मन अनजाने से भी डरता है और जाने हुए से भी || कृष्णमूर्ति पर (2017)

Acharya Prashant

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मन अनजाने से भी डरता है और जाने हुए से भी || कृष्णमूर्ति पर (2017)

प्रश्नकर्ता: कृष्णमूर्ति कहते हैं कि “हम ‘*अननोन*’ (अज्ञात) से तो डरते ही हैं, और तो और, हम ‘*नोन*’ (ज्ञात) से भी डरते हैं।”

ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: वास्तव में जो अननोन भी है, वो है तो मानसिक ही न। मन, अननोन भी जब कहता है तो अननोन की एक छवि तो रखता ही है न कि वो अननोन है।

मन, हर उस चीज़ से डरेगा जो सीमित है। क्योंकि जो कुछ भी सीमित है उसे ख़त्म हो जाना है। और मन बिना छवि बनाए जी नहीं सकता। तो मन कहने को तो, नाम मात्र को तो कह देता है कि ‘*अननोन*’ (अज्ञात) । ‘*अननोन*’ का विशुद्ध अर्थ तो यह हुआ न, कि उसके बारे में तुम कुछ नहीं जानते। अगर कुछ नहीं जानते तो ये भी कैसे जानते हो कि उसके बारे में नहीं जानते? मन, कहने को तो कह देता है ‘अननोन * ’, पर * अननोन के बारे में भी वो नॉलेज (ज्ञान) रखता है। क्या नॉलेज ? कि कुछ है। ऐसा है, कि वैसा है। कुछ-न-कुछ रखता है छवि। मन जो भी छवि रखता है वो सीमित होगी, और जो भी सीमित होगा वो मन को डराएगा।

तो इसीलिए मन का डरना तय है, वो दाएँ चले तो डरेगा, बाएँ चले तो डरेगा। जिधर को भी चलेगा, अगर छवियों पर चल रहा है, तो डरेगा। मन देखे हुए से भी डरेगा, मन अनदेखे से भी डरेगा। क्योंकि जिस को मन अनदेखा कहता है उसको भी अपनी वृत्ति के चलते कुछ छवि तो दे ही रहा है, वरना कैसे कहता। आप क्या जब सुषुप्ति में होते हो तो किसी भी चीज़ को अनदेखा कह पाते हो? अनदेखा कहने के लिए भी तो चेतना चाहिए न? जब आप सुषुप्ति में होते हो, गहरी नींद में, तो क्या कह पाते हो कि आपको कुछ नहीं पता? ये भी तो आप चेतना में ही कह पाते हो न, जागृत अवस्था, कि आपको कुछ नहीं पता? यानी कि जो कुछ भी, चेतना के दायरे में घट रहा होगा वो डर ही होगा।

चेतना मात्र ही डर है, क्योंकि चेतना द्वैत है। चेतना में हमेशा जो हो रहा होता है, उसमें 'मैं' और 'संसार' दो होते हैं। जहाँ ये दो आए, तहाँ डर है – “द्वितीयाद्वै भयं भवति”। दो हुए नहीं कि डर हुआ। यानी कि चेतना आई नहीं, कि डर हुआ। चेतना में ही कहते हो कि 'जानता हूँ', और चेतना में ही कहते हो, कि 'नहीं जानता हूँ'। कहोगे कि – "जानता हूँ", तो भी डर, कहोगे – “नहीं जानता हूँ”, तो भी डर, क्योंकि हैं तो दोनों चेतना में ही घटी हुई घटनाएँ। चेतना ही डर है, द्वैत मात्र डर है।

प्रश्नकर्ता: ये बात तो साफ़ है कि चेतना ही डर है क्योंकि वहाँ द्वैत है। ओशो की एक पुस्तक है, “अजहुँ, चेत गँवार”, तो वो वहाँ पर किस चेतना की बात कर रहे हैं?

आचार्य: वो वहाँ परम चेतना की बात कर रहे हैं। जब संत कहते हैं कि “अजहुँ चेत गँवार”, जब आम बोलचाल की भाषा में भी बोला जाता है, कि अब तो चेत जाओ। या कि, कबीर कहते हैं, "अब उठ जाओ, जाग जाओ, अब जाग मुसाफ़िर भोर भई", तो उस चेतना का, या उस जागृति का अर्थ सामान्य चेतना या सामान्य जागृत अवस्था नहीं है। उसका अर्थ है, ‘चेतनातीत’ चले जाना। सामान्य चेतना के पार बोध होता है, शान्ति होती है, मौन होता है। वहाँ चेतना ख़त्म हो जाती है। चेतना जैसे-जैसे उठती जाती है, वैसे-वैसे ख़त्म हो जाती है। जैसे तलवार की धार। तलवार पर धार जितनी महीन होती जाएगी उतना ज़्यादा तलवार मिटती जाएगी। चेतना भी ऐसी ही है। चेतना जितनी गहरी और जितनी तीक्ष्ण होती जाती है, उतना ज़्यादा वो मिटती जाती है।

तो जब संत समझाते हैं कि अब चेतो, तो वो यही कहते हैं, कि अब चेतना के पार जाओ। चेतना इतनी बढ़ाओ, इतनी उठाओ, कि चेतना के पार निकल जाओ। कॉन्शियसनेस (चेतना) और अवेयरनेस (बोध) का अंतर है। कॉन्शियसनेस जब गहरी हो जाती है, तो मौन हो कर, ख़त्म हो कर के जो बचता है वो निःशब्द, शून्य, शांत, अवेयरनेस है। वहाँ द्वैत नहीं है। चेतना जब तक है, वहाँ द्वैत है।

प्र: सर, चेतना की उपयोगिता क्या है? एक्सिस्टेंस (अस्तित्व) में चेतना है ही क्यों?

आचार्य: है बस। ‘क्यों’, नहीं पूछते। क्यों माने कारण। क्यों माने?

प्र: कारण।

आचार्य: इसलिए हमेशा समझाता हूँ, ‘क्यों’ नहीं पूछो। ‘क्या’ पूछो। ‘क्यों’ पूछना, दुःख को आमंत्रण देना है। ‘क्या’ पूछो, ‘क्या?' ‘क्या है?' अगर दुःख है तो नहीं चाहिए। ‘क्यों’ है दुःख, ये नहीं पूछना। अगर दुःख है तो नहीं चाहिए, हटाओ बाबा हटाओ, ये माल नहीं चाहिए। हटाओ, हटाओ।

ये मत पूछो किस फ़ैक्ट्री से आया, ये मत पूछो कितने का है, ये मत पूछो इसके साथ कुछ मुफ़्त मिल रहा है क्या। जैसे ही देखो कि माल का नाम क्या है?

प्र: दुःख।

आचार्य: तहाँ, तुरंत कहो, “बाबा हटाओ, बाबा हटाओ!” ये मत पूछना किस ब्रांड का है। फँस जाओगे। ये मत पूछना कि "बाबा आपकी दुकान पर क्यों है?" फँस जाओगे। देखा नहीं कि दुःख है, कि हटाया। देखा नहीं कि आकर्षण है, कि उत्तेजना है, कि हटाया।

प्र: शायद इसीलिए कृष्णमूर्ति कह रहे हैं, “*कैन द माइंड बी एम्प्टी ऑफ़ ऑल इट्स पास्ट, येट रिटेन नॉलेज एस मेमोरी एंड येट फ़ंक्शन*।

आचार्य: ज्ञान रहे। ज्ञान रहे, लेकिन उस ज्ञान के कोई अर्थ न रहें। ज्ञान रहे, पर ज्ञान के कोई अर्थ न रहें। हर्ट का मतलब होता है कि अतीत अब अर्थवान हो गया। अतीत अब कीमती हो गया। अतीत अब आपकी आत्म-परिभाषा से जुड़ गया। अतीत अब आपके, आत्म मूल्य से जुड़ गया। आपने अपना जो मूल्यांकन करा, वो अतीत पर आधारित हो गया। अतीत रहे, सामग्री की तरह मौजूद रहे। वो सामग्री और आपकी आत्म परिभाषा, आपकी आत्म-छवि, दोनों एक दूसरे से मुक्त रहें। आप क्या हैं?

मैं वो, जिसकी कोई छवि नहीं हो सकती। अतीत क्या है? वो जो छवि देने को आतुर रहता है। मैं अतीत को सफल नहीं होने दूँगा, मैं मुक्त रहूँगा। अतीत मौजूद रहे, दूर मुझसे। मैं अतीत से संबंधित हो कर के नहीं जियूँगा। मैं अतीत को यह अनुमति नहीं दूँगा कि वो मुझे व्याख्याहित करे, मुझ पर चढ़ कर बैठ जाए। होगा, मौजूद है। जैसे इ-मेल का पासवर्ड , आप जानते हैं उसको। लेकिन वो आपका जीवन निर्धारित नहीं करने लग जाता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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