मन ही का विस्तार है संसार || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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मन ही का विस्तार है संसार || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: आपके मन की एक संरचना है। वो दुनिया को उसी तरीके से देखता है, छूता है। अगर आपके पास यह दीवार है, और इसी दीवार का काउंटर पार्ट, इसी के समकक्ष आपके पास स्पर्श की शक्ति है। इस दीवार का होना और आपके पास स्पर्श की शक्ति का होना, एक ही बात है। दृश्य है और आपके पास दृश्य देखने की शक्ति है। वो दोनों एक ही बात हैं। अगर एक दूसरे तरह का प्राणी ठीक इसी जगह पर हो और हजारों प्राणी इस वक्त यहाँ पर हैं, जिनको आप देख नहीं सकते हैं क्यूँकी वो आपकी इन्द्रियों की पहुँच से बाहर हैं, तो उनके लिए यह दीवार, दीवार नहीं है और हो सकता है, उनके लिए यहाँ बीच में कुछ हो।

आप संसार को उतना ही जानते हो, जितनी आपकी इन्द्रियों की संरचना है।

ऐसे ही तो जानते हो आप हिमालय को कि आप जाओगे, उसे छूओगे, दिखाई देगा। क्या हो, अगर कोई जाए और जिसको आप हिमालय कहते हो, उसको छुए और उसे हिमालय प्रतीत ही न हो। क्या तब भी हिमालय है? अगर कोई प्राणी ऐसा हो, जो जाए और हिमालय को छूए और उसे हिमालय प्रतीत ही न हो। क्या तब भी हिमालय है? बल्कि आप जाएँगे और कहेंगे कि ‘’देखो हिमालय, बेवकूफ, कुछ है ही नहीं। यह देखो, मैं आर-पार जा रहा हूँ।’’

हिमालय का होना और आप में स्पर्श की शक्ति का होना, एक ही बात है। और ऐसे प्राणी बिलकुल हैं और हो सकते हैं, जिनकी इन्द्रियाँ आपसे हट कर हों। जिनके न आँख हो न कान हों, आप उन्हें जीवित नहीं मानोगे। आप कह दोगे जीवित ही नहीं हैं। क्यूँकी आपके लिए जीवन का अर्थ है ऐसे प्राणी, जिनमें इस प्रकार की इन्द्रियाँ हों। अरे! इसके पास वही सब इन्द्रियाँ हैं; कान भी हैं, आँख भी हैं, तो आप इसे जीवित मान लेते हो। आप पत्थर को जीवित नहीं मानते। बहुत दिनों तक पेड़ों को जीवित नहीं माना जाता था।

हिमालय की रचना आपने ही की है और आपकी रचना हिमालय ने की है। हिमालय जो कुछ है, वो आप भी हो। हिमालय एक दृश्य है, आप आँख हो। हिमालय पत्थर, चट्टान है, आप स्पर्श हो। हिमालय पर नदियाँ बह रही हैं, कंकल ध्वनि है, आप कान हो। कुछ-कुछ बात समझ में आ रही है?

ऐसे समझिये कि जिस रूप में यह ख़रगोश इस संसार को देखता है, वो बहुत अलग रूप है, जैसे आप देखते हो। और यह ख़रगोश आपसे थोड़ा ही अलग है और भी इससे अलग हुआ जा सकता है।यहाँ इस वक्त, इस रूम में करोड़ों बैक्टीरिया मौजूद हैं और वो किस प्रकार से संसार को देखते हैं? उनके लिए संसार क्या है? उनके लिए संसार बिलकुल अलग है क्यूँकी उनके मन का कॉन्फ़िगरेशन बिलकुल अलग है। संसार आपके मन का प्रक्षेपण है, प्रोजैक्शन है।

यह दीवार है नहीं। यह दीवार इसलिए है क्यूँकी आपके पास एक शरीर है, जो इस दीवार जैसा ही है और जो इससे टकराएगा, तो इसे दीवार प्रतीत होगी। यदि आपका शरीर ऐसा न हो, जिसे इस दीवार से टकराने पर कोई प्रतीति हो, तो फिर यह दीवार कहीं नहीं है और अगर आपका शरीर इतना सूक्ष्म हो जाए कि उसे हवा से टकराने पर भी प्रतीति हो, तो फिर हवा भी दीवार है। आप बात समझ रहे हैं? नहीं।

यह जो सब दृश्यमान जगत है, जिन्होंने भी जाना, उन्होंने पहली चीज़ यही जानी है कि यह मुझसे अलग नहीं है। इसने मुझे निर्मित किया है। मैं इसे निर्मित करता हूँ और दोनों ही क्यूँकी एक दूसरे पर निर्भर हैं, तो दोनों ही एक ही द्वैत के एक सिरे भर हैं और कुछ नहीं हैं। सत्य इनमें से कोई भी नहीं है। न दुनिया सत्य है, न मैं सत्य हूँ। इसी बात को कृष्णमूर्ति थोड़ा अलग तरीक़े से कहते हैं- ‘ऑब्ज़र्वर इज़ द ओब्ज़र्वड’। हिमालय तुम हो और तुम हिमालय हो। तुममें और हिमालय में दिखने-भर का अंतर है, गुणात्मक-रूप से कोई अंतर नहीं है।

श्रोता: गुरु नानक जी ‘शब्द’ की बात करते हैं, क्या ये वही है?

वक्ता: बहुत अच्छे! लेकिन यह वो शब्द नहीं हैं, जो कानों पर पड़ता है। यह आप जानते हैं अच्छे से, नानक उस शब्द की बात नहीं करते, जो कानों पर पड़ता है।

श्रोता: नानक जी ने जिसको ‘शब्द’ बोला, उसका क्या अर्थ है?

वक्ता: नानक जी ने कहा है कि यह जान लो सब कुछ कि इन सब में व्याप्त तत्व एक ही है। उस तत्व को वो नाम दे रहे हैं शब्द का। कुछ तो बोलना पड़ेगा न; ए, बी, सी बोलते, उससे अच्छा शब्द बोल दिया। कुछ तो बोलना पड़ेगा न।

श्रोता: सर, जब मैंने आपको बोला था सच्चा शब्द तो आपने कहा था कुछ नहीं होता।

वक्ता: कुछ नहीं होता। यह जो शब्द है अगर आप नानक से भी पूछेंगे, वो कहेंगे- शब्द कुछ नहीं है। शब्द के लिए पहली चीज़ क्या बोलते है जपुजी में? पहली पाई बताइए।

श्रोता: एक ओंकार सतनाम।

वक्ता: तो कौन-सा शब्द है यह? ओंकार। यह उसी शब्द की बात कर रहे हैं। ओंकार शब्द है? शब्द, तो वो जिसका अर्थ हो। हर शब्द का अर्थ होता है कि नहीं होता है? नानक का शब्द ओंकार है और ओंकार का कोई अर्थ होता है क्या? नानक का शब्द, शब्द है ही नहीं। पर कुछ नाम देना है, तो बोल देते हैं शब्द।

श्रोता: यह प्रणव शक्ति नहीं है क्या?

वक्ता: प्रणव ही है। पर प्रणव माने क्या? प्रणव माने ओंकार, ओंकार माने प्रणव। दोनों का मतलब क्या शून्य, कुछ नहीं। ‘उससे’ सब निकलता है, यह कहना एक बात है। ‘वो’ कुछ है, यह कहना बिलकुल दूसरी बात है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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