मैंने ऐसा कब कहा? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मैंने ऐसा कब कहा? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, मुझे पता है कि अगर वर्तमान में मुझे ख़ुश रहना है तो मेरा कोई विशेष लक्ष्य नहीं होना चाहिए।

वक्ता: किसने बता दिया ये?

श्रोता १: सर, पढ़ा था कहीं।

वक्ता: कहाँ से पढ़ा था?

श्रोता १: सर एच.आई.डी.पी. में।

वक्ता: बेटा, एच.आई.डी.पी. में तुम जो कुछ पढ़ते हो वो मैं ही लिख कर देता हूँ। मुझे ही बता रहे हो।

श्रोता १: आप बताइए कि क्या कोई तय लक्ष्य नहीं होना चाहिए?

वक्ता: पहली बात तो ये कि ‘होना चाहिए, नहीं होना चाहिए’, एच.आई.डी.पी. इस भाषा में बात ही नहीं करता है। एच.आई.डी.पी. कोई नैतिकता नहीं पढ़ाता है कि ये करो और ये मत करो। तुम क्या छोटे-बच्चे हो जो एच.आई.डी.पी. तुम्हें बतायेगा कि ये करो और ये मत करो, बड़ों की आज्ञा मानो, ये करो और वो मत करो। एच.आई.डी.पी. तुम्हारे सामने एक बात रखता है ये कहते हुए कि तुम वयस्क हो, अब खुद समझो। वो ये कहता ही नहीं है कि ऐसा करो और ऐसा मत करो। वर्तमान में खुश रहना चाहिए, ये बात तो एच.आई.डी.पी. ने कभी बोली ही नहीं। ख़ुशी तो हमेशा भविष्य की होती है।

जो अभी हो रहा है उसी को वर्तमान बोलते हो न, या वर्तमान कुछ और है? वर्तमान में ध्यान हो सकता है, आनंद हो सकता है, पर ख़ुशी तो भोग से सम्बन्धित होती है। वो तो हमेशा काल्पनिक है। वो तो तुम तय करके रखते हो कि ये हो जाए तो खुश हो जाएं। जिस दिन तुम वाकई ख़ुश हो गए, उस दिन तुम्हारी यात्रा रुक जायेगी। ख़ुशी का तो अर्थ ही यही है कि अभी और पाना है। जिसे तुम ख़ुशी बोलते हो, उस ख़ुशी के गहरे से गहरे क्षण में भी और ख़ुशी की इच्छा बनी ही रहती है। तुम कभी तृप्त कहाँ होते हो। वर्तमान में खुश होने का कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि ख़ुशी तो हमेशा ही कहती है कि अभी और मिले। और ये “और” कहाँ है? भविष्य में है। तो वर्तमान में तुम खुश हो कहाँ पाते हो?

वर्तमान में कोई ख़ुशी नहीं है। ख़ुशी का अर्थ ही है कि भविष्य में अभी और मिलेगा। एच.आई.डी.पी. ने कभी नहीं कहा, पर तुम सुनते कहाँ हो। कहा क्या जाता है, पढ़ते पता नहीं क्या हो! हमारी कल्पनाओं का कोई अंत थोड़ी ही है। एक बार क्या होता है, ऐसे ही कल्पनाओं में, एक बार बेचारा एक साधु होता है । तो वो नग्न ही जंगल में घूम रहा होता है। आगे अभी कुछ कहा भी नहीं और कल्पनाएँ शुरू हो गयीं। साधु, क्या पाता है कि हाथी का एक बच्चा उसका पीछा कर रहा है? अब नंगा साधु, और हाथी का बच्चा उसका पीछा कर रहा है। पास उसके आये ना। साधु उसको देखता रहा, फिर बोला कि जो भी है यार, पास आ, बात कर, सामने आ। मेरे पास है क्या? माँस तू खाता नहीं। मुझे तो मार के भी कुछ नहीं मिलेगा। माँस तू खाता नहीं। तो सीधे आ, सामने आ। तो हाथी का बच्चा सामने आता है और बोलता है कि ‘महाराज बिल्कुल बुरा मत मानिये। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है आपका असम्मान करने का। मैं पीछा-वीछा भी नहीं कर रहा। मुझे तो बस ये समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी छोटी सी सूँड से आप साँस कैसे लेते हो।’

(श्रोतागण हँसते हैं )

वक्ता: तो मामला क्या है और समझ क्या रहे हो तुम। कुछ का कुछ सोच लेते हो। एच.आई.डी.पी. क्या बता रहा है और तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है। कहीं का नहीं छोड़ा तुमने साधु को। अब साधु करे भी तो करे क्या? बच्चा है हाथी का। उसको बेचारे को इतना ही पता है, तो माफ़ कर दिया कि ‘जा’। जैसे तुम्हें हँसी आ रही है, वैसे ही हमें (हँसी) आती है तुम्हारी बातें सुन कर।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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