मन का कारागार || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मन का कारागार || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न : सर, अगर रिश्ते भी छोड़ दिए, कर्तव्य भी छोड़ दिया, ज़िम्मेदारी भी छोड़ दी, सब छोड़ दिया, फिर क्या बचेगा?

वक्ता : बहुत अच्छा सवाल है। बिल्कुल ऐसा ही सवाल है कि जैसे कुँए का मेंढ़क पूछे कि कुआँ छोड़ दिया तो सृष्टि ही ख़त्म। क्योंकि उसके लिए कुँए के अतिरिक्त सृष्टि कुछ और है ही नहीं। कुँए के मेंढक को बड़ा डर लगेगा अगर उससे ये बात बोली जाए कि कुँए से बाहर आया जा सकता है। कुआँ सिर्फ तेरा बन्धन है। पर उसकी बात हमें समझनी पड़ेगी। सहानुभूतिपूर्वक समझनी पड़ेगी कुँए के मेंढक की बात। क्या कुँए के मेंढक ने कुँए से बाहर की दुनिया जानी है? कुँए के मेंढक से पूछो तो कहेगा कि सम्पूर्ण सृष्टि यही है। वो कहेगा सब कुछ इस़ी में है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड यहीं है। उसको अगर तुम ये बोलो कि एक लहलहाता समुद्र हैं, तो कहेगा, ‘क्या ! शक्ल से मेंढक नहीं गधा लगता हूँ? कह रहा है कि जो कुछ है ये कुआँ है। दिखाओ इस कुँए में कहाँ है समुद्र?’ तो कुँए के मेंढक से तुम कहोगे कि बाहर निकल तो बिल्कुल यही सवाल पूछेगा, ‘बाहर निकलूँगा तो जाऊँगा कहाँ? क्योंकि सब कुछ तो यही है!’ और एक दूसरा मेंढक होगा तो कहेगा, ‘सन्यास!’, जैसा अभी इधर से आवाज आयी थी।

( सभी श्रोता हँसते हैं )

श्रोता : सर, ये तो मेंढक वाली बात हुई। हम तो मनुष्य हैं, अब हम कहाँ जाएँगे?

वक्ता : तुम सिर्फ उतना ही सोच पा रहे हो जितना तुम्हारा संस्कारित अनुभव है। अगर तुम ये जानोगे कि तुम बन्धन में हो तो इसी जानने के साथ ये भी समझोगे कि बन्धन का अर्थ होता है कि जो विशाल है, वृहद् है, जो सम्भव है, वो तुमने कभी जाना ही नहीं। तुमने तो अपनी छोटी-सी कोठरी जानी है बस, और इसी को दुनिया समझ रहे हो और इसलिए तुम्हें बड़ा ताज्जुब हो रहा है जब कोई कह रहा है कि इस दुनिया के बाहर भी एक संसार है। इस दुनिया के बाहर ही असली संसार है। पर तुम्हें इसमें, फिर से कहूँगा, कि तुम्हें इसमें दोष दिया ही नहीं जा सकता क्योंकि तुम उतना ही जानते हो जितना तुम्हें तुम्हारे अतीत ने और तुम्हारे संस्कारों ने दिया है। उसके अतिरिक्त तो तुम्हारे दिमाग में कुछ है नहीं। तो अभी जो तुम्हारे सामने समस्या आ रही है, मैं उसे समझ सकता हूँ। तुम कह रहे हो कि दुनिया इतनी ही सी तो है जितना मैं जानता हूँ। ये है तुम्हारा कुआँ ( सिर की ओर इंगित करते *हुए**)*। ‘दुनिया इतनी सी ही तो है। इस दुनिया के पार और कोई दुनिया है कहाँ ! इसको छोड़ दिया तो इसे छोड़ कर जाऊँगा कहाँ? तो तुम्हारी समस्या मैं समझ रहा हूँ। पर तुम ये भी समझो कि जिसको तुम दुनिया कह रहे हो वो असल में दुनिया है नहीं, वो तुम्हारा छोटा सा कुआँ है।

चलो एक उदाहरण देता हूँ। तुम कितने लोगों को जानते हो जिन्हें तुम अपना समाज जानते हो? पचास? सौ, सात सौ? तुम्हारी फोनबुक में कितने नम्बर हैं? दो सौ !छह सौ ! सात सौ! हज़ार? और दुनिया की आबादी है सात अरब ! जल्दी से अभी निष्कर्ष पर मत आना, जो कहना चाह रहा हूँ उसे समझो। सात के सात अरब लोग अपने अनुसार अपने समाज में रहते हैं। एक आतंकवादी है, उसके आसपास कैसे लोग पाये जायेंगे? तो वो क्या कहेगा कि समाज में कैसे लोग रहते हैं? उसके अनुसार समाज आतंकवादियों से भरा हुआ है। एक बौद्ध भिक्षु है, उसके आसपास कैसे लोग पाये जायेंगे? तो वो कहेगा कि दुनिया बौद्ध भिक्षुओं से भरी हुईहै। ये सब अलग-अलग कुँए हैं। समझ रहे हो ना? ये सब अलग-अलग कुँए हैं। तुम जैसे होते हो, वैसे ही लोग तुम्हारे आसपास पाये जाते हैं। वैसा ही तुम्हारा कुआँ बन जाता है। जिस क्षण तुम बदलोगे, तुम्हारी दुनिया भी बदलेगी, तुम्हारा समाज भी बदल जायेगा।

अंग्रेजी में इसीलिए एक कहावत है कि एक आदमी की पहचान उसके दोस्तों से होती है। तुम क्या हो, ये इससे पता चल जाएगा कि तुम किसके साथ पाए जाते हो। तुम किसके साथ पाए जाते हो इससे ये पता चल जाएगा कि तुम कैसे हो, तुम कौन हो? इसका अर्थ बिल्कुल यही है कि हम जैसे होते हैं, हम अपने चारों तरफ वैसा ही समाज बिठा लेते हैं। और हम दोष समाज को देते हैं कि दुनिया ऐसी ही तो है। दुनिया ऐसी नहीं है, तुम ऐसे हो इस कारण ऐसे लोग तुम्हारे चारों तरफ पाए जाते हैं। तो तुम अगर बोलो कि मेरे आसपास हमेशा चालाक किस्म के लोग देखे हैं मैंने। इसका अर्थ समझ रहे हो क्या है? तुम में से जो भी लोग बड़ी शिकायत करते हैं दुनिया की, समाज की, कि दुनिया बड़ी ख़राब है तो उसका अर्थ समझना कि तुम ऐसे हो। वरना तुम्हारे आसपास ऐसे लोग होते कैसे? कैसे होते? ये सब तुम्हारे छोटे-छोटे कुँए हैं, तुम इसको समष्टि मत समझ मत लेना। ये मत समझ लेना कि सब कुछ ऐसा ही है।

तुम बंधक हो तो तुम्हें यही लगेगा कि समाज तुम्हें बन्धन में डालने के लिए ही है। तुम अगर मुक्त हो तुम्हें मुक्तों का समाज मिलेगा। और वो समाज सम्भव है, मैं कोई काल्पनिक बात नहीं कर रहा हूँ। तुम अपने बन्धनों की फ़िक्र करो। ये मत पूछो कि बन्धन से छूट गये तो जायेंगे कहाँ। ठीक यही सवाल उन कैदियों ने पूछा था ना कि बीस साल से यहीं रहने की आदत लग गयी है, छूट गए तो जायेंगे कहाँ? अब पेरिस जैसा शहर, जहाँ अपार सम्भावनाएँ हैं। पर वो कैदी पूछ क्या रहा है? ‘छूट गए तो जायेंगे कहाँ?’ वो कैदी है तो उसके ऊपर तुम हँस भी सकते हो कि कैसी मूर्खतापूर्ण बात कर रहा है। ‘मुक्त हो गए तो जायेंगे कहाँ?’ अरे सब कुछ उपलब्ध है, पूरा आसमान खुला है , जहाँ जाना है तो जाओ। पर वो वापस वहीँ पर आयेंगे क्योंकि आदत लग गयी है।

श्रोता : सर तो क्या मोह-माया छोड़ दें?

वक्ता : ‘मोह’ तुम्हारे लिए, ‘माया’ तुम्हारे लिए, सिर्फ एक शब्द है। तुम इनको ठीक-ठीक जानते नहीं। तुम्हें किसी ने बता भर दिया है। तुम ठीक-ठीक समझते नहीं कि मोह क्या है। ना तुम्हें माया का अर्थ पता है, ना तुम्हें मन का अर्थ पता है। और अर्थ पता होने का मतलब ये नहीं होता कि सैद्धान्तिक या बौद्धिक रूप से जान लिया। पता होने का अर्थ होता है कि मैंने गहराई से, स्वयं समझा है। ये नहीं कि किसी किताब में पढ़ लिया कि सब माया है। हाँ, सब माया है *(*व्यंग्य करते हुए *)*। लाओ, अब बढ़िया वाला खाना लेकर आओ। अरे! जब सब माया है तो बढ़िया वाला खाना क्यों मँगा रहे हो? बोल रहे हो कि मोह -माया है, अगर सब माया है तो वो भी माया है।

माया माने नकली, मोह माने भी नकली। पर तुमने कुछ समझा नहीं है। सिर्फ ये कुछ शब्द हैं जो तुमने रट लिये हैं। ये सब कुछ शब्द हैं, इनको तुमने अभी जाना नहीं है। मोह-माया त्याग दें, ये कर दें, वो कर दें। इलाहाबाद में रहते हो, रूढ़िवादिता का गढ़ है ये। यहाँ तो पनवाड़ी के पास भी जाओगे तो कहेगा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। सबने ये बातें रट रखीं है। तो ऐसे ही दो-चार बातें तुमने भी हवा में इधर-उधर से आती हुई सुन ली हैं कि मन है माया है और उन्हीं को दोहराना शुरू कर दिया है। तुमने कुछ जाना थोड़े ही है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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