मन की दौड़ और जीत का भ्रम || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)

Acharya Prashant

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मन की दौड़ और जीत का भ्रम || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)

सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥ भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥ सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥ किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥ हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥

आचार्य प्रशांत: “सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार। चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार। भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार।“ कौन है? किसकी बात हो रही है? कौन है जो सोचने में उद्यत रहता है? कौन है जो कभी चुप नहीं हो पाता? और कौन है जिसकी भूख, जिसकी अतृप्ति कभी मिटती नहीं है?

प्रश्नकर्ता: मन।

आचार्य: ठीक है। तो सोचने का विषय नहीं हो सकता वो। और मन एक ही साधन जानता है कुछ भी पाने का — सोच। मन के पास विचारणा के अलावा कोई ताक़त नहीं है। नानक शुरू में ही हमसे कह दे रहे हैं — “सोचै सोचि न होवई” — तुम लाख माथा फोड़ लो, तुम होगे बहुत बड़े चिन्तक, बहुत बड़े विचारक, पर चिन्तन और विचार तुम्हें सत्य तक नहीं ले जा सकते हैं। चिन्तन और विचार तुम्हें सत्य तक नहीं ले जा सकते। वो मात्र एक प्रकार का शोर हैं।

वो क्या है जो तुम्हें सच तक, परम तक ले कर जाएगा?

उसके ठीक बाद हमें बता देते हैं नानक — “चुपै चुप न होवई, जे लाइ रहा लिव तार।” 'चुप' है जो वहाँ तक ले जा सकती है, मौन में ही उसका नाद सुनायी देने लग जाता है। लेकिन विवशता ये है मन की कि वो मौन उसको मिलता ही नहीं है, क्योंकि उसके लिए मौन भी मात्र एक विचार है, एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है।

तुम जब मन से कहो, ‘चुप हो जा, मौन हो जा’, तो उसके लिए चुप होना और मौन होना भी कोई वस्तु है, कोई तर्क है, कुछ है। जबकि मौन का अर्थ होता है ‘अनुपस्थिति'। और मन के लिए मौन क्या है? कुछ है, कोई उपस्थिति। तो मन वैसा रहते हुए, जैसा वो है, कभी मौन को नहीं पा सकता।

ये भूल न हो जाए कि मन वैसा ही बना रहे जैसा वो है — अशान्त, असंयमित, शोरगुल करता हुआ — और अपने इसी रूप के साथ वो चाहे कि मैं मौन को भी पा लूँ। उसका मौन भी सिर्फ़ क्या होगा? शोर। उसका मौन भी सिर्फ़ शोर ही होगा।

वो दावा करेगा, ‘मौन मिल गया’, पर नानक हमसे कह रहे हैं, “चुपै चुप न होवई” चुप्पी मिली नहीं है। तुमने लाख कोशिश कर ली, तुमने लाख दावे कर लिये, पर चुप्पी तुम्हें मिली ही नहीं है। तुम ध्यान की प्रक्रियाएँ साध लो, तुम अन्तर्गमन कर लो, तुम हज़ार विधियाँ अपना लो — वो सब जो होगा, मानसिक ही होगा। उस सबमें मन की सत्ता बनी ही रहेगी। और मौन का अर्थ होता है कि मन जाकर के अपने स्रोत में स्थापित हो गया है, अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी निजी सत्ता को उसने छोड़ दिया है, समर्पित कर दिया है — यही मौन है, और कुछ नहीं है मौन।

जब तक मन की हस्ती बनी हुई है तब तक मौन सम्भव नहीं है। ये कोशिश कर-करके अपना समय ख़राब मत करना कि हम हम हैं और मौन को साध रहे हैं; ये कोशिश मत करना। मौन हमारे साधने से नहीं आएगा कि हम बने रहें और मौन को साधते चलें।

मन की सारी चेष्टाओं का थम जाना ही मौन है। मन चेष्टारत रहता है लगातार। जहाँ वो चेष्टाएँ रुकीं, तहाँ जो आता है वो मौन होता है। उसके बाद भले अधर चलते हों, भले शब्द निकलते हों, पर तुम्हारा मौन क़ायम रहता है। उसकी धार नहीं टूटती, वो अक्षत रहता है। मौन साधने की नहीं, मौन समर्पण की बात है। ये अन्तर समझना बहुत ज़रूरी है।

दुनिया में जो कुछ मिलता है तुम्हें — ये चाय का कप उठाना है, ये साध सकते हो। ये तुम्हारी चेष्टा से मिल सकता है क्योंकि ये वस्तु है; ये है ही मानसिक। हर वस्तु मानसिक है। जो है ही मानसिक वो मन के क्रियाकलापों से मिल जाएगा। पर जो मानसिक नहीं है, मन उसे कैसे पाएगा?

“भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार।” सारी कोशिशें कर लें, वो सारी कोशिशें, वो सारी चेष्टाएँ, वो सारी उपलब्धियाँ सिर्फ़ मन पर भार की तरह बैठती हैं; भार बढ़ता जाता है, वो नहीं मिलता जो मन को शान्त कर दे। मन की भूख वैसी की वैसी ही बनी रह जाती है।

ये वैसी ही बात है कि कोई पहाड़ पर चढ़ रहा हो और उसे थकान हो रही हो। और वो थकान मिटाने के लिए अपने ऊपर और भार इकट्ठा करता चले। और हर भार वो किस उम्मीद में इकट्ठा कर रहा है? कि इससे थकान मिट जाएगी। उसे वो सलाह दी जा रही है कि लो, ये ले लो, ये थकान मिटाने की विधि है। ये दवा है, ये औषधि है। वो सारी औषधियाँ ना-कामयाब हैं। वो सारी औषधियाँ अब क्या बन रही हैं सिर्फ़? वो वैसे ही थका हुआ था, वो वैसे ही बड़ा वज़न लेकर के चढ़ रहा था, तुम उसके वज़न में सिर्फ़ वृद्धि करते जा रहे हो।

“भुखिआ भुख न उतरी” — भूख नहीं उतरेगी।

हमारी चालाकियाँ, हमारी होशियारियाँ — और उससे तुरन्त बाद नानक ने वो भी कहा — हमारा सारा सयानापन काम नहीं आएगा। 'काम नहीं आएगा' भी बहुत उचित नहीं है, क्योंकि उससे ऐसा लगता है कि भविष्य की बात हो रही है। मैं कह रहा हूँ, ‘काम आ ही नहीं रहा है।' अगर आँखें खोलेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि नहीं काम आ रहा है।

सिर्फ़ एक सलाह है जो नानक और सभी सिद्ध सन्तों ने दी है — सीधे रहो, सरल रहो। टेढ़ी चाल की आवश्यकता नहीं है, सब सहजता से हो जाएगा। तुम्हारी चालाकियाँ वांछित ही नहीं हैं। तुम्हारी सबसे बड़ी भूल ही यही है कि तुम सोचते हो कि घी टेढ़ी उँगली से निकलता है। न कोई घी है न कोई उँगली है, सिर्फ़ टेढ़ापन है। सिर्फ़ टेढ़ापन है। और यही टेढ़ापन तुम्हारे माथे का बोझ है। ये टेढ़े-टेढ़े होकर के किसी घी की प्राप्ति नहीं होनी है क्योंकि जो घी है, जो अमृत है, वो मिला ही हुआ है। घृत हो चाहे अमृत हो, मिला हुआ है।

ये जिसने भी हमें सिखाया कि जो मूल्यवान है उसके लिए श्रम करना पड़ता है और चालें चलनी पड़ती हैं और योजनाएँ बनानी पड़ती हैं, जिसने भी हमें ये सिखाया, बड़ी गड़बड़ करी। अब ये आदत ऐसी गहरी बैठ गयी है मानस में कि उतारे नहीं उतरती। जहाँ झूठ बोलने की कोई ज़रूरत नहीं है, हम वहाँ झूठ बोलते हैं। ये तो छोड़ दो कि हमें फ़ायदा दिखता हो, जहाँ हमें फ़ायदा नहीं भी दिखता, वहाँ हम आदतन झूठ बोल देते हैं।

अगर कोई ये कहे कि इससे मुझे ये लाभ दिख रहा था, तो भी एक बार को उसकी बात सुनो; चलो, इसे कुछ लाभ दिख रहा था, भ्रमवश ही सही, इसे कुछ लाभ दिख रहा था तो इसने झूठ बोल दिया। हम तो ऐसे झूठे हो गये हैं जिन्हें कोई लाभ नहीं भी दिख रहा होता तो भी उनकी ज़ुबान तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही पेश करती है।

रास्ता यदि सीधा-सीधा होता है तो हमें शंका होने लग जाती है कि कुछ काला है दाल में। हमने ये एक मुहावरा ही गढ़ लिया है — *टू गुड टु बी ट्रू*। ये साफ़-साफ़ बताता है हमारे मन के बारे में। कुछ अगर बहुत अच्छा है तो हम कहते हैं, *'इट इज़ टू गुड टु बी ट्रू'*। ये बात इतनी अच्छी और इतनी सरल है कि ये सत्य नहीं हो सकती। मैं तुमसे कह रहा हूँ, *‘ओनली द गुड इज़ ट्रू’*।

जब कुछ सहजता से मिलता हो, जब सरल प्राप्ति हो रही हो, तो शक मत करने लग जाओ कि ये मुझे इतना सब क्यों दे रहा है, ज़रूर कोई साज़िश है, ज़रूर कहीं कोई जाल बिछा हुआ है, कोई षड्यंत्र है। देने वाला तुम्हारी किसी पात्रता पर देता है? तुमसे कुछ वापस लेकर देता है? पर हमारी हालत यही है, जो कुछ हमें हल्का करता है, सहज करता है, वहाँ हमें शक होना शुरू हो जाता है।

अभी कल-परसों किसी ने बोला, ‘हल्का अनुभव कर रहा हूँ। आनन्द है, मस्ती है, पर लग रहा है कि ये सबकुछ अनरीयल (अवास्तविक) है।’ ऐसा है हमारा मन कि जो आनन्दपूर्ण होता है वो हमें अवास्तविक लगने लगता है, क्योंकि आदत लग गयी है न बोझ की, कष्ट की, घर्षण की। घुटने की आदत लग गयी है। मन में ये मान्यता गहराई से बैठ गयी है कि कर-करके मिलेगा।

तभी तो नानक जी कह रहे हैं, “चुपै चुप न होवई।” वो करने पर उतारू ही रहता है, आदत लग गयी है उसको। उसकी बकबक-बकबक, उसकी गति, उसकी योजनाएँ, उसकी छटपटाहट, बेचैनी बनी ही रहती है। शान्ति मिलने लगे तो इस बात से छटपटाता है कि शान्ति क्यों मिल रही है! कौन रच रहा है षड्यंत्र? ज़रूर कोई लूटने को तैयार है। पहले शान्त करेगा फिर लूट लेगा।

कहते हैं न, ‘व्हाट्स द फ़ाइन प्रिंट?' उसका भी आशय यही है कि छुपी हुई बात क्या है? हिडेन कॉस्ट (छुपा हुआ मूल्य) क्या है?

अस्तित्व कुछ छुपा कर नहीं रखता। परम के बच्चे हैं हम। वो हमारे रूप में प्रकट हुआ है, उसने हमसे कोई एग्रीमेंट, कोई समझौता नहीं करा है कि उसमें कोई फ़ाइन प्रिंट होगा। ये शक्की दिमाग ख़त्म करो। बात-बात में यहाँ पर (सिर की ओर संकेत करते हुए) जो रेड एलर्ट आ जाता है, ‘कुछ गड़बड़ है, कुछ गड़बड़ है, कुछ गड़बड़ है’, हटाओ उसको; नहीं कुछ गड़बड़ है।

कहाँ कुछ गड़बड़ है? बताओ, कहाँ कुछ गड़बड़ है। देखो चारों तरफ़, धूप खिली हुई है, पेड़ है, बादल है, बारिश हो सकती है, कहाँ कुछ गड़बड़ है? अभी नाश्ता किया है, वो अपनेआप पच रहा है सुचारू रूप से। कहाँ कुछ गड़बड़ है, ये बता दो।

जिसको ध्यान रखना है, वो ध्यान रख रहा है न? तुम्हारा ख़याल रखा जा रहा है, यू आर इन सेफ़ हैंड्स (तुम सुरक्षित हाथों में हो)।

एक बिल्ली भी है यहाँ पर, तो उसमें भी इतना विश्वास तो है कि अनजाने लोग भी उसको उठा लेते हैं और अपने ऊपर रख लेते हैं तो रही आती है; अनजाने लोग। और हम अपनेआप को उसी को समर्पित करने को तैयार नहीं हैं जो अनजाना है ही नहीं। जो प्राणों में बैठा हुआ है, जो हृदय के केन्द्र पर विराजा हुआ है, हम अपनेआप को उसके हाथों में छोड़ने को भी तैयार नहीं हैं। हमसे कहीं भली वो बिल्ली नहीं है? उठा लेते हो, उठ जाती है। उसकी इच्छा नहीं होती तो कूद कर भाग भी जाती है, फिर आ जाती है।

आज तो रात में बिस्तर पर चढ़कर सो रही थी। उसको नहीं लग रहा है कि अस्तित्व दुश्मन है उसका और उसे लगातार अपनी रक्षा करनी है। ‘सोचो, विचारो, ज़रा देखो कौन चाकू छिपाकर लाया है, कौन ज़हर लेकर के आया है, किसने क्या जाल बिछाया है’ — सब ठीक है!

तुम आये हो, तुम्हारे साथ खेल-कूद ली; तुम अभी चले जाओगे, तुम्हें विदा कर देगी। फिर कोई आएगा, उसके साथ खेल लेगी। उसका खेलना अनवरत है। आज शाम को ही वो फिर खेल रही होगी और तुम नहीं होगे, किसी और के साथ खेल रही होगी। और कोई नहीं होगा तो अपने साथ। उसको कभी अपूर्णता नहीं लगती। उसकी भूख शान्त रहती है, हमारे जैसी नहीं है।

हम कैसे हैं? “भुखिआ भुख न उतरी।”

उसको लगातार मिलता रहता है, हमें मिलकर भी नहीं मिलता है। उसमें कोई अपूर्णता है ही नहीं, उसने अपनेआप को पूरी तरह छोड़ रखा है अस्तित्व के हाथों में। जैसी स्थिति आ रही है, उसमें वो जी रही है। कभी कोई कुछ खिला देता है, कभी कोई कुछ खिला देता है। कभी कोई कुछ नहीं खिलाता है तो वो अपना इंतज़ाम कर लेती है, उसे मिल जाता है। हज़ार हाथ हैं जो उसे देने के लिए तैयार हैं। वो हज़ार हाथों से देता है, तुम्हारे दो हाथों की क्या क़ीमत है!

पर हम लगातार-लगातार — और हमारी परवरिश का ये बड़ा पक्ष है कि हमें श्रम को बहुत महत्व देना सिखाया गया है। जो मिलेगा श्रम से मिलेगा। और बात की हद तो तब हो गयी जब हमें ये कह दिया गया कि परम भी श्रम से मिलता है। अपनी कहानियाँ पढ़ो पुरानी कि फ़लाने ऋषि ने फ़लाने नदी के तट पर खड़े होकर के घोर तपस्या की इतने सालों तक, तब उन्हें प्राप्ति हुई।

अब एक व्यापारी है जो बड़ा श्रम करके अपनी दुकान बढ़ा रहा है और ये बड़ा श्रम करके परम को पा रहे हैं। केन्द्र में क्या बैठा है दोनों के? श्रम और श्रम करने वाला श्रमिक। कर्ताभाव है ‘मैंने पाया’; इस बात से बचिएगा। ये बात पहले भी बोली है, फिर बोल रहा हूँ, आगे भी बोलूँगा, ‘इस बात से बचना।’ तुम्हारी मेहनत से तुम्हें जो मिलता है वो तुमसे बड़ा नहीं हो सकता है, क्योंकि तुम्हारा हर लक्ष्य आता तो तुम्हारे ही मन से है न।

जो तुम्हारे ही मन से लक्ष्य आ रहा है, वो तुम्हें तुमसे आगे नहीं ले जा पाएगा। वो तुम्हें कौनसी सफलता दे सकता है? कौनसा फल लगेगा?

तुम कहते हो, ‘लक्ष्यों की प्राप्ति का नाम सफलता है।’ ये कैसी सफलता है जो उस लक्ष्य को पाकर के आती है जो तुम्हारे ही मन से निकल रहा है? और तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हारे मन से कुछ भी कैसे निकलता है। तुम अच्छे से जानते हो कि तुम्हारे मन में कुछ भी कहाँ से आता है।

जब नानक कह रहे हैं, “चुपै चुप न होवई”, तो मुझे बताओ कि मन जो ये लगातार बकबक करता रहता है, क्या ये मन की अपनी आवाज़ें हैं? मन में कौन है जो चुप होने को तैयार नहीं है? ये संसारभर की आवाज़ें हैं। मन ने ये जो संसार रचा है, वही संसार मन पर हावी हो जाता है और दुनियाभर की आवाजें मन में भरी हुई हैं। माँ-बाप, दोस्त-यार, शिक्षा, धर्म, यही आवाज़ें हैं जो मन में भरी हुई हैं। वही तो बोल रही हैं।

मन की जो अपनी आवाज़ है वो तो कहीं है ही नहीं, क्योंकि मन की अपनी आवाज़ स्रोत की ही आवाज़ है। स्रोत की ही आवाज़ का नाम होता है ‘मौन'।

मौन का अर्थ होता है जब एक ही आवाज़ सुनायी दे रही है, एक ही नाद बज रहा है; वो मौन है। हमारे मन में वो आवाज़ तो अब गूँजती ही नहीं, बड़ी सूक्ष्म आवाज़ है वो। तुम्हारे मन में जो आवाजें भरी हुई हैं, वो इधर की, उधर की हैं, और ये आवाज़ें हमें कहती हैं — इस लक्ष्य को पाओ, उस लक्ष्य को पाओ। हमें सिखाया जाता है कि ये कर लोगे तो सफल कहलाओगे, ये पा लोगे तो प्रतिष्ठा मिलेगी। ये कैसे लक्ष्य हैं? इनसे कौनसी सफलता मिल सकती है?

मन में गूँजे आवाज़, खूब गूँजे, जैसे कबीर साहब कहते हैं, “शून्य शिखर पर अनहद बाजै जी, राग छत्तीस सुनाऊँगा।” छत्तीसों राग गूँजें मन में, इससे बड़ी प्रार्थना हो नहीं सकती। ये सारे राग मन में गूँजें, पर वो अनहद से उठते राग हों।

मन को शून्य करो, शून्य माने खाली। मन को इधर-उधर की आवाज़ों से खाली करो। उसी को कबीर साहब कहते हैं, “शून्य शिखर पर अनहद बाजै जी।” जब मन शून्य हो जाता है तो उसमें अनहद बजना शुरू हो जाता है। वो अनहद का संगीत होता है — छतीसों राग बज रहे हैं।

जैसे कल बुल्लेशाह कह रहे थे, ‘ठाकुर द्वारे गया और वहाँ पर हज़ारों नाद बज रहे थे, हज़ारों नाद।' तो मन में रहे आवाज़, बेशक रहे, पर मौन के राग, मौन का संगीत बजे। अब वो तुम्हारा नहीं संगीत होगा, तुम्हारा तो सिर्फ़ शोर होता है।

“सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।” कोई छोटी सोच नहीं होती, कोई बड़ी सोच नहीं होती, कोई सी भी सोच है वो पंगु होती है बस। वो नहीं पहुँच सकती, वो नहीं चल सकती। वो उस रास्ते पर नहीं जा सकती जो उस तक ले जाता है। जब तुम सोचते हो तो उसके पीछे तुम्हारा अहंकार बैठा होता है कि मैं सोचूँगा और पा लूँगा। नहीं हो पाएगा। “चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार।”

“भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार” — ये सूत्र है। ये आमूल क्रान्ति के सूत्र हैं। तभी मैंने कहा था कि इनको लिख लो। मैंने कहा था इनको स्मृति में भी डाल दो कि कान में जब भी पड़ेंगे, ये तुम्हें कुछ याद दिलाएँगे और बड़ी क़ीमत है उस याद दिलाने की। याद दिलाने की ही क़ीमत है क्योंकि ज्ञान कहीं बाहर से तो आ नहीं सकता। जानते तुम सब हो, कोई याद दिलाने वाला चाहिए बस।

कोई याद दिलाने वाला ही चाहिए होता है, इसीलिए कहा था कि लिख लो इनको। जो तुम्हें रुचे, लिख लो उसको। पूछने के काम आएँगे मन से कि भूखे, कब तेरी भूख मिटेगी?

जहाँ मन में मोह उठे, लोभ उठे, पूछो उससे कि “भुखिआ भुख न उतरी?” भूखे! और कितना चाहिए तुझे? और जब लगा हो वाद-विवाद, तर्क-कुतर्क में, तो पूछो उससे, जानता हूँ तुझे, “चुपै चुप न होवई?” कितनी कोशिश कर ले, नहीं मिलता तुझे मौन। और जब सोच-सोचकर थक जाओ और फिर भी पाओ कि बात बन नहीं रही है, उन्हीं घिसे-पिटे रास्तों पर फिर चलना पड़ रहा है, वही राहें दोबारा आयें, सोच का चक्र है, वही-वही दोबारा सोच रहे हो, वही-वही दोबारा सोच रहे हो, तो सीधे-सीधे कहो अपनेआप से, "सोचै सोचि न होवई।” क्यों सोचे जा रहे हो? निरर्थक है ये सोचना, मूढ़ता है। जैसे कि वही रास्ते पर चल-चलकर के किसी नयी जगह पर पहुँच जाओगे!

मन का एक घेरा है, उसमें गोल-गोल घूमते रहो, सोचते रहो, तो क्या उस घेरे से बाहर निकल जाओगे? किसी नये की प्राप्ति हो जाएगी? पर क्या ये तथ्य नहीं है कि हम सोच के ही घेरे में घूमते रहते हैं, घूमते रहते हैं? वही-वही बातें जिनका कोई प्रयोजन नहीं, जिनका कोई हल नहीं, बार-बार, बार-बार सोचते रहते हैं। ऐसा लगता है कि आज शायद मिल जाएगा।

तुमने आज तक सोचने में कोई कमी छोड़ी है? और अगर इसी बात से तुम सन्तुष्ट होओगे कि सोचने में कोई कमी छोड़ी है तो लगा लो पूरा ज़ोर, एक बार लगा लो पूरा ज़ोर और सन्तुष्ट हो जाओ कि सोच से तो नहीं मिलेगा। अगर इसी से तुम्हें प्रमाण मिलता है तो अपनेआप को दे लो ये प्रमाण, लगा लो एक बार सोचने पर पूरा ज़ोर। पर एक बार लगाकर इतिश्री करो। क्यों जीवन व्यर्थ करते हो कि अभी थोड़ा और करूँ तो क्या पता मिल जाए।

जाँच ही लो न। अच्छे से जाँच लो कि कितना कर सकते हो। ईमानदारी से जाँच लो और उसके बाद शान्त होकर बैठ जाओ कि अब तो ग़लतफ़हमी भी नहीं रख सकता। अब तो खुली आँखों से देख लिया कि मैं कहाँ तक जा सकता हूँ, अब तो मैं अपनेआप को भ्रम में भी नहीं रख सकता। ये उम्मीद भी नहीं रख सकता कि क्या पता कभी आगे हो जाए। उम्मीद को परख लिया, व्यर्थ हैं सारी उम्मीदें।

जाँच ही लो उम्मीदों को। जहाँ पहुँचने की बड़ी आकांक्षा है, बिलकुल क़रीब जाकर के देख लो उनको जो पहुँचे हैं कि उनका क्या होता है, कैसे हैं वो, पर ख़त्म करो। ये वर्तुल में घूमना कैसे तुम्हें इससे बाहर ले जाएगा? जैसे वही सड़े-गले रास्ते, उसी पर सुबह को तुम आगे जाते हो, शाम को पीछे आते हो और कीचड़ भरा हुआ है उन रास्तों पर — सुबह भी गन्दे होते हो, शाम को भी गन्दे होते हो। पर रात को फिर एक नयी उम्मीद लगाकर सोते हो कि कल नया दिन है, फिर उसी रास्ते पर चलूँगा, क्या पता कहीं और पहुँच जाऊँ!

ऐसा कभी हुआ नहीं कि चक्राकार रास्तों पर चल करके कोई नयी जगह पर पहुँच गया हो। ऐसा कभी होगा भी नहीं।

“सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।” लाख बार चल लो, ऐसे जाओगे और ऐसे ही वापस आओगे, कहीं पहुँचोगे नहीं। और तुम ठीक यही कर रहे हो। कुछ नया कभी किया है? ईमानदारी से देखो, तुम छोटे थे, तुम पढ़ने की दौड़ में शामिल थे। तुम कहते थे कि एक कागज़ पर एक सही अंक लिखा होना चाहिए। इसी को तो तुम कहते हो न, अच्छे परसेंटेज (प्रतिशत) लाना वगैरह? यही कहते थे न, ‘एक सही अंक, एक संख्या’? तुम थोड़े और बड़े हुए, तुम कॉलेज में पहुँच गये, वहाँ भी तुमने यही कहा कि एक कागज़ पर एक सही संख्या, कुछ सही शब्द लिखे होने चाहिए, सही डिग्री का नाम होना चाहिए। फिर तुम पैसे कमाने लगे, तुमने कहा कि एक सही संख्या लिखी होनी चाहिए मेरे बैंक अकाउंट्स पर, मेरी सैलरी स्लिप (तनख्वाह की रसीद) पर।

ठीक कह रहा हूँ कि नहीं कह रहा हूँ?

कुछ नया घट रहा है क्या? वही रास्ता, उसी पर जाना, उसी पर वापस आना। ये रास्ता सोच का रास्ता है। नानक चेता रहे हैं, “सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।” लाख बार दोहराओ, कुछ नहीं पाओगे। और हम लाख बार दोहरा रहे हैं, और कर क्या रहे हैं? कुछ नया कहीं घट रहा है क्या? वही पुरानी कहानी है। वही पुरानी कहानी है।

कल गा रहे थे न तुम लोग, ‘तू नूर का दरिया, मैं प्यास पुरानी’, वही हो तुम। जो प्यास पुरानी थी उसी को यहाँ कह रहे हैं नानक, “भुखिआ भुख न उतरी।” वहाँ प्यास कहा था, यहाँ भूख कही जा रही है।

मन और क्या है? एक आदिम प्यास है मन, *एन एन्शियन्ट थर्स्ट*। एन एन्शियन्ट थर्स्ट, दैट इज़ व्हाट द माइंड इज़; आलवेज़ थर्स्टी (एक प्राचीन प्यास, वही मन है; सदा प्यासा)। एंड इट विल रीमेन थर्स्टी, बिकॉज़ इट डज़ नॉट नो वेयर द सोर्स वॉटर इज़ (और वह प्यासा रहेगा, क्योंकि वह नहीं जानता कि जल का स्रोत कहाँ है)। पानी घर में रखा है और ये ऐसे जाता है और ऐसे आता है, ऐसे जाता है और ऐसे आता है (हाथ को आने-जाने के सन्दर्भ में हिलाते हुए) और उम्मीद लगाता है कि क्या पता कल मिल जाए, क्या पता कल मिल जाए।

इतने जन्मदिन मनाये, क्या पाये? और अब इस चक्कर में हो कि एक और मना लूँ। और भागे जा रहे हो। पैंतालीस वर्षों में क्या पाया जो छियालिसवें में पा लोगे? पर उम्मीद बहुत बड़ी है। तो डेरा-गंडा बाँध लिया है बिलकुल तैयार होकर कि अब हम भाग ही जाएँ। क्या पाने भाग रहे हो? और जो मिला ही हुआ है, उसको पीठ दिखा रहे हो। नानक तुम्हीं से बात कर रहे हैं।

एक साल ऐसा भी आएगा जब जन्मदिन मनाने के लिए कोई शेष नहीं होगा। बहुत दूर नहीं है वो। फिर कहाँ भागोगे? फिर कहाँ जाओगे? तब थमना पड़ेगा न? अभी थम जाओ। आज मौक़ा है, थम जाओ।

कुछ नहीं पा जाओगे कि एक रस्म है, परिजनों के साथ होना चाहिए, एक बात है, बड़े महत्वपूर्ण काम हैं जो जाकर करने हैं। जीवनभर कुछ भी ऐसा करा है जो महत्वपूर्ण नहीं है? जब भी जो भी करा उसको यही जानकर करा कि बड़ा महत्वपूर्ण है, ठीक? आज भी कुछ वही करने जा रहे हो जो बड़ा महत्वपूर्ण है?

तब भी वही था मन जो निर्धारित कर रहा था कि क्या है महत्व का और आज भी वही मन है जो तुम्हें सलाह दे रहा है कि बड़ी महत्व की कोई चीज़ है, उसके लिए भागो, पाओ उसे। आज तक उसने कौनसी सुसम्मति दे दी है! आज तक उसने कौनसी ऐसी सलाह दे दी जिसके बिनाह पर और एक सलाह लेने जा रहे हो? भ्रम है, धोखा है कि चलो, अभी तक बात नहीं बनी पर अब बन जाएगी। जो पैंतालीस साल तक नहीं हुआ वो छियालीसवें में हो जाएगा? नहीं होगा। कि हो सकता है? हो सकता है?

वही मन, वही उसकी सलाहें, वही राहें। पैंतालीस साल, छियालीसवें में क्या बदल जाना है? और एक साल ऐसा भी आएगा जब अगला साल बचेगा नहीं, भविष्य रुक जाएगा। तो कितने मौक़े दोगे इस मन को कि एक मौक़ा और ले ले, चल एक बार और कोशिश करके देख ले?

कितना भरोसा है इस पर कि अभी ज़रा और — चालीस में नहीं हुआ तो इकतालिस में हो जाए, पचास में नहीं हुआ तो इक्यावन में हो जाए, अस्सी में नहीं हुआ तो इक्यासी में हो जाए। फिर? फिर मौक़ा देने के लिए कौन शेष है? नानक चेता रहे हैं कि बहुत मौक़े दे लिये, अब बन्द करो, पूर्ण-विराम।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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