कहता हो कि “नहीं, एकाग्र जहाँ चाहते हैं वहाँ हो जाते हैं”? ऐसा भी कोई है?

(दो-चार श्रोतागण कहते हैं कि हो जाता है)

दो-चार हैं जो दावा करते हैं कि जहाँ चाहते हैं, मन को वहीं ले जाते हैं।

एक तो ये कि बात तुम्हारी नहीं है, यहाँ जितने बैठे हैं बात सभी की है। और दूसरी ये कि आज की नहीं है, सदा की रही है। सदा रहेगी भी शायद। बात है क्या? जिसको हम एकाग्रता कहते हैं, वो है क्या? तुम कब कहते हो कि मन एकाग्र है?

प्र: जब किसी विषय में आप सोचना चाहते हैं उसी बारे में सोच पाएँ।

आचार्य: तो तुमने कोई चीज़ पकड़ी है, और तुम उस चीज़ के बारे में सोचना चाहते हो। उसी को दूसरे शब्दों में कहते हैं कि तुमने एक विषय चुना है। और तुम चाहते हो कि विचार का वही विषय रहा आए, वो किसी और विषय पर न जाए। यही चाहते हो न?

देखो, दो तीन बातें हैं जो तुम्हें समझनी पड़ेंगी। फिर तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा कि मन एकाग्र क्यों नहीं हो पाता है। पहली तो है कि मन कौन सा विषय चुनता है। मन हमेशा किसी-न-किसी विषय को तो पकड़ कर रखता ही है, यही फितरत है उसकी। कोई-न-कोई विषय उसको चाहिए। कुछ-न-कुछ ख्याल चलता रहना चाहिए और हर ख्याल का एक विषय होता है, ठीक है न? हम सब के मन में तमाम ख्याल चलते ही रहते हैं। ये बताओ कि ये कैसे तय होता है कि कौन किस बारे में सोचेगा?

मन में विचार तो चलते ही रहते हैं। दुनिया में क्या कोई ऐसा है जिसका मन विचारों से खाली रहता हो? शायद ही कोई। मन विचारों से भरा ही रहता है और हर विचार का क्या होता है? एक विषय होता है। जब भी तुम कहोगे कि “सोच रहा हूँ”, तब तुम्हें ये भी कहना पड़ेगा कि किस बारे में? तुम जिस बारे में सोच रहे हो, उसको क्या बोलेंगे?

श्रोतागण * : विषय।

आचार्य: अब मुझे ये बताओ कौन किस बारे में सोचता है? दुनिया में इतने लोग हैं, सब सोच रहे हैं। कोई कुछ सोच रहा है, कोई कुछ सोच रहा है। ये तय कैसे होता है कि कोई क्या सोच रहा है?

प्र१: सर, जिसके साथ जो घटनाएँ घटी हैं उसके बारे में।

आचार्य: तुम्हारे साथ बहुत सारी घटनाएँ घटी हैं अब तक जीवन में। काफी लंबा जी चुकी हो। क्या जितनी भी घटनाएँ घटी हैं तुम्हारे दशकों के जीवन में, सबके बारे में सोचती रहती हो? सब याद भी हैं? जितनी घटनाएँ तुम्हारे साथ घटी हैं, छोटी-बड़ी, उनका कितना प्रतिशत याद है? कोई दावा करेगा कि पचास प्रतिशत याद है? कोई दावा करेगा कि आज तक जितनी घटनाएँ घटी हैं, उनका पाँच-प्रतिशत भी याद है?

कोई दावा करेगा कि आज सुबह से लेकर अभी तक जितनी घटनाएँ घटी हैं, जितनी माने जितनी, प्रतिपल की घटना, उसका पचास-प्रतिशत भी याद है? मुश्किल हो जाता है, है न? तुम इस हॉल में आए हो, तभी से लेकर अब तक जितनी घटनाएँ घटी हैं, क्या याद हैं सारी? जितनी माने जितनी। मैं उनकी ही बात नहीं कर रहा जितनी तुम्हें याद हैं। मैं सारी घटनाओं की बात कर रहा हूँ।

प्र: नहीं सर।

आचार्य: नहीं न। तो तुमने ये कहा कि हर आदमी वही सोचता है, जो उसका अनुभव हो चुका है। पर क्या तुम अपने सारे अनुभवों के बारे में सोचते हो? नहीं। तुम अपने कौन से अनुभवों को याद रखते हो? ध्यान से देखो।

प्र: सर, जिसके बारे में हमें सबसे ज़्यादा अच्छा लगेगा या बुरा लगेगा, हम उसके बारे में ज़्यादा सोचेंगे।

आचार्य: तुमने तो पूरी बात तुरंत पकड़ ली। तुमने कहा या तो बहुत अच्छा लगे, या बहुत उसने चिंता दी हो, तनाव दिया हो, यानि कि बड़ा दहशत वाला हो। या तो बड़ा प्रिय, या तो बड़ा अप्रिय, ये दोनों बातें ही याद रहती हैं।

हम जो पूरी धार पकड़ रहे हैं इसको छोड़ना नहीं। हमने यहाँ से शुरू किया था कि एकाग्रता क्या है। एकाग्रता से हम यहाँ पर आए कि एकाग्रता का अर्थ होता है कि मन किसी एक विषय पर जा कर बैठा रहे। फिर हमने कहा कि मन सोचता तो रहता ही है, और सोचने के विषय हमेशा अलग-अलग हैं। तो हमने जानना चाहा कि मन क्या सोचता रहता है। तो किसी ने कहा कि मन अपने अनुभवों के बारे में सोचता रहता है। फिर हमने जानना चाहा कि कौन से अनुभवों के बारे में। तो बात खुल रही है कि मन अपने सबसे पसंदीदा और अपने सबसे अप्रिय अनुभवों के बारे में ही सोचता रहता है। ये जो पूरी लाइन है इसको छोड़ना नहीं। एक कदम और आगे बढ़ाते हैं। क्या सब लोगों को एक ही बात प्रिय होती है?

श्रोतागण: नहीं, सर।

आचार्य: क्या सब लोगों को एक ही बात अप्रिय होती है?

श्रोतागण: नहीं, सर।

आचार्य: किसको क्या पसंद है और किसको क्या नापसंद है, ये कैसे तय होता है?

चीन और जापान में तनाव चल रहा है। चीन का पलड़ा भारी है। ये बात किसको प्रिय लगेगी और किसको अप्रिय?

श्रोतागण: चीन को प्रिय लगेगी और जापान को अप्रिय।

आचार्य: चीन तो कुछ है नहीं न, चीनी होते हैं। तो अगर तुम चीनी हो, तो तुम्हें क्या प्रिय लगेगा? चीन का जीतना, और अगर तुम जापानी हो तो तुम्हें क्या प्रिय लगेगा?

श्रोतागण: जापान का जीतना।

आचार्य: तो खबर आई कि चीन हावी हो रहा है। तुरंत कोई खुश हो गया और तुरंत कोई उदास हो गया। एक ने सोचा, ‘वाह’ और एक के दिल से निकली, ‘आह’। ये बात, ये नज़रिए, ये सोच, कहाँ से आई दोनों में? चीनी में भी, जापानी में भी, ये कहाँ से आई?

प्र: खबर।

आचार्य: खबर तो दोनों के लिए एक थी। एक समान खबर आई। इधर बैठे हैं चीनी, और इधर बैठे हैं जापानी। क्या खबर आई है?

(श्रोतागण खबर दोहराते हैं)

चीनी ने कुछ और सोचा और जापानी ने कुछ और सोचा। तो ये दोनों की सोच कहाँ से आ रही है?

अच्छा यहाँ चीनी बच्चे बैठे हुए हैं और कक्षा के दूसरी तरफ जापानी बच्चे बैठे हुए हैं। मान लो चौदह-चौदह साल के हैं, तो जैसे ही बताया जाएगा कि चीन का पलड़ा भारी है, चीनी बच्चे क्या कहेंगे?

श्रोतागण: वाह!

आचार्य: और जापानी बच्चे?

श्रोतागण: आह!

आचार्य: इन बच्चों की उम्र कम करते जाते हैं। अब ये चौदह साल के नहीं हैं, अब ये छह साल के हैं। ये छह साल के चीनी बच्चे, ये छह साल के जापानी बच्चे। खबर आती है। चीनी बच्चे क्या कहेंगे?

श्रोतागण: वाह!

आचार्य: जापानी बच्चे क्या कहेंगे?

श्रोतागण: आह!

आचार्य: अब बच्चों की उम्र और कम हो जाती है। अब बच्चे बिलकुल मासूम हो गए हैं। दो साल के, ढाई साल के। उन्हें खबर दी गई चीन जीत रहा है।

श्रोतागण: उन्हें कोई मतलब नहीं होगा।

आचार्य: कोई मतलब नहीं। सोच नहीं आई। अब तुम मुझे बताओ कि तुम्हारे दिमाग को जो प्रिय लगता है और अप्रिय लगता है, वो कहाँ से आता है? वो थिंकिंग (सोच) तुम में कहाँ से आई?

श्रोतागण: आयु से।

आचार्य: आयु ने तुम्हें क्या दिया? तीन साल के बच्चे और छह साल के बच्चे में सोच का अंतर कहाँ से आ गया?

श्रोतागण: एक्सपीरियंस (अनुभव)।

आचार्य: एक्सपीरियंस का अर्थ क्या है?

श्रोतागण: अनुभव।

आचार्य: अनुभव का आधार क्या है?

(श्रोता उत्तर देने में असमर्थ, आचार्य जी उनकी मदद करते हुए आगे बढ़ते हैं )

श्रोतागण: सराउंडिंग (आस-पास का माहौल)।

आचार्य: *सराउंडिंग*। जो कुछ भी आसपास है। क्या मैं कहूँ माहौल?

श्रोतागण: जी, सर।

आचार्य: क्या मैं कहूँ वातावरण?

श्रोतागण: जी, सर।

आचार्य: क्या मैं कहूँ दूसरे, स्थितियाँ, लोग?

श्रोतागण: जी सर।

आचार्य: तो सोच कहाँ से आई? दूसरों ने दी। यहाँ जो चीनी बच्चे थे, उन्हें दूसरों ने क्या सिखाया?

श्रोतागण: चीन से प्यार करो।

आचार्य: जो जापानी बच्चे थे, उन्हें दूसरों ने क्या सिखाया?

श्रोतागण: जापान से प्यार करो।

आचार्य: तो तुम्हारी सोच क्या तुम्हारी होती है?

श्रोतागण: नहीं होती, सर।

आचार्य: तुम्हारे नज़रिये क्या तुम्हारे होते हैं?

श्रोतागण: नहीं, सर।

आचार्य: अब देखो बात कहाँ तक पहुँची। हमने पूछा था, "मन एकाग्र क्यों नहीं हो पाता है?" हमने कहा था कि मन किसी एक ख़ास विषय पर जा कर बैठे। फिर हमने कहा था मन किसी एक विषय पर जा कर बैठा ही रहता है, हम सोचते ही रहते हैं। तो फिर हमने जानना चाहा कि मन कौन से विषय चुनता है। तो वहाँ से अनुष्का ने बताया कि मन दो ही विषय चुनता है - जो उसे बहुत पसंद हों या जो उसे बहुत नापसंद हों। तो फिर हमने जानना चाहा कि ये पसंद, नापसंद, ये नज़रिये, ये हमे मिलते कहाँ से हैं? तो अब हमें पता चलता है कि वो अब हमें हमारे माहौल से मिलते हैं। तो अंततः मन कहाँ जा कर बैठता है? मन किस वस्तु पर एकाग्र हो जाता है। ये तुम्हें कहाँ से मिला?

श्रोतागण: माहौल से मिला।

आचार्य: माहौल से मिला। इसको कहते हैं मन का संस्कारित होना। इसी को मन की कंडीशनिंग कहते हैं। तो अब हम सवाल थोड़ा सा बदलेंगे। मन एकाग्र तो होता ही है। एकाग्रता कोई समस्या नहीं है। लगता हमें यही है कि एकाग्रता समस्या है। एकाग्रता समस्या नहीं है। मन एकाग्र तो होता ही है। अब प्रश्न ये है कि मन इस प्रकार के विषयों पर क्यों एकाग्र होता है? तुमने एक विषय कहा उस पर नहीं एकाग्र हो रहा वो। वो कहीं और जा करके बैठना चाहता है। और हमने देखा है कि मन वहाँ जा करके बैठता है जैसा उसे सिखाया गया है। किसके द्वारा?

श्रोतागण: दूसरों के द्वारा।

आचार्य: मन उड़-उड़ कर वहीं बैठेगा जहाँ बैठने की उसको लगातार माहौल द्वारा शिक्षा दी गई है। एकाग्रता की कोई समस्या है ही नहीं।

कोई मूवी देखने जाते हो, फ़िल्म देखने, देखा है कितने एकाग्रचित हो कर देखते हो? क्या तब तुम ये शिकायत करने आते हो कि, "सर कंसन्ट्रेट नहीं कर पा रहे हैं"? क्रिकेट मैच देखते हो। देखा है कितने एकाग्र हो करके देखते हो? क्या तब तुम ये शिकायत करते हो कि सर एकाग्रता नहीं बनती? तो तुम्हारे पास एकाग्रता की कोई कमी नहीं है। तुम सब एकाग्र होना जानते हो। प्रश्न ये है कि हम किन विषयों पर एकाग्र होते हैं। हमने मन को कैसा संस्कारित किया है। हमने किन जगहों पर मन को रुचि लेना सिखा दिया है।

मन के पास अपने कोई इंटरेस्ट नहीं होते, कोई रुचियाँ नहीं होतीं। कभी ये दावा मत करना कि मेरी रुचि इस काम में है। सारी रुचियाँ मन को सिखाई जाती हैं। एक विद्वान ने एक बच्चे के मन के लिए नाम दिया है, ‘*टेबुला रासा*‘, खाली स्लेट, खाली स्थान। उसमें कुछ लिखा नहीं होता। ना रुचि लिखी होती है, ना अरुचि लिखी होती है।

तुम उसमें रुचियाँ-अरुचियाँ खुद भरते हो। तुम्हारे जीवन के प्रारंभ में रुचियाँ-अरुचियाँ भरी जाती हैं, माहौल द्वारा, जिसमें तुम्हारा कोई बस नहीं है। और एक उम्र के बाद वो रुचियाँ-अरुचियाँ तुम्हारे ही द्वारा भरी जाती हैं। तुम जैसी ट्रेनिंग दे रहे हो मन को, मन उसी के अनुसार एकाग्रता का विषय चुन लेता है। तुमने जो धारणाएँ बना रखी हैं, मन उसी के अनुसार कहीं पर जाकर बार-बार बैठने की शिक्षा पा लेता है।

उदाहरण देता हूँ;

अगर तुमने ये धारणा बना रखी है कि जो भी किया जाए, वो अंततः किसी परिणाम के लिए किया जाए। अगर जीवन के बारे में तुमने ये धारणा पाल ली है, किसी कारणवश, किसी प्रभाववश, कि जो भी किया जाए वो किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाए, तो तुम्हारा मन लगातार-लगातार एकाग्र रहेगा उद्देश्य पर। नतीजा क्या होगा? कि तुम जो कर रहे हो मन उसमें कभी एकाग्र नहीं हो पाएगा, क्योंकि उद्देश्य दूर कहीं भविष्य में बैठा हुआ है।

और यदि तुम्हारे मन में ये बात भर दी गई है कि जीवन इसीलिए है ताकि कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके, तो तुम जो कुछ भी करोगे छोटा काम, बड़ा काम, तुम्हारा मन कभी उसमें लग ही नहीं सकता। क्यों? क्योंकि तुम्हें ये बता दिया गया है कि काम छोटा है और उद्देश्य बड़ा है। तुम्हें ये बता दिया गया है कि राह महत्वहीन है, मंज़िल महत्वपूर्ण है।

अब ये तो बड़ी मज़ेदार बात हो गई क्योंकि राह महत्वहीन है तो तुम चलोगे कैसे? किसी पढ़ने वाले को यदि बता दिया जाए कि पढ़ाई इसीलिए है ताकि परिणाम अच्छे आ सकें, तो फिर पक्का ही है कि वो पढ़ नहीं पाएगा। क्योंकि उसकी नज़र हमेशा कहाँ रहेगी?

श्रोतागण: परिणाम पर।

आचार्य: परिणाम पर। और अगर उसे ये भी बता दिया जाए कि बिन पढ़े भी परिणाम हासिल हो सकता है, तब तो वो बिलकुल ही नहीं पढ़ेगा क्योंकि उसके मन को संस्कार ही ये दे दिया गया है कि महत्वपूर्ण क्या है?

श्रोतागण: परिणाम।

आचार्य: परिणाम मिल रहा है, बिना पढ़े मिलता है तो अच्छी बात है। किसी को यदि ये संस्कार दे दिया जाए कि पैसा बहुत महत्वपूर्ण है, तो फिर वो कभी भी प्रेमपूर्ण हो कर किसी काम को नहीं कर पाएगा। क्योंकि महत्वपूर्ण क्या है काम या पैसा?

श्रोतागण: पैसा।

आचार्य: उसको तो ये शिक्षा दे दी गई है कि पैसा बहुत महत्वपूर्ण है। उसका काम में मन कभी लगेगा ही नहीं, क्योंकि काम अब उसके लिए बस एक माध्यम है, सिर्फ एक ज़रिया है, क्या करने का?

श्रोतागण: पैसा कमाने का।

आचार्य: और जब भी, कुछ भी जब तुम्हारे लिए एक ज़रिया बन जाता है तो तुम उसकी उपेक्षा करना शुरू कर देते हो। वो तुम्हारे लिए सिर्फ एक उपयोग की चीज़ हो जाता है। तुम उपयोग करोगे और उसका तिरस्कार कर दोगे। तुम उसमें डूब नहीं सकते, तुम उससे प्रेम नहीं कर सकते। उसका उपयोग बस कर सकते हो। और उपयोग में और प्रेम में अंतर होता है न, कि नहीं होता है?

तो एकाग्रता प्रश्न है ही नहीं। प्रश्न ये है कि हमने मन को क्या सिखाया है? कि जीवन में क्या महत्वपूर्ण है? तुमने मन को जो भी सिखाया होगा कि ये महत्वपूर्ण है, मन वहीं पर जा करके बैठ जाता है। फिर से बोल रहा हूँ, एकाग्रता की कोई कमी नहीं है, एकाग्रता कोई मुद्दा ही नहीं है। एकाग्र तो हम सब हो ही जाते हैं। सवाल ये है कि कहाँ पर एकाग्र हो जाते हैं? कहाँ पर एकाग्र होगा मन? मन वहीं एकाग्र होगा, जो मन को बता दिया गया है कि महत्वपूर्ण है।

मैं तुमसे पूछ रहा हूँ अब कि तुमने जीवन में किन बातों को महत्वपूर्ण मान रखा है? और पक्का बता रहा हूँ कि जो कुछ भी तुमने महत्वपूर्ण मान रखा है, वहाँ ही जा कर तुम्हारा मन बार-बार अटक जाता है। उसी डाल पर तुम्हारा पंछी जा कर बार-बार बैठ जाता है।

तो गौर से देखो अपने मन को और उससे पूछो कि “क्या है जो तूने महत्वपूर्ण मान रखा है? किन मूल्यों को पकड़ करके बैठा हुआ है तू? तेरी धारणाएँ क्या हैं?” जो तुम्हारी धारणा होगी, वहीं तुम एकाग्रचित हो जाओगे।

तुमसे एक प्रश्न पूछ रहा हूँ। तुम में से कितने लोगों ने वाकई में पूरी ईमानदारी से माना है कि जीवन में और सब चीज़ों से ज़्यादा ज्ञान महत्वपूर्ण है? जिस किसी ने ये पूरी गहराई से माना होगा, सिर्फ दावा करने से नहीं होगा, बात ईमानदारी की है। जिस किसी ने पूरी गहराई से ये माना होगा कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है, उसको तो एकाग्रचित होते देर ही नहीं लगेगी। वो कहेगा, “ज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ज्ञान खाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं पढ़ रहा हूँ तो मैं खाने नहीं जा सकता। ज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ज्ञान मेरे रिश्ते-नातों, दुनियादारी से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं पढ़ रहा हूँ तो मैं मोबाइल फ़ोन पर आती हुई कॉल का जवाब नहीं दे सकता।”

पर क्या तुम्हारे साथ ऐसा होता है कि यदि तुम पढ़ रहे हो, तो कुछ भी हो जाए तुम अपने आसन से हिलते नहीं? इसका अर्थ समझो। तुम पढ़ रहे हो और दरवाज़े पर तुम्हारा दोस्त दस्तक देता है। तुम पढ़ाई छोड़ कर दोस्त के साथ चल देते हो इसका मतलब तुम्हारे मन ने ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या माना?

श्रोतागण: दोस्त को।

आचार्य: अब जब तुमने अपनेआप को ये संस्कार दे रखा है कि दोस्ती, ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है, तो निश्चित सी बात है कि मन किताब से ज़्यादा दोस्त पर एकाग्र होगा। हो गई न गड़बड़। अब क्या करें? ये तो मन में हमने धारणाएँ ही उलटी-पुल्टी भर रखी हैं। तुमने यदि मन को बता रखा है कि जीवन में भय बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ है। अगर तुम्हारी दृष्टि ये है कि दुनिया भय से चलती है, तो फिर तुम पढ़ोगे कब?

श्रोतागण: जब भय होगा।

आचार्य: और यदि भय नहीं है तो तुम नहीं पढ़ोगे। तो फिर तुम्हारी एकाग्रता भय पर है। तुम भय का इंतज़ार करोगे। तुम फिर इंतज़ार करोगे कि भय कब आए और मैं पढ़ूँ। और फिर मात्र भय ही है जो तुमसे कुछ करवा सकता है। उसके बिना तुम कुछ करोगे नहीं।

अब अभी भय है, नहीं तो तुम कैसे पढ़ोगे? फिर तुम कहते हो कि एकाग्र नहीं हो पा रहे। कैसे हो पाओगे? तुमने महत्वपूर्ण किसको माना है? अभी भय ही नहीं है, तो एकाग्रता कहाँ से लाई जाए? कोई मिल जाए डराने वाला, दो-चार डंडे लगाए, तुरंत एकाग्रता आ जाएगी। होता है कि नहीं होता है?

यदि ऐसा होता है तो समझो कि तुम्हारे मन में उलटी-पुल्टी धारणाएँ ठूस दी गई हैं। इस दुनिया ने, समाज ने, परिवार ने तुम्हें कुछ ऐसा सिखा दिया है जो झूठा है। तुम्हें जीवन को देखने की एक नकली दृष्टि दे दी गई है। तुम जिन बातों को मूल्यवान समझ रहे हो वो मूल्यवान हैं ही नहीं। तुम्हारा मन उड़-उड़ कर जिस डाल पर बैठ रहा है, उस डाल पर ना कोई फल है, ना कोई पत्ती। तुम्हारे मन को शिक्षा दे दी गई है सूनी, बंजर डालों पर बार-बार जाकर बैठ जाने की। तो मन एकाग्र तो हो रहा है, पर ऐसी जगहों पर जहाँ से तुम्हें कुछ मिल सकता नहीं। मन जा-जा करके ऐसी डालों पर बैठ रहा है जिनमें तुम्हारे लिए कोई रस है ही नहीं।

तुम्हारे मन को भय से चलने कि शिक्षा दे दी गई है, लालच से चलने की शिक्षा दे दी गई है। अब अगर लालच महत्वपूर्ण है तो तुम कुछ भी कब करोगे? जब उसके पीछे कोई लालच खड़ा हो। और यदि लालच नहीं है तो कर ही नहीं पाओगे। यदि लालच नहीं है, तो होगा ही नहीं तुमसे।

लेकिन घबराने की ज़रुरत नहीं है। मन को जैसे संस्कारों से भरा गया उसी तरीके से मन को धारणाओं से मुक्त भी किया जा सकता है। तुम सब होशियार हो, तुम सब के पास क्षमता है सच को समझ पाने की। तुम ध्यान से देखो कि चल क्या रहा है। जैसे-जैसे तुम अपने बेकार के मूल्यों से मुक्त होते जाओगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि जो कुछ महत्वपूर्ण है, वास्तव में महत्वपूर्ण है, मन का उसकी ओर एकाग्र होना आसान हो गया है।

कबीर साहब का दोहा है– पहले तो मन कागा था, करता जीवन घात। अब मनवा हंसा भया, मोती चुन चुन खात।

मन हमारा कागा जैसा, कौवे जैसा कर दिया है। वो सिर्फ विष्ठा, मल ही खाता है। वो जहाँ कहीं दुर्गन्ध, सड़न देखता है, तुरंत उधर को चला जाता है। अच्छा दो लोग बैठ कर के व्यर्थ चर्चा कर रहे हैं, मन आकर्षित हो गया। टी.वी. में सड़ा हुआ कार्यक्रम आ रहा है, मन तुरंत उधर को पहुँच गया। किसी की निंदा चल रही है, तुरंत हम भी उसमें जुड़ गए। “पहले तो मन कागा था, करता जीवन घात।” और जब मन ऐसा होता है जो सिर्फ मल की ओर आकर्षित होता है तो ये जीवनघात है। तुम अपने जीवन को ख़त्म किए दे रहे हो। “अब मनवा हंसा भया।” मन का शोधन किया जा सकता है। मन हंस के जैसा हो सकता है। “अब मनवा हंसा भया मोती चुन चुन खात।” ऐसा भी हो सकता है। कैसे होगा?

सवाल पर फिर से जाओ। मैं कह रहा हूँ कि हमारे मन ने एक आदत पकड़ ली है। वो आदत क्या है? गंदगी की ओर ही जाने की। मन को ऐसा कैसे कर दिया जाए कि हमें उसे धक्का ही ना देना पड़े, वो स्वतः ही मोती की ओर जाए? उसके सामने तुम कितनी भी विष्ठा रख दो, भले ही वो भूखा मर रहा हो, पर उसकी ओर ना जाए?

प्र२: पहले भी हम समझाते थे कि ये चीज़ अच्छी है। अब हमें समझाना पड़ेगा कि ये चीज़ अच्छी नहीं है, ये अच्छी है।

आचार्य: समझाना पड़ेगा। ठीक है बढ़िया तरीका है, समझाना पड़ेगा। कैसे समझाओगे?

प्र२: सर, एक तरफ पढ़ाई है और एक तरफ मूवी * * मूवी का शोर आ रहा है कि गाना अच्छा है, मूवी अच्छी है लेकिन मन को समझाना पड़ेगा कि पढ़ाई ज़्यादा ज़रूरी है, पढ़ाई ज़्यादा अच्छी है।

आचार्य: मन बड़ा चालाक है। वो खूब तर्क करेगा। वो पूछेगा, "कैसे?" उसे समझाओ, तुम्हें समझाना पड़ेगा। बताओ कैसे? मन कहेगा कि “तुम पढ़ाई क्यों कर रहे हो? सुख के लिए। पढ़ोगे तो पैसा कमाओगे, फिर सुख मनाओगे।” मन कहेगा कि “अभी बगल के कमरे में मनोरंजन है, सुख है, तो चलो सुख पा लेते हैं।” अब मन ने तुम्हें तर्क दे दिया। अब कैसे समझाओगे मन को? मन जीता, तुम हारे। बड़ी दिक्कत हो गई। बोलो कैसे समझाओगे? मन ने तर्क दे दिया है। जो मैंने अभी कहा वही तर्क दे दिया है मन ने। क्या उत्तर है इस तर्क का तुम्हारे पास?

प्र: मूवी तो हम बाद में भी देख सकते हैं।

आचार्य: जब अंततः सुख ही पाना है तो अभी क्यों न सुख ले लूँ? बाद में मूवीज़ की कोई कमी आ जाने वाली है?

तो दुःख कहाँ आ जा रहा है बाद में? और फिर जब सुख के लिए है सब कुछ, और अगर मैं कह रहा हूँ कि मुझे अंततः सुख मिलेगा, तो अभी क्या मिल रहा है मुझे? दुःख।

तुम मन को जो प्रक्रिया बता रहे हो कि अभी ये करो, अभी वो करो और आखिर में सुख मिलेगा, तो मन तुम्हें तर्क देगा कि “आखिर में सुख मिलेगा मतलब अभी क्या मिल रहा है? दुःख। तो अभी जिसमें सुख मिल रहा है वो सुख क्यों न ले लूँ? चलो घूमने चलते हैं!” मन कहेगा, “बाद की देखी किसने है, क्या पता जियेंगे भी कि नहीं। क्या पता बाद में क्या होगा! पर मुझे ये पता है कि अभी मुझे सुख उपलब्ध है। मैं अभी क्यों न उसमें नहा लूँ?” और मन यही कहता है। मन के पास बड़े-बड़े तर्क हैं। मन कहता ही यही है अब तुम क्या जवाब दोगे?

प्र२: सर, सुख और दुःख की परिभाषा बदलनी होगी।

आचार्य: (शाबाशी देते हुए) बड़ा बढ़िया लग रहा है सुन कर। तो सुख और दुःख को पुनः परिभाषित करना होगा। बहुत बढ़िया।

शुरू हमने किया था एकाग्रता से, और बात चलते-चलते कहाँ आ गई? कि जब तक हमें यही नहीं पता कि सुख कहाँ और दुःख कहाँ, तब तक हमारी एकाग्रता गड़बड़ ही रहेगी। मन गलत डाल पर ही बैठेगा। एकाग्र तो होगा, पर एकाग्रता का विषय गड़बड़ रहेगा। तो चलो अब सुख और दुःख की अब नई परिभाषा खोजते हैं। बताओ क्या नई परिभाषा खोजनी है सुख की और दुःख की?

चलो एक नई परिभाषा देखतें हैं सुख की। पहली बात- सुख समय पर या स्थिति पर आश्रित न हो, तभी हम कह सकते हैं कि वो सुख है। जो सुख भविष्य का है वो सुख है ही नहीं। वो मात्र?

प्र: कल्पना है।

आचार्य: बहुत बढ़िया। कल्पना है। कल्पना मिथ्या होती है। तो सुख कौन सा हुआ? जो एकमात्र…?

प्र: अभी है।

आचार्य: अभी है, वर्तमान में। दूसरी बात, सुख समय पर तो आश्रित है ही नहीं, सुख परिस्थिति पर, किसी व्यक्ति पर भी आश्रित नहीं हो सकता। सुख किसी और पर निर्भर हो नहीं सकता तो इसका मतलब एकमात्र सुख कौन सा हुआ? जो पूरे तरीके से मेरा है, जो आंतरिक है; जो किसी और के मिलने से नहीं मिल सकता कि, "मैं कुछ हासिल कर लूँ, कोई पद, कोई व्यक्ति, कोई मुकाम, तो मुझे मिलेगा।" दोनों बातों को मिलाओ। पहली बात से ये निकल कर आया कि वास्तविक सुख अभी है, और दूसरी बात कि वास्तविक सुख किसी दूसरे पर निर्भर नहीं है, आंतरिक है, मेरा है।

यदि सुख की हम ये नई परिभाषा रख सकें, तो सुख चाहने वाले मन को अब क्या करना पड़ेगा? मन सुख ढूँढता है। मन को सुख जहाँ दिखता है, वहीं जा कर बैठता है। अब हमने मन को बताया कि सुख अभी है, सुख आतंरिक है। अब मन को कहाँ जाना पड़ेगा? कहीं नहीं। तो मन कहाँ रहेगा? अपने पास। तुम जहाँ भी हो मन…?

श्रोतागण: वहीं रहेगा।

आचार्य: तुम जो भी कर रहे हो मन…?

श्रोतागण: वही करेगा।

आचार्य: एकाग्रता की समस्या…?

श्रोतागण: हल हो गई।

आचार्य: तो एकाग्रता की समस्या मूलतः ये थी कि हमने सुख की परिभाषा गलत कर रखी थी। हमें बता दिया गया था कि सुख कहाँ पर है?

श्रोतागण: भविष्य में।

आचार्य: और हमें बता दिया गया था कि सुख कैसे मिलता है?

श्रोतागण: दूसरों के द्वारा।

आचार्य: दूसरों के द्वारा, कुछ हासिल कर लेने पर। कोई हमें मान्यता दे दे, दूसरे आकर हमारी तारीफ कर दें, दूसरा हमें प्रेम करने लगे। हमें दो गलत बातें बता दी गई थीं सुख के बारे में। फिर से हम दोहराएँगे। क्या थीं वो बातें? पहली क्या थी कि सुख कहाँ है?

श्रोतागण: भविष्य में।

आचार्य: और दूसरी क्या थी कि सुख कैसे मिलता है?

श्रोतागण: दूसरों में।

आचार्य: तो इसका नतीजा क्या होता था कि मन कहाँ को भागता था? दूसरों की ओर। और समय में कहाँ को भागता था? भविष्य की ओर। पर जैसे ही तुमने मन से कहा कि “ध्यान से देख! भविष्य में तो मात्र कल्पना है, सुख नहीं है। ध्यान से देख कि सुख दूसरों से कैसे मिल सकता है। जो सुख दूसरों से मिलेगा उसमें तो डर रहेगा कि कहीं छिन ना जाए।” आश्रित हो दूसरों पर क्योंकि छिन सकता है। तो इसीलिए वास्तव में सुख सिर्फ मेरा हो सकता है, अपनी आंतरिक मौज, कभी न छिनने वाली मस्ती। अब मन कहीं उड़ कर के जाएगा नहीं। उसे आवश्यकता ही नहीं कहीं जाने की। तुमने मन को स्पष्ट कर दिया कि सुख कहाँ है? और समय में कहाँ है?

श्रोतागण: आंतरिक है और अभी है।

आचार्य: पर बात सिर्फ मेरे कहने भर की नहीं है। तुमको मन से बातचीत करनी पड़ेगी। अभी तो बस मैंने कहा है, आगे का काम तुम्हें करना है। तुम्हें मन से बातचीत करनी है कि जो कर रहे हैं उसमें?

श्रोतागण: सुख है।

आचार्य: मुझे दूसरों पर भी...?

श्रोतागण: आश्रित नहीं रहना है।

आचार्य: ठीक है न? उसके बाद देखना, जहाँ तुम हो मन वहीं रहेगा। कहीं भागेगा नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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