मन जब आत्मा में दृढ नहीं होता तब वो अपनी ही बनाई दुनिया में भटकता है || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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मन जब आत्मा में दृढ नहीं होता तब वो अपनी ही बनाई दुनिया में भटकता है || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न : सर, ऐसा क्यों होता है कि हमारे विचार और हमारी जो करनी है उसमें अन्तर रहता है? कि हम कुछ जानते नहीं हैं कि क्या चीज़ सही है, कि ऐसा ना करके कुछ स्वभाव ही अलग रहता है। स्थिरता नहीं रहती तीनों चीज़ों में।

वक्ता : विचार और करनी में अन्तर नहीं रहता। करनी वही रहती है जो विचार रहता है; विचार बदल जाता है। आप यह चाहते हैं कि अभी जो विचार है, इसी के अनुरूप करनी हो जाये। और जबतक करने का समय आता है, तब तक विचार बदल चुका होता है। तो फिर तब, जो उस समय तात्कालिक विचार होता है, आप उसके अनुरूप कर्म करते हैं। तो प्रश्न यह होना चाहिए कि विचार क्यों बदलते रहते हैं? यह नहीं कि विचार और कर्म में मेल क्यों नहीं होता।

हमेशा होगा।

विचार और कर्म एक हैं।

उनमें मेल होगा ही होगा। विचार बदलते क्यों रहते हैं? क्यों बदलते रहते हैं?

श्रोता १ : मन बदलता रहता है।

वक्ता : अब सत्र के समाप्त होने का समय आ रहा है। थोड़ी देर में विचारों का क्या होगा?

श्रोता १ : बदल जाएँगे।

वक्ता : बदल जाएँगे। क्यों बदल जाएँगे?

श्रोता १ : परिस्थिति बदल जाएगी।

वक्ता : अभी थोड़ी देर में मोबाईल फोन खुल जाएगा। सवाल पूछे जाएँगे।

श्रोता २: सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह समर्पण न होने से ही विचार बदलते हैं।

वक्ता: सिद्धान्त आ जायेंगे। समर्पण आ जाएगा।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अभी मुझे सुन रहे हो, कहाँ कोई सिद्धान्त है? फिर यह सब याद आने लग जाएगा कि सिद्धान्त होने चाहिए, समर्पण होना चाहिए।

सब गया, सब नष्ट, ज्ञानी हो गए। अभी बैठे हो बिलकुल अबोध हो, बच्चे की तरह। फिर यह सब बातें याद आ जायेंगी, सिद्धान्त याद आ जायेंगे; यह करना है, यह नहीं करना है, यह है, वो है। सत्तर बातें! अभी कहाँ कुछ याद है।

विचार परस्थितयों से जन्मते हैं। मन जब आत्मा में द्रण नहीं होता तो वो अपनी ही बनाई दुनिया में भटकता रहता है। खुद ही दुनिया बनाता है और फ़िर उस दनिया की तमाम चीज़ों के प्रति आकर्षित होता रहता है। इधर-उधर जायेगा। इसी को कहते हैं विचारों का बदलना। परस्थिति बदली, मन बदला, विचार बदले। जब अन्त:स्थिति में विराजित रहते हो तो फिर परस्थिति हावी नहीं होती।

श्रोता २ : विचार बदलने नहीं चाहिये?

वक्ता : विचार अगर बदला नहीं तो विचार हो ही नहीं सकता। विचार का अर्थ ही है वो जो बदल रहा हो। अगर एक ही है तो वो विचार थोड़ी होगा फिर। प्रश्न यह नहीं है कि विचार बदले ना बदले, प्रश्न यह है कि विचार के साथ तुम क्यों बदल जाते हो? कोई विचार ऐसा है जो ना बदले? सोच का अर्थ ही यही है कि सोचना शुरु हुआ और सोचना ख़त्म भी हुआ। तभी तो कहोगे कि ‘मैंने सोचा’। शुरू हुआ, इसका मतलब पहले कुछ और सोच रहे थे, और ख़त्म हुआ, मतलब अब कुछ और सोचोगे। तो विचार का तो काम ही है बदलना। अन्यथा वो विचार कहला ही नहीं सकता।

श्रोता ३ : फ़िर हमारा बदलना भी तो ज़रूरी है। सर, बार-बार विचार रहेंगे तो हम भी बदलते रहेंगे, तो यह कैसे रुकेगा।

वक्ता : क्यों रोकनी है? अच्छा है न। नए होते रहते हो बार-बार। कोई दिक्कत हो तो कहो तो बदलें, कोई दिक्कत लगती है? इस लगातार बदलते रहने से कोई तकलीफ़ हो तो बताओ, है तकलीफ़?

श्रोता ३ : बदलते रहना चाहता हूँ।

वक्ता : ठीक है। जब तक तकलीफ़ नहीं है तब तक क्यों रोकना है इसको, चलने दो, झेलो। जब तकलीफ़ होगी, तब स्वयं जानना चाहोगे कि बहुत हुआ यह, कुछ तो चाहिए जो स्थिर हो, अकंम्प हो।

श्रोता ४ : ऐसे विचार ही ना आने दें जो तकलीफ़ दें।

वक्ता : कोई विचार बता दो जो बिना तकलीफ़ का हो?

श्रोता ४ : जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं। विचार अच्छे-अच्छे रखेंगे तो अच्छे-अच्छे बनते जाएँगे।

वक्ता : यह सब किसने ज्ञान दिया है! ‘जैसे तुम्हारे विचार होते हैं, वैसे तुम होते हो’। तुम और हो क्या अपने विचारों के अतिरिक्त? अपने विचारों के अतिरिक्त तुम और क्या हो?

श्रोता ४ : और कुछ नहीं हैं।

वक्ता : तो फ़िर बन और क्या जाओगे। जो तुम्हारे विचार हैं वही तो तुम हो और क्या हो? इस वक्त जो सोच रहे हो, वही तुम्हारी पहचान है। और अगर कुछ नहीं सोच रहे हो तो कुछ ना सोचना तुम्हारी पहचान है।

श्रोता ५ : तो क्या हम अपने आपको विचार मानें, मैं विचार हूँ?

वक्ता : अभी भी अपने आपको क्या मानते हो?

श्रोता ५ : कुछ भी, शरीर मान लेना, आपने नाम से जोड़ लेना।

वक्ता : और यह क्या है?

श्रोता ५ : विचार।

वक्ता : (हँसते हुए) तो अपने आपको क्या मानते हो? विचार ही तो मानते हो। जो भी मानोगे वो कैसे मानोगे?

श्रोता ६ : विचारों के बल पर।

वक्ता : तो एक विचार से दूसरे विचार पर ही तो जा रहे हो और क्या कर रहे हो? मैं जो कुछ भी बोलूँगा तुम उसका क्या करोगे?

श्रोता ५ : समझेंगे।

वक्ता : हाँ, वो विचार से अलग है? समझना क्या विचार से अलग है? है कि नहीं है? पक्का करो पहले।

श्रोता ५ : नहीं।

वक्ता : अगर नहीं है तो फ़िर विचार पर ही रह गये। और अगर है तो फिर कुछ सम्भावना है।

श्रोता ५ : अगर मैं कहूँ कि नहीं है।

वक्ता : अगर तुम कहो ‘नहीं है’ तो फिर एक और विचार मिल गया तुमको।

श्रोता ५ : विचारों की यह श्रंखला चलती ही रहेगी।

वक्ता : चलती ही रहेगी।

श्रोता ५: रुकना कब होगा?

वक्ता: रुकने का क्या अर्थ होता है?

श्रोता ५ : कहीं जहाँ हमें लगे कि शायद वास्तव में सत्य है।

वक्ता : और उसका तुम क्या करोगे?

श्रोता ५ : जहाँ हमें पता हो कि यहाँ रुक कर के…

वक्ता : ठीक है, तुम्हें पता चल गया है कि यहाँ हम ऱुक गये हैं।

श्रोता ५: शांत रह सकते हैं।

वक्ता: शान्त रह सकते हैं। और यह सब क्या है? मैं यहाँ रुक गया हूँ, मैं यहाँ शान्त हूँ, यह सब क्या है?

श्रोता ५ : विचार।

वक्ता : तो रुके कहाँ? अभी भी तो विचार हैं। तुम बात कर रहे हो विचारों के रुकने की। और जहाँ रुकना हैं वहाँ के बारे में तुम्हारे पास विचार हैं। तो विचार रुके या चल ही रहें हैं अभी?

श्रोता ५ : तो ऐसी जगह कौन सी सुझाई जाये जहाँ वास्तव में…

वक्ता : तुमने कहा था न कि ‘समझा भी जा सकता है’। तो मैंने पूछा था कि क्या समझना विचार करने से भिन्न कुछ है? क्या है भिन्न? कुछ ऐसा हो सकता है जहाँ पर सब पता है पर बिना विचारे पता है?

श्रोता ५: शायद, पता नहीं।

वक्ता : जहाँ जानते हो, पर ज्ञानी नहीं हो। ऐसी कोई स्थिति हो सकती है? विचार मत करो कि और सोच रहे हैं और सोच रहे हैं।

एक हमारे कैलेण्डर में थी न शायद, २-३ साल पहले का वक्तव्य “विचार के परे क्या है? और विचार।”

और यह बड़ी साधारण भूल होती है कि विचार के आगे क्या है, हम उसका विचार करेंगे।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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