मन के स्रोत से निकटता ही है मन की ताकत || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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मन के स्रोत से निकटता ही है मन की ताकत || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: मेरा सवाल ये है कि हमने पहले कई सत्रों में चर्चा की है कि इच्छा से परेशानी नहीं होती, आसक्ति से परेशानी होती है। हम इच्छा कर सकते हैं लेकिन हम दुखी इसीलिए हो जाते हैं क्योंकि हम उससे आसक्त हो जाते हैं। लेकिन यहाँ इच्छा से मुक्त होने की बात की गई है?

आचार्य प्रशांत: ये भाषा फिर से वही भाषा हो जाएगी जो बहुत व्याकुलता पैदा करती है - “हम इच्छाएँ कर सकते हैं, लेकिन उनसे आसक्त नहीं हो सकते।” आप तो कह रहे हैं कि बोध सत्र में ये बात हुई थी कि ‘इच्छा नहीं आसक्ति’। इसी बोध सत्र में मैंने कई-कई बार कहा है कि ये ‘हम’ से हट कर ‘मैं’ पर आइए, फिर उस ‘मैं’ को देखिए। इच्छा कौन करता है? ये नहीं कहा जा रहा है कि ‘हम इच्छाएँ कर सकते हैं’, क्योंकि ये तो पूरी चीज़ ही घपले वाली हो गई है। इच्छा कौन करता है? इच्छा किसको होगी?

प्र: जो ‘अहंकार’ है, वो तो है ही इच्छा।

आचार्य: अहंकार क्या है? चलिए अहंकार पर आते हैं, अहंकार क्या है?

प्र: अहंकार एक गठरी है विचारों और इच्छाओं की।

आचार्य: और गहराई से, अहंकार क्या है?

प्र: ‘मैं हूँ’ चेतना।

आचार्य: जब अहंकार बोलता हैं, "मैं कुछ हूँ" या जब भी ये वाक्य आता है, "मैं कुछ हूँ" तो इसी का नाम अहंकार होता है। अब “मैं इच्छा हूँ”, ये ख़ास तरह का अहंकार है। कोई है ज़रूरी थोड़े ही है कि ‘मैं हूँ’ के आगे आप इच्छा लगाओ। अहंकार माने ‘मैं’, शाब्दिक अर्थ भी ईगो का यही होता है।

अब ‘मैं’ के आगे ये ज़रूरी थोड़े ही है कि आप यही जोड़ो कि “मैं कामना हूँ।” मैं का विषय कुछ और भी तो हो सकता है न? ये किसने कह दिया कि ईगो जब भी रहेगा, तो उसके साथ में ये-वो तमाम तरह की बातें रहेंगी? सारा खेल ही इस बात का है कि आपका ‘मैं’ किसके साथ जा कर के जुड़ जाता है।

आखिरी कदम होता है कि जहाँ पर ‘मैं’ किसी के साथ भी नहीं जुड़ा है। वो तो आख़िरी स्थिति होती है कि ‘मैं’ कहीं भी नहीं जुड़ा है। पर जब तक ‘मैं’ जुड़ रहा है, तब तक तो ये देखना ही है कि ‘मैं’ कहाँ जुड़ा हुआ है। ‘मैं’ कामना के साथ भी जुड़ा हो सकता है और ‘मैं’ में ये गहरी धारणा भी हो सकती है कि, “मैं ये सब नहीं हूँ।” वो भी अहंकार ही है ध्यान से देखा जाए तो। है तो वो भी अहंकार ही, पर वो मुक्ति की तरफ ले जा रही है। अहंकार अपने-आप में कोई एक चीज थोड़े ही है कि उसको बोल दिया कि ये विचार और इच्छाएँ होता है।

अहंकार ही तो अपना रास्ता खुद है न। सारी जो आपकी बोध की गति है, वो भी तो अहंकार के भीतर-भीतर ही है। एक आदमी बोलता है, बिलकुल उसे गहराई से प्रतीति है कि, "मैं पुत्र हूँ" और दूसरा आकर बोलता है कि, "मैं ब्रह्म हूँ"; इन दोनों के बोलने में अंतर आ चुका है। वक्तव्य तो दोनों के ही अहंकार के हैं क्योंकि दोनों में ही ‘मैं हूँ’, शामिल है पर बहुत अंतर आ चुका है।

तो ये कभी नहीं कहा गया है कि हम इच्छाएँ कर सकते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि हम उनसे आसक्त हों। जब आपका मन शुद्ध हो चुका है, तो इच्छाएँ मन में कैसे आएँगी? और एक मन के साथ ऐसा कैसे संभव है कि जिसके पास सभी तरह के मलिनतापूर्ण इच्छाएँ हैं, वो आसक्ति से मुक्त हो जाएगा? मैंने ये कभी भी नहीं कहा है कि आप सभी तरह की इच्छाएँ रख सकते हैं और इसके बाद भी आप आसक्ति से मुक्त हो सकते हैं। और कहा भी होगा तो किसी ख़ास सन्दर्भ में कहा होगा।

मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि एक मन जो इतना बिखरा हुआ है, इतना कमज़ोर है कि उसमें दुनिया भर की वासनाएँ उठती हैं, उसमें ये ताकत कहाँ से आ जाएगी कि वासनाएँ तो दुनिया भर की उठें पर वो आसक्त किसी से ना हो जाए? उसमें इतनी ताकत होती ही तो उसमें वासनाएँ ही क्यों उठती?

मन की ताकत तो मन की स्त्रोत से समीपता ही है।

मन स्त्रोत से जितना नजदीक होगा, उतना आत्मबल होगा उसमें। वही ताकत है उसकी। और मन स्त्रोत के जितना करीब होगा, वासनाएँ उसमें उठेंगी ही क्यों फ़ालतू?

वासना का अर्थ ही होता है कि जो परम इच्छित वस्तु हो सकती है, उससे मैं बहुत दूर हूँ क्योंकि मैं बहुत दूर हूँ इसीलिए मुझे ये छोटी-छोटी, टुच्ची चीज़ें बड़ी आकर्शित करती हैं। जो परम सम्पदा है उससे मैं इतना दूर हूँ कि फिर मुझे ये दो रुपये और चार रुपये भी आकर्षित करने लग जाते हैं। मैं ऐसा भिखारी हूँ कि अठन्नी भी मेरे लिए बहुत बड़ी बात हो जाती है। तभी तो मन में हज़ार तरह की वासनाएँ उठती हैं न।

तो इसीलिए मैंने आपसे पूछा कि पूछिए कि, "कौन है जिसकी इतनी वासनाएँ उठ रही हैं?" जिसकी इतनी वासनाएँ उठ रही है, वो निश्चित रूप से बड़ा अशुद्ध मन है, बड़ा विकृत मन है, एकदम भटका हुआ है। वो स्त्रोत से बहुत ही दूर है, तभी तो उसमें ये वासनाएँ उठ रही हैं।

खेल इस बात का नहीं होता है कि वासना उठी और उससे आसक्त हुए कि नहीं हुए। खेल इस बात का है कि मन ऐसा हो जाए कि मन में ऐसी उलटी-पुलटी बात आएँ ही ना।

जीत आपकी इसमें नहीं है कि आपने मन को काबू कर लिया, जीत इसमें नहीं है कि आप डर पर विजय प्राप्त कर रहे हैं, जीत इसमें नहीं है कि लालच उठ रहा है, और आप लालच को जीते जा रहे हैं क्योंकि ये बड़ी संघर्ष की स्थिति है कि लालच उठ रहा है, और आप लालच से लड़ रहे हैं। इसमें कोई खास मज़ा नहीं है। मज़ा तो तब है, जब लालच उठा ही नहीं।

यहाँ पर अभी रख दी जाएँ मिठाइयाँ। और आप सब बड़े संयमी लोग हैं, आप बड़ी कोशिश कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं कि हाथ नहीं बढ़ाएँगे मिठाई की ओर। ये आपके लिए बड़ी आनंद की स्थिति है? आपके दो फाड़ हो चुके हैं, इसमें क्या मज़ा आ रहा है आपको? बात तो तब है, जब रखी हो और आप ऐसे बैठे हो, जैसे रखी ही नहीं है, कि, "हमारे भीतर अब कुछ उलटा-पुलटा उठता ही नहीं है, तो नियंत्रित करने का सवाल ही नहीं उठता।"

ये तो जो आपने बात कही, ये तो बड़ी मन के लिए सुविधाजनक बात है कि आप सभी तरह की इच्छाएँ कर सकते हैं, पर आप आसक्त नहीं होंगे। मन जब ऐसा है अभी कि जिसमें ज़रा-ज़रा सी चीजों के लिए कामना उठ जाती है, वो मन आसक्तिरहित हो कैसे जाएगा? ये बताइए?

प्र: जब आखिरी बार चर्चा हो रही थी, वो बिंदु जो हमारी मन वाली गतिविधि में है न कि ‘मन इच्छा है’, तो आपने बोला था कि ऐसे ही चलेगा ये। मतलब कि हमें ए, बी, सी, डी किसी से भी आसक्त नहीं होना है।

आचार्य: क्या ए, बी, सी, डी?

प्र३: ए कोई इच्छा है, फिर मुझे बी चाहिए, फिर सी, इसी तरह एक से दूसरे में स्थानांतरित होता जाएगा।

आचार्य: ए, बी, सी, डी जब बदलते हैं, तो वो बदलना एक ही तल पर नहीं होता। अभी-अभी मैंने आपसे कहा था कि एक कह रहा है कि, ‘मैं भ्रम हूँ’ और एक कह रहा है कि, ‘मैं ब्रह्म हूँ’, ‘ए’ से ‘बी’ में कुछ बदला? मैं ‘ए’ हूँ और मैं ‘बी’ हूँ, अरे! अंतर है भई, अंतर कैसे नहीं है? वो एक ही तल पर बदलाव थोड़े ही हुआ है।

एक आदमी जा कर के कहता है कि, "मुझे काम चाहिए" और एक जाकर के कहता है कि, "मुझे मोक्ष चाहिए", दोनों एक ही चीज़ थोड़े ही माँग रहे हैं। अभी आप कह रहे हैं कि, "मुझे ‘ए’ चाहिए" और ए है सेक्स और साल भर बाद आप कह रहे हैं, "मुझे मुक्ति चाहिए, ‘बी’ मुक्ति है।" आपको क्या लगता है कि अभी आप उसी तल में घूम रहे हैं? बहुत कुछ बदल गया है।

तो ठीक कहा गया है उसमें ए से बी, बी से सी, सी से डी चलता रहेगा पर ए, बी, सी, डी एक ही तल में रहेंगे, ये थोड़े ही कहा गया है; कि आज आपको मिठाई चाहिए, कल समोसा चाहिए होगा, परसों पकौड़े चाहिए होंगे, ये थोड़े ही कहा गया है। ये बात उठने की है। उसको आपने बड़ा गलत समझ लिया कि ए, बी, सी, डी मानो एक ही प्रकार की चीज़ें हों। मैं एक ही प्रकार की चीज़ों की बात नहीं कर रहा हूँ। ए, बी, सी, डी अलग-अलग आयाम हो सकते हैं। वो भ्रम से ब्रह्म तक की यात्रा है।

प्र: सर, लेकिन ये भी तो है कि विचार आते रहेंगे हमेशा।

आचार्य: नहीं, तुम्हें कैसे पता कि आते ही रहेंगे? तुम अपना ही उदाहरण ले लो। तुम्हारा अपना अनुभव क्या कहता है? तुम्हें सदा एक ही गति से विचार आते रहते हैं? तो जब तुम्हें ही बहुत ज़्यादा आते हैं और कभी बहुत कम आते हैं, तो तुम आश्वस्त कैसे हो सकते हो कि आते ही रहेंगे?

प्र: बात तो यही होती है न ‘मन विचार है’, सर, ये भी तो है कि विचार तो उठते ही हैं…

आचार्य: मैं तुमसे पूछ रहा हूँ कि तुम्हारे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ कि विचार रुक गए हों?

प्र: हाँ, होता है।

आचार्य: फिर?

प्र: लेकिन आमतौर पर नहीं होता है।

आचार्य: अरे! जो घटना दो क्षण को घट सकती है, वो क्या लम्बे समय के लिए नहीं घट सकती? तो फिर क्यों कह रहे हो कि विचार तो आते ही रहेंगे? ऐसी क्या अनिवार्यता है कि आते ही रहेंगे?

प्र: लेकिन सर, ये बात तो हो चुकी है कि विचारहीनता कोई चीज़ होती ही नहीं।

आचार्य: अरे! जब हुई थी तब हुई थी, कुछ सन्दर्भ रहा होगा। तब किसी ने उठ कर के कुछ बोला होगा तो ये बात कही गई होगी। पर उसके बाद से देखो कितनी नई पत्तियाँ आ गई हैं अपने गमले में।

प्र: सर, ‘शून्य विचार’ जैसा कुछ होता है?

आचार्य: इसी तरह किसी ने कुछ बोला होगा तो मैंने कहा होगा कि नहीं होता है। फिर तुम वो कहोगे तो फिर हमें कहना होगा कि नहीं होता है क्योंकि ये भी एक विचार है। पर मैं ये इसीलिए थोड़े ही कहता हूँ कि तुम इस बात को अपना सहारा बना लो कि विचार तो हमेशा आते ही रहेंगे।

देख रहे हो दोनों ने एक ही काम करा है। इन्होंने अपनी सहूलियत के लिए पकड़ लिया कि विचार से तो कोई मुक्ति होती नहीं, विचार तो चलेंगे ही हमेशा। उन्होनें इस बात को पकड़ लिया कि इच्छाएँ तो हमेशा रहती ही हैं, उनसे आसक्त मत होना। तो अब विचार मिल गया इनको, विचार में मस्त रहो, उनको इच्छा मिल गई, वो अपनी इच्छा में व्यस्त रहेंगे।

अरे, कभी भी पूरी बात थोड़े ही कही जा सकती है भाई। बात तो हमेशा जो कही जाएगी वो आंशिक ही होगी न। उसको ज़रा ध्यान से सुनो, उसको सन्दर्भ में रखो। ये थोड़े ही है कि उसके एक हिस्से को पकड़ लिया और सोचा कि इसी को दना-दन चला दें।

प्र: सर, ये भी तो है कि, विचार सिर्फ़ मेहमान होते हैं।

आचार्य: कई तरह के होते हैं मेहमान, ये अंतर करोगे कि नहीं करोगे? है तो मेहमान ही पर कई तरह के होते हैं। लुटेरे भी होते हैं, मेहमान बनकर आते हैं और परम भी आता है मेहमान बनकर। तो कुछ अंतर करोगे? इसी को विवेक कहते हैं, *डिस्क्रीशन*। कुछ रहेगा कि नहीं रहेगा? है तो मेहमान ही।

प्र: सर, लेकिन वही तो होता है कि जिस समय समझ में आ गया, वो चला गया उसी समय।

आचार्य: वो चला इसीलिए गया क्योंकि मन को अब उसकी आवश्यकता नहीं रही। एक बात ध्यान से समझो, मन वही करता है जिसके बारे में उसको शिक्षा दी गई है कि ये आवश्यक है। तुम्हें अगर शिक्षा दी गई है कि इस स्थिति में खतरा है तो तुम सोचोगे, सोचोगे कि, "जान कैसे बचाएँ? भागें कैसे?" वहीं अगर तुम्हारी शिक्षा बदल दी जाए, मन का प्रशिक्षण बदल दिया जाए कि ठीक-ठाक है कोई दिक्कत नहीं है, तो कोई विचार नहीं आएगा।

विचार क्या है? विचार तो मन का प्रशिक्षण है। मन को सुख चाहिए, ठीक है न? मन को सुख चाहिए और सुख मन को सिर्फ़ और सिर्फ़ इस तरीके का चाहिए कि, "मैं बना रहूँ।" यही मन के लिए सुख है, ‘मेरा होना’। तुमने जाहे में मन को बता दिया कि सुख है, मन उधर को ही जाएगा। और अगर वो चीज़ नहीं मिल रही है, तो फिर वो विचार करेगा कि, "कैसे पा लूँ?" विचार मन का हथियार है सुख को पाने का।

विचार क्या है? विचार मन का उपकरण है, जिसके द्वारा वो सुख को पाने की कोशिश करता है और दुःख को टालने की।

विचार क्या है? विचार, जो नहीं है उसको पाना है और जो खतरा आ रहा है, उसको टालना है। तो विचार मन का उपकरण है ये दोनों करने के लिए। लेकिन सुख क्या है और दुःख क्या है ये मन को किसने बताया? ये तुम्हीं ने बताया न? मगर सुख और दुःख की थोड़ी प्रबुद्ध परिभाषा दे दो मन को, फिर उसको विचार की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी न।

मान लो यहाँ बैठे हो, ये सत्र चल रहा है, तुमने मन को सुख की परिभाषा ही ये दे रखी है कि सुख तब है जब पकौड़ा आ जाए। तो अभी मैं कह रहा हूँ पर मन में विचार ये लगातार चलता रहेगा, क्या चलता रहेगा?

श्रोतागण: पकौड़ा आ जाए।

आचार्य: तुम परिभाषा बदल दो सुख की। तुम कहो, “पकौड़ा दो कौड़ी का, सड़ा हुआ तेल, थका हुआ, पता नहीं उसमें क्या डाल कर लाता है, पकौड़े की कोई कीमत नहीं। अरे! ये जो बात हो रही है, ये ज़्यादा महत्वपूर्ण है।” तुम मन को समझा दो। अब मन विचार करेगा कि, "पकौड़ा कब आएगा?" तो ऐसा नहीं है कि विचार कहीं से यूँ ही उठने लगता है। विचार उठेगा कि नहीं उठेगा और कब उठेगा, कैसा उठेगा ये भी तय तुम ही करते हो कि तुम मन को क्या शिक्षा दे रहे हो। तुम मन को सही शिक्षा दो तो विचार बदल जाएगा।

प्र: सर, ये जो मन को शिक्षा देने की बात कही आपने ये तो खुद ही देनी पड़ेगी?

आचार्य: और कौन देगा?

प्र: मन खुद ही अपने-आप को देगा?

आचार्य: बिलकुल! बिलकुल! और इसीलिए कहा जाता है न कि तुम्हारा गुरु और कोई हो ही नहीं सकता है क्योंकि आखिर में तुम्हारी ही सहमति चाहिए मन को कुछ बोलने के लिए। बाहर से कोई बात तुमने सुन भी ली, तो भी अंतिम तो तुम ही हो, सबसे बड़े मालिक तो तुम ही हो। तुम ही को मन को कहना पड़ेगा कि, ‘हाँ भाई, ये बात जो थी ठीक है, अब ये तू मान ले।’ फिर मन मान लेगा, ठीक है मन ने मान लिया।

मन तो मन है, मन की चेतना तो तुम हो न, मन के मालिक तो तुम हो न। मन अपने-आप में तो सिर्फ एक मशीन है, एक प्रयोग करने का यंत्र है, इसकी ऊर्जा तो तुम हो न। उसका बोध तो तुम हो न।

प्र: तो फिर चेतना हमें गलत बात मानने को कैसे मना लेती है?

आचार्य: जब वो मन से ही ज़्यादा मिल जाती है। जब चेतना, चेतना नहीं रहती है, जब वो मन से ही मिल जाती है, तो गन्दी हो जाती है। जब पुरुष नहीं रहता पुरुष, वो प्रकृति से बिलकुल…(हाथों से मिलने का संकेत करते हुए)। तो फिर कुछ पता नहीं होता उसको कि अपनी बात कह रहा है या मन की बात कह रहा है।

तो ये जो कहते हैं कि, "विचार बहुत उठता है! विचार बहुत उठता है!" विचार इसीलिए उठता है क्योंकि तुमने विचार को उठने का प्रशिक्षण दे रखा है। तुम प्रशिक्षण बदल दो, विचार नहीं उठेगा। विचार को और थोड़े ही कुछ किया जा सकता है कि दबा दिया, कि ये कर दिया, या कि नुस्खे खोज लिए कि विचार तो उठे, पर उससे आसक्त ना हों।

ये करोगे कैसे, तुम ये समझा दो? तुम यहाँ बैठे हुए हो और ऐसा तुम्हारा बीमार मन है कि मन में लगातार ख्याल ही उठ रहा है कि, "कब निकालूँ छुरा और बगल वाले को मार दूँ!" तो ये मन कैसा है और ये विचार उठ काहे के लिए रहा है? तुम बताओ न? सबसे सुखी तो वो है न जिसको विचार उठे ही नहीं।

जा रहे हो ट्रेन में और दो लोग अगल-बगल बैठे हैं सीटों पर, शताब्दी चली जा रही है। एक बैठा हुआ है और उसको दुनिया भर के विचार आ रहे हैं कि अभी-अभी मलेशिया का वो हवाईजहाज़ उड़ा था वो गायब हो गया, वैसे ही ये ट्रेन गायब हो जाए तो। विचार का क्या है, क्यों नहीं आ सकता? बैठ कर के अखबार पढ़ रहे हो, उसमें यही लिखा हुआ है कि मलेशिया का हवाईजहाज़ अभी तक मिला नहीं। कह रहे हैं, “देखो ये शताब्दी जा रही है, वैसे ये भी गायब हो जाए फिर?" और सत्तर देशों की सेना फिर लगी हुई है और शताब्दी नहीं मिल रही। अभी घर वालों का क्या होगा? सोच रहे हैं और विचार पता नहीं कहाँ-कहाँ उड़ रहे हैं।

और दूसरी ओर आपके ही बगल में कोई बैठा है और वो शांत है उसको विचार आ ही नहीं रहा है। और ये तीसरा आदमी है जिसको आ रहा है, पर वो उसको दबा रहा है। तीनों में सुखी कौन है?

श्रोतागण: दूसरा…

आचार्य: जिसको आ ही नहीं रहा। "अरे, हमें आता ही नहीं ऐसा विचार।" तो, आसक्ति-अनासक्ति की बात नहीं है न। वो मनीष जी बैठे हैं, वो कह रहे हैं कि, "आ तो रहा है, पर हम आसक्त नहीं हैं।" और आ रहा है, अभी और आ रहा है पर आसक्त नहीं हैं। पसीने छूट रहे विचार के आने से, आसक्त नहीं हैं। सबसे भला तो ये है कि ऐसा कोई विचार आए ही नहीं।

प्र: मन को ऐसे आचरण का कैसे बनाएँ?

आचार्य: मन को परिभाषाएँ आपने ही दी हैं, परिभाषाएँ बदल दीजिए। आपने तो मन को लगातार सिखा दिया है न कि सुख कहाँ है। मन को दूसरी परिभाषा दीजिए, मन भागेगा ही नहीं।

ये जितनी सब बातें हैं न चित्तवृत्ति निरोध और ये सब, इन सब से आगे की बात कबीर कह गए हैं कि मन को यार बना लो अपना। वो तुम्हें तंग ही ना करे। मन से लगातार संघर्षरत रहने में तुम्हें क्या मिल जाएगा कि, "मन भाग एक तरफ को रहा है, पर हम बड़े तपस्वी हैं उसको कहीं जाने नहीं देंगे"? खींच रहे हैं, क्या कर रहे हैं।

इसके लिए है ज़िंदगी कि मन एक तरफ को भागे और तुम डंडा ले कर के उसको रगेद रहे हो? जिंदगी इसीलिए है क्या? जिंदगी ऐसी है कि मन से दोस्ती है। बड़ा प्यारा है, ’अपने-अपने चोर को सब कोई डारे मार’, सबने मन को चोर बना रखा है और वो उसको मारने के चक्कर में लगे रहते हैं। ‘मेरा चोर मुझको मिले सबकुछ डारु वार’, ‘’मैंने मन से यारी कर ली है, मैंने सब कुछ उस पर न्योछावर कर दिया, मन से मेरी कोई दुश्मनी ही नहीं है। वो इधर-उधर फ़ालतू भागता ही नहीं है, दोस्त है मेरा। मैं जहाँ रहता हूँ वो मेरे साथ रहता है।’’ यही तो दोस्ती होती है न कि, ‘’मैं जहाँ हूँ मन वही है, मन इधर-उधर नहीं भागता है।’’

बुरी-से-बुरी स्थिति में भी आप हैरान इसीलिए हो जाते हो क्योंकि मन में विचार उठने शुरू हो जाते हैं उलटे-पुलटे। विचार ना उठें तो स्थिति कैसी भी रहे आपको फर्क क्या पड़ेगा? मन के मूल्य ठीक करिए। क्या महत्त्वपूर्ण है, क्या महत्त्वपूर्ण नहीं है ये आपने ही मन को सिखाया है। उसको बदल डालिए। बताइए मन को कि कुछ मूल्य नहीं है फ़ालतू की बातों का, ये करने का, वो करने का और थोड़ा सा सतर्क रहिए।

मैं एम.आई.टी में था, तो वहाँ पर विद्यार्थियों को मैंने एक अभ्यास दिया, वो आप लोग भी कर के चाहे तो देख लीजिए। मैंने कहा कि, “तुम्हारे कॉलेज के बगल में ही मॉल है, वहाँ जाकर खड़े हो जाना। वहाँ उस सब को देखना जो तुम्हारे भीतर कोई मूल्य बैठाने की कोशिश की जा रही है।" मैंने कहा कि, "देखना कि किस तरीके से एक बीमा के विज्ञापन में एक चिकना सा मर्द है, उसकी चिकनी सी बीवी है और दो खरगोश जैसे बच्चे हैं। ये तुम्हारे मन में एक मूल्य बैठाने की कोशिश की जा रही कि इसी का नाम सुख है। उसको ध्यान से देखना और फिर अपने-आप से ये कहना कि ये झूठ है।”

पहले इस बात को समझो कि तुम्हारे मन को वो सिखाने की कोशिश की जा रही है कि यही महत्त्वपूर्ण चीज़ है। जैसे ही मन को ये सीख दे दी गई कि यही महत्त्वपूर्ण है, विचार उठेगा, मन में विचार उठेगा कि, "इसको पाऊँ कैसे?" मैंने कहा कि, "सड़क पर तुम जा रहे हो, और वहाँ लाल बत्ती की एक गाड़ी जा रही है, उसके पीछे आठ-दस गाड़ियों का और काफिला जा रहा है, ये तुम्हारे मन को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है कि ये चीज़ महत्त्वपूर्ण है, ये पाने लायक है।" मैंने कहा, ”उसको ध्यान से देखना खड़े हो कर के और फिर ज़ोर से बोलना कि ये झूठ है।”

फिल्म देख रहे हो, वहाँ पर तुमको ये दिखाया जा रहा है कि जब कोई बिलकुल आनंद मनाना चाहता है तो वो गोवा जाता है और बीच पर नंगा होकर नाचता है। उस चीज़ को ध्यान से देखना और फिर अपने-आप से कहना कि ये झूठ है। नहीं तो हमेशा यही होता रहेगा कि रहोगे कार्यालय में और मन इस विचार में लगा रहेगा कि, "किस तरीके से जाऊँ और बीच पर नाचूँ?"

ये तुम्हारे भीतर मूल्य बैठाने की कोशिश की जा रही है। इसी से विचारों का उपद्रव पैदा होता है। विचार ऐसे ही नहीं कहीं से टपक पड़ते, विचारों के लिए पहले पूरी एक ज़मीन पहले तैयार की जाती है। मन को एक प्रकार की शिक्षा दी जाती है कि यही तो महत्वपूर्ण है। फिर जब वो तुम्हें मिलता नहीं तो विचार उठता है, विचार उठता है कि, “इसको पाऊँ कैसे?”

तो जिन-जिन स्रोतों से मन को प्रशिक्षण मिलता है, ध्यान से देखो और कहो कि, "ये झूठ है।" तुम्हें ये कहना पड़ेगा कि ये झूठ है। अभी तक हमने संस्कारों को आसानी से सोख लिया है, इसी कारण विचारों की भीड़ पैदा होती है। ये तो हम जानते ही हैं न कि विचार कंडीशनिंग की उपज है, तो उसका निदान भी इसी से होगा कि जो संस्कार ले लिए हैं उनको अब साफ़ करिए। अपनी चेतना के माध्यम से साफ़ करिए कि, "ये झूठ है। ना!"

ये एक सवाल है जिसको जीवन में जिसने साध लिया वो मालिक हो जाएगा। वो सवाल ये है कि — ‘महत्वपूर्ण क्या है?’ क्योंकि हमें नहीं पता होता कि क्या महत्वपूर्ण है इसीलिए हम सस्ती चीज़ों को महत्वपूर्ण मान लेते हैं। हमें पता ही नहीं है महत्वपूर्ण क्या है। बच्चा है, अभी उसे नहीं पता महत्वपूर्ण क्या है, तो उसने देखो किस चीज़ को महत्व दे रखा है, किस चीज़ को दे रखा है? (सत्र में मौजूद एक बच्चे की ओर इशारा करते हुए) वो सीटी मिल गई है, उसको तो उसके लिए वही महत्वपूर्ण है।

हमारे साथ भी ऐसा ही है, बच्चे का दिख रहा है, हमारा दिखता नहीं है। हमने जीवन में ये सवाल कभी ईमानदारी से पूछा ही नहीं है कि महत्वपूर्ण क्या है, क्या है जो पाने योग्य है, क्या है जो करने योग्य है? और क्योंकि हमने कभी पूछा नहीं है, हमारे भीतर खाली जगह है इसीलिए उस खाली जगह में कुछ भी कचरा भर दिया गया है। हमने दुनिया भर के व्यापारियों को अनुमति दे दी है कि वो आएँ और हमारे मन में व्यापार करें। ये अनुमति दी हम ही ने है।

रुकिए और पूछिए ये बात, "महत्वपूर्ण क्या है? क्या ये वास्तव में महत्वपूर्ण है?" और दो ही चार गिनी हुई चीज़ें हैं, जो समाज ने बता दी हैं कि महत्वपूर्ण हैं। उनके विषय में पूछिए कि क्या वो वास्तव में महत्वपूर्ण हैं? दो ही चार चीज़ें हैं, दुनिया का कोई भी आदमी हो, घूम-फिर कर भाग उन्हीं के पीछे रहा है। भागने की गति में अंतर हो सकता है, कौन कहाँ तक पहुँचा इसमें अंतर हो सकता है, पर लक्ष्य सभी का एक ही है – पद, प्रतिष्ठा, पैसा। कह सकते हो शक्ति, *पावर*।

प्र: भागने का मन ही ना करे, जहाँ हैं वहीं…

आचार्य: मन ऐसा हो जाए तो बहुत बढ़िया। पर उसके लिए बड़ी धुलाई करनी पड़ेगी क्योंकि हमें जो संस्कार मिले हैं वो तो इन्हीं चीज़ों के पीछे भागने के ही मिले हैं। और बहुत सौभाग्य वाला होता है कोई जिसको अचानक ये दिख जाए कि इस भागने में कुछ मिल नहीं रहा है। अन्यथा भागने की गतियों में अंतर होता है लेकिन भागते सब उसी के पीछे हैं। कोई दस-हज़ार के पीछे भाग रहा है, उसके पास नहीं है कुछ ज़्यादा। कोई दस-करोड़ के पीछे भाग रहा होगा।

प्र: उसके आगे क्या करें?

आचार्य: कुछ नहीं है ये, ये कहाँ पूछा जाता है कि इसके आगे क्या है? बियॉन्डनेस की कोई बात कहाँ उठती है हम में? घेरे के बाहर क्या है, ये सवाल उठता कहाँ है?

आप सड़क पर चलते हुए आदमियों को देखिए अभी इस वक्त भी, सड़कों पर जाम लगा हुआ होगा, शाम का समय है, और आप देखिए उनको और उनकी शक्लों को देखिए और मुझे बताइए कि क्या ये वो कह रहे हैं कि, "इसके आगे भी कुछ है।" या उनका मन पूरे तरीके से उसी घेरे में, उसी सड़क पर आ कर के बैठ गया है कि, "ये ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, कि यही तो है जो महत्वपूर्ण है"?

दुनिया में कोई भी दौड़ रहा हो, किसी की भी दौड़ कैसी भी हो, पर उसको आप करीब से देखिए, तो वो दौड़ बस इन्हीं दो-चार खानों में आ जाएगी।

प्र: लेकिन सर, हम किस आधार पर कहेंगे कि क्या महत्वपूर्ण है?

आचार्य: तो ठीक है, फिर ये भी पूछिए कि, "निर्णय लेने का उचित आधार क्या है?" भाई, ठीक है बिलकुल सही बात है, क्या महत्वपूर्ण है, किस विकल्प को चुनें उसके लिए पहले आधार अंतिम करने पड़ते हैं। तो वो भी पूछिए कि, "कौन सा आधार महत्त्वपूर्ण है?" पूछना सवाल अभी भी वही है कि, "महत्वपूर्ण क्या है? किस कसौटी पर कसें?" वो भी पूछिए।

प्र: सर, हम जो कसौटी चुनेंगे उस कसौटी पर तो वही चीज़ें उतर रही हैं तो…

आचार्य: मैं इस बात पर पूरा-पूरा यकीन कर रहा हूँ कि जब हम ईमानदारी से सवाल पूछते हैं तो उत्तर प्रकट होता है। मैं ये मानने को तैयार नहीं हूँ कि हम पूरी कोशिश कर के भी जब विचार करेंगे, जब जानना चाहेंगे तब भी हम घेरे के भीतर ही रह जाएँगे।

देखिए मैं अक्सर आपसे कहता हूँ, बात को समझिएगा, मैं आपसे इसीलिए कहता हूँ क्योंकि कुछ ऐसा है, जिसे मैं तोड़ना चाहता हूँ इसीलिए कहता हूँ। जब भी मैं आपसे कहता हूँ कि तुम जो कुछ भी सोचोगे, वो तुम्हारी कंडीशनिंग से आ रहा होगा। ये बात मैंने आपसे भी कई बार कही है, विद्यार्थियों से तो लगातार कहता ही रहता हूँ।

लेकिन मैं अब आपसे एक दूसरी बात कह रहा हूँ। जब तुम ध्यानमग्न हो करके देखते हो, तब तुम्हें जो मिलता है वो तुम्हारी कंडीशनिंग के भीतर से नहीं आ रहा होता है। ईमानदार कोशिश तुम्हें कुछ ऐसा दिखा देती है जो तुम्हें पहले से ज्ञात नहीं है। तो अगर मेरे सामने कोई विद्यार्थी खड़ा होता है और कहता है कि, “हमनें सोच लिया और हमें यही पता चल रहा है।" और अगर मैं उसे बोलता हूँ कि, “तुम जो भी सोच रहे हो, वो तुम्हारे अतीत से आ रहा है”, तो मैं सिर्फ इस कारण बोल रहा हूँ क्योंकि मुझे दिख रहा है कि उसने ईमानदार कोशिश नहीं की है।

तो ये बिलकुल मत कहिए कि, "हम जो भी मापदंड चुनेंगे, वो तो हमारी कंडीशनिंग से ही आ रहा होगा।" नहीं, जब आप ध्यान से देखते हैं तो अचानक वो प्रकट हो जाता है जो अभी तक आपको दिखा ही नहीं था।

इतना विवश नहीं है आदमी, इतना यांत्रिक नहीं है आदमी। बिलकुल मैं कहता हूँ कि मन यंत्र है, लेकिन तभी जब आप ध्यान में नहीं होते हैं। तो अगर आप पढ़ें कि मैं किसी से कह रहा हूँ कि तुम और कर क्या सकते हो, मन एक यंत्र है, तो उसको गलत मत समझ लीजिए। उसका अर्थ बस इतना ही है कि मुझे दिखाई दे रहा है कि ध्यानमग्न नहीं है। बस उस बात को मैं कह नहीं रहा हूँ। पर स्थिति यही है, इसी कारण इस बात पर ज़ोर दे कर के कह रहा हूँ कि तुम्हारा प्रत्येक विचार तो तुम्हारे मन के दायरे से ही आता है। ये बात सिर्फ तभी तथ्य है जब आप विचारों में उलझे हुए हों और ध्यान का सर्वथा अभाव हो। अन्यथा कुछ ऐसा भी उठेगा जो बिलकुल ताज़ा है।

तो ईमानदारी से जब आप देखेंगे तो ये नहीं है कि आपको वही सब महत्वपूर्ण लगेगा - जो हमारा अभी का प्रश्न है कि, "महत्वपूर्ण क्या है?" - तो ईमानदारी से जब आप देखेंगे, तो आपको वही सब महत्वपूर्ण नहीं दिखेगा जिसके लिए आपको संस्कारित कर दिया गया है। जब आप ईमानदारी से देखेंगे तो संभावना यही है कि आपको उस सब की व्यर्थता ही दिखाई दे, जिसके विषय में आपको संस्कारित किया गया है। बात ईमानदारी की है।

प्र: कभी-कभी आपको दिख भी जाता है, जब आप ध्यान में होते हो कि जो है, वो व्यर्थ है लेकिन हमें पता नहीं होता कि घेरे से बाहर क्या है और हम उस घेरे से इतना ज़्यादा आसक्त हैं कि दिखने के बावजूद, बस उस डर या आसक्ति की वजह से हम उस घेरे से बाहर नहीं न आ जाएँगे। शायद अभी उतनी इच्छा नहीं जागी है।

आचार्य: दो-तीन वजहें होती हैं, कोई घेरे से बाहर कूदता है या तो ध्यान इतना गहरा हो कि बिलकुल दिख जाए कि घेरे के अन्दर एकदम कूड़ा पड़ा हुआ है, इससे बाहर जाना ही है। या ऐसी गहरी विरक्ति जागे, घृणा सी जाग पड़े, कि घेरे के अन्दर जो है, इसमें नहीं रह सकता बाहर कुछ भी होगा, बाहर भले मौत खड़ी हो, मौत इस घेरे से बेहतर है; तो मैं घेरे से तो बाहर कूद रहा हूँ। जैसे जलते हुए घर से कोई कूद जाता है। देखा होगा आपने अगर किसी दस मंज़िली इमारत में आग लगी हुई है, तो आदमी दसवीं मंजिल से भी छलांग लगा देता है। कहता है कि, "मर जाऊँ भले ही, पर इस जलने से तो बेहतर होगी वो मौत।"

तो दूसरी स्थिति वो होती है, जब आप घेरे से बाहर जाते हो। तीसरी स्थिति ये होती है कि आपको दिख रहा है कि कोई घेरे के बाहर खड़ा हुआ सा प्रतीत होता है, थोड़ा यकीन कर लो उस पर। ठीक है मन में श्रद्धा नहीं उठ रही है तो मन से यही पूछ लो कि, "मेरा नुकसान कर के उसको मिलेगा क्या?" मन तर्क की भाषा समझता है तो तर्क ही कर लो मन से कि, “अच्छा ठीक है, वो घेरे के बाहर है और आमंत्रित कर रहा है कि तुम भी बाहर आओ, तो इसमें उसका क्या स्वार्थ हो सकता है, मुझसे क्या मिल जाना है उसको?”

तो कोई भी रास्ता हो सकता है – एक, दो, तीन, चार, पाँच। आपके लिए जो सुविधाजनक हो, आप चल लीजिए उस पर। या तो गहरा ध्यान आ जाए, या गहरी उतृष्णा आ जाए, या थोड़ा सा यकीन कर लो।

प्र: तो सर्कल से बाहर निकलने का मतलब तो मन की दशा ही कहीं जा रही होगी? या कुछ और है, कुछ शारीरिक या…

आचार्य: होगा कुछ, क्या करना है उससे? इतना पता है कि घेरे के बाहर जो है, उसमें बड़ा मज़ा सा दिख रहा है, मौज है। घेरे के भीतर आग है, बाहर आग नहीं है इतना काफी नहीं है? बाहर और क्या है ये प्रश्न तो बड़ा विलासी है पूछना। ये तो वो पूछे जिसको घेरे के भीतर कुछ मिल रहा हो। जिसको ये दिखाई दे कि घेरे के भीतर तो बस आग-ही-आग है, क्या उसके पास ये सवाल कर पाने की विलासिता है कि घेरे के पार क्या है? अरे! कुछ भी होगा, इससे तो बेहतर ही होगा। क्यों पूछते हो कि बाहर क्या है?

YouTube Link: https://youtu.be/jg1SbcSay20

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