आचार्य प्रशांत: क्वांटम लीप का जो फिज़ीकल , भौतिक तात्पर्य है वो समझते हैं न? (श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) भौतिकी किसका-किसका विषय रहा है?
प्रश्नकर्ता: स्कूल में, दसवीं कक्षा तक।
आचार्य: तो क्वांटम जम्प क्या होती है? क्वांटम थ्योरी ही क्या थी?
प्र: अप्रत्याशित छलांग।
आचार्य: अप्रत्याशित का तो कोई भौतिकी में हिसाब होता नहीं। क्वांटम जम्प क्या होता है?
इलेक्ट्रॉन्स होते हैं, उनके ऑर्बिट्स होते हैं, उसमें ये क्वांटम क्या होता है?
जो सबसे करीब का ऑर्बिट है न्यूकलिअस के, अब वहाँ इलेक्ट्रॉन फँसा हुआ है। न्यूकलिअस उसको खींच रहा है, खींच रहा है, और इलेक्ट्रॉन वहीं चक्कर काट रहा है। कोई ऐसी चीज़ है जिससे वो मुक्त नहीं हो पा रहा। इतना तो पता ही है न? परमाण्विक संरचना, जो मूल बोर मॉडल है, वो अब असत्य सिद्ध हो गया है, लेकिन अभी हम उसी की बात कर रहे हैं, नील्स बोर ने जो दिया था। तो एक न्यूकलिअस है, और उसके इर्द-गिर्द क्या चक्कर काट रहे हैं? इलेक्ट्रॉन्स * । तो * इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षा में, अपने एक ऑर्बिट में चक्कर काट रहा है, फँसा हुआ है वो। फँसा ऐसे हुआ है कि जो इलेक्ट्रोस्टटिक बल है वो तो उसको खींच रहा है केंद्र की ओर, केंद्र की ओर। न्यूकलिअस पर क्या चार्ज होता है?
प्र: सकारात्मक।
आचार्य: और इलेक्ट्रॉन पर क्या होता है?
प्र: नकारात्मक।
आचार्य: तो उन दोनों में क्या है? आकर्षण। तो, कुछ है जो उसे खींच रहा है। लेकिन उसकी उड़ जाने की, आज़ाद हो जाने की इच्छा भी बहुत है। और वो गोल-गोल घूम रहा है। जब गोल-गोल घूम रहा है तो बाहर की दिशा में उसके ऊपर कौन सा बल लग रहा है? सेन्ट्रीपीटल बल लग रहा है, है न? तो इधर से खींच रहा है उसको Kq1q2/r2 और बाहर को क्या जा रहा है? mv2/r
तो उन दोनों के संतुलन में वो बेचारा फँसा हुआ है। जैसे फँसे रहते हैं अपने जीवन में। एक तरफ से हमें खींचा जा रहा है किसके द्वारा? Kq1q2/r2
और दूसरी तरफ कुछ और है जो हमें ले जाना चाहता है। एक तरफ मन उन्मुख हो रहा है आज़ादी को, और दूसरी तरफ हमने किसी को केंद्र बना रखा है और वो हमें छोड़ नहीं रहा, वो हमें छिटकने नहीं दे रहा। इलेक्ट्रॉन की जो दशा है वो मन की दशा है। तो अब इलेक्ट्रॉन की स्थिति बहुत अजीब है, वो चलता तो बहुत है, जैसे मन बहुत चलता है। पर पहुँचता कहीं नहीं है। क्योंकि वो लगातार क्या करता रहता है? वो एक वर्तुलाकार कक्षा में, एक वृत्तीय कक्ष में घूमता रह जाता है। तो ऐसा लगेगा कि वो बहुत कुछ कर रहा है, पर हो क्या रहा है उसका?
तो ये उस हर पदार्थ की, मन की, जीव की दशा है, दो विपरीत बलों के मध्य जो फँस गया हो। एक तरफ कुछ है जो खींच रहा है उसको दक्षिण। और एक तरफ है जो उसको करता है उत्तरगामी। आप सोचेंगे कि वो बिलकुल फँस कर स्थिर हो जाएगा, स्टैटिक एक्विलिब्रियम में आ जाएगा। ऐसा नहीं होता। जो फँसा होता है, वो भी गति बहुत करता है, किसकी तरह? इलेक्ट्रॉन की तरह। इलेक्ट्रॉन पता है न कितने चक्कर काटता है? गति बहुत करता है, पहुँचता कहाँ है? कहाँ पहुँचता है? वो वहीं घूमता रहता है। ज़िन्दगी भर कहीं नहीं पहुँचता। छटपटाहट बहुत है उसमें। बल उस पर इतने काम कर रहे हैं, गति भी खूब कर रहा है। भौतिकी की भाषा में कहें तो दूरी बहुत तय कर रहा है, विस्थापन कुछ नहीं है। “विस्थापन” नहीं है।
वस्तुतः वो जिस जगह पर है, जिस स्थिति पर है, जहाँ अवस्थित है, वहाँ से हिल नहीं पा रहा। कोई अनाड़ी देखेगा तो कहेगा, “नहीं भाई साहब! ये तो बड़ा मेहनती है, मेहनत बहुत करता है, इधर जाता है, उधर जाता है, देखो क्या करता है दिन भर।” और अगर तुम देखोगे उस इलेक्ट्रॉन को नाभिक के इर्द-गिर्द घूमते हुए, तो कोई दिशा ऐसी नहीं है जिस दिशा वो इलेक्ट्रॉन ना गया हो।
(हाथों के इशारे से समझाते हुए) ये नाभिक है यदि, नुक्लियस है, और इलेक्ट्रॉन यहाँ पर है, तो वो किस दिशा जा रहा है? जो टेंजेंट की दिशा होती है। वो किधर को चला? इधर को। और घूम कर यहाँ पहुँचा, अब वो किस दिशा जा रहा है? अब वो इधर पहुँचा, अब वो किस दिशा जा रहा है? कोई दिशा ऐसी है जो इलेक्ट्रॉन ने आज़मायी ना हो? कोई उपाय है जो इलेक्ट्रॉन ने किया ना हो? ३६० डिग्री जितनी भी दिशाएँ होती थीं, सब बेचारे ने प्रयोग कर के देख ली, आज़ादी मिली? जो कुछ कर सकता था सब कर लिया उसने, आज़ादी मिली? और लगातार घूमे ही जा रहा है। ऐसा जैसे कि आशा का बंधुआ मज़दूर हो। थमता भी नहीं, मरता भी नहीं। एक ही ग़लती बार-बार करता है, एक ही कक्षा में बार-बार घूमता है। उम्मीद कायम है कि यही करते-करते, यूँ ही पुराने चक्रों पर चलते-चलते एक दिन आज़ाद हो जाऊँगा, एक दिन उड़ जाऊँगा। ये इलेक्ट्रॉन की कहानी है या जाने हमारी कहानी है, आप जानिए।
फिर चमत्कार होता है! उस चमत्कार को कहते हैं क्वांटम लीप * । * क्वांटम लीप का मतलब ये होता है कि ऐसा नहीं कि इलेक्ट्रॉन ज़रा सा आगे बढ़ गया अपनी कक्षा से! क्वांटम लीप का मतलब होता है, कि जो यहाँ था, जो n = १ कक्षा में था, वो अचानक २ में आ गया, और बीच में कुछ नहीं है। एक और दो के बीच में कोई पुल नहीं है, बिना पुल के नदी पार हो गयी। एक और दो के बीच में कोई पुल नहीं था, बिना पुल के नदी पार हुई। जो यहाँ था, वो वहाँ पहुँच गया और यहाँ से यहाँ की यात्रा नहीं करी है उसने। शनैः शनैः नहीं पहुँचा है, ग्रेजुअली नहीं पहुँचा है, क्रमशः नहीं पहुँचा है। यकायक, अनायास, जादुई तौर पर छलांग मार गया है। इसे कहते हैं *क्वांटम लीप*। बिना पुल के पार कर जाना, बिना पंखों के उड़ जाना। बिना कारण ही जैसे कुछ हो गया हो, अज्ञात शक्ति मिली हो उसको और उस शक्ति ने उसको उठा कर के कहीं और स्थापित कर दिया।
क्वांटम लीप का मतलब आज़ादी नहीं होता। लेकिन क्वांटम लीप का ये मतलब ज़रूर होता है कि अब तुम में पहले से ज़्यादा सामर्थ्य है भाग जाने की। और शक्ति यदि अगर बढ़ती रही तुम्हारी, तो एक अवस्था ऐसी भी आती है जैसी इलेक्ट्रॉन की भी आती है, कि फिर वो नाभिक के बल को पूरे तरीके से लांघ कर, फांद कर, उल्लंघन कर के आज़ाद हो जाता है। उसको कहते हैं 'थ्रेशहोल्ड लेवल ऑफ़ एनर्जी '। उतनी मिल गयी तो उसके बंधन हमेशा के लिए टूट गए। उतनी नहीं मिली तो अभी वो n = १, २, ३, ४, अलग-अलग कक्षाओं में स्थापित होता रहेगा। उतनी मिल गयी तो भाग जाएगा, ब्रेक अवे हो जाएगा।
जैसे कि तुम एक पत्थर यहाँ से उछालो, तो तुम्हें क्या लगता है कि वो पत्थर कितनी भी गति से उछालते रहोगे वो नीचे ही आता रहेगा? हमारा आम अनुभव यही है। हम पत्थर अगर ज़रा सी गति से उछालें, तो वो थोड़ा सा ऊपर जा कर नीचे आ जाता है। और अगर हम पत्थर थोड़े और वेग से उछालें तो वो थोड़ा और ऊपर जा कर थोड़े और समय बाद नीचे आता है। ऐसा ही होता है न? आपको क्या लगता है, आप उसको कितनी भी गति देते रहे, वो सदा नीचे ही आएगा? एक गति ऐसी होती है जिसके बाद वो पत्थर नीचे आता ही नहीं। वो आज़ाद हो गया। क्या बोलते हैं उसको?
प्र: *एस्केप वेलोसिटी*।
आचार्य: एस्केप वेलोसिटी , ग्यारह दशमलव दो कि.मी. प्रति सेकंड। इतनी गति से आपने पत्थर उछाल दिया, तो वो आज़ाद हो गया। वो पृथ्वी से, गुरुत्वाकर्षण से, सारे बंधनों से आज़ाद हो गया।
इसका मतलब ये है कि एक मियाद, एक सीमा आती ज़रूर है जिसके बाद तुम पुराने ढर्रों में लौट कर नहीं जाते। जो बंधा हुआ है, अगर उसको इतनी ऊर्जा दे दी जाए, इतनी समझ दे दी जाए, इतनी आज़ादी दे दी जाए, कि वो एक सीमा लांघ जाए, तो फिर वो नहीं लौटेगा। उतनी नहीं दी तो लौट आएगा। आज़ादी संभव है, बस ज़रा ज़ोर लगाना पड़ेगा। ऐसा नहीं होता है कि इलेक्ट्रॉन अभिशप्त है आजीवन कारावृतों में घूमने के लिए। और ये जो आज़ादी आती है ये यकायक आती है, अनायास आती है। पहले कक्ष और दूसरे कक्ष के बीच में कोई कक्षा नहीं होता। या तो वो पहली कक्षा में होगा या फिर दूसरी कक्षा में होगा। और पहली और दूसरी कक्षा के मध्य एक बड़ा फासला होता है। और उस फासले में कोई सम्भावना नहीं है। या तो आप वहाँ हैं, या आप वहाँ हैं, आप बीच में नहीं हो सकते। ये क्वांटम जम्प है। या तो यहाँ होगे या वहाँ होगे, बीच में कोई सम्भावना नहीं है।
तुम्हें तय करना है कहाँ हो। इलेक्ट्रॉन मृत है, जड़ है। उसको बाहर से ऊर्जा दी जाती है तो वो आज़ाद हो जाता है। आप सजीव हो, आप चैतन्य हो, आपकी ऊर्जा आपके अपने अंतराह्वान और सहमति से ही उठेगी। बाहर से आकर कोई आपको कितना झंझोड़ दे, कितनी प्रेरणा दे, आप आज़ाद नहीं हो जाओगे। आप जिन चक्करों में बंधे हो उनसे छूटने, उनसे निवृत्ति का, आपका संकल्प मात्र ही आपकी आज़ादी बनेगा। इलेक्ट्रॉन को ऊर्जा कहाँ से मिलती है? बाहर से। आपको कहाँ से मिलेगी? अंदर से। ये बाहर-बाहर से भी जो कुछ किया जा रहा है, सिर्फ अंतर्ज्वाला को प्रज्ज्वलित करने की, धधकाने की कोशिश में किया जा रहा है।
जैसे मोमबत्ती को कोई लौ दिखाए, लगेगा यूँ जैसे बाहर से कुछ किया जा रहा है। अरे! बाहर से क्या किया जा रहा है? क्या कोशिश है? अंदर उसके जो है वो प्रज्ज्वलित हो जाए, वो अभिव्यक्त हो जाए। तो बाहर वाले के सहारे मत रहना। बाहर वाला बड़ा मजबूर है। एक तरह से याचक है, तुम्हारे सामने हाथ जोड़ कर खड़ा है। तुमने तो कह दिया “गुरुर ब्रह्म, गुरुर विष्णु”, ऐसा कुछ होता नहीं। ना ब्रह्मा, ना विष्णु, ना महेश। तुम ही ब्रह्मा हो, तुम ही विष्णु, तुम ही महेश। अपने सहायक तुम ख़ुद हो। और जिनकी सहायता नहीं हो रही, उनकी सिर्फ़ इसीलिए नहीं हो रही, क्योंकि उन्हें कोई सहायता चाहिए नहीं।
जो इलेक्ट्रॉन अपने कक्ष को ४ बी.एच.के कहने लगे और वहीं खुश हो जाए, उसका क्या हो सकता है? कौन सी आज़ादी? और उस ४ बी.एच.के के केंद्र पर वो धनात्मक चार्ज भी बैठा हुआ है प्यारा सा; प्रोटॉन * । उसके चक्कर काटने में जो सुख है, "आहा! इधर ऋण, उधर धन।" नकारात्मक, सकारात्मक के चक्कर काटे ही जा रहा है। इधर कुछ कमी है, * नेगेटिव है, ऋणात्मक है, और उधर क्या है? प्रतीत होता है कुछ ज़्यादा ज़्यादा है। उधर से कुछ मिल जाएगी। तो कर रहे हैं, क्या? बच्चू गली के चक्कर काट रहे हैं ऐसे-ऐसे (गोल-गोल)। काटो! और भीतर-ही-भीतर छटपटाहट भरी हुई है। भाग भी जाना चाहते हैं। जानते हो छटपटाहट ना होती तो क्या होता? सेंट्रीपीटल फोर्स अगर ना हो, तो तुरंत ही पूरा परमाणु विनष्ट हो जाएगा। क्योंकि जा कर के सारे इलेक्ट्रॉन न्यूकलिअस में गिर जाएँगे, ख़तम, सब ख़तम।
तो आज़ादी की छटपटाहट है, पूरी है, इसीलिए वो हो रहा है जो हो रहा है। अपने आसपास जो होते देखते हो न, अपना जीवन, दुनिया की ये सब चाल, गति, ये पूरी सामाजिक व्यवस्था, ये इन्हीं दो बलों का असहज संतुलन है। संतुलन है पर कैसा? असहज संतुलन।
एक ओर कुछ है जो हमें बंधन से छूटने नहीं देता, और दूसरी ओर कुछ है जो बंधन से राज़ी नहीं होता। और ये दोनों आपस में लगातार गुत्थमगुत्था हैं। एक संतुलन पर आ गए, एक एक्विलिब्रियम पर आ गए, और उस एक्विलिब्रियम का नाम है हमारा जीवन।