प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते! कल के सेशन में आप एक बहुत ही एलिवेटेड स्टेट में लेकर गए, बहुत ट्रैंकफुल स्टेट (शान्ति की स्थिति) में लेकर गए। अब सवाल ये है कि वो स्टेट, वो मनोस्थिति को बरकरार कैसे रखें? डे टू डे ट्रिगर्स के बीच में वही पीसफ़ुलनेस कैसे मेंटेन करें?
आचार्य प्रशांत: स्थिति मैंने आपको परेशान करने के लिए थोड़ी सी प्रदर्शित करी है। सत्र में बैठकर के आपको उसका स्वाद भर मिल सकता है, हल्का सा ज़ायका, थोड़ा सा जायज़ा जैसे एक झाँकी, कोई झलक क्योंकि जीवन किसी सत्र का नाम नहीं है। हर सत्र कभी-न-कभी शुरू होता है फिर अन्त हो जाता है। शिविर अभी परसों शुरू हुआ था अब समाप्त हो जाएगा।
तो सत्र में आपको जो झलक मिल सकती है वो भी निश्चित रूप से शाश्वत नहीं हो सकती क्योंकि सत्र ही शाश्वत नहीं है। सत्र का उद्देश्य क्या है, समझिएगा। सत्र का उद्देश्य है आपको प्रदर्शित कर देना, मोटे शब्दों में ये भी कह सकते हैं, आपको एक अनुभव दिला देना जिससे कम–से–काम भीतर से ये तर्क समाप्त हो जाए कि शान्ति जिसे आप ट्रैंक्विलिटि (शान्ति) कह रही हैं वो सम्भव ही नहीं है।
हम अपनी ही एक दुनिया में जीते हैं और उस दुनिया में हमारा लगातार का क्या अनुभव रहता है? कभी कम शोर कभी ज़्यादा शोर, कभी कम तनाव कभी ज़्यादा तनाव। ज़्यादा तनाव हो गया तो बोल देते हैं, दुख है और वही तनाव जब कम हो गया तो बोल देते हैं, सुख है। तो जो पूरा हमारा विस्तार है अनुभवों का जो रेंज ऑफ़ एक्सपीरिएनसिस (अनुभवों की श्रृंखला) है वो बहुत छोटी सी होती है, इतनी सी, सीमित। उसके बाहर का हमें कुछ पता नहीं चलता न।
ये जो रेंज है, दायरा, इसमें ये क्या है (इशारे से समझाते हुए), चेतना बहुत नीचे गिरी, चेतना थोड़ी सी ऊपर उठी, चेतना नीचे गिरी, चेतना ऊपर उठी। ठीक है? कष्ट बहुत बढ़ गया, कष्ट थोड़ा कम हो गया और इतने में ही हमारा मन और जीवन (इशारे से समझाते हुए) गति करता रहता है, पेंडुलम की तरह।
और इतने सालों से वो इसी क्षेत्र के भीतर गति कर रहा है कि हमें ये भरोसा आ गया है कि साहब यही तो है इसके आगे कुछ होता नहीं। कुछ बहुत अच्छा हो जाएगा। आपको कोई आता है बोलता है, ‘कुछ बहुत अच्छा हो सकता है, कुछ बहुत अच्छा हो सकता है।‘ तो आपको लगता है कि जो अच्छा होगा, वो भी अधिक-से-अधिक कितना अच्छा होगा। जो इसकी (इशारे से दायरे की सीमा दिखते हुए) ऊपरी सीमा है, अपर लिमिट है, बस इतना ही अच्छा होगा। क्योंकि हमें ये पूरा भरोसा आ गया है कि जीवन बस इन्हीं दो सीमाओं के मध्य बीतने वाली कोई घटना है।
तो मैं आपसे कहूँ कि अनन्त सुख, अनन्त आनन्द, उपनिषद् बार–बार बोलते हैं सच्चिदानन्द घन, तो भी मन क्या उसमें से अर्थ निकलता है कि बहुत आनन्द होगा तो भी कितना होगा? वो जो हमारे सीमित अनुभवों का दायरा है उसकी ऊपरी सीमा तक ले जाओगे। तो मन कहता है, 'रहने दो वो तो ऐसे ही बीच–बीच में कभी-न-कभी मिल ही जाता है।'
इसी तरीके से जब आपको कहा जाता है कि आप नार्कीय कष्ट में जी रहे हैं। आपको पता भी नहीं है कि भीतर ही भीतर हम कितने बन्धन में हैं इसीलिए कितने दुखी हैं। तो हम अनुमान क्या लगाते हैं कि बहुत हमें दुख होगा भी अगर या हमारे कर्मों के कारण आगे कर्मफ़ल का हमें बहुत दुख मिलेगा भी तो अधिक-से-अधिक कितना मिल जाएगा? ये जो हमने विस्तार बनाया है, ये रेंज इसकी निचली सीमा तो हमें फिर बहुत भय लगता नहीं। हम कहते हैं कि, ‘जितने दुख का तुम हमको डर दिखा रहे हो उतना दुख तो हम चौबीस में से पन्द्रह घंटे रोज़ झेलते हैं, डरा किसको रहे हो, उतने दुख में तो हम जी ही रहे हैं।‘
ये समझ में आई बात?
तो फिर सत्र का उद्देश्य क्या होता है? सत्र का उद्देश्य होता है आपका इन सीमाओं पर जो भरोसा है उन भरोसे को तोड़ देना। मेरा काम है आपको कुछ क्षण ऐसी शान्ति के या स्पष्टता के अनुभूत कराना जो आपको आपके रोज़मर्रा के जीवन में नहीं मिलते। साथ-ही-साथ मैं ये जानता हूँ कि वो क्षण सिर्फ़ कुछ क्षण हैं, बीत जाएँगे।
मैं चाहता हूँ कि वो बीत जाएँ ताकि जैसे आप इसकी ऊपरी सीमा से ऊपर गए थे शान्ति में, वैसे ही जब वो क्षण बीत जाएँ तो फिर आप इसकी निचली सीमा से नीचे गिरो अशान्ति में। आपको अब कुछ पता लग गया है और अब आप अपनेआप से नहीं कह सकते कि आपको नहीं पता। आपने अब कुछ देख लिया है आप उसे अनदेखा नहीं कर सकते, आपने कुछ सुन लिया है आप उसे अनसुना नहीं कर सकते, कुछ जान लिया है आप अब उसे अनजाना नहीं कर सकते। अब कोई आपसे कहे कि नहीं शान्ति सम्भव ही नहीं होती ज़िन्दगी में तो आप मान नहीं पाएँगे क्योंकि आपने उस शान्ति का स्वाद चख लिया है।
कोई आपसे कहे कि स्पष्टता जीवन में सम्भव ही नहीं होती तो अब आप मान नहीं पाएँगे क्योंकि आपने उस स्पष्टता के दर्शन करे हैं, भले ही झाँकी तौर पर। लेकिन उस स्पष्टता का कुछ तो आपको अनुभव मिला न? और वो अनुभव अब जाएगा बीत, वो अनुभव अब समाप्त हो जाएगा।
तो आप इन दोनों (सीमाओं को इशारे से समझाते हुए) के भीतर गति करते रहते थे ऐसे फ्लक्चुएट (उतार-चढ़ाव) अब आप यहाँ पहुँच गए इससे(ऊपरी सीमा को दिखते हुए) ऊपर, मैं चाहता हूँ अब आप यहाँ से गिरें और इससे (निचली सीमा को दिखते हुए) नीचे जाएँ। आप बाहर निकलें तो आपको घोर अशान्ति का अनुभव होना चाहिए, आपमें एक बेचैनी पैदा होनी चाहिए बाहर निकलकर। वो बेचैनी ही आपकी उन्नति की ऊर्जा बनेगी। जो बातें आपको सामान्य लगती थी अभी तक वो आपको अब असामान्य लगनी चाहिएँ। जिस माहौल में आप शान्त रहे आते थे अभी तक वो माहौल अब आपको घोर अशान्ति में डाल दे। तभी तो विद्रोह करेंगे न आप, तभी तो कुछ बदलेंगे।
नहीं तो फिर जैसा जीवन चल रहा था इस शिविर से पूर्व, वैसा ही चलेगा इसके पश्चात, फ़ायदा क्या हुआ यहाँ आने का। बात समझ रहे हो? जिसके पास जन्म से ही आँखें नहीं होती उसका दुख भी सीमित होता है। जिसने देखा ही न हो उसको अटपटा तो थोड़ा लगता है, दुख भी होता है कि सब लोग बताते हैं कि दृष्टि जैसी, दृश्य जैसी कोई चीज़ होती है। पर उसको तो कुछ पता ही नहीं कि दृश्य माने क्या, रंग उसके लिए सिद्धान्त भर भी नहीं है।
आप बोलते हैं उसे लाल-पीला, वो बोलता है लाल कैसा होता है? लाल कैसा होता है, लाल क जैसा होता है या ख जैसा होता है? अब वो रंगों को ध्वनि के माध्यम से समझना चाहता है। लाल कैसा होता है? लाल चौकोर जैसा होता है, गोल जैसा होता है? वो रंगों को आकारों के माध्यम से समझना चाहता है।
तो उसको कोई बहुत तकलीफ़ नहीं है क्योंकि उसने कभी कुछ देखा ही नहीं था। पर वो कुछ देख ले हफ़्ते, दस दिन, बीस दिन उसके बाद आप उसकी दृष्टि पुनः वापस ले लें अब उसे बहुत तकलीफ़ होगी क्योंकि अब वो जान गया सम्भव क्या है। उसे अपनी सम्भावना अपने पोटेंशियल के कुछ दर्शन हो गए हैं।
आपको भी अभी कुछ पता चल गया है, बस थोड़ा सा, कि जीवन में क्या पोटेंशियल सम्भव है। अब आप ये नहीं कह पाएँगे कि जो चल रहा है चलने दो। अब आपको खीज उठेगी, चिढ़ लगेगी कि अगर उतनी ऊँचाई सम्भव है तो हम इतनी नीचाइयों में क्यों जी रहे हैं।
मैं चाहता हूँ कि आपके भीतर वो हो। आपको शान्ति अनुभव हुई आपने मुझे धन्यवाद दिया। अशान्ति अनुभव होगी आप धन्यवाद नहीं देंगे लेकिन धन्यवाद पाने के लिए मैं ये काम कर भी नहीं रहा। तो असली बात ये है कि ज़िन्दगियाँ बदलें, जो जितना ऊँचा उठ सकता है उठे, हैं न?
मेरे प्रति आप बड़ी से बड़ी क्रूरता ये ही कर सकते हैं कि जैसे आए थे वैसे ही वापस चले जाएँ या वापस जाकर के वैसी ही ज़िन्दगी दोबारा शुरू कर दें जैसी सदा से चल रही है। ये मत करिएगा, बुरा लगता है।