मजबूरी का रोना बंद करो, हिम्मत दिखाओ खतरा उठाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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मजबूरी का रोना बंद करो, हिम्मत दिखाओ खतरा उठाओ || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पता लगता है कि आज मैंने कोई इच्छा की, वो पूरी भी हो गयी, पर उससे पूरापन अभी भी नहीं हुआ, जो चाहा था उससे वो नहीं मिला। तो फिर हम कोई दूसरी ऐसी चीज़ ढूँढते हैं जिससे शान्ति मिले। पर उसका कोई ऐसा दूसरा विकल्प नहीं मिलता, तो फिर हम दोबारा उसी स्थिति में, जो ख़राब वाली आदत थी, फिर से उसी में चले जाते हैं, वही सब चलता रहता है।

तो यहाँ पर हम क्या करें? जब हम जान गये हैं कि हालत अभी ख़राब है हमारी, तो फिर हमारा अगला क़दम क्या होना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: नहीं, मिलता नहीं है या महँगा मिलता है विकल्प?

जो कहानी सुनायी है न, ये बुद्धू बनाने वाली कहानी है। इन्होंने कहा कि दिख भी जाता है कि ग़लत फँसे हुए हैं, दम घुटता भी है, तो अपनी वर्तमान स्थिति का विकल्प तलाशते हैं तो विकल्प मिलता नहीं है, तो फिर पुरानी ही स्थिति से सन्तोष करना पड़ता है। यही है न कहानी?

प्र: हाँ।

आचार्य: अपनी कहानी से ख़ुद को ही बुद्धू बनाते हो, मुझे भी बना रहे हो। विकल्प सब हैं, महँगे हैं। विकल्प तो बिलकुल हैं, महँगे हैं।

जैसे कोई घटिया नौकरी करे, और वहाँ पर बॉस भी घटिया, और वो दुत्कार दे। तो एकदम तन्नाकर आये हैं अपने सिस्टम (कम्प्यूटर) पर, कि रेज़िग्नेशन (इस्तीफ़ा) लिख रहा हूँ। और रेज़िग्नेशन लिखने से पहले नौकरी डॉट कॉम खोल लिया, कि देखें विकल्प क्या हैं।

अब विकल्प तो हैं, पर उतना पैसा नहीं मिल रहा जितना अपने यहाँ मिल रहा है, तो बस, सेव एज़ ड्राफ़्ट। वो मेल लिखी जाती है, और ड्राफ़्ट में चली जाती है। वो लिखी भी नहीं गयी, वो पहले का ड्राफ़्ट था जो आज फिर खुला था, फिर वो ड्राफ़्ट में ही चला जाएगा।

विकल्प सब होते हैं, बेटा, विकल्प कैसे नहीं होते!

अल्बेयर कामू थे, तो उनसे पूछा गया कि सिसिफ़स (ग्रीक पौराणिक कथा का एक चरित्र) के पास विकल्प क्या है। बोले, 'और कुछ विकल्प हो न हो, आत्महत्या का विकल्प तो है ही।' तो बोले कि क्या आप ये कह रहे हैं कि व्यक्ति को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। बोले, 'नहीं, लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। मेरा सिसिफ़स दुखी नहीं है, क्योंकि वो आजन्म प्रयास करता रहेगा। भले ही उसको हार मिल रही है, कुछ भी हो रहा है, पर वो लगातार काम कर रहा है।' उससे ज़्यादा तो आपकी शोचनीय स्थिति नहीं है न?

सिसिफ़स याद है न, कौन है वो? जो रोज़ एक भारी पत्थर चढ़ाता है पहाड़ के ऊपर, और रात में वो पत्थर लुढ़ककर फिर नीचे आ जाता है। और फिर वो रोज़ अगले दिन फिर प्रयास करता है, फिर ऊपर लेकर जाता है पत्थर, फिर नीचे आ जाता है, उसकी कोई आख़िरी जीत होती ही नहीं है। तो कामू ने कहा था — 'ये इंसान की हालत होती है।'

उनसे पूछा, 'तो क्या आत्महत्या कर लें?' क्योंकि वो इसकी भी बात करते थे कि आत्महत्या का जो प्रश्न है वो बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। बोले, 'आत्महत्या की कोई बात ही नहीं है! आपको क्या लगता है, कि ये जो मेरा सिसिफ़स है, ये दुखी है? बिलकुल दुखी नहीं है, क्योंकि ये जी-जान से कोशिश कर रहा है, इसकी कोशिश में ईमानदारी है। बाक़ी क्या होगा, ये तो संयोगों की बात है, इसका क्या कर सकता है बेचारा! पर जान तो इसने पूरी लगा दी है।'

आपने जान पूरी लगायी है क्या? ऐसे थोड़े ही है! साहब बोलते हैं कि ऐसों को सत्य का सेवक नहीं बोलते, राम का सेवक नहीं बोलते। बोलते हैं, “ये तो चाहे चौगुना दाम।” ये काम निष्काम नहीं कर रहे हैं, ये चौगुना दाम माँग रहे हैं। और चौगुना दाम माँगते हैं, जब मिलता नहीं तो कहते हैं, 'माल ख़राब है।'

विकल्प कैसे नहीं है भाई, विकल्प तो बिलकुल है, पर विकल्प आपकी शर्तों पर आपको नहीं मिलेगा, विकल्प के लिए आपको अपनी शर्तें त्यागनी होंगी। सौ शर्तें लगा लो, बोलो कि ये शर्तें पूरी हों, ऐसा विकल्प चाहिए, तो फिर आपको विकल्प प्यारा है या अपनी शर्तें? बोलो! शर्तें प्यारी हैं, तो रख लो फिर अपनी शर्तों को। ‘ये भी चाहिए, वो भी चाहिए। स्वर्ग भी मिल जाए, संसार भी ना छिने।‘

आपमें से कइयों को ये होगा कि मुक्ति तो चाहिए, पर रास्ता नहीं सूझ रहा। किस-किसको ऐसा लगता है? हाथ खड़े करिए, ईमानदारी से बिलकुल। (श्रोतागण हाथ खड़े करते हैं)

तो ये जो आपने हाथ उठाये हैं ये कहकर कि रास्ता नहीं सूझता, देखिए, रास्ता है। वेदान्त बार-बार बोलता है न, 'बेबसी की बात नहीं है, चुनाव की बात है।' रास्ता है, आप उस रास्ते को अभी चुन नहीं रहे, आपको रास्ता अपनी सुविधा-अनुसार चाहिए। रास्ता है। और रास्ता कभी भी शुरू में ही पूरा-पूरा नहीं दिखाई देता। आप पूछें, 'रास्ता है?' मैं कहूँ, 'रास्ता है।' आप कहिए, 'अच्छा, रास्ता दिखाओ फिर! अग्रिम में ही, बिलकुल एडवांस में पूरा मैप दिखा दो, कि ऐसे रास्ता शुरू होता है, वहाँ जाता है। रास्ते में बढ़िया वाला ढाबा मिलता है कि नहीं खाने-वाने के लिए? और फ़्यूल (ईंधन) कहाँ भराएँगे? और बताओ, सब रास्ते में होटेल-मोटेल, सब बताओ।‘ तो ये नहीं होता, रास्ता चलते-चलते बनता है।

“ट्रुथ इज़ अ पाथलेस लैंड” (सत्य एक पथहीन भूमि है)। वो पाथ (रास्ता) अगर बनता भी है तो स्वयं आपके चलने से बनेगा, कोई आपको बना-बनाया रास्ता नहीं देगा।

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया।

~ मजरूह सुल्तानपुरी

वैसे एक करोड़ सब्सक्राइबर्स (यूट्यूब चैनल के सदस्य) हो गये हैं आज, तो उस पर भी ये फ़िट (उपयुक्त) बैठता है। तो वो चलते-चलते अपनेआप होता है। ऐसे नहीं कि आप कहिए कि बड़ा डर लगता है, तो आप अगर पहले से सबकुछ बता दें निश्चित करके, कि ये मिलेगा, फिर ये मिलेगा।

जैसे कम्पनीज़ में जाओ तो एचआर (मानव संसाधन प्रबन्धक) बताता है न, करियर प्रोग्रेशन , क्या-क्या होगा यहाँ पर। और कितना मज़ा आता है, वो आपको बता देते हैं कि अगले पन्द्रह साल में कहाँ से कहाँ तक पहुँचोगे। टिकना पन्द्रह महीने नहीं है, और पन्द्रह साल का लेकिन करियर पाथ देखकर दिल बिलकुल गदगद हो जाता है — ‘बढ़िया! अभी ये बनूँगा, फिर ये बनूँगा, फिर ये बनूँगा, फिर ये बनूँगा, फिर ये बनूँगा।’ अच्छा लगता है।

ऐसे नहीं होता। सच्चाई का रास्ता ऐसा नहीं होता जहाँ कोई आपको पहले ही बता देगा कि क्या होगा, कैसे जाना है। और यही उसकी खूबसूरती भी तो है! अगर सबकुछ पहले से पता हो तो क्या रोमांच है, उसमें क्या मज़ा आना है! सब पहले से ही तय है तो स्क्रिप्ट हो गयी, कुछ मज़ा है उसमें? कुछ नया, कुछ अप्रत्याशित, अनूठा हो ही नहीं सकता, क्या मज़ा, कुछ है बचा?

पिक्चर देखने जा रहे हो, कहानी पहले से पता है। ‘वाह! क्या बात है। ग़ज़ब बात है!’ मैच की हाइलाइट्स (झलकियाँ) देख रहे हैं, रीप्ले (पुनर्प्रदर्शन) देख रहे हैं, अठारहवीं बार, और ऐसे कर रहे हैं — ‘अरे वाह! पता नहीं अगली गेंद पर क्या होने वाला है।’ अरे अठारहवीं बार तो देख रहे हो! ‘पता नहीं अगली गेंद पर क्या होने वाला है!’

हम ऐसे ही हैं — ‘पता नहीं अब क्या होगा?’

‘अरे! मेरे टीटू सिंह का क्या होगा?’ वही जो उसके बाप चीटू सिंह का हुआ है। दोनों की शक्लें भी एक जैसी हैं, दोनों की ज़िन्दगी भी एक जैसी है। कुछ नया तुम होने दोगे भी कभी? तो होगा कैसे नया कुछ? लेकिन माँओं को ये बड़ा रहता है — ’मेरा टीटू, उसका क्या होगा?’ तुम्हारे टीटू की ज़िन्दगी में आज तक भी कुछ नया हुआ है? जब आज तक नहीं हुआ, तो आगे कैसे होगा? पूरी उसकी पटकथा उसके जन्म से पहले लिखी जा चुकी थी। कुछ नया कहाँ होने वाला है, बताओ न मुझे तुम! लेकिन ऐसे — ‘हाय राम! न जाने अब क्या होगा?’

‘न जाने क्या होगा?’ भक्क, बेईमान! सबकुछ पहले से तय करके बैठी है, और ऐसे कर रही है — ‘अब पता नहीं क्या होगा! हाय, क्या होगा!’

कुछ नया नसीब वालों के साथ होता है, सबसे अभागे वो होते हैं जिनके साथ सबकुछ तयशुदा होता है। हम अभागे लोग हैं, हमारे साथ कुछ नया नहीं होता। बताइए न, आपकी ज़िन्दगी में ऐसा क्या हो रहा है जो आपके पुरखों के साथ नहीं हुआ था? बताइए, एक भी चीज़ बताइए! बताइए, कुछ भी है? थोड़े तौर-तरीक़े बदल गये होंगे, और क्या बदला है, सबकुछ वही तो कर रहे हो जो होता आया है आदिकाल से। हाँ या ना?

और उसकी आदत लग जाती है, कि सब तयशुदा ही पता हो, तो फिर मुक्ति का भी हम तयशुदा रास्ता माँगते हैं — ‘मुक्ति का राजपथ बताइए, आचार्य जी।’ कहाँ से बताएँ? खुला आकाश है, राजपथ होता ही नहीं वहाँ। होता तो हम ही न चल लेते! हमें पता था कुछ?

एक जवान आदमी की कल्पना करिए, चौबीस-पच्चीस साल का है, दो डिग्रियाँ ले चुका है जिनको भारत में बड़ा माना जाता है। एक सरकारी नौकरी ले चुका है जिससे उसने अभी इस्तीफ़ा नहीं दिया है, वो भी रखी हुई है कि चाहो तो जॉइन (कार्यभार ग्रहण) कर लो। सॉफ़्टवेयर में नौकरी करता था, तो उसका अनुभव है, चले जाओ वो कर लो, और यहाँ कॉर्पोरेट की नौकरी मिली हुई है, जाओ उसको कर लो।

किसी भी तरीक़े से उस वक़्त कोई भी आदमी, यहाँ तक कि वो जवान लड़का भी, ये कल्पना कर सकता था कि आज वो ये कर रहा होगा? और अगर कल्पना करके, योजना बनाकर किसी रास्ते पर चलता, तो क्या आज यहाँ पहुँच पाता? क्या मेरी कोई भी योजना मुझे यहाँ ला सकती थी?

हाँ, मेरी योजना मुझे शिकागो ले जाती, कैलिफ़ोर्निया ले जाती, लंदन ले जाती, लेकिन उन जगहों पर तो इतने लोग पहले ही भरे हुए हैं। लंदन की भीड़ का क्या कहना! खचाखच! क्या करना है वहाँ जाकर! या किसी सरकारी बंगले में ले जाती, उसमें भी इतने भरे हुए हैं। अंग्रेज़ों ने बनवाया था वो बंगला, तब से कितने आये कितने गये। क्या करना है उसमें घुसकर!

कुछ भी अच्छा तभी होता है जब वो पहले से तय न हो, योजित न हो, संकल्पित न हो। योजना बनाकर छोटे काम हो सकते हैं। फ़्लाइट की टिकट — बनाइए योजना, नहीं तो मिलेगा नहीं, महँगा भी मिल सकता है, उसकी बना लीजिए। इमारत खड़ी करनी हो, तो उसका भी पहले नक्शा बनेगा, तभी खड़ी होगी। ये सब छोटे काम हैं, ये जड़ पदार्थ के काम हैं। लेकिन जहाँ चेतना की बात आती है, अपनी ज़िन्दगी की बात आती है, वहाँ योजना बनाकर, पहले से ही सुरक्षा का आश्वासन माँगकर काम नहीं हो सकता। और अगर आप पहले से ही सुरक्षा का आश्वासन माँगकर काम करेंगे तो आपके हाथ में कोई छोटी सी चीज़ ही लग जाएगी। कोई बहुत छोटी चीज़ मिल जानी है, खुश होते रहो।

‘मैंने तो पहले से ही पूरी प्लानिंग (योजना) कर ली है। सिक्स्थ में टीटू को पर्सनैलिटी डेवलपमेंट (व्यक्तित्व विकास) की क्लास में डाला है, एट्थ में मैं उसको कोडिंग की क्लास में डालूँगी।‘

(श्रोताओं से पूछते हुए) टेंथ में क्या कराते हैं आजकल?

’टेंथ में उसको कोटा भेज दूँगी।’

श्रोता: आजकल सेवंथ में ही भेज देते हैं।

आचार्य: सेवंथ में कोटा भेज देंगे। फिर? फिर जब आइआइटी में घुसेगा नहीं — वहाँ जितने जाते हैं, उसमें से हज़ार में एक घुसता है — जब घुसेगा नहीं तो अमेरिका भेज देंगे। और अमेरिका भेजने के लिए पैसे हम पिछले दस साल से इकट्ठा कर ही रहे हैं। यही तो कहलाएगा न — 'अमेरिका से पढ़कर आया है।'

अमेरिका की किसी घटिया यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) से भी आ गया, तो अमेरिका में पढ़ा है। और कुछ होगा नहीं होगा, रंग तो गोरा हो ही जाएगा अमेरिका में रहकर, जलवायु अच्छी है वहाँ की।

क्या मिलेगा इसमें?

श्रोता: बहुत से लोग तो इन्हीं कारणों से वहाँ जाते हैं।

आचार्य: हाँ तो, मैं जानता नहीं क्या?

(श्रोतागण हँसते हैं)

मेरा पूरा बैच या तो ख़ुद अमेरिका में बैठा है, और कुछ बेचारे जो यहाँ भारत में हैं, उन्होंने सब ने अपनी औलादों को वहाँ भेज दिया है, एक की भी औलाद यहाँ नहीं पढ़ रही। और मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि इस प्लानिंग से कुछ मिलता नहीं। मिलता तो है, पर जो मिलता है वो इतना ही सा (थोड़े का इशारा करते हुए) होता है बस।

हिम्मत दिखाइए एक खुली ज़िन्दगी जीने की, एक ज़िन्दगी जिसमें थोड़े ख़तरे हों। चेतना के ख़तरों का जोखिम उठाना चाहिए। उठाना चाहिए न? जड़ पदार्थ में वो नहीं उठाना चाहिए। किसी ऐसे मकान में मत घुसिएगा जो वेल-प्लांड (सुनियोजित) नहीं है, ये न कह दीजिएगा कि अरे, प्लानिंग में क्या रखा है। अगर वो अच्छी प्लानिंग से नहीं बना है मकान, तो घुसिएगा मत, वो सिर पर गिरेगा।

तो जहाँ कहीं भी मटीरियल आता है, वहाँ प्लानिंग ज़रूरी है। लेकिन जहाँ कॉन्शियसनेस (चेतना) आती है, वहाँ प्लानिंग लिमिट (सीमित करना) करती है, प्लानिंग एक लिमिटिंग फ़ोर्स बन जाती है।

समझ में आ रही है बात?

मुक्ति के राजपथ नहीं होते।

कृष्णमूर्ति थे, उनको खड़ा किया था थियोसोफ़िकल वालों ने, बोले, 'आज इनका राज्याभिषेक होगा, युवराज अब सिंहासन पर बैठेगा।' युवराज ने कुछ और ही — बोले, 'रखो सब अपना, ट्रुथ इज़ अ पाथलेस लैंड। नहीं चाहिए!'

अब जिस क्षण उन्होंने छोड़ा होगा, सोचो, वो तैयार किये गए थे, पन्द्रह साल का प्रोजेक्ट (परियोजना) थे। पन्द्रह साल तक उनमें खूब निवेश किया गया, उन्हें खूब पढ़ाया गया, और भारत में शिक्षा पूरी नहीं हो पाती, तो उनको बाहर ले गये, विदेश में पढ़ाया। वो बहुत ग़रीब घर से आये थे, उनको उठाकर लाये थे, छोटे से थे। उनको बोलने से लेकर कपड़े पहनने से लेकर के ज्ञान तक, सब एक प्रोजेक्ट के तहत दिया गया था। लेकिन उनको चूँकि ज्ञान मिल गया, तो उन्होंने कहा, 'ये प्रोजेक्ट गड़बड़ है, मैं नहीं शामिल हो रहा उसमें।'

जब छोड़ा होगा तब की सोचिए। एक व्यक्ति को सीधे-सीधे खड़ा किया जा रहा है वर्ल्ड लीडर (वैश्विक नेता) बनने के लिए, वर्ल्ड टीचर (विश्व गुरु) बनने के लिए, विश्व गुरु बनने के लिए उनको तैयार ही किया गया है। और वो कह रहा है, आइ रिफ़्यूज़ (मैं इनकार करता हूँ), नहीं चाहिए।'

हौसला चाहिए न? जिगर की बात है न ये? हाँ। और उन्होंने उस दिन अगर मान लिया होता, तो हमें कृष्णमूर्ति नहीं मिलते। थियोसोफ़ी में तो बहुत सारे और भी लोग हुए हैं, वो भी अच्छे लोग हुए हैं, हम नहीं मना कर रहे उनसे। लेकिन कृष्णमूर्ति तो थियोसोफ़ी के बाहर ही तैयार हो सकते थे, वो बाहर नहीं आते तो तैयार भी नहीं होते।

और यही चीज़ हर जगह पाओगे आप। आप वर्धमान महावीर की सोचिए, आप गौतम बुद्ध की सोचिए। सोचिए तो सही न!

अब तो वो एक लेजेंड (दन्तकथा) बन गये हैं, फ़ोकलोर। हमारे लिए वो एक जनकथा बनकर रह गये हैं बस, पर ज़रा उस जवान आदमी की उस स्थिति में प्रवेश करिए। वो बहुत प्रतिभाशाली राजकुमार हैं, उनके क़िस्से घूम रहे हैं पूरी दुनिया में, कि भाई, ये कोई अलग ही चीज़ पैदा हुई है यहाँ पर। उनको ज़बरदस्त शिक्षा दी गयी है, सबकुछ पढ़ाया गया है। दुनिया भर के जो श्रेष्ठतम पंडित हैं, वो बुलाकर के उनको पूरा उस समय तक जितना ज्ञान उपलब्ध था, सब दिया गया है। और दिखने में भी वो बहुत खूबसूरत थे, कद-काया से एकदम आकर्षक।

और कहते हैं कि उनके पिता देखते थे कि इनमें वैराग्य जैसी बात बचपन से ही है, और ज्ञान भरे सवाल पूछते हैं, जिज्ञासा करते हैं। उस दिन अपने गाड़ीवान से भी तो जिज्ञासा ही कर बैठे थे! तो वैसी ही जिज्ञासा वो हमेशा से करते थे, तो घरवालों ने सूँघ लिया कि ख़तरा है, ये सवाल ज़्यादा पूछता है, गड़बड़ करेगा।

अब ये सब कहानियाँ हैं, देखिए, इनका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर कथा ऐसे ही बोलती है। कथा बोलती है कि उनके पिताजी ने उनको घेरने के लिए जो राज्य की सबसे सुन्दर लड़कियाँ थीं वो इकट्ठा कर दीं। बोले, 'कैसे भागेगा ये! जितनी लड़कियाँ हैं बढ़िया-से-बढ़िया, सारी ले आओ, और इसके इर्द-गिर्द उनको खड़ा कर दो, तो फँसा रहेगा।' तो वे उन्हीं के साथ रहें, खिलायें-पिलायें, ये सब चले। ये सब उपलब्ध है उनको। और फिर जिस लड़की से उनकी शादी हुई, वो भी श्रेष्ठतम राजकुमारियों में से है, फिर बच्चा भी हो गया है छोटा सा।

और ये सब एक दिन वो क्या करते हैं?

श्रोतागण: त्याग देते हैं।

आचार्य: बताओ किस भरोसे पर? फ़्यूचर (भविष्य) की क्या सिक्योरिटी (सुरक्षा) है, बोलो! करियर पाथ बताओ! क्या करियर पाथ है?

और छोड़कर ये भी नहीं है कि तुरन्त उनको कोई उसका फल मिल गया है। दस-बारह साल तो ऐसे ही भटक रहे, एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जा रहे, बोल रहे, ‘तुम बताओ, तुम बताओ, तुम बताओ।’ गुरुओं को भी परेशान कर दिया है — वही, सवाल पूछने की बुरी आदत। और गुरु लोग बोले, 'भाई, हम जितना बता सकते थे बता दिया, अब आगे बढ़ो, अगला देखो।'

और अन्ततः जब उनको बात समझ में आने लगी, तो उनको सुनने वाला कोई मौजूद नहीं। बोले, 'हम बताएँगे ही नहीं, दुनिया में लोग ही नहीं जो हमारी बात को समझेंगे।' फिर किसी तरह से उनको ठेला गया, कि भाई, कुछ बोलो। जब बोले, तो भी सुनने वाले मुट्ठी भर लोग। तो तीस साल तक भटकते रहे इधर से उधर, भटक रहे, भटक रहे। अपनी ज़िन्दगी में उन्हें ऐसा थोड़े ही है कि उन्हें कोई बहुत सफलता मिल गयी थी, उनके जाने के सौ-दो-सौ साल बाद से बौद्ध धर्म ने फैलना शुरू किया है।

ठीक वैसे ही, जैसा जीसस के साथ हुआ था। जब तक वो थे, तब तक कौनसी इसाइयत थी! जब वो चले गये हैं, तब सब इन्होंने, मैथ्यू वगैरह ने मिलकर के बाइबल तैयार की, नया वाला टेस्टामेंट (नव विधान), और फिर बात आगे बढ़ायी। वो भी उनके मरने के बहुत-बहुत सालों के बाद हुआ सब। और बौद्ध धर्म तो फिर भी बाद में फैल गया, महावीर की सोचिए, उनका तो तब से लेकर आज तक जैन इतने से (थोड़े का इशारा करते हुए) ही हैं कुल। और वो भी अपना पूरा राज्य वगैरह छोड़कर आये थे।

तो इस रास्ते पर आगे की गारंटी (आश्वासन) नहीं माँगा करते, दिल कँपता है तो कँपने दे। और आगे की गारंटी माँगे बिना काम तभी हो सकता है जब जो कर रहे हो उस पर भरोसा हो।

काम सही है, अब आगे जो होगा?

श्रोतागण: देखा जाएगा।

आचार्य: निष्काम कर्म के लिए वो फ़िल्मी गीत है — “सोचना क्या, जो भी होगा देखा जाएगा।” बढ़िया है।

आ रही है बात समझ में?

प्र: तो सर , इस चीज़ का फिर हमें अभ्यास करना पड़ेगा?

आचार्य: हाँ, अभ्यास करना पड़ता है, और डर तो लगता ही है। डर के साथ जीना सीखना पड़ता है, कि हाँ, डर है, लग तो रहा ही है। दुख है, हम दुख को भी देख लेंगे। वैसे ही डर है, काहे को झूठ बोलना कि डर नहीं लगता!

किसको डर नहीं लगता? भाई, मुझे तो लगता है, आपको नहीं लगता होगा शायद। तो डर है, हम डर को भी?

श्रोतागण: देख लेंगे।

आचार्य: दिख रहा है डरे हैं, ठीक है, काम करो, डर के साथ भी काम नहीं थमना चाहिए।

ठीक है?

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=y2VrMd0PvJI

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