ममता स्वार्थ है, और मातृभाव प्रेम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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ममता स्वार्थ है, और मातृभाव प्रेम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: परवाह का अर्थ होता है दूर करना, और ममता है अर्थ होता है स्वयं बाधा बनकर खड़े हो जाना। अंतर समझना। अगर मैं एक पेड़ की परवाह करता हूँ तो मैं क्या करूँगा?

श्रोता: पानी देंगे।

वक्ता: पानी दूँगा, मैं ख़याल रखूँगा की सूरज की रोशनी उस तक पहुँचे, मैं ख़याल रखूँगा की कोई बाधाएँ न हों। परवाह करने का अर्थ होता है बाधाएँ दूर करना। जब तुम किसी की सही में परवाह करते हो तो तुम उसे कुछ देते नहीं हो, तुम बस उसके रस्ते की बाधाएँ हटा देते हो। और जब तुम ममता में होते हो तब तुम खुद एक बाधा बन कर खड़े हो जाते हो। मालूम है ममता क्या बोलती है?

ममता बोलती है कि ये पौधा है और ये बीज रूप में है। ‘घर के अंदर एक छोटे से गमले में ये पौधा पैदा हुआ है। अब ये बड़ा हो रहा है और ये गमला इसको छोटा पड़ रहा है। तो एक काम करो, नीचे से इसकी जड़ें काट दो क्योंकि एक बात पक्की है कि इसको मैं रखूँगी अपने घर में ही, और अपने गमले में ही। गमला छोटा पड़ रहा हो तो क्या करो? जड़ें काट दो। ये ममता है। ममता कहती है, ‘मेरा है और मेरा गमला तो इतना ही छोटा है’।

श्रोता १: तो इस पौधे को बौंज़ाई बना दो।

वक्ता: तो इस पौधे को बौंज़ाई बना दो ताकि ये रहे मेरा ही। और परवाह कहती है कि गमला छोटा पड़ रहा है तो गमला तोड़ दो और इसको खुले आकाश में गाढ़ दो। दोनों में ये अंतर है। ममता जड़ें काट देगी, और परवाह या प्रेम गमला तोड़ देगा।

श्रोता २: तो क्या प्रकृति में बस परवाह है?

वक्ता: देखो प्रकृति में ममता का स्थान है। इसलिए है क्योंकि जो पौधा होता है वो एक बीज मात्र है, वो शरीर है। समझ रहे हो न? प्रकृति का एजेंट बन कर ज़रूरी है कि एक दूसरा शरीर उसकी देखभाल करे। तो इसलिए जानवरों में भी वो ममता होती है। पर हम पूरी तरह प्राकृतिक भी नहीं हैं। क्योंकि जानवरों में ममता तो होती है, पर वो ममता कुछ हफ़्तों, महीनों की मेहमान होती है। तो हम या तो पूरी तरह प्राकृतिक ही हो जाएँ, आप पूरी तरह प्राकृतिक भी नहीं हैं।

पता है बच्चे के पैदा होने के बाद माँ के जो सेंसेस होते हैं जैसे आँख, कान, गंध, ये सब ज्यादा उतेजित हो जाती हैं। कहीं से गंध आ रही होगी, पिता नहीं सूँघ पायेगा, माँ सूँघ लेगी। माँ कहीं काम कर रही होगी, बच्चा दूर से आवाज़ करेगा, पिता को नहीं सुनाई देगा, माँ सुन लेगी। ये हॉर्मोन की प्रक्रिया है। माँ के सेंसेस जागरूक हो जाते हैं और इन चीज़ों का बच्चे के शारीरिक रूप से बचे रहने में बहुत योगदान होता है। पर पूछो कितने दिन तक सक्रिय रहती है? ये चीज़ कुछ हफ़्तों, कुछ महीनों तक रहती है, उसके बाद माँ की सेंसेस ठीक हो जाती हैं। प्रकृति भी आपको संदेश दे रही है कि पालन-पोषण अब हो गया, अब वापिस ठीक हो जाओ, अब ज़रूरत नहीं है अति-सक्रिय होने की। पर तुम बच्चे की तह ऊपर उसकी माँ बने रहना चाहते हो, उसकी ज़रूरत नहीं है, बल्कि ये प्रकृति के खिलाफ है, ये बच्चे के कल्याण के खिलाफ है। तुम बच्चे के दुश्मन की तरह अभिनय कर रहे हो। आप गमला तोड़ने की जगह जड़े काट रहे हो।

श्रोता ३: सर, बच्चे को तो पता नहीं होता की किसके साथ सिमित रहना है, किसके साथ नहीं। तो इसमें बच्चा क्या करे? क्या हम बच्चे को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से मिलवाएँ?

वक्ता: हाँ ज़रूर।

श्रोता ३: मतलब बचपन से ही?

वक्ता: हाँ ज़रूर।

श्रोता ३: लेकिन उसको तो कुछ समझ में आ नहीं रहा है।

वक्ता: नहीं! बाधाएँ मत खड़ी करो। उसको ज़्यादा से ज़्यादा चेहरों को देखने दो, उसको ज़्यादा से ज़्यादा आवाजें सुनने दो, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की गंध उसकी नाक में जाए।

श्रोता ४: लेकिन माँ को लगेगा की उसका महत्व ख़त्म हो गया है।

वक्ता: यही बात है। अब जब १०० हाथों में बच्चा है, तो माँ का महत्व कहाँ रहा? माँ उसको कहाँ बता जता सकती है…

श्रोता ४: की मेरा है।

वक्ता: मैंने उत्पादित किया।

श्रोता ४: ये एक फायदा अविभक्त परिवारों में होता है। माँ और बच्चे में बहुत ज्यादा जुड़ाव नहीं हो पाता।

वक्ता: हाँ!

श्रोता ५: मैंने बहुत समय से देखा है बहुत सारे मामलों में की जो बच्चा होता है, उसे परिवारों में वस्तु की तरह रखते हैं। एक ऐसी वस्तु जो हमारे बहुत अच्छे सामाजिक होने को विज्ञापित करता है। यहाँ पर बस यही हो रहा है की हम बहुत सामाजिक प्राणी हैं और हमारे जो बच्चे हैं वो एक वस्तु हैं जो विज्ञापन के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। उसे नहीं बोलना ‘हाए’, वो अपना खोया हुआ है और उसे ज़बरदस्ती बोलने के लिए कहा जा रहा है ताकि आप अपने बच्चे को विज्ञापित कर सकें।

वक्ता: सही माँ-बाप मिलना बहुत बड़ी गनीमत है और बच्चा इसमें कोई भूमिका निभाता नहीं है कि उसके माँ-बाप कौन हों। ये तो बस किस्मत की बात होती है की आपको माँ-बाप कैसे मिल गए। और पूरा जन्म बीत जाता है इस से बाहर निकालने में।

श्रोता ५: अगर आप ‘माँ-बाप’ शब्द को बदल दें ‘गुरु’ से, तो ये सारी उलझनें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं।

वक्ता: हाँ! वास्तव में माँ-बाप हैं, उनमें माँ-बाप होने से पहले पात्रता होनी चाहिए गुरु होने की। माँ-बाप बने ही वही जो पहले गुरु होने की योग्यता रखते हों। बड़ा अजीब सा खेल है माया का। आमतौर पर जो गुरु होने की योग्यता रखते हैं उनमे माँ-बाप होने की रुचि कम हो जाती है। ऐसा नहीं की रुचि ख़त्म हो जाती है, पर संभावना कम हो जाती है। ये तो पक्का हो जाता है कि उनके बच्चा होंगे भी तो एक-दो ही होंगे, झड़ी नहीं लगाएँगे। अब कितना मज़ेदार हो अगर बुद्ध बाप बने, पर बनते ही नहीं। सोचिए बच्चा बुद्धा, वो घूम रहा है और इधर-उधर खेल रहा है। पर बुद्धों को बच्चा पैदा करने में कोई रुचि ही नहीं है। मीरा की बेटी हो, बचपन से ही नाच रही है। पर ऐसा होता नहीं।

श्रोता ३: बुद्ध का बच्चा हो, पर वो उसके साथ थोड़ी न रहेगा।

वक्ता: ये बात भी है। ऐसे तो बुद्ध का जैविक बच्चा था ही पर वो बुद्ध का नहीं था, वो तब का था जब वो बुद्ध नहीं थे। वो सिद्धार्थ का बच्चा था।

श्रोता २: क्या बुद्ध का बच्चा उनसे विरोध कर सकता है?

वक्ता: कर सकता है पर उसमें भी बौद्धत्व होगा। विरोध में कोई दिक्कत नहीं है। विरोध किसका करेगा? दर्शनशास्त्र का ही तो विरोध करेगा। उसमें क्या रखा है। बुद्ध ने बात एक ढंग से बोली, वो उसके विपरीत ढंग से बोल देगा। बातों में क्या है।

श्रोता १: या वो कहेगा की बोलो ही मत।

वक्ता: हाँ! तो दर्शनशास्त्र में क्या रखा है। बुद्धा जैसा गुरु जिसको मिले वो तो तर गया समझो।

-क्लैरिटी सेशन पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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