भरवासा की आशनाई दा, डर लगदा बेपरवाही दा।
~ बुल्लेशाह
आचार्य प्रशांत: आशिकी का क्या भरोसा; बेपरवाही से डर लगता है। वो बेपरवाह है, बुल्लेशाह हों, नानक हों, और कोई भी ‘जानने’ वाला हो, सभी ने यही जाना है: बेपरवाही उसका स्वभाव है। बुल्लेशाह कह रहे हैं, ‘भरोसा की आशनाई दा, डर लगदा बेपरवाही दा’।
दो तल पर डर है: हम तो हो गए उसके आशिक़, और वो रहा बेपरवाह। उसकी आशिकी ऐसी कि कहते हैं न कबीर: ऐसा रंगा रंगरेज ने, लालम लाल कर दीनी , कि वो जैसा है, वैसा ही हमको कर देगा। वो बेपरवाह है, तो हमें भी हो ही जाना है। और जो उसके इश्क में पड़ा, उसी के जैसा बेपरवाह न हो जाये, ऐसा होता नहीं। डर लगता है मेरा होगा क्या, क्योंकि ‘मैं’ तो परवाहों का ही पिंड हूँ। परवाह माने: फिक्र, चिंता, उलझन, परेशानी, गम्भीरता, महत्व। मैं और हूँ क्या? जो इसकी परवाह करता है, उसकी परवाह करता है, ये हासिल करना है। और अब लग गया इश्क का तीर! और खत्म होते जा रहे हैं, मरते जा रहे हैं, दिल में आ के लगा है बिल्कुल! बेपरवाह होते जा रहे हैं।
हम मिटते जा रहे हैं, मिटते जा रहे हैं, डर लगता है। जो कोई मिट रहा है, सम्भव ही नहीं है कि उसको ये डर न लगा हो, न लगता हो। कभी-कभी तो बहुत ही ज़ोर से लगता है, ‘मेरा होगा क्या! ये किस रास्ते जा रहा हूँ!’ ऐसा लगता है जैसे अचानक से किसी ने गला पकड़ लिया हो। अचानक से जैसे कुछ याद आ गया हो कि कुछ छूट रहा है, कुछ छूट रहा है। जैसे तुम किसी के साथ गाते-गाते चले जा रहे हो और बहुत दूर निकल गए हो, तभी अचानक गीत टूटे और तुम खौफ़ में इधर-उधर देखो कि गाते-गाते आ कहाँ गए, ऐसा-सा डर।
एक तो डर है कि, ‘मैं गया, मैं गया!’। वो बेपरवाह, उसके साथ हुआ मैं बेपरवाह, और था ‘मैं’ सिर्फ़ परवाह, ‘मैं’ गया! और दूसरा कि मैं जब बेपरवाह हुआ तो फ़िर इस पूरे संसार का क्या होगा? क्योंकि इससे जो मेरे सारे सम्बन्ध थे, वो परवाहों के ही थे।
दो ही तरह के सम्बन्ध होते हैं, या तो आशिकी के या परवाह के; या तो प्रेम के या डर के — आशिकी माने प्रेम, परवाह माने डर। दुनिया से हमारे सारे सम्बन्ध होते ही परवाह के हैं। प्रमाण चाहते हो तो ये देख लो कि तुम परवाह करना छोड़ दो, तो भी वो सम्बन्ध बचेगा क्या? तुम दो-दिन परवाह न करो तो सम्बन्ध खिंच जायेगा, दो महीने न करो तो टूट जायेगा। और उसका प्यार, ‘उसका प्यार’ माने क्या? सत्य की ओर जाना, और कुछ खास नहीं। उसका प्यार तुम्हें बना देगा बेपरवाह।
ज़िम्मेदारी का जो वास्तविक अर्थ जान लेता है, वो दुनिया की नजरों में गैर ज़िम्मेदार हो जाता है।
पहला तो ये कि ‘मैं’ गया। जिन ख्यालों के साथ जीता था, जो अपनी पूरी छवि बना रखी थी, अपनी ही नजरों में ‘मै’ जो था, जो मेरा पूरा आंतरिक विश्व था, गया!
और दूसरा, जो अपने आसपास संसार इकट्ठा कर रखा था, लोग इकट्ठे कर रखे थे, ये भी गए!
अब आशिक के लिए बड़ी एक समस्या पैदा होती है, क्या?
अन्दर-अन्दर जो हुआ, वो तो तुम्हारे और परमात्मा के बीच की बात है। तुम जानते हो क्या हुआ, तुम जानते हो सभी कुछ बदल गया, लेकिन बाहर की दुनिया में लोगों को एक चीज़ दिख रही है जो बदली नहीं, क्या? तुम्हारा शरीर।
शरीर रूप में तो तुम अभी भी वही हो जो तुम पहले थे। जैसी शक्ल तुम्हारी साल भर पहले थी, आज उससे कोई खास भिन्न तो नहीं हो गई है। और जो भिन्नता आई भी है, उसको देखने के लिए पारखी आँखें चाहिए, जो दुनिया के पास अकसर होती नहीं। तो दुनिया की नज़रों में तुम अभी भी वही हो जो पहले थे। और बदल तुम गए हो, बेपरवाही आ गयी है। अब अड़चन पैदा होती है! अब आरोप लगते हैं। वो कहते हैं, ‘तू, तू होकर के, वैसा ही क्यों नहीं है जैसा तू था?’, अब हम उन्हें कैसे बताएं, कि शरीर के अलावा और कुछ अब बचा ही नहीं। बाकी तो सब ‘वो’ ले गया, हर ले गया; तभी तो हरि कहलाता है। अब ये दांत हैं जो पहले जैसे दिखते हैं, और आँख, कहो तो तोड़ डालें! तुम ऐसे अंधे हो कि तुम्हें हमारे आँख-कान-दाँत-हाथ के अलावा कुछ नज़र ही नहीं आता! तुम्हें समझ ही नहीं आता कि मन अब वो रहा ही नहीं जैसा था। तो फ़िर हमसे उम्मीदें भी वैसी क्यों करते हो जो पहले थीं। पर दुनिया इस बात को समझती ही नहीं, अड़चनें पैदा करती है, तो गाते हैं बुल्लेशाह, ‘भरोसा कि आशनाई दा, डर लगदा बेपरवाही दा’।
उसकी आशनाई सब के लिए नहीं है। जो दोनों ओर से मारे जाने को तैयार हों, वही कदम बढाएं। पहली समस्या भीतर-भीतर होगी, तुम्हारे लक्ष्य बदलेंगे, तुम्हारा होना बदलेगा, तुम्हारे विचार बदलेंगे, पसंदें बदलेंगी, ज़रूरतें बदलेंगी, उपलब्धियों का ख्याल बदलेगा; और दूसरा बदलाव बाहर होगा, दुनिया वालों के साथ रिश्ते-नाते बदलेंगे। लोगों का देखने का तरीका बदलेगा। और दोनों ही तरफ़ उलझन है, क्योंकि बहुत लम्बा समय तुम यूँ ही जीए हो, ऐसे ही, एक तरीके से। वो तरीका झूठा था, पर चला लम्बा है। अब जब सच सामने आता है तो उसके सामने एक लम्बा फैला हुआ विस्तृत झूठ है। और झूठ जितना लम्बा-चौड़ा हो गया होता है, उसमें तुम्हारे दांव उतने ही ऊँचे हो गए होते हैं। तुम्हारे स्वार्थ उसमें उतने ही गहरा गए होते हैं, तुमने उसमें गहरे निवेश कर दिए होते हैं, निवेश।
तुम बीस-साल से एक रिश्ते को खाद और पानी डालते आ रहे थे, आज तुमको दिखाई दिया, उसमें जड़ ही नहीं थीं। तुम बीस-साल से एक ऐसे पौधे को सींच रहे थे जो बिना मूल का है, तुम्हारा निवेश है। बीस-साल तुमने उसमें लगाये हैं। दिक्कत तो होगी, डर तो लगेगा। तुम कहोगे: जो दिखता है, नकली ही दिखता है। इससे अच्छा तो दिखे ही न! हम नहीं देखेंगे और शुरू-शुरू में ये होता भी है। दिखने वाले को जब नया-नया दिखना शुरू करता है, तो अक्सर उसे यही बहतर लगता है कि आँख बंद कर लो। कुछ दिन तक तो कर भी लेता है, भाग जाता है; योग-भ्रष्ट। आया, शुरू किया, आगे बढ़ा, फ़िर भाग गया! वो भागा ही इसीलिए क्योंकि शुरुआत हो गयी थी। शुरुआत न हुई होती, तो भागता नहीं। पर फिर धीरे-धीरे लौट के आता है, समझ जाता है कि अब भागना व्यर्थ है, फंस गए। अब तो दिख गया सो दिख गया, अनदेखा कैसे करें? कैसे भूल जाएँ कि सच क्या है? कैसे सो जाएँ दोबारा अब, तो जाग ही गए। पता नहीं कौन था कमबख्त जिसने जगा दिया, पर अब करें क्या? आँख बंद कर-कर के भी अब नींद आती नहीं। दो-बार, चार-बार करवट बदली, मुंह पर रजाई डाली, तकिये में मुंह डाला, नींद अब आ ही नहीं रही!
जगा गया!
फ़िर मुँह डालते ही सही, धीरे-धीरे बिस्तर से उतरते हो, बाहर आते हो, चमक रहा है वो, फ़िर भूल जाते हो कि कभी सोये भी थे। फ़िर भूल जाते हो कि कभी सपनों में खोये भी थे। फ़िर नया जीवन है, फ़िर सारे डर-वर गए! जाने दो!
डर लगेगा। जब बुल्लेशाह को लग रहा है, तो लगेगा।
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।