प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी मन बहुत शान्त होता है, पर जैसे ही कोई कुछ कह देता है, यह पुनः अशान्त हो जाता है। क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: ये तो तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या लेते हो कि नहीं लेते हो। साँस ले रहे हो? सब लोग ले रहे हो साँस? हवा में जो कुछ है, वो अस्सी प्रतिशत तुम्हारे काम का नहीं है। तो शरीर तक जानता है कि उसे क्या लेना है क्या नहीं लेना है। बहुत सारी हवा भीतर जाती है, शरीर भी जानता है कि उसमें से मुश्किल से बीस प्रतिशत अपने काम का है; बाक़ी को वो क्या करता है?
प्र: उत्सर्जन।
आचार्य: उत्सर्जित कर देता है — 'जाओ! भीतर आ भी गये तो भी जैसे भीतर आये थे वैसे ही बाहर भी निकल जाओ भई।' नाइट्रोजन का क्या होता है? अंदर आयी, बाहर गयी। नाइट्रोजन ये तो कर सकती है कि तुम्हारी इच्छा के बिना भीतर चली जाए, पर नाइट्रोजन ये तो नहीं कर सकती न कि तुम्हारे चाहे बिना तुम्हारे अस्तित्व का अंग बन जाए, या कर पाती है नाइट्रोजन ऐसा? तो बाहर वाले ये तो कर सकते हैं कि तुम्हारे कान में कोई बात डाल दें, ठीक वैसे जैसे नाक में चली जाती है नाइट्रोजन, वैसे ही बाहर वाला इतना तो कर सकता है कि तुम्हारे कान में कोई बात डाल दे। पर ये तो नहीं कर सकता बाहर वाला कि कान में जो बात गयी वो मन का हिस्सा बन जाए, मन को चिपक कर पकड़ ले।
जो चीज़ भीतर गयी, अगर वो तुम्हारी व्यवस्था का हिस्सा बन जा रही है तो फिर तो ये तुम्हारी इच्छा है, ये तुम्हारा चुनाव है, तुम्हें वो चीज़ पसंद आ गयी है। ये तो अच्छी बात है कि फेफड़े हमारी मर्ज़ी से नहीं चलते, नहीं तो क्या पता तुम्हें किसी दिन नाइट्रोजन भी पसन्द आ जाए! तुम कहो, 'ऑक्सीजन बहुत हो गई, बोर हो गये। हम भी ऑक्सीजन ले रहे हैं, हमारे पुरखे भी ऑक्सीजन ही ले रहे थे। ये परम्परावाद हमें पसन्द ही नहीं है, कुछ नया होना चाहिए। नाइट्रोजन चलाएँगे।' और जो नाइट्रोजन चलाएँ वो नई पीढ़ी के क्रांतिकारी कहलाएँ — नाइट्रोजनिज़्म। इतने सारे चल रहे हैं — लिबरलिज़्म , ये इज़्म , वैसे ही नाइट्रोजनिज़्म भी।
वो उधर झूला चल रहा है, उसकी आवाज़ आ रही है, वो तुम्हें परेशान कर रही है क्या? ऊपर पक्षियों का है कलरव, शाम का, परेशान हो रहे हो? तुम्हें इनमें कोई अर्थ नहीं दिखता। अर्थ माने? लाभ। तुम्हें इनमें कोई प्रयोजन नहीं दिखता, तो ये आवाज़ें कान में आतीं भी हैं तो एक कान से भीतर आतीं हैं, दूसरे कान से बाहर निकल जातीं हैं, जैसे नाइट्रोजन भीतर आती है और फिर बाहर निकल जाती है।
इस बात को गौर से समझो बेटा, कि किसी भी चीज़ को आत्मसात कर लेना तुम्हारा ‘चुनाव’ है, दूसरे को दोष मत देना, 'दूसरे में खोट नहीं देखने का'। तुम कैसे रोक दोगे दुनिया को? अभी-अभी ऊपर से हवाई जहाज़ निकल गया, बोल दो कि 'आचार्य जी बोल रहे हैं, अरे बड़ी बाधा पड़ेगी, ये हवाई जहाज़ क्यों जा रहा है?' नीचे से फंदा फेंककर मारो, उतार लो, कान खींचो उसके। कितने हवाई जहाज़ खींचोगे ऊपर से नीचे? इससे अच्छा ये नहीं है, कि हवाई जहाज़ गुज़रते रहें और तुम्हें फ़र्क न पड़े? और ऐसा भी नहीं है कि तुम इतने निरुपाय हो कि बाहर की हर चीज़ ज़बरदस्ती तुम स्वीकार ही कर लेते हो। एक बार एक ने कहा कि 'दोस्त लोग आ कर के ज़बरदस्ती सिगरेट, शराब पिला जाते हैं। मैं क्या करूँ, मैं बेचारा हो जाता हूँ।' बोले, 'कोई विकल्प, ऑप्शन ही नहीं रहता। दोस्त आते हैं, शराब रख देते हैं, पीनी पड़ती है।'
मैंने कहा, 'कोई तुम्हारे पास विकल्प नहीं रहता? दोस्त जब कुछ सामने रख दें तो पीना ही पड़ता है?'
बोले, 'हाँ अब क्या करेंगे, अब दोस्तों ने सामने रख दिया है, अब ना नहीं कर सकते।'
मैंने कहा, 'दोस्त ज़हर सामने रख दें तब?'
बोले, 'तब थोड़ी पियेंगे!'
मैंने कहा, 'तब विकल्प कहाँ से आ गया? विकल्प तुम्हारे पास हमेशा था, स्वीकार करने का या अस्वीकार करने का, बात इतनी सी है कि शराब में मज़ा तुम्हें भी आता है। ज़हर में प्राण जाते हैं तो तुम ज़हर नहीं स्वीकार करोगे।' इसी तरीके से दूसरे जो बातें तुम्हें बोल रहे हैं तुम्हें उन बातों में रस आता है, इसीलिए तुम उन बातों के साथ लिप्त हो जाते हो, गुत्थमगुत्था हो जाते हो। तुम्हें उन बातों में रस न आता होता तो वो बातें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते।
प्र: इन बातों से कैसे उबरें?
आचार्य: सबसे पहले तो ईमानदारी से ये मानना शुरू करो कि तुम्हें मज़ा आ रहा है, दूसरों को दोष देना बन्द करो। न सुधरने का सबसे माफ़िक़ तरीक़ा होता है कि दूसरों को दोष देते रहेंगे, नहीं सुधरेंगे। और जो दूसरों को दोष देते रहते हैं, सुधरते नहीं हैं, उनकी सज़ा ये होती है कि वो वही ग़लतियाँ दोहराते रहते हैं जो उन्होंने पहले करी थीं।
तुम आज भी अगर वैसा ही व्यवहार कर रहे हो, वही ग़लतियाँ कर रहे हो, वही ब्लंडर कर रहे हो जो तुमने आज से कुछ साल पहले कर दिया था, तो इसका मतलब तुमने अभी तक ये माना ही नहीं है कि कुछ साल पहले जो तुमने करा था वो तुम्हारी ग़लती थी। जो अपनी ग़लती स्वीकारेगा नहीं, उसकी सज़ा ये होगी कि वही अपनी ग़लती दोहराएगा; ग़लती स्वीकार लो, ग़लती से मुक्त हो जाओगे। दूसरों को दोष देते रहोगे, मानोगे ही नहीं कि ग़लती तुमने करी, तो उसी ग़लती को बाध्य हो जाओगे दोहराने के लिए। ठीक वैसी ही स्थिति आएगी, ठीक वैसी ही तुम पाओगे अपनेआप को प्रतिक्रिया देते हुए। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब ये है कि तुमने माना ही नहीं कि तुम सदा ग़लती करते आ रहे हो, तुम इसी ठसक में हो कि ग़लती हमने तो कभी करी ही नहीं।
ग़लती मानना बड़ी बहादुरी का काम है, ग़लती मानना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है, 'हाँ, हमारी ज़िम्मेदारी थी।' और जिसने ये मान लिया कि 'हमारी ज़िम्मेदारी थी, हमारी ज़िम्मेदारी है', उसके पास आ जाती है ताक़त, क्योंकि ताक़त का ही तो दूसरा नाम ज़िम्मेदारी है। जो मान ही नहीं रहा कि उसकी ग़लती थी, वो अपनी ज़िम्मेदारी नहीं मान रहा, और ज़िम्मेदारी नहीं मान रहा तो उसमें क्या नहीं आएगी? ताक़त। जहाँ ज़िम्मेदारी नहीं, वहाँ ताक़त नहीं।
लोग सोचते हैं कि अगर हम अपनी भूल मान लें तो इससे साबित हो जाएगा कि हम दुर्बल हैं, कमज़ोर हैं। अपनी भूल को मानना बल्कि दिखाता है कि तुम ताक़तवर हो। भूल मानना बड़े सूरमाओं का काम है, आम आदमी तो भूल स्वीकार कर ही नहीं सकता। असल में कमज़ोर की बड़ी-से-बड़ी निशानी ये है कि उससे भूल नहीं मानी जाएगी। तुम्हें अगर कमज़ोर ढूँढना हो, तो तुरन्त ऐसे आदमी पर उँगली रख देना जो अपनी भूल को छुपाने के लिए बहस करे जाता हो, तर्क दिये जाता हो। कमज़ोरों में कमज़ोर ढूँढना हो तो सबसे बड़ा कमज़ोर वो जो कभी अपनी भूल न माने। जो सदा यही कहे कि — 'मैं क्या करूँ, दूसरे आ कर के पिला गये।' 'मैं क्या करूँ, मैं तो शान्त रहता हूँ, पड़ोसी आ कर, शोर मचा कर मेरा ध्यान भंग कर जाते हैं।'
ना! ये लक्षण सुधरने के नहीं हैं। बेटा, पड़ोसी तुम्हारे ही पास क्यों आते हैं? तुम्हें किसी को पिलानी होगी तो किसके पास जाओगे?
प्र: जो मानेगा।
आचार्य: अरे जो पीने में मज़े लेता हो! जिसके पास पता है कि बोतल लेकर गये तो तुम्हारे ही सर पर फोड़ देगा बोतल, उसको पिलाने जाओगे? जाओगे?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो अगर तुम कह रहे हो कि 'मैं क्या करूँ, लोग चले आते हैं मुझे पिलाने के लिए', तो इसका मतलब तुमने अपनी ख्याति बना रखी है पीने वाले की। बना रखी है कि नहीं? हम्म? (हँसते हुए)।